’ समिति में प्रवृत्त हुये मुनि जो प्राणी हिंसा और इन्द्रिय विषयों का परिहार करते हैं सो संयम है।’’
संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रिय तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। हे भगवन्! जीवों से ठसाठस भरे हुये इस संसार में मैं कैसे प्रवृत्ति करूँ ? कैसे बोलूँ ? और कैसे भोजन करूँ ? कि जिससे पाप का बंध नहीं होवे ? इस प्रकार से प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि यत्नपूर्वक आचरण करो, यत्नपूर्वक भाषण और भोजन करो तथा यत्नपूर्वक सम्पूर्ण क्रिया करने से तुम्हें पाप का बंध नहीं होगा। देखो ! सीता का जीव जब अच्युतेन्द्र हुआ ‘एक व्रत को धारण करने से रावण मेरे साथ बलात्कार के लिये प्रयत्नशील नहीं हुआ’ ऐसा सोचकर वह अच्युतेंद्र नरक में जाकर रावण को सम्यक्त्व ग्रहण कराकर वैर का त्याग करा देता है। मैं सर्व इंद्रिय और मन को नियन्त्रित करके अपनी आत्मा में स्थित करना चाहता हूँ कि जिससे कर्म और कर्म के फल को भोगता हुआ किंचित् मात्र खेद को न प्राप्त होऊँ।।१ से ५।। प्रतिदिन ऐसी भावना भाते रहना चाहिए।
इस प्रकार से वह संयम पूर्णतया मुनियों के ही होता है किन्तु गृहस्थ भी एक देशरूप से संयम का पालन करते हैं चूँकि उनकी छह आवश्यक क्रियाओं में संयम भी एक क्रिया हैं कुछ न कुछ नियम का लेना एक संयम है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी प्रत्येक कार्य को सावधानीपूर्वक करना संयम है। सावधानीपूर्वक चलना, फिरना, उठना, बैठना भी संयम है। चौराहे की लालबत्ती संयम को सिखाती है जो उसकी उपेक्षा करते हैं वह जीवन को भी खतरे में डाल देते हैं। अभक्ष्य का त्याग कर देना तथा खाने योग्य वस्तु को भी जब तक नहीं खाते, तब तक के लिए छोड़ देना भी संयम है। इसलिये जो रात्रि में सर्वथा आहार का त्याग कर देते हैं तो एक महीने में पंद्रह दिन के उपवास के फल को प्राप्त कर लेते हैं।
‘कुलवांता नाम की एक दरिद्र कन्या ने धर्म बुद्धि से किसी समय एक मुहूर्त तक के लिये अन्न का त्याग कर अनशन धारण कर लिया जिसके फलस्वरूप सल्लेखना से मरणकर किपुरुष नामक देव की क्षीरधारा नामक देवी हुई। कालांतर में इंद्र नाम का विद्याधर होकर निर्वाण को प्राप्त कर लिया२।’
अनंतबल मुनिराज केवली हो गये थे। उनके निकट धर्मोपदेश सुनकर रावण ने व्रत लिया कि ‘जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा।’ कुंभकर्ण ने यह नियम लिया कि ‘मैं प्रतिदिन प्रात:काल अभिषेकपूर्वक जिनेन्द्र देव की पूजा करूँगा और जब तक निर्ग्रन्थ मुनियों की विधिपूर्वक पूजा नहीं कर लूँगा आज से मैं तब तक भोजन नहीं करूँगा१।’ सम्यग्दृष्टि के लिए एक ही व्रत मुक्ति का बीज हो जाता है। रावण की इस प्रतिज्ञा के निमित्त से सीता के जीव इंद्र ने प्रभावित होकर नरक में जाकर उसे सम्यग्दर्शन ग्रहण करा दिया। ‘संयम से युक्त मुनिजन चतुर्थकाल में एक हजार वर्ष में जितने कर्मों की निर्जरा करते थे आज के संयमी मुनि एक वर्ष में उतनी निर्जरा कर लेते हैं चूँकि आजकल संहनन हीन है२।
