चारित्र के ५ भेद हैं—
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात।
षट्खंडागम पु. ३ से चारित्र के पाँच भेदों का वर्णन किया है—
सूत्रार्थ-सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर-सांपरायिकप्रविष्ट उपशामक और क्षपक गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में जीव ओघप्रमाण के समान संख्यात हैं।।१४९।।
हिन्दी टीका-इस सूत्र का अर्थ भी सरल है। द्रव्यार्थिक नय के अवलम्बन से ‘‘ मैं सर्व सावद्ययोग से विरत हूँ ’’ इस प्रकार एक यम-नियम को जिन्होंने स्वीकार कर लिया है, वे सामायिकशुद्धिसंयत कहे जाते हैं तथा वे ही जीव पर्यायार्थिक नय के अवलम्बन करने की अपेक्षा तीन, चार और पाँच आदि भेदरूप से पहले के ग्रहण किये गये यम-संयम को भेदरूप से स्वीकार करते हुए छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत कहे जाते हैं इसलिए ये दोनों राशियाँ ओघराशि के प्रमाण से भेद को प्राप्त नहीं होती हैं, इसलिए ओघपना बन जाता है। यहाँ छेद शब्द से भेद ग्रहण करना चाहिए न कि प्रायश्चित्त को लेना है।
एवं प्रथमस्थले सामान्यसंयत-द्विविधसंयतगुणस्थानप्रमाणनिरूपणपरत्वेन द्वे सूत्रे गते।
यहाँ यह जानना चाहिए कि जो सामायिकशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापना शुद्धिसंयत होते है तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं अतएव उक्त दोनों राशियों के ओघपना बन जाता है। यहाँ दोनों नयों में सापेक्षता है। द्रव्यार्थिक नय से अथवा अभेदरूप से एकमात्र सामायिकसंयमधारी जो जीव हैं, वे ही पर्यायार्थिक नय से अथवा भेदरूप से छेदोपस्थापना संयम के धारी होते हैं।
इस प्रकार प्रथमस्थल में सामान्य संयत और दोनों प्रकार के संयतों का गुणस्थानों में प्रमाणनिरूपण करने वाले दो सूत्र पूर्ण हुए।
संप्रति परिहारशुद्धिसंयतगुणस्थानसंख्यानिरूपणाय सूत्रावतारो भवति-
सूत्र—परिहारसुुद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा।।१५०।।
अब परिहारशुद्धिसंयत जीवों की गुणस्थान में संख्या निरूपण करने के लिए सूत्र का अवतार होता है-
सूत्रार्थ-परिहारशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।।१५०।।
हिन्दी टीका-यह सूत्र सरल है। इन संयतों का प्रमाण ओघसंयतों के प्रमाण को प्राप्त नहीं होता है। तो भी वे कितने हैं? ऐसा प्रश्न होने पर वे संख्यात हैं, ऐसा कहा गया है क्योंकि वे परिहारशुद्धिसंयत तीन कम सात हजार होते हैं।
अब चतुर्थ संयम के धारी जीवों का प्रमाण निरूपण करने हेतु सूत्र का अवतार होता है-
सूत्रार्थ-
सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपकजीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणा के समान हैं।।१५१।।
हिन्दी टीका-सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धि वाले संयत जीवों में दशवें गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धि- संयत उपशमक और क्षपक द्रव्यप्रमाण से कितने होते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर ‘ओघ’ ऐसा कहने से उनका प्रमाण तीन कम नौ सौ होता है।
विशेषार्थ-धवला टीका में श्री वीरसेन स्वामी ने इन सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानवर्ती जीवों की सूक्ष्मराग अवस्था बताते हुए उनकी संख्या बताई है-
अर्थात् जिस संख्या की आदि में सात, अन्त में छह और मध्य में दो बार नौ है, उतने अर्थात् छह हजार नौ सौ सत्तानवे परिहारविशुद्धि संयत हैं तथा जिस संख्या की आदि में सात, अन्त में आठ और मध्य में नौ है उतने अर्थात् आठ सौ सत्तानवे सूक्ष्मराग वाले हैं।
इस प्रकार तृतीय स्थल में सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती संयमियों की संख्या निरूपण करने वाला एक सूत्र पूर्ण हुआ।
