वर पूर्व पुष्कर अर्ध में जो पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें सदा तीर्थेश विहरें भव्यजन सुखदेय हैं।।
चंद्रबाहु श्रीभुजंगमय ईश्वर व नेमीप्रभ जिना।
पूजूँ इन्हें आह्वानन कर पाऊँ अतुल सुख आपना।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुभुजंगमईश्वर-नेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकर समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुभुजंगमईश्वर-नेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकर समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुभुजंगमईश्वर-नेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकर समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पद्म सरोवर का जल लेकर कंचन झारी भरिये।
तीर्थंकर पद धारा देकर जन्ममरण को हरिये।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूं नित सत्त्व हितंकर आतम गुण भंडारी।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन काश्मीरी केशर संग घिसायो।
जिनवर चरण सरोरुह चर्चत अतिशय पुण्य कमायो।।वि.।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
मोतीसम तंदुल उज्ज्वल ले धोकर थाल भराऊँ।
तीर्थंकर पद पुंज चढ़ाकर अक्षय सुख को पाऊँ।।वि.।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
चंपा हरसिंगार चमेली माला गूँथ बनाई।
तीर्थंकरपद कमल चढ़ाकर काम व्यथा विनशाई।।वि.।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
फेली गुझिया पूरणपोली बरफी और समोसो।
प्रभु के सन्मुख अर्पण करते क्षुधा डाकिनी नाशे।।वि.।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रत्नदीप की ज्योती जगमग करती तिमिर विनाशे।
प्रभु तुम आरती करते करते ज्ञान ज्योति परकाशे।।वि.।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
धूपदशांगी धूपघटों में खेवत उठे सुगंधी।
पापपुंज जलते इक क्षण में पैले सुयश सुगंधी।।वि.।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
सेव अनार आम सीताफल ताजे सरस फलों से।
पूजूँ चरणकमल जिनवर के मिले मोक्षफल सुख से।।वि.।।८।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जल फल अर्घ सजाकर उसमें चाँदी पुष्प मिलाऊँ।
वाद्य गीत संगीत नृत्य कर प्रभु को अर्घ चढ़ाऊँ।।वि.।।९।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणचंद्रबाहुआदिचतु-स्तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाथ! पादपंकज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांतीहेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुख लाभ, जिनपदपंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
पूरब पुष्कर द्वीप में, विहरमाण तीर्थेश।
पुष्पांजलि कर पूजते, मिले चिदानंद वेश।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
पूरब पुष्कर पूरब विदेह, सीता नदि के उत्तर तट में।
पितु-देवनंदि रेणुका मात, जनमें प्रभु नगरि विनीता में।।
तुम पद्मचिन्ह है ‘चंद्रबाहु’, मैं तुम चरणांबुजको ध्याऊँ।
जब तक नहीं मुक्ति मिले प्रभु जी, तुम चरणों में ही रम जाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीचंद्रबाहुजिनेन्द्राय: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पूरब पुष्कर पूरब विदेह, सीतानदि के दक्षिण दिश में।
विजयानगरी में पिता महाबल, माता जिनमति से जन्मे।।
तुम चंद्र चिन्ह है जनवत्सल, तीर्थेश ‘भुजंमय’ दया करो।
मैं सम्यग् रत्नत्रय बल से, निजको पालूँ यह कृपा करो।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीभुजंगमजिनेन्द्राय: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मंदरमेरू पश्चिम विदेह, सीतोदा नदि के दक्षिण में।
है नगरि सुसीमा माँ ज्वाला, गलसेन पिता पावन तुमसे।।
तुम चिन्ह सूर्य है ‘ईश्वर’ जिन, भविजन मन कमल खिलाते हो।
मैं पूजूँ आप मुमुक्षु को, मुक्ती से शीघ्र मिलाते हो।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपश्चिमविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीईश्वरजिनेन्द्राय: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मंदर मेरू पश्चिम विदेह, सीतोदा नदि के उत्तर में।
हैं नगरि अयोध्या के स्वामी, उनकी रानी से प्रभु जन्में।।
वृष लांछन युत हे ‘नेमीप्रभु’, सद्धर्भ ध्वजा को फहराते।
जो तुमको वंदन करते हैं, वे आतम सौरभ लहराते।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपश्चिमविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीनेमिप्रभजिनेन्द्राय: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नित्य निरंजन ज्योतिमय, परमपिता परमेश।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, जिनवर चरण हमेश।।१।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीचंद्रबाहुभुजंग-ईश्वरनेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर गणधर मुनिगण वंदे।
जय जय समवसरण परमेश्वर वंदत मन आनंदे।।
जय जय चंद्रबाहु तीर्थंकर जय तीर्र्थेश भुजंगम।
जय जय ईश्वर तीर्थंकर प्रभु जय नेमीनाथ अनुपम।।१।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढ़ियों ऊपर शिला नीलमणि धरते।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर अतिशय ऊँचे चमकें।।२।।
इनके चारों दिशी बावड़ी जल अति स्वच्छ भरा है।
आस पास के कुंडनीर में पग धोती जनता है।।
प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में जिनगृह अतिशय ऊँचे।
खाई लताभूमि उपवन में पुष्प खिले अति नीके।।३।।
वनभूमती के चारों दिश में चैत्यवृक्ष मेंं प्रतिमा।
कल्पभूमि सिद्धार्थवृक्ष को नमूँ नमूँ अति महिमा।।
ध्वजाभूमि की उच्च ध्वजायें लहर लहर लहरायें।
भवनभूमि के जिनबिंबों को हम नित शीश झुकायें।।४।।
श्री मंडप में बारह कोठे मुनिगण सुर नर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर शांतचित्त वहाँ बैठे।।
गणधर गुरु के पावन चरणों झुक झुक शीश नमाउँ।
सर्व रिद्धि के स्वामी गुरु को वंदत विघ्न नशाऊँ।।५।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन जिनवर अधर विराजें।
प्रातिहार्य की शोभा अनुपम कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इंद्रों से पूजित जिनवर त्रिभुवन के गुरु मानें।
नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़कर मेरे भव दुख हाने।।६।।
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, चिंतित फल दातार।
‘ज्ञानमती’ सुख संपदा, दीजे निज गुण सार।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वपरविदेहक्षेत्रसथचंद्रबाहुभुजंगमईश्वरनेमिप्रभनाम-विहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।