ब्रह्म ब्रह्मोत्तर युगल स्वर्ग में, चार लाख जिनमंदिर।
मणिमय रत्नमयी जिनप्रतिमा, पूजा करें पुरंदर।।
मैं भी इनका आह्वानन कर, भक्ति भाव से पूजूँ।
आतम अनुभव अमृत पीकर, जन्म मरण से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पमध्यस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पमध्यस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पमध्यस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पद्म सरोवर जल सुरभित ले, कंचन भृंग भराया।
निज आतम पावन करने को, जिनपद धार कराया।।
ब्रह्म कल्प के जिन मंदिर को, पूजूँ निज गुण गाऊँ।
आत्मब्रह्म में चर्या करके, परम ब्रह्मपद पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
कंचन द्रव सम चंदन सुरभित, जिनपद कमल चढ़ाऊँ।
सुख संपति सौभाग्य प्राप्त कर, निज समरस सुख पाऊँ।।ब्रह्म.।।२।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
बासमती चावल अति उज्ज्वल, जिनपद पुंज रचाऊँ।
जग के सब अभ्युदय प्राप्त कर, निज अखंड पद पाऊँ।।ब्रह्म.।।३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
हरसिंगार गुलाब चमेली, सुरभित पुष्प चढ़ाऊँ।
कामदेव का दर्प दूर कर, स्वात्म सुधारस पाऊँ।।ब्रह्म.।।४।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
पूरणपोली खाजे ताजे, खीर मलाई लाऊँ।
जिनवर आगे चरू चढ़ाके, आत्म तृप्ति को पाऊँ।।ब्रह्म.।।५।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कनक दीप में घृत भर करके, जगमग ज्योति जलाऊँ।
करूँ आरती मोह नाश कर, ज्ञान भारती पाऊँ।।ब्रह्म.।।६।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
धूप घड़े में सुरभि धूप को, खेऊँ गंध उड़ाऊँ।
कर्म भस्म कर दु:ख दूर कर, दिव्य सुखों को पाऊँ।।ब्रह्म.।।७।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
श्रीफल केला एला पिस्ता, काजू द्राक्ष चढ़ाऊँ।
महामोक्षफल की आशा से, बार-बार शिर नाऊँ।।ब्रह्म.।।८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमादिक, अर्घ चढ़ाऊँ रुचि से।
निज अनर्घ पद प्रभु दे दीजे, छूटूँ भव भव दुख से।।ब्रह्म.।।९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पस्थितचतुर्लक्षजिनलायजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर पद अरविंद में, धारा तीन करंत।
त्रिभुवन में भी शांति हो, निज गुणमणि विलसंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिनवर चरण सरोज में, सुरभित कुसुम धरंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निज गुण मणि विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।अथ प्रत्येक अर्घ्य
ब्रह्मकल्प के देव, शाश्वत जिनमंदिर जजें।
मिले ब्रह्मपद एव, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
इंद्रक नाम ‘अरिष्ट’, मध्य विमान सुसोहें।
चौबीस चौबिस श्रेणिबद्ध चहुँदिश सोहें।।
इन सबमें जिनधाम, शाश्वत रत्नमयी हैं।
जिन प्रतिमा अभिराम, पूजत सौख्य मही हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अरिष्टइन्द्रकविमानतच्चतुर्दिक् चतुा\वशतिचतुा\वशतिश्रेणीबद्धविमान स्थित जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘सुरसमितीय’, देव देवियाँ उसमें।
