कर्मों के मूल भेद आठ हैं और उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं।।३१०-३११।। प्रकृति आदि के भेद से बन्ध चार प्रकार का जानना चाहिए तथा कर्म उदय में आकर ही फल और बन्ध के करण होते हैं।
भावार्थ— पहले के बँधे हुए कर्मों का उदय आने पर ही उनका सुख-दु:ख आदि फल मिलता है तथा नवीन कर्मों का बन्ध होता है।।३१२।। तुम लोग भक्तिमान् ही, निकटभव्य हो और आगम को जानने वाले हो, इसलिए संसार के कारण स्वरूप-दोष, दु:ख, बुढ़ापा और मृत्यु आदि पापों से भरे हुए इस भयंकर गृहस्थाश्रम को छोड़कर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र इन छहों का अच्छी तरह अभ्यास करो तथा जिनके उपेक्षा आदि भेद कहे गये हैं ऐसे वीतरागादि मुनियों में, जिनके पुलाक आदि भेद हैं ऐसे अनगारादि मुनियों में अथवा प्रमत्तसंयत को आदि लेकर उत्कृष्ट गुणस्थानों में रहने वाले प्रमत्तविरत आदि मुनियों में से किसी एक की अवस्था धारण कर निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के उत्तम मोक्ष की उपासना करो।।३१३-३१६।। इसी प्रकार गृहस्थाश्रम में रहने वाले बुद्धिमान् पुरुष सम्यग्दर्शन पूर्वक दान, शील, उपवास तथा अरहन्त आदि परमेष्ठियों की पूजा करें, शुभ परिणामों से श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करें और यथायोग्य सज्जाति आदि सात परमस्थानों को प्राप्त हों।।३१७-३१८।। इस प्रकार भरतेश्वर ने समीचीन तत्त्वों की रचना से भरी हुई भगवान् की वचनरूप विभूति सुनकर सब सभा के साथ-साथ कही हुई सब बातों को ज्यों की त्यों माना अर्थात् उनका ठीक-ठीक श्रद्धान किया।।३१९।। मति, श्रुत, अवधि-इन तीनों ज्ञानरूपी नेत्रों और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को धारण करने वाला देशसंयमी भरत भगवान् वृषभदेव की वन्दना कर वैâलास पर्वत से अपने उत्तम नगर अयोध्या को आया।।३२०।। इधर तीनों लोकों के स्वामी भगवान् आदिनाथ ने भी धर्म के योग्य क्षेत्रों में समीचीन धर्म का बीज बोकर उसे धर्मवृष्टि के द्वारा खूब ही सींचा।।३२१।। इस प्रकार सज्जनों को मोक्षरूपी उत्तम फल की प्राप्ति कराने के लिए भगवान् ने अपने गणधरों के साथ-साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व विहार किया और जब आयु के चौदह दिन बाकी रह गये तब योगों का निरोध कर पौष मास की पौर्णमासी के दिन श्री शिखर और सिद्धशिखर के बीच में कैलाश पर्वत पर जा विराजमान हुए।।३२२-३२३।। उसी दिन महाराज भरत ने स्वप्न में देखा कि महामेरु पर्वत अपनी लम्बाई सो सिद्धक्षेत्र तक पहुँच गया है।।३२४।। उसी दिन युवराज अर्ककीर्ति ने भी स्वप्न में देखा कि एक महौषधि का वृक्ष मनुष्यों के जन्मरूपी रोग को नष्ट कर फिर स्वर्ग को जा रहा है।।३२५।। उसी दिन गृहपति ने देखा कि एक कल्पवृक्ष निरन्तर लोगों के लिए उनकी इच्छानुसार अभीष्ट फल देकर अब स्वर्ग जाने के लिए तैयार हुआ है।।३२६।। प्रधानमन्त्री ने देखा कि एक रत्नद्वीप, ग्रहण करने की इच्छा करने वाले लोगों को अनेक रत्नों का समूह देकर अब आकाश में जाने के लिए उद्यत हुआ है।।३२७।। सेनापति ने देखा कि एक िंसह वङ्का के पिजड़े को तोड़कर वैâलास पर्वत को उल्लंघन करने के लिए तैयार हुआ है।।३२८।। जयकुमार के विद्वान् पुत्र श्रीमान् अनन्तवीर्य ने देखा कि चन्द्रमा तीनों लोकों को प्रकाशित कर ताराओं सहित जा रहा है।।३२९।। सोती हुई सुभद्रा ने देखा कि यशस्वती और सुनन्दा के साथ बैठी हुई इन्द्राणी बहुत देर तक शोक कर रही है।।३३०।। बनारस के राजा चित्रांगद ने घबड़ाहट के साथ यह स्वप्न देखा कि सूर्य पृथिवीतल को प्रकाशित कर आकाश की ओर उड़ा जा रहा है।।३३१।। इस प्रकार भरत को आदि लेकर सब लोगों ने स्वप्न देखे और सूर्योदय होते ही सबने पुरोहित से उनका फल पूछा।।३३२।। पुरोहित ने कहा कि ये सभी स्वप्न कर्मों को बिल्कुल नष्ट कर भगवान् वृषभदेव का अनेक मुनियों के साथ-साथ मोक्ष जाना सूचित कर रहे हैं।।३३३।।
