वर द्वीप नंदीश्वर सु अष्टम, तीन जग में मान्य है।
बावन जिनालय देवगण से, वंद्य अतिशयवान है।।
प्रत्येक दिश तेरह सु तेरह, जिनगृहों की वंदना।
थापूँ यहाँ जिनबिंब को, नितप्रति करूँ जिन अर्चना।।१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
स्वर्णभृंग में सुशीत गंगनीर लाइये।
शाश्वते जिनेन्द्र बिंब पाद में चढ़ाइये।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्रदेव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
अंतरंग ताप ज्वर विनाश हेतु गंध है।
नाथ पाद पूजते मिले निजात्म गंध है।।आठवें.।।२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
मोतियों के हारवत् सफेद धौत शालि हैं।
आप को चढ़ावते निजात्म सौख्यमालि हैं।।आठवें.।।३।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
मालती गुलाब कुंद मोगरा चुनाइये।
आप पाद पूजते सुकीर्ति को बढ़ाइये।।आठवें.।।४।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
मालपूप खज्जकादि पूरियाँ चढ़ाइये।
भूख व्याधि जिष्णु को, अनंतशक्ति पाइये।।आठवें.।।५।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अनादि काल से लगे अनंत मोहध्वांत को।
दीप से जिनेश पूज नाशिये कुध्वांत को।।आठवें.।।६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
धूप लाल चंदनादि मिश्र अग्नि में जले।
आतमा विशुद्ध होत कर्म भस्म हो चलें।।आठवें.।।७।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
इक्षुदंड सेव दाड़िमादि थाल में भरें।
मोक्ष संपदा मिले जिनेश अर्चना करें।।आठवें.।।८।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
अष्ट द्रव्य ले अनर्घ्य मूर्तियों को पूजिये।
अष्ट कर्म नाश के त्रिलोकनाथ हूजिये।।आठवें.।।९।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अमल बावड़ी नीर, जिनपद में धारा करूँ।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी पुष्प, हर्षित मन से लाइके।
जिनवर चरण समर्प्य, सर्व सौख्य संपति बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:। अथ प्रत्येक अर्घ्य
बावन जिनगृह चार दिश, पूजूं चित्त लगाय।
श्रावक की त्रेपन क्रिया, पूर्ण करो जिनराय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नंदीश्वर वर द्वीप, चारों दिश मधि जानो।
अंजनगिरि गुण नाम, अतिशय रम्य बखानो।।
ईश निरंजन सिद्ध प्रभु का निलय कहा है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, मन संताप दहा है।।१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपेपूर्वदिक्अंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजनगिरि की चार, दिश में चउ द्रह जानो।
नीर भरे कमलादि, कुमुदों से पहचानों।।
पूरब नंदा वापि, दधिमुख नग जिनगेहा।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, मेटूँ मन संदेशा।।२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दावापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदवती द्रह मािंह, दधिमुख दधिसम सोहे।
तापे जिनवर धाम, सुर किन्नर मन मोहे।।
तिन में श्रीजिनबिंब, सुवरण रतनमयी हैं।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय पाऊँ, मोक्ष मही है।।३।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दावतीवापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदोत्तरा सुवापि, मधि दधिमुख नग भारी।
पश्चिम दिश में जान, लख योजन द्रह भारी।।
तापे श्रीजिनधाम, शाश्वत सिद्ध सही है।
पूजूूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ मोक्षमही है।।४।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दोत्तरावापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदीघोषा वापि, उत्तर दिश में जानो।
तामधि दधिमुख आदि, उसपे जिनगृह मानो।।
त्रिभवुनपति जिनबिंकब, अनुपम रत्नमयी है।
पूजूूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ मोक्षमही है।।५।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नंदिघोषावापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदा द्रह ईशान कोण में, रतिकर नग रक्ताभा।
ताके ऊपर सिद्धकूट है, जिनमंदिर रत्नाभा।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दावापिकाईशानकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदा द्रह आग्नेय दिशा में, रतिकर दुतिया कहा है।
तापे सिद्धकूट जिनमंदिर, अतिशय रम्य कहा है।।रति.।।७।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दावापिकाआग्नेयकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदव्ाती द्रह अग्निकोण में, रतिकर तृतिय सुहाता।
