पश्चिम पुष्कर द्वीप में, पूर्व अपर सुविदेह।
दक्षिण-उत्तर में भरत-ऐरावत वर नेह।।
बत्तिस क्षेत्र विदेह औ, भरतैरावत जान।
चौंतिस रूपाचल विषे, जिनगृह पूजूँ आन।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
—अथाष्टकं—बसंततिलका छंद—
गंगानदी सलिल शीतल कुंभ में है,
धारा करूं मुझ मनोगत मल हरे है।
चौंतीस रूप्यगिरि के जिनमंदिरों की,
पूजा करूँ जगत वंद्य जिनेश्वरों की।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूरवासित सुगंधित गंध लाके,
पूजूँ तुम्हें हृदय ताप व्यथा मिटाके।।चौंतीस.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
कामोद वासमति तंदुल शुभ्र लाया,
अक्षय अखंड पद हेतु तुम्हें चढ़ाया।
चौंतीस रूप्यगिरि के जिनमंदिरों की,
पूजा करूँ जगत वंद्य जिनेश्वरों की।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जाती कदंब अरविंद प्रसून लाया,
शृंगारहार मदनारि१ तुम्हें चढ़ाया।।चौंतीस.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मैसूरपाक२ बरफी पकवान लाऊँ,
पीयूष पिंडसम स्वातम स्वाद पाऊँ।।चौंतीस.।।५।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर वर्त्तिक३ शिखामय दीप लाऊँ,
पूजूं तुम्हें हृदय मोह सभी मिटाऊँ।।चौंतीस.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू सुरभि धूप जलाय करके,
आत्मा विशुद्ध मुझ होत जु कर्म जलके।।चौंतीस.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम अमरूद अनार लाया,
सर्वार्थसिद्धि फल हेतु तुम्हें चढ़ाया।।चौंतीस.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि द्रव्य कर अर्घ्य सुवर्ण थाली,
पूजूं तुम्हें नहिं मनोरथ जाय खाली।
चौंतीस रूप्यगिरि के जिनमंदिरों की,
पूजा करूँ जगत वंद्य जिनेश्वरों की।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंगनदी को नीर, तुम पद धारा मैं करूं।
शांति करो जिनराज, चउसंघ को सबको सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी फूल, हर्षित मन से लायके।
जिनवर चरण चढ़ाय, सर्व सौख्य संपति बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
विद्युन्माली मेरू, चउदिश चौंतिस रूप्यगिरि।
उनके श्री जिनगेह, पृथक् पृथक् पूजन करुँ।।१।।
इति श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिविजयार्धपर्वतस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सीतानदि उत्तर तरफ, भद्रसाल वन पास।
‘कच्छादेश’ रजतगिरी, जिनगृह जजूँ हुलास।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थकच्छादेशस्थितविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘सुकच्छा’ मध्य में रूपाचल मनहार।
सिद्धकूट में जिनभवन, जजूँ सदा सुखकार।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थसुकच्छादेशस्थितविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘महाकच्छा’ मधी, रूपाचल अभिराम।
सिद्धकूट का जिनभवन, पूजूँ करूँ प्रणाम।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थमहाकच्छादेशस्थितविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘कच्छकावति’ विषे, विजयारध सुखकार।
भवविजयी के जिनभवन, पूजूँ भव दु:ख टार।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थकच्छकावतीदेशस्थितविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आवर्ता’ सुविदेह में, रूपाचल रजताभ।
ताके श्री जिनगेह को, पूजूँ करो कृतार्थ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थआवर्तादेशस्थितविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘लांगलावति’ विषे, रजताचल सुखकार।
सिद्धकूट पर जिनभवन, पूजूँ सुयश उचार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थलांगलावर्तादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘पुष्कला’ में अचल, विजयारध मनहार।
ताके श्रीजिनगेह को, पूजूँ शिव सुखकार।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थपुष्कलादेशमध्यविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘पुष्कलावती’ मधि, रूपाचल सुखधाम।
जिनगृह के जिनबिंब को, पूजूँ नित शिवधाम।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थपुष्कलावतीदेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीता के दक्षिण तरफ, देवारण्य समीप।
‘वत्सा’ के विजयार्ध का, जिनगृह जजूँ पुनीत।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थवत्सादेशमध्यविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘सुवत्सा’ मध्य में, विजयारध गुणधाम।