‘बाबा नो संयम धारण करा, भिऊ नका भिऊ नका। भव्यों! संयम धारण करो डरो मत, डरो मत।’ जब तीर्थंकर महापुरुष संयम धारण करने के सन्मुख होते हैं उस समय किसी कल्याणक में न आने वाले लौकान्तिक देव आकर उनकी पूजा करते हैं उनके वैराग्य की स्तुति करते हैं।
‘अहिच्छत्र के राजा वसुपाल ने ‘सहस्रकूट’ जिनमंदिर बनवा कर पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की, उस पर लेप चढ़ाने के लिए कारीगर बुलाया। वह रोज प्रतिमा पर लेप चढ़ाता था, किन्तु लेप रात्रि में गिर जाता था। तब मुनि ने बताया कि जब यह कारीगर मांस न खाने का व्रत लेगा तब लेप चढ़ेगा। कारीगर के नियम लेकर लेप चढ़ाने के बाद लेप टिक गया।’
इन सब उदाहरणों से संयम का महत्त्व समझकर संयम धर्म को धारण करना चाहिये। समय आरे के समान आयु के क्षणों को काटता चला जा रहा है अत: जल्दी करना चाहिये।
एक राजा ने विशाल वैभव को महान समझते हुए दिगम्बर मुनि से उसके त्याग का कारण पूछा। जब मुनि ने त्याग—संयम में ही सच्चा सुख बतलाया तो उसने भी राज्य वैभव को छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। कथा ऐसी है—
पद्मिनी नामा नगर में किसी समय ‘‘मतिवर्धन’’ नाम के दिगम्बराचार्य चतुर्विध संघ सहित पधारे। उनके संघ में महातपस्वी ज्ञानी और ध्यानी सभी तरह के मुनि धर्मध्यान में परायण थे। ‘‘अनुद्धरा’’ नाम की आर्यिका थीं जो कि सर्व आर्यिकाओं की रक्षा करने में तत्पर गणिनी थीं। वह विशाल संघ वहाँ आकर नगर के बाहर के उद्यान में आचार्य देव की आज्ञा से ठहर गया। उस उद्यान का माली अपने साथियों को साथ लेकर भय से काँपता हुआ पद्मिनी नगरी के महाराजा विजयपर्वत के राजदरबार में पहुँचा और नमस्कार करके निवेदन करने लगा—
‘‘महाराज ! आगे तो बहुत अधिक ऊँची ढालू चट्टान है और पीछे व्याघ्र हैं, बताइये हम किसी की शरण में जायें ?
महाराज ने आश्चर्य युक्त हो पूछा—
‘‘बोलो, बोलो, क्या कह रहे हो ? क्या संकट उपस्थित हुआ है ?’ उन किकरों में प्रमुख वनपाल ने कहा—
‘‘महाराज ! उद्यान की रमणीय भूमि में मुनियों का एक विशाल संघ आकर ठहर गया है। यदि इस संघ को हम मना करते हैं तो शाप को प्राप्त होते हैं और यदि नहीं मना करते हैं तो आप क्रोध को प्राप्त होंगे, इस प्रकार हम लोगों पर बड़ा संकट आ पड़ा है। हे राजन् ! आपके प्रसाद से हम लोगों ने वह उद्यान कल्पवृक्षों के उद्यान के समान बना रखा है। उसमें साधारण पामर मनुष्य प्रवेश भी नहीं कर सकते हैं, किन्तु जो तप के तेज से अत्यन्त दुर्गम हैं ऐसे निर्ग्रंथ मुनियों को देव भी रोकने में समर्थ नहीं हैं फिर भला हम जैसे लोगों के द्वारा उन्हें कैसे रोका जा सकता है ?