तापे सिद्धकूट जिनमंदिर, इंद्रादिक तन भाता।।रति.।।८।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दवतीवापिकाआग्नेयकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदवती वापी नैऋत्य में, रतिकर नग अति सोहे।
सिद्धकूट जिन आलय तापे, सुर वनिता मन मोहे।।रति.।।९।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दवतीवापिकानैऋत्यकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम वापी नंदोत्तर है, नैऋत्यकोण सुहावे।
रतिकर नग पर सिद्धकूट में, जिनमंदिर मन भावे।।रति.।।१०।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दोत्तरवापिकानैऋत्यकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापी नंदोत्तरा अपर दिश, ता वायव्य दिशा में।
रतिकर, स्वर्ण अचल के ऊपर, सिद्धकूट अभिरामें।।रति.।।११।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दोत्तरावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदीघोषा वापी विदिशा, वायु कोण में जानो।
रतिकर पर्वत सिद्धकूट में, जिनमंदिर मन भावो।।रति.।।१२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दिघोषवापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्रह नंदीघोषा ईशाने, रतिकर पीत सुहाता।
तापे सिद्धकूट चैत्यालय, पूजत मन हरषातो।।रति.।।१३।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे नन्दिघोषवापिकाईशानकोणे रतिकरपर्वत सिद्धकूटजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदीश्वर के दक्षिण दिश में, मधि ‘अंजनगिरि’ तुंग महान।
इंद्रनीलमणि सम छवि ऊपर, नित्य निरंजन का गृह मान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभु आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परम स्थान।।१४।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजनगिरि के पूरब ‘अर्जा’, वापी सजल कमल की खान।
ताके मधि-दधिमुख पर्वत पर, जिनमंदिर अविचल सुखदान।।जल.।।१५।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअरजावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजन नग दक्षिण दिश वापी, विरजा कही अमल जल खान।
मध्य अचल दधिमुख के ऊपर, जिन चैत्यालय पावन जान।।जल.।।१६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिविरजावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजन नग पश्चिम दिश वापी, नाम अशोक शुच उपहार।
बीच अचल दधिमुख के ऊपर, शोक रहित जिनगृह सुखकार।।जल.।।१७।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअशोकावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
उत्तरदिश में अंजनगिरि के, वापि वीतशोका अमलान।
दधिमुख पर्वत सिद्धकूट पर, वीतशोक जिनमंदिर जान।।जल.।।१८।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिवीतशोकावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अरजाद्रह ईशान कोण पर, रतिकर पर्वत सुंदर जान।
सिद्धकूट जिन चैत्यालय में, रतनमयी जिनबिम्ब महान।।जल.।।१९।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअरजावापिकाईशानकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अरजा वापी अग्निकोण में, रतिकर दुतिय पदम द्युतिमान।
सिद्धकूट जिनमंदिर सुंदर, जिनप्रतिमा सब सौख्य निधान।।जल.।।२०।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअरजावापिकाआग्नेयकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विरजावापी आग्नेय पर, रतिकर नग अद्भुत मणिमान।
सिद्धकूट जिननिलय अकृत्रिम, मणिमय जिन अकृत्रिम शिवदान।।जल.।।२१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिविरजावापिकाआग्नेयकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विरजावापी नैऋत दिश में, रतिकर पर्वत पीत सुहाय।
सिद्धकूट जिनभवन अकृत्रिम, जिनवर छवि वरणी नहिं जाय।।जल.।।२२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिविरजावापिकाऋत्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नाम अशोकद्रह नैऋत में, रतिकर पर्वत अतुल निधीश।
सिद्धकूट जिनमहल अनूपम, जिनवर प्रतिमा त्रिभुवन ईशा।।जल.।।२३।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअशोकवापिकानैऋत्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापि अशोका वायुविदिश में, रतिकर नग शोभे स्वर्णाभ।
सिद्धकूट जिनवेश्म अमल है, श्रीजिनबिंब अतुल रत्नाभ।।जल.।।२४।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिअशोकावापिकावायव्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापी सजल वीतशोका के, वायु कोण रतिकर रतिनाथ।