तेइस तेइस श्रेणिबद्ध कहें चहुंदिश में।।
इन सबमें जिनधाम, शाश्वत रत्नमयी हैं।
जिन प्रतिमा अभिराम, पूजत सौख्य मही हैं।।२।।
ॐ ह्रीं सुरसमितीयइन्द्रकविमानतच्चतुर्दिक् चतुा\वशतिचतुा\वशतिश्रेणीबद्धविमान स्थित जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘ब्रह्म’ विमान, इसके चारों दिश में।
बाईस बाइस श्रेणि, बद्ध विमान सुरग में।।इन.।।३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मइन्द्रकविमानतच्चतुर्दिक् द्वाा\वशतिद्वाा\वशतिश्रेणीबद्धविमान स्थित जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘ब्रह्मोत्तर’ शुभ नाम इंद्रक के चहुंदिश में।
इक्कीस इक्किस श्रेणिबद्ध कहें इस दिव में।।
दक्षिण श्रेणीबद्ध चौदहवें में सुरपति।
ब्रह्म इंद्र का वास नमूँ जिनालय नित प्रति।।४।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरइन्द्रकविमानतच्चतुर्दिक् एका\वशतिएकरा\वशतिश्रेणीबद्धविमान स्थित जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रकीर्णक विमान चैत्यालय अर्घ्य-नरेन्द्र छंद
तीन लाख निन्यानेव हजार, छह सौ छत्तिस जानो।
ब्रह्म कल्प के कहे प्रकीर्णक, विमान शाश्वत मानो।।
तीन लाख उन्निस हजार, छह सौ चालिस गिनने।
संख्यातीत योजनों के ये, सबमें जिनगृह नमनें।।५।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरस्वर्गसंबंधित्रयलक्षनवनवतिसहस्रषट्शतषट्त्रिंशत् प्रमाणप्रकीर्णकविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्र भवन के सन्मुख सुंंदर, तरु न्यग्रोध सुसोहे।
मरकत मणिमय पत्र पुष्प से, सुरगण का मन मोहे।।
चारों दिश में जिनवर प्रतिमा, सौम्य छवी अति शोभें।
आत्म सुधारस आस्वादी मुनि उनका भी मन लोभें।।६।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्द्रभवनसन्मुखस्थितन्यग्रोधतरुचैत्यवृक्षचतुर्दिक् चतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
साठ हजार योजनों विस्तृत, इंद्र नगर अतिशायी।
चारों तरफ पांच वेदी से, आगे वन सुखदायी।।
क्रम से अशोक सप्तछंद, चंपक तरु आम्रवनी है।।
इनके चैत्य वृक्ष जिन प्रतिमा पूजत सौख्यधनी हैं।।७।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्द्रनगरसंबंधिचतुर्दिक् चतुर्वनस्थितचतुश्चैत्यवृक्षमूलभागविराजमान चतुश्चचतुुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
लौकांतिक देव चैत्यालय अर्घ्य-गीताछंद
जो ब्रह्म स्वर्ग सु पांचवे के अंत में रहते सदा।
वे देव लौकांतिक कहाते, नर बनें शिव लें मुदा।।
ये देव सारस्वत प्रकीर्णक, में रहें ईशान में।
ये सात सौ अरु सात इनके, जैन मंदिर हम नमें।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तशतसप्तप्रमाणसारस्वतनामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आदित्य’ लौकांतिक प्रकीर्णक, में रहें दिश पूर्व में।
ये सात सौ अरु सात हैं, इनके विमान सुगोल हैं।।
इनके जिनालय मणिमयी, शाश्वत बने सुविशाल हैं।
