पूर्वधातकी भरतक्षेत्र में, वर्तमान जिनदेवा।
विजयमेरु के दक्षिणदिश में, सुरनरकृत पद सेवा।।
इन चौबीसों तीर्थंकर को, भक्ति भाव से ध्याऊँ।
आह्वाननविधि पूजा करके, निजआतम सुख पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
धूप ले अग्नि में नित्य खेऊं सही।
आत्मशुद्धी करूँ पाउं निज की मही।।इंद्रशत.।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
आम्र अंगूर अखरोट काजू लिये।
नाथ को पूजते सौख्य संपत् लिये।।इंद्रशत.।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. फलं निर्वपामिति स्वाहा।
नीर गंधादि वसु द्रवय थाली भरे।सिंधु को नीर ले स्वर्ण झारी भरूँ।
नाथ के पाद में तीन धारा करूँ।।
इंद्रशतवंद्य तीर्थेश को नित जजूँ।
रत्न सम्यक्त्व पा भव भ्रमण से बचूँ।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा।
गंध सौगंध्य चंदन घिसाऊँ सही।
नाथपद पूजते पूर्ण साता लही।।इंद्रशत.।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
शांलि सुंदर शशीकांति सम लायके।
पुंंज धर पूजहूँ नाथ गण गाय के।।इंद्रशत.।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
कुंद मंदार मल्ली सुमन लाइया।
कामजेता प्रभू अर्च सुख पाइया।।इंद्रशत.।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
मुद्ग लड्डू इमरती भरे थाल में।
भूख व्याधी रहित नाथ पूजूँ तुम्हें।।इंद्रशत.।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दीप की लौ बहिर्ध्वांत नाशे सदा।
आपको पूजते भेदविज्ञानदा।।इंद्रशत.।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
अर्घ्य से अर्चते सर्वव्याधी टरे।।इंद्रशत.।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो ….. अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री ‘गांगिक’ जिननाथ, शीतल गंगनदीसम।
जो करते तुम सेव, पावें सौख्य अनूपम।।पूजूँ.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री गांगिकनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘गणनाथ’ प्रधान, गणधर वंदन करते।
कर्मअरी को हान, निजपद मंडन करते।।पूजूँ.।।२०।।नाथ ‘युगादीदेव’, सब देवन के देवा।
त्रिभुवन के तुम देव, भव्य करें नित सेवा।।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, प्रभुपद शीश नमाऊँ।
सर्व मनोरथ त्याग, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगादिदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सिद्धांतजिनेन्द्र’, अंतक को चकचूरा।
जो जन पूजें नित्य, पावें सुख भरपूरा।।पूजूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सिद्धांतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘महाईश’ के नाथ, कामजयी बलधरी।
तुम पद पूजें नित्य, वे निजपद अधिकारी।।पूजूँ.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री महेशनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘परमार्थ’ जिनेश, परम पुरुष तुम ध्याते।
भविजन भक्ति समेत, पूजत कर्म नाशते।।पूजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री परमार्थनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘समुद्धर’ देव, जग उद्धार किया है।
जिनने पूजा आप, सौख्य अपार लिया है।।पूजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री समुद्धरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘भूधरनाथ’ जिनेश, सब जीवन हितकारी।
वाणी मधुर पियूष, पीकर हो सुखकारी।।पूजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भूधरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘उद्योत’ जिनेंद्र, केवल सूर्य तुम्हीं हो।
मुनिमन के प्रद्योत, करते नित्य तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री उद्योतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आर्जव’ जिनवर आप, ऊर्ध्वगती को पाई।
किन्नर गण तुम कीर्ति, गाते है सुखदाई।।पूजूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री आर्जवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अभयनाथ’ भगवान्, अभयदान दें सबको।
सब जीवन प्रतिपाल, नमूँ नमूँ चरणन को।।पूजूँ.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अभयनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अप्रकंप’ तीर्थेश, जब तुम जन्म लिया है।
इंद्रासन तत्काल कम्पित हो गया है।।पूजूँ.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अप्रकंपजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पद्मनाथ’ भगवान्, तुम पद बसती पद्मा।
जो पूजें धर प्रीत, पावें अनुपम सद्मा।।पूजूँ.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पद्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पद्मनंदि’ जिनदेव, तुम पदपद्म जजें जो।