यह सुनकर राजा आश्चर्य से युक्त होकर उन लोगों को सान्त्वना देते हुये बोले—
‘‘डरो मत, वे मुनिगण ठहर चुके हैं तो अब कोई बात नहीं है, हम स्वयं ही वहाँ आ रहे हैं।’’
पुन: राजा विशाल वैभव के साथ उद्यान भूमि में पहुँचकर उस चतुर्विध संघ को देखता है। वहाँ पर सभी साधु वन की धूलि से धूसरित हो रहे थे। उनमें से कोई मुनिराज जिनेन्द्र देव की स्तुति, वंदना में तत्पर थे, कोई भुजाओं को लटकाकर जिनमुद्रा से ध्यान कर रहे थे, कोई स्वाध्याय में लीन थे, कोई अध्ययन कर रहे थे, तो कोई महाविद्वान मुनि अन्य साधुओं को सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन करा रहे थे। किन्हीं मुनियों के शरीर बेला, तेला आदि उपवासों से अतिशय क्षीण हो रहे थे फिर भी उनके चेहरे की दीप्ति व उनका अपना उत्साह उनके आत्मबल को, उनके मनोबल को स्पष्ट घोषित कर रहा था।
एक तरफ आर्यिकाओं के समुदाय में भी वन की धूलि से लिप्त एक साड़ी मात्र परिग्रह को धारण करने वाली उन आर्यिकाओं में कुछ आर्यिकायें मधुर स्वर से पाठ गुनगुना रही थीं, कुछ स्वाध्याय क्रिया में तत्पर थीं, कुछ पठन—पाठन में व्यस्त थीं, कहीं पर सिद्धान्त के गूढ रहस्यों का उद्घाटन हो रहा था तो कहीं पर महापुरुषों के चरित्र का बखान चल रहा था।
राजा क्रम—क्रम से सभी साधु—साध्वियों की वंदना करते हुये उनके गुणों से प्रसन्न हो रहे थे। अंत में वे आचार्य देव की वंदना करके उनके निकट बैठकर विनयपूर्वक बोले—
‘‘भगवन् ! आपके शुभ लक्षणों से युक्त जैसी आपकी दीप्ति है वैसे भोग आपके चरण कमल में स्थित क्यों नहीं हैं ?’’
आचार्य देव ने उत्तर दिया—
हे नरश्रेष्ठ! ये संसार के विषयभोग सुखदायी हैं यह कल्पना कहाँ तक सत्य है ? पहले आप इसे समझो तब आपको पता चलेगा कि ये भोग महान् नहीं हैं प्रत्युत इनको तृणवत् समझकर इनका त्याग करने वाले संयमी साधु ही महान् हैं। देखो ! यह जीवन, यह यौवन, यह राज्यसंपदा, यह विशाल वैभव कितने दिन तक टिकने वाला है ? क्या इनमें से कोई भी वस्तु स्थायी शांति दे सकती है ?
राजा गुरुदेव के इन प्रश्नों को सुनकर कुछ क्षण के लिए परमविस्मय को प्राप्त हो गया और और विचार करने लगा कि वास्तव में इनमें से कुछ भी टिकने वाला नहीं है ? पुन:किस वस्तु से सुख की आशा की जाये ? पुनरपि राजा प्रश्न करता है—
‘‘राजन् ! स्थायी वस्तु अपनी आत्मा है और उसका सुख ही सच्चा सुख है। यह शरीर नश्वर है, जड़ है और अनंत दु:खों की खान है।’’
इत्यादि रूप से मुनिपति के मुखकमल से निर्गत धर्मोपदेश को सुनकर राजा संसार के भोगों से विरक्त हो गया और उसी समय वह अपने विशाल वैभव को जीर्ण—तृणवत् त्यागकर तथा संयम धारण कर दिगम्बर मुनि हो गया। उस समय राजा को दीक्षित हुआ देखकर अनेकों भव्य जीवों ने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। जो दीक्षा लेने में अपने को सर्वथा असमर्थ समझ रहे थे ऐसे अनेकों ने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये।
सच है यदि संयम का महत्त्व अधिक न होता तो बड़े—बड़े राजा, महाराजा, चक्रवर्ती और इन्द्र भी मुनियों को नमस्कार क्यों करते !
