ऐरावत के वर्तमान जिनराज हैं।
भव वारिधि से तारण तरण जिहाज हैं।
भक्ति भाव से करूँ यहाँ उन थापना।
पूजूँ भक्ति बढ़ाय करूँ हित आपना।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सुरगंगा को नीर, कंचनकलश भराऊँ।
जिनवर चरण सरोज, पूजत कर्म नशाऊँ।।
चौबीसों जिनराज, तुम पदपद्म जजूँ मैं।
आतम अनुभव पाय, परमानंद भजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा।
मलयागिरि घनसार, केशर संग घिसाऊँ।
तीर्थंकर पदकंज, पूजत दाह मिटाऊँ।।चौबीसों.।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो….चंदनंं ……निर्वपामिति स्वाहा।
क्षीरोदधि के फेन, सम उज्ज्वल तंदुल हैं।
परम पुरुष को पूज, होता सुख मंजुल है।।चौबीसों.।।३।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. अक्षतं……निर्वपामिति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के पुष्प, सुरभित वरण वरण के।कामजयी परमेश, चरण जजॅूं रुचि धरके।।चौबीसों.।।४।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. पुष्पं ……निर्वपामिति स्वाहा।
मधुर सरस पकवान, भर भर थाल लिया मैं।
क्षुधा रोग हर नाथ, पूजत सौख्य लिया मैं।।चौबीसों.।।५।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. नैवेद्यं ……निर्वपामिति स्वाहा।
घृत दीपक की ज्योति, बाहर तिमिर हरे है।
तुम पद पूजत शीघ्र, मन का मोह टरे है।।चौबीसों.।।६।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. दीपं ……निर्वपामिति स्वाहा।
कृष्णागरु वर धूप, अग्नी संग जलाऊँ।
कर्म कलंक विदूर, आतम शुद्ध बनाऊँ।।चौबीसों.।।७।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. धूपं……निर्वपामिति स्वाहा।
पिस्ता पूग बदाम, फल अखरोट चढ़ाऊँ।
फल से जिनवर पूज, सर्वोत्तम फल पाऊँ।।चौबीसों.।।८।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. फलं ……निर्वपामिति स्वाहा।
जल गंधादिक द्रव्य, लेकर अर्घ्य बनाऊँ।
भवविजयी जिनपाद, पूजत पाप नशाऊँ।।चौबीसों.।।९।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो…. अर्घ्यं……निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
कर्म मलीमस आत्मा, प्रभु तुम भक्ति प्रसाद।
शुद्ध बुद्ध होवे तुरत, अत: नमूँ तुम पाद।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जिन ‘बालचन्द्र’ त्रैलोक्यनाथ, गणईस भजें नित नमित माथ।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बालचन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु ‘सुव्रत’ तीर्थंकर महेश, तुमको ध्यावें मुनिगण अशेष।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुव्रतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अग्निसेन’ जिनदेव आप, भविजन के हरते सकल ताप।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अग्निसेनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘नंदिसेन’ के पाद कंज, योगी गण वंदत कर्म भंज।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नन्दिसेनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘श्रीदत्त’ पदारविंद, जजते ही मिटता सकल द्वंद्व।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री दत्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘व्रतधर’ हो श्रेष्ठ चंद्र, भविमन आल्हादक श्रेष्ठ मंत्र।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री व्रतधरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सोमचन्द्र’ अद्भतु दिनेश, अज्ञान तिमिर को हरें शेष।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सोमचन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्रीमन ‘धृतिदीर्घ’ अपूर्व तेज, जनमन का तत्क्षण हरें खेद।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री धृतिदीर्घजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।जिन ‘शतायुष्य’ सब कर्मचूर, भक्तों के संकट करें दूर।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शतायुष्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘विवसित’ अद्भुत महान्, सुरकिन्नर गावें कीर्तिगान।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विवसितजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘श्रेयान’ जिनेश्वर मुक्तिकांत, वंदन से हरते मोहध्वांत।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री श्रेयोजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन ‘विश्रुतजल’ भवजलधिनाव, जो ध्यावें पावें शुद्धभाव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विश्रुतजलजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन ‘सिंहसेन’ तीर्थेश आप, भाक्तिकजन के सब हरो पाप।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सिंहसेनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘उपशांत’ जिनेश्वर सुनो टेर, हरिये भव भव का सकल फेर।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री उपशांतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