जिनबिंब इक सौ आठ को, हम पूजते नत भाल हैं।।२।।
ॐ ह्रीं सप्तशतसप्तआदित्यलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
आग्नेय ‘बह्नी’ नाम लौकांतिक प्रकीर्ण विमान में।
ये सात सहस सुसात माने, एकभव ले मनुज में।।
इनके जिनालय मणिमयी, जिनमूर्तियां शाश्वत कहांr।
जो पूजते हैं भक्ति से, वे प्राप्त करते शिव मही।।३।।
ॐ ह्रीं सप्तसहस्रासप्तबह्निनामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इन ‘अरूण’ कुल के अरुण नामक, देव लौकांतिक रहें।
ये सात सहस सुसात हैं, सब दक्षिणीदिश में रहें।।
ये प्रकीर्णक सुविमान में, मणिमय जिनालय शोभते।
जो पूजते जिनबिंब को वे, शिवरमा को मोहते।।४।।
ॐ ह्रीं सप्तसहस्रसप्तअरुणानामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नैऋत दिशा में ‘गर्दतोय’, सुरर्षि लौकांतिक रहें।
ये नव सहस नव हैं प्रकीर्ण, विमान में दिव सुख लहें।।
जिनधाम अनुपम शाश्वते को, पूजहूं नत भाल मैं।
जिनमूर्तियां मणिमय अकृत्रिम, नमत सुख तत्काल मैं।।५।।
ॐ ह्रीं नवसहस्रनवगर्दतोयनामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम दिशा में ‘तुषित’ लौकांतिक प्रकीर्णक में रहें।
ये नव हजार सुनव कहें, ये नाम निज कुल सम लहें।।
जिनधाम अनुपम शाश्वते को पूजहूँ नत भाल मैं।
जिन मूर्तियां हैं कामधेनू, नमत सुख तत्काल में।।६।।
ॐ ह्रीं नवसहस्रनवतुषितनामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वायव्य दिश में देव ‘अव्याबाध’ लौकांतिक रहें।
ग्यारह सहस ग्यारह इन्हों के, प्रकीर्णक सुविमान हैं।।
जिन धाम अनुपम सासते को, पूजूँ नत भाल मैं।
जिन मूर्तियां चिंतामणी, वंदत लहूँ सुख हाल में।।७।।
ॐ ह्रीं एकादशसहस्रएकादशअव्याबाधनामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
उत्तर दिशा में श्रेणिबद्ध, विमान में हि ‘अरिष्ट’ हैं।
ग्यारह सहस ग्यारह सुरर्षी, नाम लौकांतिक लहें।।
इनके अकृत्रिम जिन भवन, जिन मूर्तियों की वंदना।
जो करें भक्ती से सतत वे, करें भव दुख खंडना।।८।।
ॐ ह्रीं एकादशसहस्रएकादशअरिष्टनामलौकांतिकदेवविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सारस्वत आदित्य मध्य में, दो कुल इन देवों के।
‘अग्न्याभ रु सूर्याभ’ देव ऋषि, लौकांतिक सुरगण ये।।
सात हजार सात हैं पहले, नव हजार नव दूजे।
इनके जिन मंदिर जिनबिंबों, को हम रुचि से पूजें।।९।।
ॐ ह्रीं सप्तसहस्रसप्तअग्न्याभनामलौकांतिकदेवविमानस्थितनवसहस्र नवसूर्या भनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
आदित्य रु बन्हि के मध्ये, दो कुल लौकांतिक के।
‘चंद्राभ रु सत्याभ’ नाम ये, निज विमान में रहते।।
पहले ग्यारह हजार ग्यारह, सुर चंद्राभ कहाये।
तेरह हजार तेरह दूजे, इन जिनगृह गुण गायें।।१०।।
ॐ ह्रीं एकादशसहस्रएकादशचंद्राभनामलौकांतिकदेवविमानस्थितत्रयोदशसहस्र त्रयोदशसत्याभनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
बह्नि अरुण के बीच रहें, ‘श्रेयस्कर’ क्षेमंकर है।
पंद्रह हजार पंद्रह सुर श्रेयस्कर देवऋषी हैं।।
सत्रह हजार सत्रह सुर, क्षेमंकर कुल में मानें।
