व्यंतर देवों के आठ भेद, उनमें किन्नर सुर पहले हैं।
इन सुर के भवन भवनपुर अरु आवास तीन विध महले हैं।।
ये असंख्यात द्वीप सागर तक निज महलों से पैले हैं।
सब गृह के असंख्यात मंदिर पूजत निजगुण यश पैले हैं।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
जिन यश सम उज्ज्वल नीर, कंचन भृंग भरूँ।
प्रभु मिले भवांबुधि तीर, तुम पद धार करूँ।।
किन्नर सुर के जिनधाम, पूजूँ मन लाके।
प्रभु मिले निजातम धाम, हर्षूं सुख पाके।।१।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन तनु सम सुरभित गंध चचूँ प्रभु पद में।
मिल जावे आत्म सुगंध, बंदूँ तुम पद मैं।।किन्नर.।।२।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवच सम धवल अखंड, तंदुल पुंज धरूँ।
मिल जावे ज्ञान अखंड, गुणमणि पुंज भरूॅ।।किन्नर.।।३।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन तुम सम सुरभित पुष्प, चंपक कमल खिले।
तुम चरण कमल में अर्प्य, मनकी कली खिले।।किन्नर.।।४।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवच सम मधुर सुवास, घेवर फेनी हैं।
जिनचरण चढ़ावत खास, समरस देती हैं।।किन्नर.।।५।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनदीप्ति सदृश मणिदीप, ज्योति जगमगती।
आरति करते मन बीच ज्योती जगमगती।।किन्नर.।।६।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनयश सम धूप सुगंध, पैâले दशदिश में।
जल जावे कर्मन बंध, खेऊँ अग्नी में।।किन्नर.।।७।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवच सम मधुर रसाल, आम अनार भले।
अर्पत सुख मिले विशाल, शिवफल तुरत फले।।किन्नर.।।८।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जिन गुण सम अर्घ अनर्घ, रत्न मिलाय लिया।
प्रभु तुम पद अग्र समर्प्य, अनवधि सौख्य लिया।।किन्नर.।।९।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री जिनवरपद पद्म, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले शांति सुख सद्म, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
परमामृत सुखलाभ मिले सर्वसुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
व्यंतर किन्नर जाति में, दोय इंद्र अभिराम।
उनके जिन गृह पूजहूँ, पुष्पांजलिकर मान्य।।१।।
इति मण्डलस्योपरि अंजनकद्वीपस्थाने पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘अंजनक’ द्वीप के दक्षिण में, किंपुरुष इंद्र के पाँच नगर।
मधि नगर किंपुरुषपुर पूरब, दिश क्रम से किंपुरुष प्रभादि नगर।।
दक्षिण ‘किंपुरुषकांत’ किंपुरुषावर्त पुन: किंपुरुषमध्य।
दक्षिण में हैं ‘किंपुरुषइंद्र’ इनके जिनगृह शतइंद्र वंद्य।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके अंजनद्वीपस्थितिंकपुरुषेंन्द्रस्य संख्यातीभवनपुरवाससंबंधि-संख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अंजनक द्वीप के उत्तर में किन्नर अधिपति के पाँच नगर।
उत्तरी नगर में रहें इंद्र, इनके भी असंख्यात हैं घर।।
उन सब में जिनमंदिर शाश्वत मणिमय रत्नों के बने हुये।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके ये भक्तसुरों से भरे हुये।।२।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके अंजनद्वीपस्थितकिन्नरेन्द्रस्य संख्यातीभवनपुरवाससंबंधि-संख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इन दो इंद्रों के दो प्रतीन्द्र, सामानिकादि अठविध परिकर।
सबके निलयों में जिनमंदिर, हैं संख्यातीत कहें मुनिवर।।
उन सबके जिनमंदिर पूजूँ, इन भक्ती कामधेनु मानी।
यह इष्ट वियोग अनिष्ट योग दुख नाशकरन में कुशलानी।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके अंजनद्वीपस्थितकिन्नरजातिव्यंतरदेवभवनपुरावाससंबंधि-संख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
किन्नरसुर कुल वृक्ष, ‘तरु अशोक’ है चैत्यतरु।
मन वच तन कर स्वच्छ, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
मरकत मणिमय चैत्य वृक्ष, तरुवर अशोक अति शोभें।
पूरबदिश में मूल भाग में, चउ जिन प्रतिमा शोभें।।
पर्यंकासन जिनवर प्रतिमा, प्रातिहार्य से शोभें।