इस प्रकार पुरोहित उन सबके लिए स्वप्नों का फल कह ही रहा था कि इतने में ही आनन्द नाम का एक मनुष्य आकर भगवान् का सब हाल कहने लगा।।३३४।। उसने कहा कि भगवान् ने अपनी दिव्यध्वनि का संकोच कर लिया है इसलिए सम्पूर्ण सभा हाथ जोड़कर बैठी हुई है और ऐसा जान पड़ता है मानों सूर्यास्त के समय निमीलित कमलों से युक्त सरसी ही हो।।३३५।। यह सुनते ही भरत चक्रवर्ती बहुत ही शीघ्र सब लोगों के साथ-साथ वैâलास पर्वत पर गए, वहाँ जाकर उसने भगवान् वृषभदेव की ती प्रदक्षिणाएँ दीं, स्तुति की और भक्तिपूर्वक अपने हाथ से महामह नाम की पूजा करते हुए वे चौदह दिन तक इसी प्रकार भगवान् की सेवा करते रहे।।३३६-३३७।। माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्र में भगवान् वृषभदेव पूर्वदिशा को मुँहकर अनेक मुनियों के साथ-साथ पर्यंकासन से विराजमान हुए, उन्होंने तीसरे-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नाम के शुक्लध्यान से तीनों योगों का निरोध किया और फिर अन्तिम गुणस्थान में ठहरकर पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण प्रमाण काल में चौथे व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के शुक्लध्यान से अघातिया कर्मों का नाश किया। फिर औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरों के नाश होने से सिद्धत्वपर्याय प्राप्त कर वे सम्यक्त्व आदि निज के आठ गुणों से युक्त हो क्षणभर में ही तनुवातवलय में जा पहुँचे तथा वहाँ पर नित्य, निरंजन, अपने शरीर से कुछ कम, अमूर्त, आत्मसुख तल्लीन में और निरन्तर संसार को देखते हुए विराजमान हुए।।३३८-३४२।। उसी समय मोक्ष-कल्याणक की पूजा करने की इच्छा से सब देव लोग आये उन्होंने ‘‘यह भगवान् का शरीर पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्ष का साधन, स्वच्छ और निर्मल है’’ यह विचारकर उसे बहुमूल्य पालकी में विराजमान किया। तदनन्तर जो अग्निकुमार देवों के इन्द्र के रत्नों की कान्ति से देदीप्यमान उन्नत मुकुट से उत्पन्न हुई है और चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर आदि सुगन्धित पदाथो। और घी, दूध आदि से बढ़ायी गयी है ऐसी अग्नि से जगत् की अभूतपूर्व सुगन्धि प्रकट कर उसका वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी।।३४३-३४६।। गन्ध, पुष्प आदि से जिसकी पूजा की गयी है ऐसे उस अग्निकुण्ड के दाहिनी ओर गणधरों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की और बाँयी ओर तीर्थंकर तथा गणधरों से अतिरिक्त अन्य सामान्य केवलियों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की, इस प्रकार इन्द्रों ने पृथिवी पर तीन प्रकार की अग्नि स्थापित की। तदनन्तर उन्हीं इन्द्रों ने पंचकल्याणक को प्राप्त होने वाले श्री वृषभदेव के शरीर की भस्म उठायी और ‘हम लोग भी ऐसे ही हों’ यही सोचकर बड़ी भक्ति से अपने ललाट पर, दोनों भुजाओं में, गले में और वक्षस्थल में लगायी। वे सब उस भस्म को अत्यन्त पवित्र मानकर धर्मानुराग के रस से तन्मय हो रहे थे।।३४७-३५०।। सबने मिलकर बड़े सन्तोष से आनन्द नाम का नाटक किया और फिर श्रावकों को उपदेश दिया कि ‘हे सप्तमादि प्रतिमाओं को धारण करने वाले सभी ब्रह्मचारियों, तुम लोग तीनों संन्ध्याओं में स्वयं गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियों की स्थापना करो और उनके समीप ही धर्मचक्र, छत्र तथा जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं की स्थापना कर तीनों काल मन्त्रपूर्वक उनकी पूजा करो। इस प्रकार गृहस्थों के द्वारा आदर-सत्कार पाते हुए अतिथि बनो।।३५१-३५४।।