हे नाथ! ‘गुप्तशासन’ जिनेश, मेरे हरिये सब रोग द्वेष।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री गुप्तशासनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘अनंतवीरज’ महान्, गुणमणिरत्नों की अतुल खान।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘पार्श्व’ जिनेश्वर देवदेव, भवसंकट करिये तुरत छेव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘अभिधान’ सुबोध पुंज, इंद्रादि नमें धर रत्नपुंज।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अभिधानजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।‘मरुदेव’ तीर्थकर सूर्य तुल्य, भविजनमनपंकज करें फुल्ल।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मरुदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘श्रीधर’ त्रैलोक्यदेव, शिवलक्ष्मी संयुत परमदेव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री श्रीधरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन ‘शामकंठ’ की दिव्यवाणि, भव वल्ली काटन को कृपाणि।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शामकंठजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन ‘अग्निप्रभ’ भवदाहदूर, भविजन भव अग्नी शमन पूर।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अग्निप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अग्निदत्त’ जिनदेवदेव, शिवकांता इच्छुक करें सेव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अग्निदत्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘वीरसेन’ भगवान् आप, निज स्वात्मसुधा पीकर अपाप।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं जजूूं सदा श्रद्धा समेत।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वीरसेनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री चौबीस जिनेश, सकल अमंगल को हरें।
पूरे सौख्य हमेश, पूूजूँ परण अर्घ्य ले।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बालचन्द्रादिवीरसेनांत चतुा\वशतितीर्थंकररेभ्यो पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जैवंत मुक्तिकंत देवदेव हमारे।
जैवंत भक्त जंतु भवोदधि से उबारे।।
हे नाथ! आप जन्म के छह मास ही पहले।
धनराज रत्नवृष्टि करें मातु के महलें।।
माता की सेव करतीं श्री आदि देवियाँ।
अद्भुत अपूर्व भाव धरें सर्व देवियां।।
जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।
तब इंद्र सपरिवार आय भक्ति भार से।।२।।
प्रभु गर्भ कल्याणक महाउत्सव विधि करें।
माता पिता की भक्ति से पूजन विधि करें।।
हे नाथ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।
इंद्रासनों के कंप के आश्चर्य हो उठे।।३।।
इंद्रों के मुकुट आप से ही आप झुके हैं।
सुरकल्पवृक्ष हर्ष से ही फूल उठे हैं।।
वे सुरतरु स्वयमेव सुमन वृष्टि करे हैं।
तब इंद्र आप जन्म जान हर्ष भरे हैं।।४।।
तत्काल इंद्र सिंह हपीठ के उतर पड़ें।
प्रभु को प्रणाम करके बार बार पग पड़े।।
भेरी करा सब देव का आह्वानन करे हैं।
जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।५।।
सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।
सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।
जब आप हो विरक्त देव सर्व आवते।
दीक्षा विधी उत्सव महामुद से मनावते।।६।।
जब घातिया को घात ज्ञानसंपदा भरें।
तब इंद्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।।
तुम दिव्य वच पियूष को पीते असंख्यजन।
क्रम से करें वे मुक्ति वल्लभा का अलिंगन।।७।।
जब आप मृत्यु जीत मुक्ति धाम में बसे।चाल-हे दीनन्धु
जैवंत मुक्तिकंत देवदेव हमारे।
जैवंत भक्त जंतु भवोदधि से उबारे।।
हे नाथ! आप जन्म के छह मास ही पहले।
धनराज रत्नवृष्टि करें मातु के महलें।।
माता की सेव करतीं श्री आदि देवियाँ।
अद्भुत अपूर्व भाव धरें सर्व देवियां।।
जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।
तब इंद्र सपरिवार आय भक्ति भार से।।२।।
प्रभु गर्भ कल्याणक महाउत्सव विधि करें।
माता पिता की भक्ति से पूजन विधि करें।।
हे नाथ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।
इंद्रासनों के कंप के आश्चर्य हो उठे।।३।।
इंद्रों के मुकुट आप से ही आप झुके हैं।
सुरकल्पवृक्ष हर्ष से ही फूल उठे हैं।।
वे सुरतरु स्वयमेव सुमन वृष्टि करे हैं।
तब इंद्र आप जन्म जान हर्ष भरे हैं।।४।।
तत्काल इंद्र िंसहपीठ के उतर पड़ें।
प्रभु को प्रणाम करके बार बार पग पड़े।।
भेरी करा सब देव का आह्वानन करे हैं।
जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।५।।
सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।
सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।
जब आप हो विरक्त देव सर्व आवते।
दीक्षा विधी उत्सव महामुद से मनावते।।६।।
जब घातिया को घात ज्ञानसंपदा भरें।
तब इंद्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।।
तुम दिव्य वच पियूष को पीते असंख्यजन।
क्रम से करें वे मुक्ति वल्लभा का अलिंगन।।७।।
जब आप मृत्यु जीत मुक्ति धाम में बसे।सिद्धयंगना के साथ परमानंद सुख चखें।।
सब इंद्र आ निर्वाण महोत्सव मनावते।
प्रभु पंचकल्याणक पती को शीश नावते।।८।।
हे नाथ! आप कीर्ति कोटि ग्रंथ गा रहे।
इस हेतु से ही भव्य आप शरण आ रहे।।।
मैं आप शरण पायके सचमुच कृतार्थ हूँ।
बस ‘ज्ञानमती’ पूर्ण होने तक ही दास हूँ।।९।।
पंचमगति के हेतु मैं, नमन करूँ पंचांग।
परमानंद अमृत अतुल, सौख्य भरो सर्वांग।।१०।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।