उस पे जिनमंदिर जजूँ परमानन्द प्रदाम्१ ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थसुवत्सादेशमध्यविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘महावत्सा’ मधी, रूपाचल मनहार।
जिनमंदिर के बिंब को, पूजूँ शिव करतार।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थमहावत्सादेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘वत्सकावति’ विषे, रूपाचल सुखकाम।
तापे जिनगृह जिनकृती२, पूजूँ भुवन ललाम।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थवत्सकावतीदेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘रम्या’ देश विदेह में, रजताचल गुणमाल।
जिनगृह के जिनबिंब को, पूजूँ जग प्रतिपाल।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थरम्यादेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘सुरम्या’ मध्य में, रूपाचल अभिराम।
जिनचैत्यालय को जजूँ, पाऊँ मोक्ष निधान।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थसुरम्यादेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘रमणीया’ सुविदेह में, रूप्यगिरी३ रूपाभ४।
जिनगृह की जिनमूर्ति को, जजूँ नमाऊँ माथ।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थरमणीयादेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘मंगलावति’ तहाँ, खग पर्वत सुखमाल।
जिनमंदिर में मूर्ति की, पूजा करूँ त्रिकाल।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वविदेहस्थमंगलावतीदेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रसालवन पास, सीतोदा नदि दायें।
‘पद्मादेश’ विदेह, मधि रूपाद्रि कहाये।।
तापे श्रीजिनगेह, सब भवचक्र१ विनाशें।
जो पूजें धर नेह, केवल ज्ञान प्रकाशें।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थपद्मादेशमध्यविजयार्ध-पर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘सुपद्मा’ माहिं, रजताचल मन मोहे।
तापे श्रीजिनधाम, सुर किन्नर मन मोहे।।
ताके श्री जिनबिंब, भवि भव चक्र विनाशें।
जो पूजें धर प्रीति, केवल ज्ञान प्रकाशें।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसुपद्मादेशमध्यविजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महपद्मा’ सुविदेह, तामे रजतगिरी है।
उसपे श्री जिनवेश्म, अद्भुत सौख्यसिरी है।। ताके.।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थमहापद्मादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘पद्मकावति’ मधि में रूप्यगिरी है।
त्रय कटनी युत रम्य, जिनगृह अतुल श्री है।।ताके.।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थपद्मकावतीदेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंखा’ देश विदेह, शंख ध्वनी जहँ गूँजे।
बीच रजतगिरि एक, जिनमंदिर सुर पूजें।।ताके.।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थशंखादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नलिनादेश’ अपूर्व, शाश्वत सिद्ध कहा है।
बीच रजतगिरि शीश, जिनगृह नित्य कहा है।।
ताके श्री जिनबिंब, भवि भव चक्र विनाशें।
जो पूजें धर प्रीति, केवलज्ञान प्रकाशें।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थनलिनादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कुमुदा’ देश अनूप, शिव का मार्ग प्रकासे।
बीच रजतगिरि श्रेष्ठ, जिनगृह अनुपम भासे।।ताके.।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थकुमुदादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरिता’ देश विदेह, छह खण्डोंयुत सोहे।
बीच कहा विजयार्ध, जिनगृह से मन मोहे।।ताके.।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसरितादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नदि के उत्तर माहिं, भूतारण्य समीपे।
‘वप्रादेश’ विदेह, बीच रजतगिरि दीपे।।ताके.।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थवप्रादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘सुवप्रा’ मध्य, रूपाचल अविकारी।
नव कूटों में एक, जिनमंदिर सुखकारी।।ताके.।।२६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसुवप्रादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महावप्रा’ देश, अगणित विभव धरे हैं।
बीच रजतगिरि श्वेत, जिनवर सद्म धरे हैं।।ताके.।।२७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थमहावप्रादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वप्रकावति’ देश, बीच रजतगिरि धारे।
नव कूटों में एक, जिनगृह भवदधि तारे।।
ताके श्री जिनबिंब, भवि भव चक्र विनाशें।