‘कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तप:।’ कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है।
तप के बाह्य और आभ्यंतर से युक्त बारह भेद कहे गए हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। सम्यक््â तप जीव के संसार समुद्र में पतन को रोक लेते हैं। मनुष्य काय को कृश करके अपने अनंतबल और सुख को प्राप्त कर लेता है। एक रानी ने मय नाम के ऋद्धियुक्त मुनि का स्पर्श करके विष से मूर्छित अपने पति राजा िंसहेंदु का स्पर्श किया जो उसी क्षण वे निर्विष हो गए पुन: उन मुनि की पूजा की। तप के प्रभाव से दीप्त तप, तप्ततप आदि ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं फिर भी वे साधु उनसे निस्पृह रहते हैं अत: वे ‘तपोधन’ इस सार्थक नाम से पुकारे जाते हैं। सम्पूर्ण इच्छाओं का निरोध करके मैं सम्यक््â तप को तपकर ध्यानरूपी अग्नि में कर्म ईंधन को डालकर शुद्ध हो जाऊँगा।।१ से ५।। ऐसी भावना से ही कर्म नष्ट होते हैं।
जो मनुष्य सुखपूर्वक उठता—बैठता और विहार करता है तथा सदा भोजन और वस्त्रों में आसक्त रहता है फिर भी अपने आपको सिद्ध मानता है वह मूर्ख अपने आपकी वंचना करता है।
तीर्थंकरों ने भी पूर्व भव में सिंहनिष्क्रीडित आदि बहुत से व्रत विâए हैं आज कल के मुनि भी उपवास आदि तपश्चरण में महान् सिद्ध होते हैं। देखो! चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने अपने ३५ वर्ष के मुनि जीवन में तमाम व्रत किए हैं जिनके उपवासों के दिनों की संख्या २५ वर्ष छह महीने तक की है और आहार के दिनों की संख्या केवल साढ़े नौ वर्ष की है अन्य—अन्य साधु वर्गों ने भी महीने, पक्ष आदि के उपवास करके अपनी देह से नि:स्पृहता का परिचय दिया है।
श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि ‘जिससे जीव का उपकार होता है उससे शरीर का अपकार होता है और जिससे शरीर का उपकार होता है उससे जीव का अपकार होता है२।- तथा श्री कुंदकुंद देव कहते हैं कि ‘‘जो सुखिया जीवन में तत्त्व की भावना भाते हैं उनका ज्ञान दु:ख आने पर नष्ट हो जाता है अत: दु:ख को बुलाकर आत्मतत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।’’ तथा ‘तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप अकार्यकारी है अत: ज्ञान और तप से युक्त होकर निर्वाण प्राप्त होता है। देखो तीर्थंकर को निर्वाण जाना निश्चित है, दीक्षा लेते ही मन:पर्यय ज्ञान हो जाता है फिर भी वे तप करते हैं, ऐसा जानकर तप करना चाहिए३।’’
इस कथन से उपवास आदि का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। तपश्चरण के प्रभाव से अनेकों ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। मय विद्याधर (मंदोदरी के पिता) मुनि हो गए। ऋद्धि सहित थे एक समय िंसहेदु राजा अपनी रानी के साथ वन में विचरण कर रहे थे। सर्प के डसने से मूर्छित हो गये। तब रानी ने ‘मयमुनि’ के शरीर का स्पर्श कर पति को स्पर्श किया, उसी क्षण वे राजा निर्विष हो गये। विशल्या ने पूर्वभव में तप किया था जिसके फलस्वरूप उसके स्नान के जल से सर्वरोग और विष नष्ट हो जाते थे। अनंतवीर्य मुनिराज अपने ५६ हजार मुनि सहित आकाश मार्ग से लंका में पहुँचे। जिस दिन रावण की मृत्यु हुई थी उसी दिन के अन्तिम प्रहर में वे पहुँचे और रात्रि के पिछले प्रहर में अनंतवीर्य मुनि को केवलज्ञान हो गया। गणधर देव कहते हैं कि—
यदि रावण के जीवित रहते यह महामुनि आ जाते तो लक्ष्मण के साथ रावण की बहुत बड़ी प्रीति हो जाती क्योंकि ऋद्धिधारी मुनि और केवली जहाँ रहते हैं उनसे दो सौ योजन तक उपद्रव आदि नहीं होता है१।’
