Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
।। मंगलाचरण ।। इन्द्रध्वज विधान
July 31, 2024
Workshop of Books
jambudweep
।। मंगलाचरण ।।
सिद्धों की करूं वन्दना वे सिद्धिप्रदाता।
चैतन्यसुधारूप निजानन्द के दाता ।।
अर्हंतदेव को भी नमूं तीन योग से।
वे लोक औ अलोक को स्पष्ट लोकते ।।१।।
वृषभेश ने युग के प्रथम अवतार जब लिया।
शिवमार्ग भव्यजन को दिखा सर्वहित किया।।
प्रभुपंचकल्याणकपती त्रिभुवन गुरू हुए।
निज आत्मा से निज में तृप्त निजगुरू हुए।।२।।
श्री शांतिनाथ ने अनंत शांति पा लिया।
भक्तों को परम शांति का मारग दिखा दिया।।
तीर्थेश सोलवें हुए चक्रीश पांचवें।
प्रभु कामदेव फिर भी रहें स्वात्मधाम में ।।३।।
सिद्धार्थतनय वीर महावीर सन्मती।
प्रभु आप अिंकचन हो सबको देते सद्गती।।
हे नाथ! तुमको वंदना अनंत बार है।
भक्ती से भवोदधि तरूं जो अति अपार है।।४।।
जो कार्य के प्रारम्भ में प्रभु तुमको वंदते।
सम्पूर्ण विघ्नराशि को वे खंड खंडते ।।
सम्पूर्ण ऋद्धि सिद्धि से सर्वांग मंडते।
कृतकृत्य स्वयं होके वे ही नंद नंदते ।।५।।
धान रचना का उद्देश्य
सम्पूर्ण विधानों में उत्तम, इन्द्रध्वज पूजा विधि मानी।
जिनदेव देव की भक्तीवश, मैंने इसकी रचना ठानी।।
यह कहां ज्ञान लव है मेरा ? औ कहां इन्द्रध्वज की विधि है।
इन्द्रों के गुरू बृहस्पति भी, महिमा कहने में निंह प्रभु हैं।।६।।
फिर भी मेरा यह अति साहस, बस स्वात्मसिद्धि के हेतू है।
यदि रचना जन मन हरण करे, उसमें भक्ती ही हेतू है।।
प्रभुपादकमल की भक्ती ही, इस महत् कार्य को पूर्ण करे।
भक्ती पियूष की गंगा में, जन जन मन प्लावित पूर्ण करे।।७।।
संस्कृत का इन्द्रध्वज विधान, उसको आधार बना करके।
सब जन को अर्थ बोध होवे, यह हेतू भी मन में धरके।।
पुनरपि तिलोयपण्णत्ति आदि, ग्रंथों का सार ग्रहण करके।
भाषा में ‘इन्द्रध्वज विधान’ रचना मैं करूं रुची धरके।।८।।
विधान का माहात्म्य
अनुपम विधान महिमाशाली, इसको सबने बतलाया है।
जब था दुर्भिक्ष अकाल पड़ा, तब इसने जल बरसाया है।।
सब मनवांछित को पूर्ण करे, ऐसी विधान की महिमा है।
सब रोग शोक दारिद्र टलें, ऐसी इसकी ही गरिमा है।।९।।
ग्रहभूत पिशाच क्रूर व्यंतर निंह रंच उपद्रव कर सकते ।
जो अनुष्ठान करते विधिवत्, उनके सब दुख संकट टलते।।
अतिवृष्टि अनावृष्टी ईती भीती संकट टल जाते हैं।
नित समय समय पर इन्द्रदेव, अमृतसम जल बरसाते हैं।।१०।।
अत्यर्थ प्रभावी यह विधान, अति चमत्कार करने वाला।
परकृत भी सर्व उपद्रव को, इक क्षण में ही हरने वाला।।
अति दुखी असाध्य रोगियों के, तन को नीरोग बना देता।
ज्वर कुष्ट भगंदर आदी के, इक क्षण में नाम मिटा देता ।।११।।
जो इष्ट वियोग अनिष्ट योग से, महा क्लेश को भोग रहे।
निज पूर्व अशुभ कर्मोदय से, जिनको अति ही संक्लेश दहे।।
उन सबके लिये विधान यही, बस परम इष्ट बन जाता है।
प्रकृति असात को साता में, निश्चित संक्रमण कराता है।।१२।।
इस विध अतिशय श्रद्धा से जो, ‘इन्द्रध्वज’ पाठ रचाते हैं।
धन धान्य समृद्धी अतुल ऋद्धि, अनुपम सिद्धी वो पाते हैं।।
यह सब अनुषंगिक फल केवल, तुम परंपरा मुक्ती जानो।
अंतिम फल है ‘जिनपद’ निश्चित, जिनवचन प्रमाण सदा मानो ।।१३।।
पूजक का प्रारम्भिक कर्तव्य