जो पूजें धर प्रीति, केवलज्ञान प्रकाशें।।२८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थवप्रकावतीदेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गंधा’ देश विदेह, रौप्य अचल से सोहे।
त्रय कटनीयुत रम्य, ऊपर जिनगृह सोहे।।ताके.।।२९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थगंधादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘सुगंधा’ मध्य, खग पर्वत मन मोहे।
इन्द्रादिक से वंद्य, जिनमंदिर इक सोहे।।ताके.।।३०।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसुगंधादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश ‘गंधिला’ बीच, रजतगिरी रजताभा।
नव कूटों में एक, जिनमंदिर मणि आभा।।ताके.।।३१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थगंधिलादेशमध्यविज-यार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गंधमालिनी’ देश, रूप्यगिरी मधि धारे।
रत्नमयी इक कूट, जिनमंदिर को धारे।।ताके.।।३२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपश्चिमविदेहस्थगंधमालिनीदेशमध्य-विजयार्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम पुष्कर अर्ध द्वीप में, सुरगिरि दक्षिण जानो।
भरत क्षेत्र के मध्य रूप्यगिरि, नव कूटों युत मानो।।
सिद्धकूट के जिनमंदिर में, रतनमयी प्रतिमा हैं।
जो जन अर्घ्य चढ़ाकर पूजें, लहें अतुल महिमा हैं।।३३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिभरतक्षेत्रमध्यविजयार्धपर्वतसिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युन्माली के उत्तर में, ऐरावत शुभ जानो।
मध्य रजतगिरि पे इक सौ दश, खग नगरी सरधानो।।
सिद्धकूट के जिनमंदिर में, रतनमयी प्रतिमा हैं।
जो जन अर्घ्य चढ़ाकर पूजें, लहें अतुल महिमा हैं।।३४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिऐरावतक्षेत्रमध्यविजयार्धपर्वत-सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युन्माली मेरु उभय में, बत्तिस क्षेत्र विदेह कहे।
दक्षिण-उत्तर उभय भाग में, भरतैरावत क्षेत्र रहें।।
इन चौंतीस क्षेत्र के मधि में, एक एक विजयारध हैं।
सबके चौंतिस जिनभवनों को पूजूं शिवसुखकारक हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिपूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरदिक्चतुिंस्त्रशत्विजया-र्धपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
चौंतीसों विजयार्ध के, अकृत्रिम जिनधाम।
तिनकी गुणमाला कहूँ, होय सफल मम काम।।१।।
जय जय विद्युन्माली सुरगिरि, जो शत इन्द्रों से वंदित हैं।
जय जय उसके पूरब पश्चिम, बत्तीस अचल विजयारध हैं।।
जय जय सुरगिरि दक्षिण-उत्तर भरतैरावत दो क्षेत्र कहे।
जय जय इनके मधि रूपाचल, ये सब मिलके चौंतीस कहे।।१।।
इन गिरि की पहली कटनी पर, अभियोग्य देव के भवन बने।
दूजी कटनी पे विद्याधर, उन नगर एक सौ दश गिननें।।
तीजी कटनी पे नव कूटोंयुत, सिद्धकूट इक है उनमें।
अठ कूटों पे सुरगृह जानो, जो सिद्धकूट जिनगृह उसमें।।२।।
सब रूपाचल चांदी सम है, सबमें विद्याधर रहते हैं।
सब पर वन उपवन वेदी हैं, रत्नों की रचना कहते हैं।।
जो हैं विदेह के बत्तिस गिरि, हैं शाश्वत कर्मभूमि उनमें।
भरतैरावत के रजताचल, बस अन्तर पड़ता इन द्वय में।।३।।
यहं पर हैं चौथे काल सदृश, आदी औ अन्त सदृश रचना।
विद्याधर में जाती कुल औ, साधित त्रय१ विद्या को धरना।।
त्रय कारण से विद्या पाकर, खे गमनादिक२ बहु रूप धरें।
इस हेतू से ये जन मानव, विद्याधर सार्थक नाम धरें।।४।।
ये खग अकृत्रिम चैत्यालय, में जाते वंदन करते हैं।
कोई कोई दीक्षा लेकर, तहँ कर्म काट शिव वरते हैं।।
विजयारध के जिनमंदिर में, बहु रत्नमयी जिनप्रतिमा हैं।
सुर नर विद्याधरगण पूजें, ये मृत्युंजयि की उपमा हैं।।५।।
जो मनोयोग से बंधे कर्म, वे उदय आय के फलते हैं।
जो वचन योग से बंधे कर्म, भी उदयागत हो खिरते हैं।।
जो काययोग से बंधे कर्म, वे भी सबको दुखदायक हैं।
ये अशुभ कर्म के उदय सभी, को रोग शोक भयदायक हैं।।६।।
जिन चरणों की पूजा करते, उन अशुभ कर्म सब झड़ते हैं।
अतिशयकारी हों पुण्य बंध, उनके मनवांछित फलते हैं।।
वे क्रम से इन्द्र चक्रवर्ती, बन महापुण्य रस चखते हैं।
पुन मोह अरी का शीश काट, वे मुक्ति रमापति बनते हैं।।७।।
तुम भक्ती पीयूष पी, जन जन हुये निहाल।
‘ज्ञानमती’ निज संपदा, भुगते शाश्वत काल।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरसंबंधिचतुिंस्त्रशत्विजयार्धपर्वतसिद्धकूटजिनाल-यस्थजिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।