अधुना यथाख्यातचारित्रवतां संख्यानिरूपणाय सूत्रमवतरति-
अब यथाख्यातचारित्रधारी जीवों की संख्या निरूपण के लिए सूत्र अवतरित होता है-
सूत्रार्थ-
यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों में ग्यारहवें, बारहवें , तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों का प्रमाण ओघप्ररूपणा के समान है।।१५२।।
हिन्दी टीका-यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवों में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीव ओघवत् प्रमाण वाले हैं।
विशेष-श्रीगौतमस्वामी के भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में प्रवचन करते समय ३० वर्ष तक छठे—सातवें गुणस्थान में सामायिक—छेदोपस्थापना ये दो संयम थे। परिहारविशुद्धिसंयम गणधरदेवों के नहीं हो सकता, क्योंकि मन:पर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धिसंयम एक साथ नहीं होते हैं। अनन्तर जिस दिन भगवान महावीर स्वामी कार्तिक कृ. अमावस्या को प्रात: मोक्ष गये हैं उसी दिन सायंकाल में श्री गौतमस्वामी ने क्षपकश्रेणी पर आरोहण कर सूक्ष्मसांपराय नाम के दशम गुणस्थान में सूक्ष्मसांपाराय संयम प्राप्त कर बारहवें गुणस्थान में यथाख्यातसंयम प्राप्त कर घातिया कर्मों का नाश कर तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। यहाँ चारित्र और संयम पर्यायवाची शब्द हैं।
बादर संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्धकों का, जो संयम के विरोधी नहीं हैं, उदय होते हुए सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशिुद्धि ये तीन संयम होते हैं। इनमें से परिहारविशुद्धि तो प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में ही होता है। शेष दोनों अनिवृत्तिकरण पर्यन्त होते हैं। सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त संज्वलन लोभ का उदय होते हुए सूक्ष्मसाम्पराय नामक संयमगुण होता है।।४६७।।१
यथाख्यातसंयम नियम से मोहनीय के उपशम से अथवा सम्पूर्ण क्षय से होता है, ऐसा जिनदेव ने कहा है।।४६८।।
सामायिक संयम भेदरहित सकल पापों से निवृत्तिरूप है। यह अनुत्तर है अर्थात् इसके समान अन्य नहीं है, सम्पूर्ण है और दुरवगम्य है अर्थात् बड़े कष्ट से यह प्राप्त होता है। उस सामायिक को धारण करने वाला जीव सामायिक संयमी होता है।।४७०।।
सामायिक संयम को धारण करने के पश्चात् उससे च्युत होकर सावद्य क्रिया में लगा जो जीव इस पुराने सावद्यव्यापाररूप पर्याय का प्रायश्चित्त के द्वारा छेदन करके अपने को व्रतधारण आदि पाँच प्रकार के संयमरूप धर्म में स्थापन करता है, वह छेदोपस्थापना संयम वाला होता है। छेद अर्थात् प्रायश्चित्त करने के द्वारा जिसका उपस्थापन होता है, वह छेदोपस्थापन है; ऐसी निरुक्ति है। अथवा प्रायश्चित्त के द्वारा अपने किये हुए दोषों को दूर करने के लिए पूर्वकृत तप को उसके दोषों के अनुसार छेदन करके जो आत्मा को निर्दोष संयम में स्थापित करता है, वह छेदोपस्थापक संयमी है। अपने तप का छेद होने पर जिसका उपस्थापन होता है, वह छेदोपस्थापन है। इस प्रकार अधिकरणपरक व्युत्पत्ति है।।४७१।।
जो पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होकर सदा ही प्राणिवध से दूर रहता है, वह सामायिक आदि पाँच संयमों में से परिहारविशुद्धि नामक एक संयम को धारण करने से परिहारविशुद्धि संयमी होता है।।४७२।।