इनके जिनगृह जिन प्रतिमा को, पूजत भव दुख हानें।।११।।
ॐ ह्रीं पंचदशसहस्रपंचदशश्रेयस्करनामलौकांतिकदेवविमानस्थितसप्तदशसहस्र सप्तदशक्षेमंकरनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अरुण-गर्दतोयों के मधि में, कुल ‘वृषभेष्ट’ कामधर।
उन्निस हजार उन्निस पहले, सुर वृषभेष्ट नामधर।।
इक्किस हजार इक्किस मानें देव कामधर दिव में।
इनके जिनगृह जिन प्रतिमा को, वंदत सुख इक क्षण में।।१२।।
ॐ ह्रीं एकोनिंवशतिसहस्रएकोनिंवशतिवृषभेष्टनामलौकांतिकदेवविमानस्थित एकिंवशतिसहस्रएकविंशतिकामधरनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यंनिर्वपामिति स्वाहा।
गर्दतोय अरु तुषित मध्य में, सुर ‘निर्वाणरजस’ हैं।
तेइस हजार तेइस ये हैं पुनि ‘दिगंतरक्षित’ हैं।।
पच्चिस हजार पच्चिस ये सब लौकांतिक सुर गाये।
इनके जिनगृह जिन प्रतिमा को, हम नित शीश झुकायें।।१३।।
ॐ ह्रीं त्रयोिंवशतिसहस्रत्रयोिंवशतिनिर्वाणरजोनामलौकांतिकदेवविमानस्थित पंचविंशतिसहस्रपंचविंशतिदिगंतरक्षितनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तुषित रु अव्याबाध बीच में, देव ‘आत्मरक्षित’ हैं।
सत्ताइस हजार सत्ताइस, पुन: सर्वरक्षित हैं।।
ये उनतीस हज्र उनतिस, सब देवर्षि कहाते।
इनके जिनगृह जिनबिंबों को पूजत पाप नशाते।।१४।।
ॐ ह्रीं सप्तिंवशतिसहस्रसप्तिंवशतिआत्मरक्षितनामलौकांतिकदेवविमानस्थित एकोनत्रिंशत्सहस्रएकोनत्रिंशत् सर्वरक्षितनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अव्याबाध अरिष्ठ देव के, अंतराय में दो हैं।
‘मरुत’ देव इकतिस हजार इकतिस प्रकीर्णकों में हैं।।
तेतिस हजार तेतिस हैं, वसुदेव सुरर्षि कहाते।
इनके जिनगृह जिनबिंबों को, हम नित शीश झुकाते।।१५।।
ॐ ह्रीं एकत्रिंशत्सहस्रएकत्रिंशत्मरुत्नामलौकांतिकदेवविमानस्थितत्रयस्ंत्रशत् सहस्रत्रयिंस्त्रशत्वसुनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अरिष्ट रु सारस्वत सुर बीचे, अश्व-विश्व के कुल हैं।
पैंतिस हजार पैंतिस पहले, अश्व देव के कुल हैं।।
सैंतिस हजार सैंतिस दूजे, विश्व देव के मानें।
इनके जिनगृह जिनबिंबों को, पूजत सब सुख ठानें।।१६।।
ॐ ह्रीं पंचत्रिंशत्सहस्रपंचत्रिंशत्अश्वनामलौकांतिकदेवविमानस्थितसप्तिंत्रशत् सहस्रसप्तिंत्रशत् विश्वनामलौकांतिकदेवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
चौबिस कुल के लौकांतिक ये, निज कुल सम नाम धराते हैं।
चउ लाख सात हज्जार आठ, सौ बीस१ प्रमाण कहाते हैं।
ये देवों द्वारा पूज्य देवऋषि, जिन भक्ति करें अतिशायी हैं।
इनके जिन मंदिर को पूजूूं, ये भक्तों को सुखदायी हैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्लंक्षसप्तसहस्रअष्टशतविंशतिप्रमाणलौकांतिकदेवविमान स्थितसर्व जिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इन ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गों में, इंद्रक विमान मधि चार कहे।
त्रय शतक साठ श्रेणीबद्धे, ये असंख्यात योजन के हैं।।
त्रय लाख निन्यानवे हजार छह सौ, छत्तिस कहें प्रकीर्णक हैं।
