विद्युन्माली मेरु पंचमो जानिये।
पश्चिम पुष्कर अर्ध द्वीप में मानिये।।
ताके सोलह जिन चैत्यालय को जजूँ।
आह्वानन कर नित प्रति जिनवर को भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
रेवानदि को जल लाय, कंचन भृंग भरूं।
भव भव की तृषा मिटाय, आतम शुद्ध करूँ।।
विद्युन्माली सुरशैल१, पूजूं मन लाके।
सोलह जिनमंदिर नित्य, वंदूँ हरषाके।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, घिस कर्पूर मिला।
जिनपद पंकेरुह२ चर्च, निज मन कमल खिला।।विद्युन्माली.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिकर सम तंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।
शिवरमणी परिणय हेतु, पुंज समर्पित हैं।।
विद्युन्माली सुरशैल, पूजूं मन लाके।
सोलह जिनमंदिर नित्य, वंदूँ हरषाके।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सित कुमुद नील अरविंद, लाल कमल प्यारे।
मदनारिजयी पदपद्म, पूजूं सुखकारे।।विद्युन्माली.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली पयसार१, पायस मालपुआ।
अमृतसम जिनपद पूज, आतम सौख्य हुआ।।विद्युन्माली.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप कर्पूर प्रजाल, ज्योति उद्योत करे।
अंतर में भेद विज्ञान, प्रकटे मोह हरे।।विद्युन्माली.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध अग्नि में जार, सुरभित गंध करे।
निज आतम अनुभव सार, कर्म कलंक हरे।।विद्युन्माली.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला फल आम्र, जंबू निंबु हरे।
शिवकांता संगम हेतु, तुम ढिग भेंट करें।।विद्युन्माली.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरें।
जिन सन्मुख अर्घ्य चढ़ाय, शिवसाम्राज्य वरें।।
विद्युन्माली सुरशैल, पूजूं मन लाके।
सोलह जिनमंदिर नित्य, वंदूँ हरषाके।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुँजग शांती हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
पारिजात के पुष्प ले, श्रीजिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
विद्युन्माली मेरु भद्रसालवन जिनालय पूजा
विद्युन्माली मेरु अपर पुष्कर विषे।
भद्रसाल वन सुन्दर भूमी पर लसे।।
चार दिशा में चार जिनालय मानिये।
आह्वानन कर पूजन, विधिवत् ठानिये।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
भागीरथि वर तीर्थ से, घट भर पावन नीर।
पूजूँ जिनपद तीर्थ को, विमल विशुद्ध शरीर।।
भद्रसाल मंदिर जजों, भद्रकरन के काज।
चंचल चित को रोक के, पाऊँ निज साम्राज।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंकुम केशर मिश्र के, जिनवर चरण महान।
भव संताप मिटावने, अर्चूं नित प्रति आन।।भद्रसाल.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताफल सम शालि ले, पुंज करूँ जिनराज।
अक्षय संपति हेतु मैं, तुम गुण गाऊँ आज।।भद्रसाल.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल केतकी कुंद है, सुरतरु१ के उनहार।
मकर२ केतु अरि जिन विभो, पूजूँ मदननिवार।।भद्रसाल.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस इमरती थाल में, पूरणपोलि सोहाल।
क्षुधा पिशाची दूर हो, छूटे यम का जाल।।भद्रसाल.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत से पूरित दीप ले, जगमग ज्योति लसंत।
मनोभवन में ज्ञान की, ज्योति जले भगवंत।।भद्रसाल.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित खेवते, सौरभ१ हो चहुं ओर।
मोह करम अरि नाशते, दु:ख भगे दम तोर।।
भद्रसाल मंदिर जजों, भद्रकरन के काज।
चंचल चित को रोक के, पाऊँ निज साम्राज।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
गन्ना फल अंगूर ले, सरस मधुर मनहार।
उत्तम शिवफल हेतु मैं, पूजूं तुम पद सार।।भद्रसाल.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक द्रव्य ले, जिनपद पूज करंत।
निज आतम गुण संपदा, मिलती आन तुरंत।।भद्रसाल.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुँजग शांती हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
पारिजात के पुष्प ले, श्रीजिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
परम सौख्य दातार, परम पुरुष परमात्मा।
परमानंद निधान, तिनकी२ प्रतिकृति मैं जजूँ।।१।।
इति श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
विद्युन्माली मेरु में, भद्रसाल वन जान।
पूरबदिश जिनगृह जजों, सौख्य अपूर्व निधान।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचम मेरू भूमि पर, भद्रसाल के मािंह।
