पूरब पुष्कर ऐरावत के, वर्तमान तीर्थंकर।
चिच्चैतन्य सुधारस प्यासे, भविजन को क्षेमंकर।।
उनको इत आह्वानन करके, पूजूँ मन वच तन से।
आतम अनुभव अमृत हेतु, वंदूँ अंजलि करके।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अगणित कुओं का नीर पीया, प्यास फिर भी ना बुझी।
इस हेतु जल से पूजहूँ, अब मेट दो बाधा सभी।।
चौबीस तीर्थंकर में, सर्व सुख दातार हैं।
जो पूजते तुम चरण अंबुज, वे भवोदधि पार हैं।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जलं निर्वपामिति स्वाहा।
भव सिंधु में भी चाह दावानल हमें झुलसा रहा।
इस हेतु चंदन से जजूँ, अब दु:ख नहिं जाता सहा।।चौबीस.।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
निज आत्म सुख जो सहज मेरा, खंड खंड हुआ सभी।
उसके अखंडित हेतु अक्षत, पुंज से पूजूँ अभी।।चौबीस.।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
इस मदन ने बस जगत में, जन सर्व को वश में किया।
इसके निमूलन हेतु सुरभित, सुमन तुम अर्पण किया।।चौबीस.।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
तन में क्षुधा व्याधी सदा, औषधि न कुछ उसके लिये।
इस हेतु उत्तम सरस व्यंजन, आप ढिग अर्पण किये।।चौबीस.।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अज्ञान तम अति घोर छाया, आप र दीखे नहीं।
इस हेतु दीपक से जजूँ, निज ज्ञान रवि प्रगटे सही।।चौबीस.।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
इन कर्म ने मुझ संपदा को, लूट ली मुझ पास से।
इस हेतु इनको नाश करने, धूप खेऊं चाव से।।चौबीस.।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
वांछित मिले इस हेतु जग में, देव सब पूजे सदा।
पर सफल अब तक ना हुआ, इस हेतु फल तुम अर्पता।।चौबीस.।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो फलं निर्वपामिति स्वाहा।
नीरादि में वर रत्न धरके, अर्घ्य सुंदर ले लिया।
अनमोल निज संपत्ति हेतु, अर्घ्य तुम अर्पण किया।।चौबीस.।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधार मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
सिद्धि वधू भरतार, निज में ही रमते सदा।
भुक्ति मुक्ति करतार, इसी हेतु भविजन जजें।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्री ‘शंकर’ जिनदेवजी, जग में शं करतार।
अर्घ्यं चढ़ाकर मैं जजूँ, होवे निज पद सार।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शंकरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अक्षवास’ जिनराज को, मिला सौख्य निर्वाण।
हृदय कर्णिका में सदा, मुनिजन करते ध्यान।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अक्षवासजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘नग्नाधिप’ देव तुम, बहिरंतर निर्ग्रंथ।
नग्न दिगम्बर रूप तुम, सत्य मोक्ष का पंथ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नग्नाधिपजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘नग्नाधिपतीश’ हो, नमन करें सुरवृंद।
मैं पूजूँ नित अर्घ्य ले, हरो सकल दुख द्वंद।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नग्नाधिपतीशजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ ‘नष्टपाखंड’ को, विश्व नमाता माथ।
मैं भी अर्घ्य चढ़ाय के, फिर ना होऊँ अनाथ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नष्टपाखंडजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘स्वप्नदेव’ जिननाथ को, नमूँ नमूँ तन शीश।
हरो अमंगल विश्व के, भरो सकल सुख ईश।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वप्नदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
आप ‘तपोधन’ आत्मधन, पाकर भये सुतृप्त।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ सौख्य प्रशस्त।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तपोधनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पुष्पकेतु’ जिनराज हैं, मुक्तिरमा भरतार।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ सौख्य अपार।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पुष्पकेतुजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘धार्मिक’ जिनराज का, धर्मचक्र हितकार।
जो भविजन शरणा गहें, नाशें निज संसार।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री धार्मिकजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘चंद्रकेतु’ भगवान को, नमते नाग नरेश।
स्याद्वाद अम्भोधि के, वर्धन हेतु महेश।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रकेतुजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘अनुरक्त’ सुज्योति को, नमन करूँ शतवार।
तुम में जो अनुरक्त जन, वे उतरें भव पार।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनुरक्तसुज्योतिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘वीतराग’ जिनदेव के, चरण कमल का ध्यान।
जो जन करते भाव से, पावें सौख्य निधान।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वीतरागजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘उद्योत’ जिनेश तुम, ज्ञान भानु तमहार।