रतिपतिविजयी जिनमंदिर में, रुचिकर जिन छवि त्रिभुवननाथ।।।।जल.।।२५।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिवीतशोकावापिकावायव्यकोणेरतिकरपर्वत-सिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वीतशोकद्रह में ईशान पर, रतिकर तप्तस्वर्ण सम कांत।
सिद्धकूट जिन आलय दुखहर, जिनवर बिंब सौम्य छवि शांत।।जल.।।२६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशिवीतशोवापकाईशानकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्वीप आठवें पश्चिम दिश अंजनगिरी।
तापे जिनग्ाृह अतुल सौख्य संपति भरी।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरूँ भक्ति की नाव से।।२७।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि अंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयावापी मध्य दधीमुख जानिये।
सिद्धकूट पर शाश्वत जिनगृह मानिये।।स्वयं।।२८।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि विजयावापीमध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजन दक्षिण वैजयंति वापी कही।
बीच अचल दधिमुख पे जिनगृह सुखमही।।स्वयं।।२९।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि वैजयन्तीवापीमध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजन पश्चिम वापि जयंती सोहती।
मधि दधिमुख पे जिनगृह से मन मोहती।।स्वयं।।३०।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिजयतीवापीकामध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजनगिरि उत्तर वापी अपराजिता।
मधि दधिमुख पर्वत पे जिनगृह शासता।।स्वयं।।३१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिअपराजितावापीमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयावापी रुद्रकोण पे रतिकरा।
तापे सिद्धकूट जिनगृह भवि मनहारा।।स्वयं।।३२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिविजयावापीईशानकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विजयाद्रह आग्नेय कोण रतिकरगिरी।
सिद्धकूट जिनमंदिर से अनुपम सिरी।।स्वयं।।३३।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि विजयावापीआग्नेयकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वैजयंतिवापी के अग्निकोण में
रतिकर गिरि पर श्रीजिनवर के वेश्म में।।स्वयं।।३४।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि वैजयंतीवापीआग्नेयकाणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वैजयंतिद्र के नैऋत में जानिये।
रतिकर नग में अकृत्रिम गृह मानिये।।स्वयं।।३५।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिवैजयंतीवापीनैऋत्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापि जयंती नैऋत में रतिकर कहा।
सिद्धकूट जिनमंदिर निज सुखकर कहा।।स्वयं।।३६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिजयंतीवापीनैऋत्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापि जयंती वायु विदिश रतिकर महा।
सिद्धकूट अकृत्रिम जिनगृह दु:ख दहा।।स्वयं।।३७।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिजयंतीवापीवायव्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अपराजिता सुवापी वायवकोण में।
रतिकर पर्वत पे जिनगृह अतिरम्य में।।स्वयं।।३८।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिअपराजितावापीवायव्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्रह अपराजित की विदिशा ईशान है।
तापे रतिकर चामीकर छवि शान है।।स्वयं।।३९।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशिअपराजितवापीईशानकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
उत्तरदिश इस द्वीप में, अंजनगिरि नीलाभ।
सिद्धकूट जिनसद्म को, पूज मिले शिवलाभ।।४०।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि अंजनगिरिसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजननग पूरबदिशी, रम्यावापी स्वच्छ।
मधि दधिमुख गिरि जिनभक्त, पूजत कर्म विपक्ष।।४१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिरम्यावापीमध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजन के दक्षिण दिशी, रमणीया द्रह जान।
दधिमुख नग पर जिननिलय, पूजत हो निजथान।।४२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिरमणीयावापीमध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजन के पश्चिम दिशी, द्रह सुप्रभा अनूप।
दधिमुख ऊपर जिनभवन, पूजत हो शिवभूप।।४३।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिसुप्रभावापीमध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजननग उत्तर दिशी, सर्वतोभद्रा वापि।