दक्षिण दिश जिनधाम को, अर्चूं दु:ख नशाहिं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगिरि पंचम भूमि पे, भद्रसाल सुखकार।
पश्चिम दिश जिनगेह को, जजूँ सौख्य भंडार।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिना-लयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युन्माली नग अतुल, भद्रसाल वन सिद्ध।
उत्तर दिश जिनवेश्म को, अर्चत होय समृद्ध।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रसाल जिनगेह, पंचममेरू के कहे।
पूरण अर्घ्य समेत, पूजूं मन वच काय से।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिभद्रसालवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
सुरगिरी पंचम में धरा से, उपरि योजन पाँच सौ।
नंदन सुवन अतिरम्य तरुवर, पंक्तियाँ बहु भांति सो।।
चारों दिशा में जैनमंदिर, चार उत्तम जानिये।
जिनबिंब की कर थापना, पूजन यहीं पर ठानिये।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
दुग्धवार्धि१ स्वच्छ नीर स्वर्णपात्र में भरूं।
कर्मपंक क्षालने त्रिधार पाद में करूं।।
पांचवें सुमेरु में अपूर्व नंदने वने।
चैत्यगेह२ पूजते अपूर्व सौख्य दे घने।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टगंध ले सुगंध हेमपात्रिका भरूं।
राग आग दाह शांति, हेतु अर्चना करूं।।पांचवें.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
षष्ठि श्यामजीर शालि श्वेत पुँज को धरूं।
तीन लोक की अखंड संपदा को मैं वरूं।।
पांचवें सुमेरु में अपूर्व नंदने वने।
चैत्यगेह पूजते अपूर्व सौख्य दे घने।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिका गुलाब कुंद, पारिजात ले लिये।
मीनकेतु१ के जयी, जिनेन्द्र पाद में दिये।।पांचवें.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मूँग मोदकादि मिष्ट मालपूप थाल में।
भूख रोग शांति हेत पूजहूँ त्रिकाल में।।पांचवे.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्धमान दीप ले, कपूर ज्योति ज्वाल हूँ।
वर्धमान ज्ञानज्योति, चित्त में विकास हूँ।। पांचवे.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेत चंदनादि मिश्र धूप खेउ अग्नि में।
कर्म शत्रु भस्म होंय धूम्र२ होत अभ्र३ में।।पांचवे.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम्र, संतरा, अनार, श्रीफलादि ले लिये।
मोक्ष सौख्य हेतु नाथ पादकंज में दिये।।पांचवें.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वारि गंध शालि पुष्प अन्न१ दीप धूप ले।
श्रीफलादि को मिलाय अर्घ्य ले जजूं भले।।
पांचवें सुमेरु में अपूर्व नंदने वने।
चैत्यगेह पूजते अपूर्व सौख्य दे घने।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक मिष्ट सुगंधजल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुंजग शांती हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्रीजिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
नित प्रति पूजें हर्ष से, इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र।
परमाल्हादन कारणे, ध्यावें नित्य मुनीन्द्र।।
इति श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनन्दनवनस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अपर पुष्कर अर्ध में मधि, पांचवां सुरगिरि कहा।
नन्दन विपिन में पूर्वदिक्, जिनगृह अनूपम छवि लहा।।
चंचल मनोमर्कटविजेता२, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अर्घ्य ले, भवसंतती खंडन करें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरशैल पंचम में सदा नंदन सुवन विख्यात है।
दक्षिण दिशा में जिनभवन, पूजें भविक हरसात हैं।।
चंचल मनोमर्कटविजेता , साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अर्घ्य ले, भवसंतती खंडन करें।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचम सुराचल१ में विपिन२, नंदन अतुल महिमा धरे।
पश्चिम दिशा में जैनगृह, अतिशय भरी प्रतिमा धरे।।चंचल.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनपश्चिमदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरशैल विद्युन्मालि में, नंदनवनी तरु पंक्ति से।
जन मन हरे उत्तर दिशा के, मणिमयी जिनसद्म३ से।।।।चंचल.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनोत्तरदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—दोहा—
विद्युन्माली मेरु में, नंदनवन अभिराम।