इन सबके जिन मंदिर पूजूँ, जो शिवसुख हेतू शाश्वत हैं।।२।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मक्रह्मोत्तरस्वर्गसंबंधिचतु:इन्द्रकविमानत्रिशतषष्टिश्रेणीबद्धविमानत्रयलक्ष नवनवतिसहस्रषट्शतषट्िंत्रशत् प्रकीर्णकविमानसर्वजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रति जिनगृह में जिनप्रतिमायें, सब इक सौ आठ-आठ राजें।
सब चार कोटि बत्तीस लाख, जिनप्रतिमायें अनुपम भासें।।
पद्मासन मुद्रा सौम्य छवी, नासाग्र दृष्टि अति शोभ रहीं।
मैं पूूजूँ वंदूँ गुण गाऊँ, पा जाऊँ अनुपम मोक्ष मही।।३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मक्रह्मोत्तरस्वर्गसंबंधिचतुर्लक्षजिनालयमध्यविराजमान चतु:कोटि द्वात्रिंशत्लक्षजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
जय जय जिनेश्वर तीर्थंकर, मुनिवृंद वंदित आप हैं।
जय जय जिनेश्वर तीर्थकर, त्रैलौक्य पूजित आप हैं।।
जय जय जिनेश्वर आप नाम, महान् मंत्र त्रिलोक में।
जय जय जिनेश्वर आप प्रतिमा, साधुगण नित ही नमें।।१।।
ब्रह्मेंद्र की दश सागरोपम, आयु उत्तम जानिये।
सौधर्म इंद्र समान वैभव, कुछहि न्यून बखानिये।।
वर मुख्य देवी आठ चौंतिस, सहस सुंदर देवियां।
ये धरें सुंदर रूप विक्रिय, से हजारों देवियां।।२।।
इन मुकुट में मेंढक सुचिन्ह, धरें रतनमय शोभते।
इनके विमान सुपीत लाल, सफेद मणिमय शोभते।।
जय वायु के आधार ये, शाश्वत विमान बने वहां।
दश भेद के परिवार सुर, वैभव अतुल इनका कहा।।३।।
इस ब्रह्म पंचम स्वर्ग में, देवर्षि लौकांतिक रहें।
इनके नहीं देवी नहीं, परिवार सुर कोई कहे।।
ये ब्रह्मचारी श्वेत वस्त्राभरण धारें शोभते।
चौदह सु पूरब ज्ञानधर, निज तत्त्व चिंते माहेते।।४।।
चउ लाख सात हजार अठ शत, बीस संख्या जानिये।
चौबीस कुल के देव एक, भवावतारी मानिये।।
जब तीर्थकर वैराग्य हो, ये देव तत्क्षण आवते।
वैराग्य की संस्तुति करें, अनुमोदतें सुख पावते।।५।।
ये देव विषय विरक्त हैं, इंद्रादिकों से पूज्य हैं।
सब आठ सागर आयु धर, पीते निजात्म पियूष हैं।।
अष्टम अरिष्ट सुरर्षि की नव सागरोपम आयु है।
ये सतत बारह भावना, भाते मुदित मन माहिं हैं।।६।।
जो मुनि यहाँ निर्दोष समकित, युक्त चारित पालते।
ईर्ष्या असूया से रहित गुरु की विनय अति धारते।।
ब्रह्मचर्य पालें पूर्णत:, निज ब्रह्म-आत्मा में रमें।
परिषह सहें नित धैर्य से, उपसर्ग में अविचल बनें।।७।।
निज देह के निरपेक्ष निर्मम, परम साम्य सुधा पियें।
सुख दु:ख शत्रु मित्र जीवन, मरण में सुख से जियें।।
सम्यक्त्व संयम शील और, समाधि में तत्पर रहें।
वे ही मुनी देवेन्द्र पूजित, सुपद लौकांतिक लहें।।८।।
हे नाथ! मैं भी विषय और, कषाय सबही छोड़ दूँ।
निज आत्म सुख पीषूष पीकर, अन्य से मुख मोड़ लूँ।।
प्रीाु शक्ति ऐसी दीजिये, आनन्त्य शक्तिपग्रट हो।
निज ‘ज्ञानमति’ गुण पूर्ण होने, तक सुभक्ती अडिग हो।।९।।
जय जय जिनवर जिन भवन, जिन प्रतिमा अभिराम।
जय लौकांतिक देवगण, जिनपद भक्त ललाम।।१०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मब्रह्मोत्तरस्वर्गसंबंधिचतुर्लक्षजिनलायतन्मध्यविराजमानसर्वजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।