वास्तव में जो शरीर से आत्मा को भिन्न समझते हैं वे अध्यात्म प्रेमी ही शरीर से नि:स्पृह होकर तप कर सकते हैं। भीम मुनि ने भाले के अग्रभाग से आहार लेने का नियम ले लिया, वह छह महीने में मिला तब उनका आहार हुआ। मुनियों के सिवाय श्रावकों—श्राविकाओं ने भी रोहिणी, जिनगुण- संपत्ति आदि उपवासों को करके परम्परा से मुक्ति को प्राप्त किया है।
इन तपों में विनय करना, वैयावृत्य करना, स्वाध्याय करना ये अंतरंग तप हैं। अंत में ध्यान तप है उसी के द्वारा ही कर्मों का पूर्णतया नाश किया जाता है। इस प्रकार से इन बारह तपों में से यथाशक्ति तप करते रहना चाहिये। शरीर से निर्मम होने के लिये तप का अभ्यास अतीव उपयोगी है। प्रमाद छोड़कर अभ्यास करने से सर्वकार्य सिद्ध हो जाते हैं अत: तपधर्म हमेशा ग्राह्य है यह भी श्रावक के छह आवश्यकों में एक आवश्यक माना गया है।
बाह्य तप के प्रभाव से भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। जैसा कि उदाहरण प्रसिद्ध है—
विदेह क्षेत्र में पुण्डरीक नाम का एक देश है। उसके चक्रधर नामक नगर में त्रिभुवनानन्द नाम का चक्रवर्ती छह खंड पृथ्वी पर एकच्छत्र अनुशासन करता हुआ स्थित था। उसकी अनंगशरा नाम की एक कन्या थी जो कि सर्व गुणों से मंडित और सौंदर्य की एक अपूर्व सृष्टि थी। चक्रवर्ती का एक पुनर्वसु नाम का सामन्त था जो कि प्रतिष्ठपुर नगर का स्वामी था। उस कन्या के सौंदर्य पर आसक्त हो उसने किसी समय उसका अपहरण कर लिया और विमान पर बिठाकर आकाश मार्ग से भागा। क्रोध से भरे चक्रवर्ती की आज्ञा पाकर सेवकों ने उसका पीछा किया और युद्ध कर उसके विमान को चूर—चूर कर डाला। तब पुनर्वसु ने पर्णलघ्वी विद्या के सहारे उस कन्या को विमान से नीचे छोड़ दिया। वह कन्या उस विद्या के सहारे धीरे से श्वापद नामक महाअटवी में आ गिरी।
वह महावन ऐसा था जो बड़े—बडे विद्याधरों को भी भय उत्पन्न करने वाला था। जिसके अन्दर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन था, जहाँ पर बड़े—बड़े वृक्षों की सघन झाड़ियों से अंधकार ही अंधकार बना रहता था अत: सूर्य की किरणें जहाँ पर अवकाश नहीं पा सकती थीं। उस सघन वन में भेड़िये, शरभ, चीते, तेंदुए और िंसह आदि क्रूर जन्तु ही अपना निवास स्थान बनाए हुए थे। वहाँ की भूमि कठोर थी और कहीं अतीव ऊँची थी तो कहीं अतीव नीची थी। जिधर देखो उधर ही बड़े—बड़े बिल दिखाई देते थे जिनमें से निकल—निकल कर बड़े—बड़े सर्प फण उठाए घूम रहे थे। उस वन में अनंगशरा बालिका चारों तरफ दृष्टि डालते हुए महाभय से आक्रांत हो मूर्च्छित हो गई। जब होश आया भय से काँपती हुई जोर—जोर से दहाड़ मार—मार कर रोने लगी। वह कन्या विलाप कर रही है—
हाय! मैं लोक की रक्षा करने वाले इन्द्र के समान सुशोभित त्रिभुवनानंद नाम के चक्रवर्ती पिता से उत्पन्न हुई हूँ और महास्नेह से लालित हुई हूँ फिर भी आज भाग्य की प्रतिकूलता से इस महाकष्ट की अवस्था को प्राप्त हो रही हूँ। हाय, पिता, तुम तो महापराक्रमी हो षट्खंड स्वरूप इस लोक की पूर्णतया रक्षा करते हो, फिर वन में असहाय पड़ी हुई मुझ पर दया क्यों नहीं करते ? हाय माता! गर्भ में धारण कर वैसा दु:ख सहकर इस समय तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करती हो ? हाय! मेरे भाई—बंधु आदि परिजन तुमने मुझे एक क्षण के लिये भी अकेली नहीं छोड़ा था पुन: आज मेरी सुध क्यों नहीं ले रहे हो ? हाय, हाय, मैं दुखिया इस समय क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसका आश्रय लूँ ? किसे देखूँ ? और इस महावन में पापिनी वैâसे रहूँ ? क्या यह स्वप्न है अथवा नरक में मेरा जन्म हो गया है ? क्या मैं वही हूँ अथवा यह कौन सी दशा प्रकट हुई है ?
