श्री गौतमस्वामी ने धर्म को मंगलस्वरूप और उत्कृष्ट—अनुत्तर सर्वश्रेष्ठ कहा है एवं अिंहसा, संयम और तप को धर्म कह रहे हैं। जिसके मन में यह धर्म है, देवता भी उन्हें नमस्कार करते हैं।
इदानीं धर्मादीनां मलगालनादिहेतुतया परममंगलत्वं प्ररूपयन्नाह। धम्मो इत्यादि। धर्म उक्तलक्षण:। मंंगलं। मलं पापं गालयति विध्वंसयति वा मंगलम्। मंगं वा परमसुखं लात्यादत्त इति मंलगम्। उक्क्ट्ठिं। उत्कृष्टमनुपचरितं परमम्। न केवलं धर्म एव मंगलमपि तु अिंहसा संजमो तवो अिंहसा संयमस्तपश्च। न केवलं मलगालनहेतुरेवायमपि तु पूजादिहेतुरपि। यत: देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो देवा अपि तस्य प्रणमंति यस्य धर्मे सदा मन:।।
श्रीगौतमस्वामी ने चैत्यभक्ति में धर्म की व्याख्या की है—
जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि धर्म हैं वे संपूर्ण गुणों के लिये साधन हैं। संपूर्ण जगत् के प्राणीगण के हित के लिये हेतु है। शुभधाम—मोक्षधाम में धरने वाले—पहुँचाने वाले हैं, ऐसा इस जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित धर्म की मैं वन्दना करता हूँ।
इसी वीरभक्ति में ‘धर्मस्य मूलं दया’ कहा है। अत: इन सभी व्याख्याओं के अनुसार श्री गौतमस्वामी ने धर्म के लक्षण व भेद किये हैं।
यहाँ ‘अिंहसा’ शब्द से श्रावकों के अष्टमूलगुण से लेकर साधुओं के शुद्धोपयोग की अवस्था रूप तक अिंहसा को घटित किया जाता है। श्री अमृतचंद्रसूरि ने ‘पुरुषार्थसिद्ध्युपाय’ में इसी प्रकार लिया है—
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथ से)
अन्वयार्थी—(यत:) क्योंकि (तत्) वह (चारित्रं) चारित्र (समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्) समस्त पापयुक्त मन, वचन, काय के योगों के त्याग से (सकलकषायविमुक्तं) सम्पूर्ण कषायों से रहित (विशदम्) निर्मल, (उदासीनम्) परपदार्थों से विरक्ततारूप और (आत्मरूपं) आत्मस्वरूप (भवति) होता है।
भावार्थ—समस्त कषायों का अभाव होने से यथाख्यातचारित्र होता है। सामायिकचारित्र में यद्यपि सकलचारित्री हुआ था, परन्तु संज्वलनकषाय के कारण मन्दता नहीं गई थी, अतएव जब सकल कषायों से रहित हुआ तब यथाख्यातचारित्र नाम पाया अर्थात् चारित्र का जो स्वरूप था वह प्रकट हुआ।
अन्वयार्थै—(हिंसात:)हिंसा से, (अनृतवचनात्) असत्य भाषण से, (स्तेयात्) चोरी से, (अब्रह्मत:) कुशील से और (परिग्रहत:) परिग्रह से (कार्त्स्न्यैकदेशविरते:) सर्वदेश और एकदेश त्याग से वह (चारित्रं) चारित्र (द्विविधम्) दो प्रकार का (जायते) होता है।
भावार्थ –हिंहसादिक पापों के सर्वथा त्याग को सकलचारित्र और एकदेश त्याग को देशचारित्र कहते हैं।
निरत: कार्त्स्न्यनिवृत्तौ भवति यति: समयसारभूतोऽयम्।
या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको भवति।।४१।।
अन्वयार्थौ—(कार्त्स्न्यनिवृत्तौ) सर्वथा सर्वदेशत्यागमें (निरत:) लवलीन (अयम् यति:) यह मुनि (समयसारभूत:) शुद्धोपयोगरूप स्वरूप में आचरण करने वाला (भवति) होता है। (या तु एकदेशविरति:) और जो एकदेशविरति है, (तस्याम् निरत:) उसमें लगा हुआ (उपासक:) उपासक अर्थात् श्रावक (भवति) होता है।
भावार्थ—सकलचारित्र का स्वामी मुनि और देशचारित्र का स्वामी श्रावक है।
आत्मपरिणामिंहसनहेतुत्वात्सर्वमेव िंहसैतत्।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय।।४२।।
अन्वयार्थाै—(आत्मपरिणामिंहसनहेतुत्वात्) आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणामों के घात होने के हेतु से (एतत्सर्वम्) ये सब (हिंसा एव)हिंसा ही है, (अनृतवचनादि) अनृत्ा वचनादिक भेद (केवलम्) केवल (शिष्यबोधाय) (शिष्यों को समझाने के लिए (उदाहृतं) उदाहरणरूप कहे हैं।