पूजूँ सकल विभाग तज, लहूँ ज्ञान भंडार।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री उद्योतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘तमोपेक्ष’ भगवान के, गुणगण अपरंपार।
गणधर भी नहिं गा सकें, मैं पूजूं सुखसार।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तमोपेक्षजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘मधुनाद’ जिनेन्द्र को, सुरनर खग पति आय।
पूजें भक्ति बढ़ाय के, मैं पूजूँ हरषाय।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मधुनादजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘मरुदेव’ महान हो, अद्भुत तुम माहात्म्य।
मैं पूूजूँ नित भक्ति से, होऊँ सब जन मान्य।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री मरूदेवीजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘वृषभस्वामि’ आनंदघन, चिन्मय ज्योति स्वरूप।
जो पूजें श्रद्धान धर, पावें सौख्य अनूप।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वृषभस्वामिजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अहो ‘शिलातन’ तीर्थपति, व्रतगुणशील निधान।
तुम्हें जजें जो भक्ति से, करें अमंगल हान।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शिलातनजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘विश्वनाथ’ के ज्ञान में, झलके विश्व समस्त।
त्रैकालिक पर्याययुत, सकल वस्तु प्रत्यक्ष।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘महेन्द्र’ भगवान हैं, त्रिभुवनपति महनीय।
मैं पूजूँ नित आप मुझ, हरो दशा दयनीय।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री महेन्द्रजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर ‘नंद’ जगत प्रभो, परमानंद निमग्न।
तुमको पूजें जो मुदित, वे नर सदा प्रसन्न।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नंदजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सकल ‘तमोहर’ आप हैं, भविजन कमल दिनेश।
जो पूजें तुम प्रीति धर, हरें सकल दुख क्लेश।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री तमोहरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री ‘ब्रह्मज’ जिनदेव को, बंदूँ बारंबार।
हरूँ मोक्ष पथ विघ्न सब, लहॅूँ सकल सुखकार।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ब्रह्मजजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो आप में ही रत हो, आपको वश पा लिया।
उन चरण में शत इंद्र ने, भी आप शीश झुका दिया।।
मैं पूजहूँ उनको सदा वे, सौख्य के भण्डार हैं।
वे काम मोह व मृत्यु तीनों मल्ल के हंतार हैं।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री शंकरादिब्रह्मजपर्यंतचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जय जय श्री जिनराज, पृथ्वीतल पर आवते।
बरसें रत्न अपार, सुरपति मिल उत्सव करें।।१।।
प्रभु तुम जब गर्भ बसे आके, उसके छह महिने पहले ही।
सौधर्म इंद्र की आज्ञा से, बहुरत्नवृष्टि धनपति ने की।।
मरकतमणि इंद्र नीलमणि औ, वरपद्मरागमणियां सोहें।
माता के आंगन में बरसें, मोटी धारा जनमन मोहे।।१।।
प्रतिदिन साढ़े बारह करोड़, रत्नों की वर्षा होती है।
पंद्रह महीने तक यह वर्षा, सब जन का दारिद खोती है।।
जिनमाता पिछली रात्री में, सोहल स्वप्नों को देखे हैं।
प्रात: पतिदेव निकट जाकर, उन सबका शुभ फल पूछे हैं।।२।।
पतिदेव कहें हे देवि! सुनो, तुम तीर्थंकर जननी होंगी।
त्रिभुवनपति शतइंद्रों वंदित, सुतको जनि भवहरणी होंगी।।
ऐरावत हाथी दिखने से, तुमको उत्तम सुत होवेगा।
उत्तुंग बैल के दिखने से, त्रिभुवन में जेष्ठ सु होवेगा।।३।।
और सिंह देखने से अनंत, बल युक्त मान्य कहलायेगा।
मालाद्वय दिखने से सुधर्ममय, उत्तम तीर्थ चलायेगा।।
लक्ष्मी के दिखने सेसुमेरु गिरि, पर उसका अभिषव होगा।
पूरण शशि से जिन आनंदे, भास्कर से प्रभामयी होगा।।४।।
द्वयकलशों से निधि का स्वामी, मछली युग दिखीं सुखी होगा।
सरवर से नाना लक्षण युत, सागर से वह केवलि होगा।।
सिंहासन को देखा तुमने, उससे वह जगद्गुरू होगा।
सुर के विमान के दिखने से, अवतीर्ण स्वर्ग से वह होगा।।५।।
नागेन्द्र भवन से अवधिज्ञान, रत्नों से गुण आकर होगा।
निर्धूम अग्नि से कर्मेधन, को भस्म करे ऐसा होगा।।
फल सुन रोमांच हुई माता, हर्षित मन निज घर आती है।
श्री ह्री धृति आदिक देवी मिल, सेवा करके सुख पाती हैं।।६।।
पति की आज्ञा से शची स्वयं, निज गुप्त वेश में आती है।
माता की अनुपम सेवा कर, बहु अतिशय पुण्य कमाती हैं।।
जब गूढ़ प्रश्न करती देवी, माता प्रत्युत्तर देवी हैं।
त्रयज्ञानी सुत का ही प्रभाव, जो अनुपम उत्तर देती हैं।।७।।
इसविध से माता का माहात्म्य, प्रभु तुम प्रसाद से होता है।
तुम नाम मंत्र भी अद्भुत हैं, भविजन का अघ मल धोता है।
मैं इसीलिये तुम शरण लिया, भगवन्! अब मेरी आश भरो।
निज ‘ज्ञानमती’ संपति देकर, स्वामिन् अब मुझे कृतार्थ करो।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थवर्तमानकालीनचतुा\वशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।