इस प्रकार चिरकाल तक विलाप कर वह अत्यन्त विह्वल हो गई। उसका वह विलाप क्रूर पशुओं के भी मन को द्रवित करने वाला था। जब वह भूख की बाधा से व्याकुल होती थी तब वन के फल—पत्तों को खाकर नदी अथवा झरने का पानी पीकर कुछ शांत हो जाती थी। पुन: कुटुम्बी जनों की याद कर—कर के रोने लगती थी और कभी—कभी महामंत्र का स्मरण करते हुए धैर्य धारण करती थी। उसका सारा शरीर शोकरूपी अग्नि से झुलस गया था। कभी रो—रोकर पागल जैसी हो जाती थी, कभी मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर जाती थी, कभी उठकर इधर—उधर चलने लगती थी और जंगल से निकलने का मार्ग ढूँढने लगती थी। उस भयावह जंगल में मार्ग न प्राप्त कर पुन: निराश हो धरती माता की गोद में सो जाती थी। शीतकाल की बर्फ से, कुहरे से, बरसात से उसका शरीर नष्टप्राय हो गया था किन्तु फिर भी उसका मरण नहीं हो रहा था, न ही कोई जंगली प्राणी ही उसका भक्षण करते थे। ग्रीष्म ऋतु की भयंकर गर्मी से वह झुलसने लगती थी और सोचती थी कि क्या यह ही नरक स्थान है ? वर्षा ऋतु की मूसलाधार बारिश भी वह अपने खुले शरीर पर ही झेलती थी। उसके पहने हुये वस्त्र गलकर समाप्त हो चुके थे अत: वन के पत्तों से ही वह अपने शरीर को ढकने का प्रयत्न करती रहती थी। हाय! मैं चक्रवर्ती से उत्पन्न होकर भी इस निर्जन वन में ऐसी दुरावस्था को प्राप्त हो रही हूँ। सो निश्चित ही मैंने जन्मांतर में घोर पाप संचित किया होगा, उसी का यह फल आज मुझे भोगने को मिल रहा है। इस प्रकार अविरल अश्रुवर्षा से जिसका मुख दुर्दिन के समान हो गया था। ऐसी वह अनंगशरा नीची दृष्टि से पृथ्वी की ओर देखकर स्वयं पक कर गिरे हुए ऐसे फलों को उठाकर खाकर शांत हो जाती थी। कभी वह बेला करती थी, कभी तेला करती और कभी अनेकों उपवास कर लेती थी पुन: उपवास से अत्यन्त कृश हो जाने के बाद कभी वह केवल पानी से पारणा करती थी सो भी एक ही बार और कभी कुछ फल खाकर संतुष्ट होती थी।
जो अनंगशरा पहले अपने केशों से च्युत हो शैय्या पर पड़े हुये फूलों से भी खेद को प्राप्त होती थी वह इस वन में मात्र उबड़—खाबड़ कंकरीली पृथ्वी पर ही अनेकों रात्रियाँ निकाल चुकी है। जो पहले पिता के संगीत को सुनकर जागती थी, वह यहाँ पर सियार आदि के भयंकर शब्दों को सुनकर जागती है। इस प्रकार से सर्दी, गर्मी और बरसात के दु:खों को अपने शरीर पर झेलती हुई तथा अनेकों उपवास कर—करके प्रासुक आहार से पारणा करती हुई उस कन्या ने तीन हजार वर्ष तक महान उग्र घोरातिघोर बाह्य तप किया। इतने दिनों तक उस वन में उसे मनुष्य का दर्शन तो क्या, शब्द भी सुनने को नहीं मिला। शरीर भी उसका तपश्चरण से और कष्ट के झेलने से अब शुष्क हो चुका था। तब जीवन से निराश हो उस धीर—वीर बाला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली। उसने जिनशासन में पहले जैसा सुन रखा था वैसा नियम ग्रहण कर लिया कि मैं अब सौ हाथ से बाहर की भूमि में नहीं जाऊँगी।