मृत्यु मल्ल को मार, निज शिवसद्म भजें सो।।पूजूँ.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पद्मनंदिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपाम्ति : स्वाहा।
नाथ ‘प्रियकंर’ आप, वाणी प्रियहित करणी।
कर्म पुटों से भव्य, पीते भव दु:खहरणी।।पूजूँ.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री प्रियकंरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘सुकृतनाथ’ जिनेंद्र, अतुल पुण्य निधि तुम हो।
जो जन तुम पद भक्त, उनके भ्रम का क्षयहो।।पूजूँ.।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुकृतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘भद्रनाथ’ जिनदेव, कर्मबली के जेता।
हित उपदेशी आप, विश्व तत्त्व के वेत्ता।।पूजूँ.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भद्रनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मुनीचंद्र’ भगवान्, मुनिगण तुम गुण गावें।
निज आतम का ध्यान, करके शिवपुर जावें।।पूजूँ.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मुनिचन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पंचमुष्टि’ जिनराज, मोह मल्ल को जीता।
पंच परावृत नाश, हुये भविकज मीता।।पूजूँ.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पंचमुष्टिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘त्रिमुष्टि’ जिनेश, जन्मजरा मृति नाशा।
केवल रवि को पाय, लोकालोक प्रकाशा।।पूजूँ.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री त्रिमुष्टिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा
ॐ ह्रीं अर्हं श्री गणनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘सर्वांग जिनेश’, तुम सम रूप न जग में।
इंद्र सहस कर नेत्र, फिर भी तृप्त न मन में।।पूजूँ.।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सर्वांगदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘ब्रह्मेन्द्र’ अधीश, आतम गुण में राचें।
ब्रह्मानंद पियूष पीकर, भवदु:ख नाशे।।पूजूँ.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ब्रह्मेन्द्रनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘इंद्रदत्त’ भगवान, इंद्र करें तुम भक्ती।
जो तुम आश्रय लेय, पावें अनुपम शक्ती।।पूजूँ.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री इंद्रदत्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘श्री नायक’ जिननाथ, करुणािंसधु तम्हीं हो।
करो कृपा मुझनाथ, भवरुज वैद्य तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नायकनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
धर्मनाथ के नाथ तुम, धर्मचक्रधर धीर।
पूरण अर्घ्य चढ़ायके, पाऊँ मैं भवतीर।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगादिदेवादिनायकनाथपर्यंतचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
क्य सुधा, पीकर आतमरस चखते हैं
फिर परमानंद परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।६।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस िवधि निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चय नय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।७।।
भगवन्! कब ऐसी शजय जय तुम वाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल जै।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अतिशीतल है।।
चंदन औ मोती हार चंद्रकिरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिश्य सुखदायी।।१।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों कोय जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।२।।
प्रत्येक वस्तु है अस्ति रूप, औ नास्ति रूप भी है वो ही।
दो ही है उभय रूप समझो, फिर अवक्तव्य है भी वो ही।।
वो अस्तिरूप और अवक्तव्य फिर नास्ति अवक्तव भंग धरे।
फिर अस्ति नास्ति और अवक्क्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।३।।
स्वद्रव्य क्षेत्र औ काल भव, इन चारों से अव अस्तिमयी।
परद्रव्य क्षेत्र कालादि से, वो ही वस्तू नास्तित्व कही।।
दोनों का क्रम से कहना हो, तब अस्तिनास्ति यह भंग कहा।
दोनों का युगपत कहने से, हो अवक्तव्य यह तुर्य कहा।।४।।
अस्ती औ अवक्तव्य क्रम से, यह पंचम भंग कहा जाता।
नास्ती औ अवक्तव्य छट्ठा, यह भी है क्रम से बन जाता।।
क्रम से कहने से अस्ति नास्ति, और युगपत अवक्तव्य मिलके।
यह सप्तम भंग कहा जाता, बस कम या अधिक न हो सकते।।५।।
इस सप्त भंग मय सिन्धू में, जो नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह रागद्वेषादिरूप, सब कर्म कालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्ति मिले, श्रुुतदृग से निज को अवलोवूँ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निज को अवलोवूँ सुख पाऊँ।।८।।
वर्तमान चौबीस जिन, नमूँ आप पदपद्म।
हरो अमंगल विघ्नघन, हो मुझ अपुनर्जन्म।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।