यजमान और याजक दौनों, आकर गुरु का वंदन करिये।
इन्द्रध्वज आदि विधानों में, गुरुओं की आज्ञा शिर धरिये।।
गुरुदेव! मुझे यह इच्छा है, मैं इन्द्रध्वज का पाठ करूँ।
यह महायज्ञ विधिवत् करके, मैं उत्तम सुख को प्राप्त करूँ।।१४।।
हों परिजन राजा प्रजा सुखी, ऐसा आशीर्वचन दीजे।
निर्विघ्न पाठ हेतू गुरुवर, अब आप पधार कृपा कीजे ।।
गुरुवर की स्वीकृति पा करके, चउसंघ विहार करा दीजे।
गुरु पादकमल पूजन करके, स्थान दान सेवा कीजे ।।१५।।
मंडल मांडने की विधि
सबसे पहले जिन पूजाकर, मंडप वेदी रचना कीजे।
उत्तम मुहूर्त में प्रांगण में, ऊँचा ध्वज आरोहण कीजे।।
हीरा मोती माणिक्य रतन, अभ्रक औ स्वर्णिम रंग लाके।
बहुविध रंगे चावल से या, मंडल रचिये रांगोली से।।१६।।
इस मध्यलोक में अकृत्रिम, जिनगृह तेरह द्वीपों तक हैं।
उन सबमें जम्बूद्वीप प्रथम, जो गोलाकृति थालीवत् है।।
इसको चारों तरफी घेरे, सागर औ द्वीप कहे जानो ।
इन मध्य चार सौ अट्ठावन, जिनमंदिर की रचना मानों ।।१७।।
है प्रथम द्वीप में बीचोंबिच, श्रीमेरु सुदर्शन स्वर्णमयी।
उसमें सोलह चैत्यालय हैं, जो भविजन हित शिव सौख्य मही।।
इस मेरू की विदिशाओं में, गजदंत चार पर्वत मानो।
उन पर भी चार जिनालय हैं, जो सुरनरगण पूजित जानो ।।१८।।
मेरू के उत्तर दक्षिण में उत्तरकुरु और देवकुरु हैं।
उनमें ईशान व नैऋत में, क्रम से जम्बू शाल्मलि तरु हैं।।
मेरू के पूरब पश्चिम में, वक्षारगिरी सोलह जानो ।
इन पूरब अपर विदेहों में, बत्तीस रजतगिरि हैं मानों ।।१९।।
मेरू के दक्षिण उत्तर में, शुभ क्षेत्र भरत ऐरावत हैं।
दोनों में दो विजयार्ध अत:, चौंतीस हुए विजयारध हैं।।
मेरू के दक्षिण उत्तर में, हिमवन् आदिक षट् कुलगिरि हैं।
इन सबके जिनगृह इक इक मिल, सब अट्ठत्तर जिनमंदिर हैं।।२०।।
फिर दुतिय धातकीद्वीप कहा, उसमें पूरब पश्चिम जानो।
पूरब में विजयमेरु पश्चिम, में अचलमेरु को सरधानो।।
इसके उत्तरकुरु देवकुरू, धातकि व शाल्मलि तरू धरें।
इस द्वीप में दक्षिण उत्तर दिश, इष्वाकृति दोय विभाग करें।।२१।।
इस द्वीप धातकी खंड मध्य इक सौ अट्ठावन जिनगृह हैं।
बस पुष्करार्ध में इसी तरह, सारी रचना औ जिनगृह हैं।।
इस पुष्कर पूरब पश्चिम में, मेरू मंदर विद्युन्माली।
दो उत्तरकुरु में पुष्करतरु बस इतना अंतर बलशाली ।।२२।।
इस पुष्कर मध्य मानुषाेत्तर, नग ढाई द्वीप वेष्टित करके।
उस पे चारों दिश जिनमंदिर, उस परे मनुष निंह जा सकते ।।
नंदीश्वर द्वीप आठवें में, चारों दिश चउ अंजन गिरि हैंं।
अंजन के चारों दिश चउ चउ, दधिमुख वा वसु वसु १ रतिकर हैं।।२३।।
ग्यारहवें द्वीप में कुंडलनग, उस पे चउ दिश जिनभवन कहें।
तेरहवें द्वीप में रुचिकाद्रि, उस पे चउदिश जिनसदन रहें।।
इस विध पण मेरू के अस्सी गजदंत जिनालय बीस कहे।
जम्बू आदिक वृक्षों के दस, अस्सी वक्षारगिरी के हैं।।२४।।
रजताचल इक सौ सत्तर, कुलपर्वत के सब तीस रहे।
इष्वाकृति नग के चार तथा, मनुजोत्तर के भी चार कहे।।
नंदीश्वर के बावन कुंडल, औ रुचकगिरी के चार चार।
सब चार शतक अट्ठावन ये, जिनमंदिर इनको नमस्कार ।।२५।।
मंडल पर पहले मेरू की, रचना कर सब रचना रचिये।
तेरह द्वीपों तक रचना कर, नग नदियाँ साफ-साफ रचिये।।
उनमें सुस्पष्ट सु चार शतक, अट्ठावन जिनमंदिर रचिये।