उसे सल्लेखना का नियम लेकर जब छह दिन व्यतीत हो गये तब लब्धिदास नामक एक पुरुष जो कि मेरु पर्वत की वंदना कर लौट रहा था सो उसने उस कन्या को देखा। वह उसे उसके पिता के पास ले जाने के लिये तैयार हुआ तब कन्या ने यह कहकर मना कर दिया कि मैंने अब यम सल्लेखना ग्रहण कर ली है। लब्धिदास ने शीघ्र ही चक्रवर्ती त्रिभुवनानंद के पास पहुँचकर कन्या का समाचार सुना दिया। कन्या के अपहरण के बाद चक्रवर्ती ने सर्वत्र अपने लोगों को भेज—भेजकर उसका पता लगवाया था किन्तु कोई भी उसे ढूँढ नहीं सके थे। इसी कन्या के शोक में चक्रवर्ती भी अपनी विशाल सम्पत्ति को तुच्छ समझते थे। उसकी माता भी रो—रोकर अपने शरीर को दुर्बल कर चुकी थी। उस समय चक्रवर्ती तमाम परिजन को लेकर अति शीघ्र ही वहाँ पहुँचे। वह वहाँ देखते हैं कि अत्यन्त भयंकर एक मोटा अजगर उस बाला को खा रहा था। यह देख उस कन्या को छुड़ाने में तत्पर हो चक्रवर्ती ने उस अजगर को अलग करना चाहा कि कन्या ने तत्क्षण ही रोक दिया। उस स्थूल अजगर के द्वारा खाई गई वह कन्या महामंत्र का स्मरण करते हुये धैर्यपूर्वक शरीर छोड़कर ईशान स्वर्ग में देवी हो गई।
इस घटना से चक्रवर्ती त्रिभुवनानंद को महान वैराग्य उत्पन्न हो गया। उस समय उन्होंने अपने बाईस हजार पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
अनंगशरा कन्या स्वर्ग के सुखों का अनुभव करके राजा द्रोणमेघ की रानी के गर्भ में आ गई। उस समय रानी अनेकों रोगों से पीड़ित थी, कन्या के गर्भ में आते ही माता पूर्णतया नीरोग हो गई।
किसी समय िंवध्य्ा नाम का व्यापारी ऊँट, गधे तथा भैंसे आदि जानवरों पर सामान लाद कर अयोध्या में आया और वहाँ ग्यारह माह तक रहा। उनमें से एक भैंसा तीव्र रोग से पीड़ित हो नगर के बीच में गिर पड़ा। कितने ही दिनों तक पड़ा रहा। लोग उसे ठुकरा कर चलते थे कभी कोई उसके मस्तक पर पैर रख—रखकर चले जाते थे। वेदना से और भूख—प्यास से पीड़ित होकर भी शांतभाव धारण करते हुये उसने प्राण छोड़ा। तब अकाम निर्जरा के प्रभाव से वह वायवावर्त नाम का धारक वायुकुमार जाति के देवों का स्वामी हो गया। अवधिज्ञान के निमित्त से उसने पूर्वभव के पराभव को जान लिया। तब उसने अयोध्या में आकर महारोग उत्पन्न करने वाली बहुत ही भयंकर विषम वायु चला दी, जिससे अयोध्या में भयंकर रोगों का प्रकोप पैâल गया। महादाहज्वर, सर्वशूल रोग, अरुचि वमन, फोड़े, सूजन आदि अनेकों रोगोंं से शहर में त्राहि—त्राहि मच गई। जब भरत महाराज ने सुना कि हमारे शहर में क्या सारे देश में कोई भी निरोग नहीं बचा है। मात्र एक द्रोणमेघ नाम का राजा है जो कि अपने मंत्री, परिवार आदि के साथ—साथ पूर्ण स्वस्थ रह रहे हैं। भरत महाराज ने उन्हें बुलाकर कहा कि हे महानुभाव! आप जैसे स्वस्थ हैं वैसे ही हम लोगों को स्वस्थ करना उचित है। तब राजा द्रोणमेघ ने अपने अन्त:पुर से सुगन्धित जल मंगवाकर उन सभी पर सििंचत किया जिससे सभी का रोग शांत हो गया। तब भरत राजा के कहने से द्रोणमेघ ने सारे अयोध्या निवासियों को निरोग कर दिया।