चारों दिश में जिनभवन, नितप्रति करुं प्रणाम।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिनंदनवनजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
विद्युन्माली नंदनवन से, ऊपर अतुल घनी है।
साढ़े पचपन सहस सु योजन, पे सौमनस वनी है।।
चारों दिश में चार जिनालय, जिनप्रतिमा विलसंता।
आह्वानन कर पूजूँ नितप्रति, सौख्य भरो भगवंता।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्ब-समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्ब-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनस्थितजिनालयस्थजिनबिम्ब-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
पद्माकर को नीर, पंकज वासित भृंग में।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन द्रव सम गंध, सकल दाह हर शांति दे।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम वरशालि, पुंज धरत नवनिधि फलें।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला हरसिंगार, सौरभ पैâले गगन में ।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी आदि, घ्राण नयन मन सुख करें।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिमय दीपक ज्योति, भ्रांति तिमिर को क्षय करे।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु वर धूप, अग्नि पात्र में खेयके।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
दाडिम आम अंगूर, सरस मधुर फल लायके।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादि मिलाय, अर्घ्य चढ़ाऊँ प्रीति से।
वन सौमनस मंझार, जिनमंदिर पूजों सदा।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुंजग शांती हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्रीजिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
नित्य जिनेश्वर वेश्म, शत इंद्रों से वंद्य हैं।
तिनकी पूजन हेतु, मैं कुसुमाँजलि नित करूँ।।१।।
इति श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
कनकाचल१ पंचम विषे, वन सौमनस रसाल।
पूरबदिश में जिनभवन, अर्च हरूँ जंजाल।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगिरि वन सौमनस में, दक्षिण दिश जिनधाम।
तिनकी जिनप्रतिमा जजूँ, पूर्ण होय सब काम।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णाचल२ वन सौमनस, पश्चिमदिश जिनगेह।
इन्द्रवंद्य जिनबिंब को, पूजूँ धर मन नेह।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनपश्चिमदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युन्माली मेरु में, वन सौमनस अनूप।
उत्तरदिश जिनवेश्म को जजत मिले निजरूप।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवन्ाउत्तरदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचममेरु में विपिन, सौमनसं अभिराम।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, जजूं चार जिनधाम१।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसौमनसवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
सुरगिरि पंचम वन सौमनसं इससे ऊपर जानो।
योजन सहस अठाइस जाके, पांडुकवन सरधानो।।
चार जिनालय चार दिशा में, मुनिमन कुमुद२ विकासी।
तिनके श्री जिनबिंब यहां मैं, थापूँ निजसुख भासी।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
सीता सरिता३ को जल लेके, जिनपद धार करूँ मैं।
भव भव की अघ४ कीचड़ धोके, गुणमणिमाल धरूँ मैं।।
विद्युन्माली पांडुकवन में, चार जिनालय भासें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, सो मन कमल विकासें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर घिस चंदन, कांचन रस सम दीखे।
जिनपद सरसिज पूजन करते, नशें ताप सब तीखे१।।विद्युन्माली.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरसिंधु के फेन हार सम, अक्षत अमल अखंडे।
तुम सन्मुख मेंं पुंज चढ़ाते, पाप पुंज सब खंडें।।विद्युन्माली.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल केवड़ा बेला चंपा, कल्पतरू सुमनों से।
मदनदर्प२ भंजन शिवरंजन, जजूँ स्वर्ण सुमनों३ से।।विद्युन्माली.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
खुरमा शर्करपारे खाजे, ताजे घृतरस पूरे।
नुकती बरफी आदि चढ़ाकर, क्षुधा वेदनी चूरें।। विद्युन्माली.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गोघृत भर के दीप जला के, जिनपद पूजूँ आके।
हृदय महल को करुँ प्रकाशित, अंतर ज्योति जलाके।।विद्युन्माली.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु तगर सित चंदन गंधित, धूप सुअग्नि जलाके।