उन पर सुन्दर जिनमंदिर को, रखकर स्थापन विधि करिये।।२६।।
वेदी मंडल को गन्ध लेप, चन्दोपक वन्दनवारों से ।
ध्वज चामर मंगलद्रव्य आठ, मंगल घट तोरण द्वारों से ।।
बहुरंग बिरंगे रत्नद्वीप, सदृश बहु विद्युत् द्वीपों से ।
बहुविध उपकरणों धूप घड़े, सुरभित मालाओं फूलों से।।२७।।
िंककिणियों के रुनझुनरव से, मंडपवेदी भूषित करिये।
जिनबिम्ब चतुर्मुख स्थापित कर, इन्द्रध्वज पूजा करिये।।
इस विधि गुरु आज्ञा औ आशिष, लेकर मंडप वेदी रचिये।
मंडल की रचना ऐसी हो, नर क्या सुर का भी मन हरिये।।२८।।
मंडल के मंदिरों पर आरोपण करने वाली ध्वजाओं का वर्णन
सब इन्द्रवृन्द बहु भक्ती से, अकृत्रिम जिनगृह जाते हैं।
अतिशायि महामह पूजाविधि, बहु वैभवपूर्ण रचाते हैं।।
क्रम क्रम से जिन जिनभवनों की, वे पूजा करते जाते हैं।
उन उन मंदिर के शिखरों पर, वे ध्वज फहराते जाते हैं।।२९।।
उस ही से उनका वह विधान, ‘इन्द्रध्वज’ सार्थक नाम धरे।
इससे ही ध्वज आरोहण कर, नर भी ‘इन्द्रध्वज’ पाठ करें।।
कोमल सुन्दर कौशेय आदि, वस्त्रों की ध्वजा बना लीजे।
उनमें क्रम से माला आदिक, दश चिन्हों को करवा लीजे।।३०।।
मेरू के ध्वज में माला का हो, चिन्ह बना अति ही सुन्दर।
गजदंत ध्वजा में सिंह चिन्ह, कुलगिरि ध्वज में पंकज सुन्दर।।
जम्बूतरु आदि ध्वजाओं में, अंशुक१ का चिन्ह बना लीजे।
वक्षार ध्वजा में गरूड़ चिन्ह, करके सुन्दर रचना कीजे।।३१।।
इष्वाकृतिनग मनुजोत्तर नग, इनके ध्वज में गज चिन्ह करो।
रजताचल सभी ध्वजाओं में, सित वृषभ चिन्ह उत्कीर्ण करो।।
नंदीश्वर के ध्वज में चकवा-चकवी का चिन्ह मनोज्ञ रहे।
कुंडलगिरि ध्वज में मोर चिन्ह, रुचकाचल ध्वज में हंस रहे।।३२।।
जो मंडल ऊपर चार शतक, अट्ठावन जिनमंदिर दीखें ।
उन पर विधिवत् इन चिन्हों युत, सब ध्वज का आरोपण कीजे।।
मंडल को शाश्वत जिनमंदिर, अपने को इन्द्र समझ लीजे।
इन्द्रध्वज मण्डल पूजाकर, अतिशायी पुण्य निकट कीजे ।।३३।।
पूजन प्रारम्भ करने का वर्णन
पूजामुख सकलीकरण विधी कर, जिनवर का अभिषेक करो।
स्वस्ती और इन्द्र प्रतिष्ठा कर, जिनयज्ञ सुदीक्षा ग्रहण करो।।
सर्वोत्तम इन्द्रध्वज विधान, प्रारम्भ करो जय जय ध्वनि से।
देवागम ध्वज आरोपण विधि, कर पूजन पढ़ो मधुर ध्वनि से।।३४।।
संगीत वाद्य नृत्यादिक कर, प्रतिदिन मनहर पूजन करिये।
प्रतिदिन जप का कर अनुष्ठान, अंतिम दिन पूर्ण हवन करिये।।
रथयात्रा महामहोत्सव कर, अतिशय प्रभावना को करिये।
हो उठे स्वर्ग में भी हलचल, ऐसी बाजों की ध्वनि करिये।।३५।।
फिर गुरूवर्य की पूजा करके, चउसंघ की भी पूजा कीजे।
आहार औषधि पिच्छी पुस्तक, उपकरण आदि वस्तू दीजे।।
आर्यिका आर्य को वस्त्रदान, आवश्यक योग्य वस्तु दीजे।
सहधर्मी जन को दान मान, आदिक देकर हर्षित कीजे ।।३६।।
पूजन दानादिक कार्यों में जितना धन खर्चा जावेगा।
कूंये के जल के ही समान, दिन पर दिन बढ़ता जावेगा।।
इस भव में सुख औ यश देकर, परभव में भी संग आयेगा।
फिर फले अनंतगुणा होके, अंतिम शिवपद दिलवायेगा।।३७।।
—दोहा—
इस विध अति उत्सव सहित, करो इन्द्रध्वज पाठ।
इन्द्रों के सुख भोगकर, करो मुक्ति में ठाठ।।३८।।
Previous post
सर्वतोभद्र वंदना (बड़ी जयमाला)
Next post
ॐ नम: सिद्धेभ्य: श्री इन्द्रध्वज विधान प्रारम्भ
error:
Content is protected !!