उस प्रसंग में भरत महाराज ने प्रश्न किया कि यह महिमाशाली सुगन्धित श्री जल आपने कैसे प्राप्त किया है ? द्रोणमेघ ने कहा—हे देव! मेरी कन्या विशल्या है, यह उसी पुण्यशालिनी के स्नान का जल है जो कि सर्व रोगों का नाशक सिद्ध हो चुका है और उस जल के द्वारा अब तक अगणित जीवों ने जीवन लाभ प्राप्त किया है।
किसी समय देवगीतपुर के विद्याधर चन्द्रप्रतिम आकाश मार्ग में विचरण कर रहे थे। उसी समय उनका शत्रु सहस्रविजय कुछ पुराने वैर को याद कर क्रोध को प्राप्त हो उसके साथ युद्ध करने लगा। उस युद्ध में चंडरवा नाम की शक्ति (देवोपनीत अस्त्र) से उसे मारा जिससे वह मरणासन्न होकर रात्रि के समय आकाश से गिरा, जहाँ पर वह गिरा वह अयोध्या का महेन्द्रोदय नामक उद्यान था। आकाश से पड़ते हुये तारािंबब के समान उसे देखकर राजा भरत तर्क करते हुये उसके पास पहुँचे और शक्ति से शल्ययुक्त वक्षस्थल को देखकर दया से आर्द्र हो उठे। उन्होंने तत्क्षण ही जीवनदान देने वाले जल को मँगाकर उस चन्द्रप्रतिम विद्याधर को स्वस्थ कर दिया।
जब राम—रावण के युद्ध में रावण ने लक्ष्मण को अमोघविजया नामक शक्ति से घायल कर दिया था और उनके जीवन में संशय उपस्थित हो गया था, उस समय यह चंद्रप्रतिम विद्याधर वहाँ पहुँच कर इस विशल्या के स्नान जल के महत्त्व को बतला कर रामचन्द्र को आश्वस्त करता है। तब रामचन्द्र शीघ्र ही रात्रि में ही भामंडल, हनुमान आदि को अयोध्या नगरी में भरत के पास उसी सुगन्धित जल हेतु भेज देते हैं। भरत राजा सर्व समाचार विदित कर अपने अग्रज के जीवन हेतु उपाय में सन्नद्ध हो द्रोणमेघ के पास पहुँचते हैं तब वे द्रोणमेघ अपनी विशल्या कन्या को ही भामंडल आदि के साथ वहाँ भेज देते हैं। विशल्या के निकट पहुँचते ही लक्ष्मण के वक्षस्थल से शक्ति नामक अस्त्र निकल जाता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं। यह है बाह्य तप का अद्भुत चमत्कार।
जिस समय वह अमोघशक्ति नाम की विद्या लक्ष्मण के वक्षस्थल से निकलकर आकाश मार्ग से जाने लगी, हनुमान ने उसे पकड़ लिया तब वह देवी के रूप में प्रकट हो बोली, हे हनुमान! मैं तीनों लोकों में प्रसिद्ध अमोघविजया नाम की विद्या हूँ। इस समय इस संसार में इस विशल्या के सिवाय मैं किसी से पराजित नहीं की जा सकती थी। पूर्वभव में इसने अपना शिरीष के फूल के समान सुकुमार शरीर ऐसे तप में लगाया था कि जो प्राय: मुनियों के लिए भी कठिन था। सचमुच में इसीलिए यह मानव जीवन सारभूत है कि जहाँ पर ऐसे—ऐसे कठिन तप किये जा सकते हैं।
विशेष—यहाँ पर ‘अमृतवर्षिणी’ हिन्दी टीका में मुख्य-मुख्य विषयों का ही विवेचन किया है। ‘वीरभक्ति’ के सभी श्लोकों की टीका नहीं की है, कुछ श्लोकों की ही की है, यह ध्यान में रखना है।