मधि दधिमुख पे जिनसदन, जजत न जन्म कदापि।।४४।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिसर्वतोभद्रावापीमध्यदधिमुख पर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रम्याद्रह ईशान में, रतिकरनग स्वर्णाभ।
सिद्धकूट जिनगेह को, पूजत हो निष्पाप।।४५।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिरम्यावापीईशानकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रम्याह्रद आग्नेयदिशि, रतिकर गिरि अमलान।
जिनमंदिर शाश्वत जजूँ, मिलें नवों निधि आन।।४६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिरम्यावापीआग्नेयकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रमणीया द्रह अग्नि दिशि, रतिकर नग सिरताज।
सिद्धकूट पर जैनगृह, जजत मोक्ष सामा्रज।४७।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापीआग्नेयकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रमणीया द्रह नैऋते, रतिकरनग सुखदान।
शाश्वत जिनमंदिर, जजूँ, मिले स्वपर विज्ञान।।४८।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापीनैऋत्याकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापिसुप्रभा नैऋते, रतिकर पर्वत सिद्ध।
मणिमय जिनमंदिर जजूँ, पाऊँ ऋद्धि समृद्ध।।४९।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सुप्रभानैऋत्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्रह सुप्रभा सुवायु दिशि, रतिकरनगर रतिकार।
तापे जिनगृह निज जजूँ, मिले स्वपद अविकार।।५०।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशिसुप्रभावापीवायव्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापि सर्वतोभद्रिका, रतिकर वायव कोण।
जिनमंदिर शाश्वत जजूँ, मिले भवोदधि कोण।।५१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सर्वतोभद्रावापीवायव्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वापि सर्वतोभद्रिका, रतिकर दिशि ईशान।
तापे जिनगृह पूजते, हो अनंत श्रीमान्।।५२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सर्वतोभद्रावापीईशानकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नंदीश्वर में चार दिश, बावन जिनगृह सिद्ध।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे चतुर्दिक्संबंधिद्वापंचाशत्जिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
छप्पन सौ सोलह कहीं, जिनप्रतिमा अभिराम।
पूजूँ अर्घ चढ़ायके, शत शत करूँ प्रणाम।।२।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशत्जिनालयमध्यविराजमानपंचसह्रसषट्शतषोडश जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्य निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
चिन्मूरति परमात्मा, चिदानंद चिद्रूप।
गाऊँ गुणमाला अबे, स्वल्पज्ञान अनुरूप।।१।।
जय आठवां जो द्वीप नाम नंदिश्वरा है।
जय बावनों जिनालयों से पुण्यधरा है।।
इक सौ तिरेसठे करोड़ लाख चुरासी।
विस्तार इतने योजनों से द्वीप विभासी।।२।।
चारों दिशी के बीच में अंजनगिरी कहे।
जो इंद्रनील मणिमयी रत्नों से बन रहे।।
चौरासी सहस योजनों विस्तृत व तुंग हैं।
जो सब जगह समान गोल अधिक रम्य हैं।।३।।
इस गिरि के चार दिश में चार चार वापियां।
जो एक लाख योजन जलपूर्ण वापियांं।।
पूर्वादिक्रम दिशा से नंदा नंदवती हैं।
नदोत्तरा व नंदिघोषा नाम प्रभृति हैं।।४।।
प्रत्येक वापियों में कमलफूल रहे हैं।
प्रत्येक के चउ दिश में भी उद्यान घने हैं।।
अशोक सप्तपत्र चंप आम्र वन कहे।
पूर्वादि दिशा क्रम से अधिक रम्य दिख रहे।।५।।
दधिमुख अचल इन वापियों के बीच में बने।
योजन हजार दश उतुंग, विस्तृते इतने।।
प्रत्येक वापियों के दोनों बाह्य कोण में।
रतिकर गिरी हैं शोभते जो आठ आठ हैं।।६।।
योजन हजार एक चौड़े तुंग भी इतने।
सब स्वर्ण वर्ण के कहे रतिकर गिरी जितने।।
दधिमुख दधी समान श्वेत वर्ण धरे हैं।
ये बावनों ही अद्रि सिद्धकूट धरे हैं।।७।।
इनमें जिनेन्द्र भवन आदि अंत शून्य हैं।
जो सर्व रत्न से बने जिनबिंब पूर्ण हैं।।
उन मंदिरों में देव इंद्रवृंद जा सकें।
वे नित्य ही जिनेन्द्र की पूजादि कर सकें।।८।।
आकाशगामी साधु मनुज खग न जा सकें।
वे सर्वदा परोक्ष में ही भक्ति कर सकें।।
मैं भी यहाँ परोक्ष में ही अर्चना करूँ।
जिनमूर्तियाँ की बारबार वंदना करूँ।।९।।
प्रभु आपके प्रसाद से भवसिंधु को तिरूं।
मोहारि जीत शीघ्र ही जिनसंपदा वरूँ।।
हे नाथ! बार मेरी अब न देर कीजिये।
अज्ञानमती विज्ञ में अब फेर दीजिये।।१०।।
नंदीश्वर के चार दिश, जिनमंदिर जिनदेव।
उनको पूजूं भाव से, ‘ज्ञानमती’ हित एव।।११।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वद्वीपे चतुर्दिग् द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।