इस प्रकार श्रेणिक राजा के प्रश्न के अनुसार इन्द्रभूति गणधर ने वचनरूपी किरणों के द्वारा अन्त:करण के अन्धकार समूह को नष्ट करते हुए यह हाल कहा। उन्होंने यह भी कहा कि भगवान् महावीर भी बहुत से देशों में विहार करेंगे।।४९७-५०८।। अन्त में वे पावापुर नगर में पहुँचेगे वहाँ के मनोहर नाम के वन के भीतर अनेक सरोवरों के बीच में मणिमयी शिला पर विराजमान होंगे। विहार छोड़कर निर्जरा को बढ़ाते हुए वे दो दिन तक वहाँ विराजमान रहेंगे और फिर कार्तिककृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय स्वातिनक्षत्र में अतिशय देदीप्यमान तीसरे शुक्लध्यान में तत्पर होंगे। तदनन्तर तीनों योगों का निरोधकर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को धारण कर चारों अघातिया कर्मों का क्षय कर देंगे और शरीर रहित केवलगुणरूप होकर एक हजार मुनियों के साथ सबके बड़ा पुरुषार्थ होगा—उनके पुरुषार्थ की वही अन्तिम सीमा होगी। तदनन्तर इन्द्रादि सब देव आवेंगे और अग्नीन्द्र कुमार के मुकुट से प्रज्वलित होने वाली अग्नि की शिखा पर भगवान् महावीर स्वामी का शरीर रक्खेंगे। स्वर्ग से लाये हुए गन्ध, माला आदि उत्तमोत्तम पदार्थों के द्वारा मोह के शत्रुभूत उन तीर्थंकर भगवान् की विधिपूर्वक पूजा करेंगे और फिर अनेक अर्थों से भरी हुई स्तुतियों के द्वारा संसार-भ्रमण से पार होने वाले उन भगवान् की स्तुति करेंगे। जिस दिन भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त होगा उसी दिन मैं भी घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञानरूपी नेत्र को प्रकट करने वाला होऊँगा और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देता हुआ अनेक देशों में विहार करूँगा।
भगवान महावीर स्वामी का मोक्ष गमन
भगवान महावीर भी निरन्तर सब ओर के भव्यसमूह को संबोध कर पावानगरी पहुँचे और वहाँ के ‘मनोहरोद्यान’ नामक वन में विराजमान हो गये।।१५।। जब चतुर्थकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रहे तब स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमावस्या के दिन प्रात:काल के समय स्वभाव से ही योग निरोधकर घातियाकर्मरूप ईंधन के समान अघातियाकर्मों को भी नष्ट कर बन्धन रहित हो संसार के प्राणियों को सुख उपजाते हुए निरन्तराय तथा विशाल सुख से सहित निर्बन्ध—मोक्ष स्थान को प्राप्त हुए।।१६-१७।। गर्भादि पाँचों कल्याणकों के महान् अधिपति, सिद्धशासन भगवान् महावीर के निर्वाण महोत्सव के समय चारों निकाय के देवों ने विधिपूर्वक उनके शरीर की पूजा की।।१८।। उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलायी हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा।।१९।। श्रेणिक आदि राजाओं ने भी प्रजा के साथ मिलकर भगवान् के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। तदनन्तर बड़ी उत्सुकता के साथ जिनेन्द्र भगवान के रत्नत्रय की याचना करते हुए इन्द्र देवों के साथ-साथ यथास्थान चले गये।।२०।। उस समय से लेकर भगवान के निर्वाणकल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान् महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे। भावार्थ—उन्हीं की स्मृति में दीपावली का उत्सव मनाने लगे।।२१।।