उनकी पूजा करते भविजन, निजगुणमणि से शोभें।।१।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवस्थाने अशोकतरुचैत्यवृक्षमूलभागपूर्वदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।,
चार चार योजन लंबी शाखाओं से तरु सोहे।
दक्षिण दिश में चार जिनेश्वर प्रतिमा से मन मोहे।।पर्यंकासन.।।२।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवस्थाने अशोकतरुचैत्यवृक्षमूलभागदक्षिणदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पद्म राग मणि के फूलों से, मरव्त मणि पत्तों से।
कोंपल डाली तना मनोहर, चैत्यवृक्ष अति भासे।।पर्यंकासन.।।३।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवस्थाने अशोकतरुचैत्यवृक्षमूलभागपश्चिमदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पृथ्वीकायिक चैत्यवृक्ष में, उत्तर दिश जिनप्रतिमा।
जो जन पूजें भक्ति भाव से पावें सौख्य अनुपमा।।पर्यंकासन.।।४।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवस्थाने अशोकतरुचैत्यवृक्षमूलभागउत्तरदिग्विराजमानचतुर्जिन-प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रति जिनप्रतिमाओं के आगे, मानस्तंभ सुशोभें।
जिनबिंबों से युक्त देवगण, वंदित जन मन लोभें।।
इन सोलह मानस्तंभों को, झुक झुक शीश नमाऊँ।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर निजप्रति, जिनगुण महिमा गाऊं।।५।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवस्थाने अशोकतरुचैत्यवृक्षसिथतषोडशजिनप्रतिमासन्मुखस्थित-षोडशमानस्तम्भेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
चैत्य वृक्ष की सोलह प्रतिमा, जिनवर सम सुखदायी।
सोलह मानस्तंभों के जिनबिंब जजूँ गुणगायी।।
गणधर मुनि गण सुरनर वंदित, सर्व जिनेश्वर प्रतिमा।
इनको पूजूँ भक्ति भाव से, पाऊँ निज गुण महिमा।।१।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवस्थाने अशोकतरुचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनप्रतिमातत्सन्मुख-स्थितषोडशमानस्तभ्यजिनप्रतिमाभ्य पूर्णार्घ्य निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जय जय शाश्वत जिननिलय, जिन प्रतिमा जिनसाम्य।
गाऊँ गुणमणि मालिका, मिले सौख्य जिनसाम्य।।१।।
जय जय जिनवर रूप अनूपम, जय जय चैत्य वृक्ष मनहार।
जय जय मानस्तंभ अकृत्रिम, जय जय सिद्धबिंब सुखकार।।
जय जय मंगलमय लोकोत्तम, शरणभूत जिनवर के धाम।
जय जय जय त्रैलोक्य हितंकर, शिरनत शत शत करूँ प्रणाम।।२।।
किन्नर सुर के दशिविध में, किंपुरुष व किन्नर हृदयंगम।
रूपपालि किन्नरकिन्नर, अनिंदित व्यंतर व मनोरम।।
किंनरोत्तम रतिप्रिय व ज्येष्ठ, ये दशजाती किन्नर सुर मध्य।
इनमें हैं किंपुरुष व किन्नर, इंद्र दोय इन विभव घनेय।।३।।
अवतंसा अरु केतुमती दो प्रथम इंद्र की बल्लभिका।
रतिसेना अरु रतिप्रिया ये द्वितिय इंद्र की बल्लभिका।।
एक इंद्र की दो हजार देवी, दो गणिका महत्तरी।
नाना विध विक्रियरूपों से, क्रीड़ा करतीं चित्तहरी।।४।।
सामानिक सुर चार सहस हैं, तनु रक्षक सोलह हज्जार।
आठ सहस दस सहस व बारह, सहस पारिषद् त्रय क्रम सार।।
अनीक सातहिं दो कोटी, अड़तालिस लाख ब्यानवे हजार।
देव प्रकीर्णक आभियोग्य, किल्विषक देव मानें श्रुतसार।।५।।
एक पल्य की आयु दस धनुष ऊँचे ये दो इंद्र प्रतीन्द्र।
किन्नर देह नीलमणिसम, किंपुरुष स्वर्णसम देह अनिंद्य।।
लाख इक्यावन योजन विस्तृत बने भवनपुर उत्कृष्टांत।
जघन्य पुर इक योजन विस्तृत इनमें घने देव प्रासाद।।६।।
बारह हजार दो सौ योजन, उत्कृष्टे शाश्वत आवास।
जघन्य माने तीन कोश के, इनमें व्यंतरसुर के वास।।
कम ऊँचाई तीन बटे चउ, उत्कृष्ट योजन तीन शतक।
ऊँचाई के तृतिय भाग हैं, कूट अकृत्रिम सब गृह मध्य।।७।।
कूटों ऊपर जिनमंदिर हैं, मणिमय शाश्वत त्रिभुवन पूज्य।
चउतरफे वेदी व चार वन, चैत्यवृक्ष जिन प्रतिमा पूज्य।।
बहुविध तप कर समकित बिन, नर व्यंतर सुर में लेते जन्म।
जिनवर भक्ती के प्रसाद से, सम्यक्त्वी बन होते धन्य।।८।।
हे भगवन्! तुम भक्ति से, नहिं छूटे सम्यक्त्व।
मिले आत्मनिधि साथ में, ज्ञानमती सर्वस्व।।९।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।