निजआतम अनुभव रस प्रगटे, कर्म अनंत जलाके।।
विद्युन्माली पांडुकवन, में चार जिनालय भासें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, सो मन कमल विकासें।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्कटिका१ खर्बूजा श्रीफल, गन्ना मधुर मंगाके।
उत्तम अमृत फल चखने को, चरण चढ़ाऊँ आके।।विद्युन्माली.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल लाऊँ।
अनुपम रत्नत्रय निधि हेतू, तुम पद अर्घ्य चढ़ाऊँ।।विद्युन्माली.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
जिनपद धारा मैं करूँ, तिहुंजग शांती हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प ले, श्रीजिनचरण सरोज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम सौख्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
सब भव्यों के हेतु, परम सिद्ध सुख के निलय२।
नमूं नमूँ मैं नित्य, कुसुमांजलि कर भाव से।।१।।
इति श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सुराचल पंचम में अभिराम, वनी पांडुक अतिरम्य ललाम।
जिनालय पूरब दिश में जान, जजें कर जोड़ करो शिवथान।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुराद्री१ विद्युन्माली नाम, सरस वन पांडुक मुनि विश्राम।
जिनालय दक्षिण दिश में सार, जजूँ कर जोड़ करो भव पार।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनकपर्वत२ पंचम शिवकार, सुवन पांडुक में सुर परिवार।
जिनालय पश्चिम दिश रत्नाभ, जजूं जिननाथ करो शिवलाभ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनपश्चिमदिग्जिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवर्णाचल पंचम परधान, सुपांडुकवन है सौख्य निधान।
जिनेश्वरगृह उत्तर दिश जान, भरो मम आश जजूं इह थान।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनउत्तरदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगिरि पंचम में सुभग, पांडुकवन अतिरम्य।
चार जिनालय चार दिश, पूज लहूं निज धर्म्य।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपांडुकवनजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिंबेभ्यो नम:।
जय जय विद्युन्माली मेरू, यह अद्भुत शोभा पाता है।
योजन चौरासी सहस तुंग, शाश्वत अनंत कहलाता है।।
बहु वर्ण रत्नमय बहुत दूर, ऊपर कनकाभ सुहाता है।
वैडूर्य चूलिका नीलवरण, उत्तम छवि से मन भाता है।।१।
पृथ्वी पर भद्रसाल वन है, वन वेदी चारों ओर कही।
वन में कर्पूर तरू पंक्ती हिंताल ताल द्रुम१ पंक्ति कहीं।।
कदली२ लवली दाडिम लवंग, चंपक नारंग तरू शोभें।
पुंनाग नाग सतपत्र पनस, मल्ली अशोक तरु भी शोभें।।२।।
रमणीय तरूवर बेलों से, कोपल की कल कल ध्वनियों से ।
ऐरावत हाथी के विचरण, विद्याधर देव युगलियों से।।
मोरों की नर्तन क्रीड़ा औ, शुक३ प्रभृति४ पक्षियों के रव से।
मन मोह रहा सब जन का वन, किन्नरियों के वीणा रव से।।३।।
सौधर्म इंद्र आदिक सुर के, बहु भवन बने हैं नित्य वहां।
तोरण द्वारों पे जिनप्रतिमा, भविजन के पातक हरें वहां।।
वापी पुष्करिणी नीर भरी, पंकज कुमुदादी फूल खिले।
प्रत्येक जंतुगण भविजन के, जन जन के वहं पे हृदय मिले।।४।।
इस भद्रसाल के चारों दिश, जिनभवन अकृत्रिम भासे हैं।
जो दर्शन पूजन भक्ति करें, वे अंतरज्ञान प्रकासे हैं।।
आकाशगमन ऋद्धीधारी, मुनिगण भी विचरण करते हैं।
परमानंदामृत पीकर के, यमराज शत्रु को हरते हैं।।५।।
इस वन से पाँच शतक योजन, ऊपर नंदनवन शोभ रहा।
उससे साढ़े पचपन हजार, योजन पे वन सौमनस कहा।।
उससे अट्ठाइस सहस कहा, योजन पे पांडुक वन सोहे।
इन सबमें रचना पूर्व सदृश, देखत ही भविजन मन मोहे।।६।।
चारों वन के सोलह जिनगृह, अनुपम अविनाशी माने हैं।
प्रत्यक्ष परोक्ष किसी विधि भी, जो पूजें वे दु:ख हाने हैं।।
पांडुकवन की विदिशाओं में, शुभ पांडुक आदि शिलायें हैं।
तीर्थंकर के जन्माभिषेक, होने से पूज्य कहाये हैं।।७।।
जय जय सोलह जिनचैत्यालय, जय जय जिन अभिषवपूत१ शिला।
जय जय जिन मंगल लोकोत्तम, जय जय जिनशरण अपूर्व मिला।।
जय जय जिनदेव अमंगलहर, जय जय जग में मंगल कीजे।
मुझ ‘ज्ञानमती’ के सर्व दोष, हरके सब सुख मंगल कीजे।।८।।
जय पंचम सुरनग२, पंचम३ गतिप्रद, पंचम४ चारित दान करे।
जय पंचम केवल, ‘ज्ञानमती’ कर, पंच परावृत५ हान करे।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिषोडशजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य परिपुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।