भावार्थ—पाँचों पाप (हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह) हिंसा में ही गर्भित है। क्योंकि इन सब पापों से आत्मा के शुद्ध परिणामों का घात होता है, इस कारण पाँचों पापहिंसा के ही भेद हैं।
अन्वयार्थी—(कषाययोगात्) कषायरूप परिणमन हुए मन वचन काय के योगों से (यत्) जो (द्रव्यभावरूपाणाम्) द्रव्य और भावरूप दो प्रकार के (प्राणानां) प्राणों का (व्यपरोपणस्यकरणं) व्यपरोपण का घात का करना है, (खलु) निश्चय से (सा) वह (सुनिश्चिता) अच्छी तरह निश्चय की हुई (हिंसा)हिंसा (भवति) होती है।
अन्वयार्थी—(खलु) निश्चय करके (रागादीनां) रागादि भावों का (अप्रादुर्भाव:) प्रकट न होना (इति) यह (अिंहसा) अिंहसा है और (तेषामेव) उन्हीं रागादि भावों की (उत्पत्ति:) (हिंसा उत्पत्ति होना )हिंसा (भवति) होती है, (इति) ऐसा (जिनागमस्य) जैनसिद्धान्त का (संक्षेप:) सार है।
भावार्थ—अपने शुद्धोपयोगरूप प्राण का घात रागादिक भावों से होता है, अतएव रागादिक भावों का अभाव ही अिंहसा है और शुद्धोपयोगरूप प्राणघात होने से उन्हीं रागादिक भावों का सद्भाव िंहसा है। परम अिंहसाधर्म प्रतिपादक जैनधर्म का यही रहस्य है।
‘संयम’ पद से यहाँ पाँच प्रकार का चारित्र—सामायिक, छेदोपस्थापना आदि भी लिया जा सकता है। अथवा
पाँच स्थावर व एक त्रस इनकी िंहसा से विरति व पांच इंद्रिय और मन के विषय का त्याग ये १२ प्रकार का संयम ही धर्म है।
इसी प्रकार ‘तवो’ पद से १२ प्रकार के तपों को धर्म कहा है।
श्री कुंदकुंददेव ने एक गाथा में इन सभी धर्मों को ले लिया है।
श्री कुंदकुंददेव ने धर्म का लक्षण बताते हुए कहा है—
वस्तु का स्वभाव धर्म है इस लक्षण के अनुसार आत्मा की वीतराग परिणति ही धर्म है जो शुद्धोपयोगी महामुनि के अनुभव में ही आती है अथवा उत्तम क्षमा आदि दशलक्षणरूप धर्म है अथवा चारित्र ही धर्म है इस लक्षण के अनुसार भी सामायिक आदि पाँच प्रकार का चारित्र धर्म है या पाँच महाव्रत आदिरूप तेरह प्रकार का चारित्रधर्म है। गृहस्थ का विकल चारित्र तो एक देशधर्म है जो कि व्यवहार चारित्र ही है। प्रवचनसार के अनुसार तो मोह, क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध परिणति ही धर्म है जो कि शुक्लध्यान में ही संभव है अथवा जीवों की रक्षा करना धर्म है। यह जीवदया लक्षण धर्म ही आजकल के श्रावक और मुनियों में पाया जाता है। बाकी के धर्म तो कुछ-कुछ रूप में ही पाये जाते हैं।
जीवदया धर्म है, यह श्रावक और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। वही धर्म उत्कृष्ट रत्नत्रय के भेद से तीन प्रकार का है तथा उत्तम क्षमा, मार्दव आदि के भेद से दश प्रकार का है फिर भी मोह के निमित्त उत्पन्न हुए मानसिक विकल्प से रहित, वचन एवं शरीर के संसर्ग से भी रहित जो शुद्ध आनंद- रूप आत्मा की परिणति है उसे ही ‘धर्म’ इस नाम से कहा जाता है।
‘उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:’ जो उत्तम सुख में पहुँचाता है वह धर्म है। वह मुख्य रूप से तो जीवदया रूप ही है पुन: अणुव्रत, महाव्रत, रत्नत्रय और दशधर्म रूप जो भी धर्म हैं वे सब इस जीवदया के ही विस्तार हैं। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में श्रीअमृतचंद्रसूरि ने असत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सबको अहिंसा की रक्षा के लिए ही बतलाया है। जैसे कि-
आत्मा के परिणामों की हिंसा में कारण होने से सभी अन्य पाप हिंसारूप ही हैं। जो झूठ, चोरी आदि पाप कहे हैं वे केवल शिष्यों को समझाने के लिए उदाहरणरूप में कहे गये हैं।
अत: यह ‘दयाधर्म’ गृहस्थ के अष्टमूलगुण या अणुव्रत से लेकर मुनियों के महाव्रत, रत्नत्रय और दशधर्म तक व्याप्त है और इससे भी आगे स्वदयारूप से निश्चयधर्म में भी व्याप्त है।