इस प्रथम जंबूद्वीप बीचे पूर्व अपर विदेह हैं।
इस मध्य बत्तिस देश में शुभ कर्मभूमि सदैव हैं।।
भगवान सीमंधर व युगमंधर व बाहु सुबाहुजी।
ये श्रीविहार करें वहाँ आह्वानन कर मैं जजूँ जी।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकर-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकर-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकर-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सीतानदि शीतल नीर, प्रभुपद धार करूँ।
मिट जाये भव भव पीर, आतम शुद्ध करूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे साम्राज, मैं तुम चरण नमो।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
मलयागिरि गंध सुगंध, प्रभु चरणों चर्चूं।
मिल जावे आत्म सुगंध, स्वारथवश अर्चूं।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
कौमुदी शालि के पुंज, नाथ! चढ़ाऊँ मैं।
जिन आत्म सौख्य अखंड, अर्चत पाऊँ मैं।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
वरमौलसिरी व गुलाब, पुष्प चढ़ाऊँ मैं।
प्रभु मिले आत्मगुण लाभ, आप रिझाऊँ मैं।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
लाडू पेड़ा पकवान, नाथ! चढ़ाऊँ मैं।
कर क्षुधा वेदनी हान, निजसुख पाऊँ मैं।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दीपक की ज्योति अखंड, आरति करते ही।
मिल जावे ज्योति अमंद, निजगुण चमकें ही।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
वर धूप अग्नि में खेय, सुरभि उड़ाऊँ मैं।
प्रभु पद पंकज को सेय, समसुख पाऊँ मैं।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: धूप निर्वपामिति स्वाहा।
केला एला बादाम, फल से पूजूँ मैं।
पाऊँ निज में विश्राम, भव से छूटूँ मैं।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
वसु अर्घ रजत के पुष्प, थाल भराय लिया।
रत्नत्रय से मन तुष्ट, आप चढ़ाय दिया।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहुचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ! पाद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुखलाभ, जिनपद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जंबूद्वीप विदेह में, विहरमाण जिनराज।
पुष्पांजलि कर पूजते, सरें सर्व जिनकाज।।
इति मण्डलस्यापरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्री मेरु सुदर्शन के पूरब विदेह सीता के ऊपर तट।
है पुंडरीकिणी पुरी पिता, श्रेयांस सती माता विश्रुत।।
वृष चिन्ह सहित श्री सीमंधर, भगवान अभी भी राजे हैं।
मैं उनको अर्घ चढ़ाकर के, पूजूँ आतम सुख भासे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थपुण्डरीकिणीपुरीमध्यसमवसरणस्थित-सीमंधरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री मेरु सुदर्शन के पूबर, विदेह सीता नदि दक्षिण में।
दृढ़रथ पितु मात सुतारा से, जन्में प्रभु विजयानगरी में।।
गज चिन्ह सहित श्री ‘युगमंधर’ तीर्थंकर समवसरण में हैं।
हमें पूजें बहुविध भक्ति लिये, सबके ही लिय शरण ये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविजयनगरीमध्यसमवसरणस्थित-युगमंधरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस जम्बूद्वीप अपर विदेह, सीतोदा नदि के दक्षिण मेंं।
शुभ पूरी सुसोमा के राजा, उन रानी से भगवन् जन्में।।
मृगचिंह सहित ‘श्रीबाहु’ आप, विहरण कर भविजन हरसाते।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, प्रभु धर्मामृत तुम बरसाते।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहक्षेत्रस्थसुसीमानगरीrमध्यसमवसरणस्थित-श्रीबाहुजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस जंबूद्वीप अपर विदेह, सीतोदा नदि के उत्तर में।
हैं पुरी अयोध्या के नरपति, उनकी रानी से प्रभु जन्में।।
तीर्थेश ‘सुबाहु’ शतइंद्रों, वंदित कपि चिन्ह सहित राजें।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, सब रोग शोक दारिद भाजें।।४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहक्षेत्रस्थअयोध्यापुरीमध्यसमवसरणस्थित-श्रीसुबाहुजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पूर्वापर बत्तीस विदेह, चार तीर्थंकर नित विहरेय।
पूजूँ पूरण अर्घ चढ़ाय, सब दुख संकट जायं पलाय।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसीमंधरादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
नमो नमो जिनेंद्रदेव! आप सौख्यरूप हो,
अनंत दिव्य ज्ञज्ञन से समस्त लोक भासते।
नमो नमो जिनेन्द्रदेव आप चित्स्वरूप हो,
अनंत दिव्य चक्षु से समस्त विश्व लोकते।
नमो जिनेन्द्र देव आप सर्व शक्तिमान हो,
अनंत वस्तु देखते तथापि श्रांत हों नहीं,
नमो जिनेन्द्रदेव! आपमें अनंत गुण भरे,
गणीन्द्र भी गिने तथापि पार पावते नहीं।।१।।
प्रभो असंख्य भव्य जीव आपकी शरण गहें,
अनादि के अनंत दु:ख वार्धि से स्वयं तिरें।
असंख्य जीव मन वश न आप पास आवते,
स्वयं हि वे अपार भव अरण्य में सदा फिरें।
अनेक जीव दृष्टि रत्न पाय के निहाल हों,
अनेक जीव तीनरत्न पाय मालामाल हों।
अनेक जीव आप भक्ति में विभोर हो रहे,
अनेक जीव मृत्यु को पछाड़ पुण्यशालि हों।।२।।
मुनींद्रवृंद हाथ जोड़ शीश नाय नायके,
पुन:पुन: नमें तथापि तृप्ति ना लहें कभी।
सुरेंद्रवृंद अष्ट द्रव्य लाय अर्चना करें,
सुदिव्य रत्न को चढ़ाय तृप्ति ना लहें कभी।
नरेन्द्रवृंद भक्ति में विभोर नृत्य भी करें,
सुरांगना जिनेन्द्र भक्ति गीत गा रहीं वहाँ।
खगेन्द्रवृंद गीत गा संगीत वाद्य को बजा,
खगांगना के साथ नाथ! अर्चना करें वहाँ।।३।।
जिनेन्द्र! आपकी सभा असंख्य भव्य से भरी,
तथपि क्लेश ना किसी को ये प्रभाव आपका।
निरक्षरी ध्वनी खिरे सभी के कर्ण में पड़े,
सभी समझ रहें स्वयं प्रभो! प्रभाव आपका।
सुभव्य जीव ही सुनें गुनें निजात्म तत्त्व को,
अपूर्व तेज आपका न कोई पार पा सकें।
जयो जयो जयो प्रभो! अनंत ऋद्धिपूर्ण हो,
करो मुझे निहाल नाथ! आप भक्त जान के।४।।
सीमंधर युगमंधरा, बाहु सुबाहु जिनेश।
नमूँ ‘ज्ञानमति’ हेतु मैं, हरो सर्व भव क्लेश।।५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसीमंधरादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।