जन्म से तीस वर्ष तक सर्वदा सुखपूर्वक रहते हुए उसे त्याग दीक्षा ग्रहण करके वर्षपृथक्त्वपर्यन्त तीर्थंकर के पादमूल में जिसने प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व को पढ़ा है, वह परिहारविशुद्धि संयम को स्वीकार करके सदा काल तीनों सन्ध्याओं को छोड़कर दो कोस प्रमाण विहार करता है, रात्रि में विहार नहीं करता, वर्षाकाल में उसके विहार न करने का नियम नहीं रहता, वह परिहारविशुद्धि संयमी होता है। परिहरण अर्थात् प्राणििंहसा से निवृत्ति को परिहार कहते हैं। उनसे विशिष्टशुद्धि जिसमें है, वह परिहारविशुद्धि है। वह संयम जिसके होता है, वह परिहारविशुद्धि संयमी है। उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है; क्योंकि कम से कम इतने काल पर्यन्त ही उस समय में रहकर अन्य गुणस्थानों में चला जाता है। उत्कृष्ट काल अड़तीस वर्ष कम एक पूर्व कोटि है, क्योंकि उत्पत्ति दिन से लेकर तीस वर्ष सदा सुख से बिताकर संयम धारण करके वर्षपृथक्त्व तक तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान पढ़ने के पश्चात् परिहारविशुद्धि संयम स्वीकार करना होता है। कहा है—‘परिहारविशुद्धि ऋद्धि से संयुक्त जीव छह काय के जीवों से भरे स्थान में विहार करते हुए भी पाप समूह से वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे कमल का पत्ता पानी में रहते हुए भी पानी से लिप्त नहीं होता।।४७३।।
सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त लोभ कषाय के अनुभाग को अनुभव करने वाला उपशमक या क्षपक जीव सूक्ष्मसाम्पराय होता है। सूक्ष्म साम्पराय अर्थात् कषाय जिसकी है वह सार्थक नाम वाला महामुनि यथाख्यात संयमियों से िंकचित् ही हीन होता है।।४७४।।
अशुभ मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षय हो जाने पर उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ अथवा सयोगी और अयोगी जिन यथाख्यात संयमी होते हैं। स्ामस्त मोहनीय कर्म के उपशम अथवा क्षय से आत्मस्वभाव की अवस्थारूप लक्षण वाला यथाख्यात चारित्र कहलाता है।।४७५।।
प्रमत्तादि चार गुणस्थानवर्ती जीवों का जितना जोड़ है, उतने ही सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी होते हैं। सो प्रमत्तसंयत पाँच करोड़ तिरानबे लाख, अट्ठानवे हजार दो सौ छह-५९३९८२०६, अप्रमत्तसंयत दो करोड़ छियानबे लाख, निन्यानबे हजार एक सौ तीन-२९६९९१०३, उपशम श्रेणी वाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती दो सौ निन्यानवे-२९९, उपशमश्रेणि वाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती दो सौ निन्यानवे-२९९, उपशम श्रेणिवाले अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती दो सौ निन्यानवे-२९९, क्षपक श्रेणिवाले अपूर्वकरण पाँच सौ अठानबे-५९८, क्षपकश्रेणि वाले अनिवृत्तिकरण पाँच सौ अट्ठानबे-५९८, इन सबका जोड़ आठ करोड़, नब्बे लाख, निन्यानबे हजार एक सौ तीन-८९०९९१०३ इतने जीव सामायिक संयमी और इतने ही छेदोपस्थापना संयमी होते हैं। दोनों की संख्या समान होती है। परिहार-विशुद्धि संयतों की संख्या तीन कम सात हजार—६९९७ है। सूक्ष्मसाम्पराय संयमियों की संख्या तीन कम नौ सौ—८९७ है। यथाख्यात संयतों की संख्या तीन कम नौ लाख—८९९९९७ है।।४८०।।
तीन कम नव करोड़ मुनियों की संख्या
इस प्रकार प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर अयोगीजिन (चौदहवें गुणस्थान)पर्यन्त तीन कम नौ करोड़ मुनियों की संख्या हो जाती है।
धवला टीका में श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है-
‘‘ इस प्रकार प्ररूपण की गई सम्पूर्ण संयत जीवों की राशि को एकत्रित करने पर कुल संख्या आठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे (८९९९९९९७)होती है।’’
अन्यत्र ग्रंथ में भी इसी प्रकार का कथन आया है-
गाथार्थ-सात का अंक आदि में और अंत में आठ का अंक लिखकर दोनों के मध्य में छह बार नौ के अंक लिखने पर ८९९९९९९७ तीन कम नौ करोड़ संख्याप्रमाण सब संयमियों को मैं हाथों की अंजलि मस्तक से लगाकर मन-वचन-काय की शुद्धि से नमस्कार करता हूँ।