वरद्वीप सोलह लाख योजन, नाम पुष्कर जानिये।
इस मध्य चूड़ी के सदृश नग मानुषोत्तर मानिये।।
इस पे चतुर्दिश चार अनुपम, सासते जिनगेह हैं।
थापूँ यहां पूरब दिशा, जिनगेह जिन धर नेह हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्करद्वीपमध्यस्थितमानुषोत्तरपर्वतसंबंधिपूर्वदिक्सिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्करद्वीपमध्यस्थितमानुषोत्तरपर्वतसंबंधिपूर्वदिक्सिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्करद्वीपमध्यस्थितमानुषोत्तरपर्वतसंबंधिपूर्वदिक्सिद्धकूट-जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
भव भव में शीतल नीर, जी भर खूब पिया।
पर बुझी न मन की प्यास, आखिर ऊब गया।।
इस हेतू से जल लाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मोह अग्नि की दाह, मुझको दहन करे।
हिमकण चंदन बर्फादि, नहिं भव ताप हरे।।
इस हेतू चंदन लाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।२।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धन धान्य विभव को पाय, नहिं व्यय को चाहूँ।
पर अब तक इनकी नाथ, रक्षा नहिं पाऊँ।।
इसलिये धवल ले शालि, तुम पद यजन करूँ।।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।३।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मन नयन घ्राण हर पुष्प, सुरभी खूब लिया।
पर भगवन तुम गुण गंध, अब तक नाहिं लिया।।
इसलिये विविध सुम लाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।४।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भव भव में बहु पकवान, खाके तृप्त नहीं।
तुमने प्रभु क्षुध की व्याधि, नाशी तृप्ति लही।।
इसलिये मधुर चरु लाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।५।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं चाहूं दीपक सूर्य, मन का तिमिर हरे।
पर झूठ हुई सब आश, समकित पाय खरे।।
निज द्युति हित दीपक लाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।६।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दुख दूर करन हित नाथ! बहुते यत्न करे।
पर दु:ख हरण में अन्य, कोई नाहिं अरे।।
इस हेतू धूप जलाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।७।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
भव भव के सुख फल हेतु, बहुते देव यजे।
पर अब तक कोई नाहिं, शिव फल देय सके।।
इसलिये सरस फल लाय, तुम पद यजन करूँ।।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।८।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुमूल्य अतुल फल हेतु, सब जग घूम चुका।
पर मिली न अब तक तृप्ति, बहु पद चूम चुका।।
शिव फल हित अर्घ्य चढ़ाय, तुम पद यजन करूँ।
निज आतम निधि को पाय, भव भव तपन हरूँ।।९।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिंधु नदी को नीर, धार देय जिन पद कमल।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा शम करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मालती फूल, सुरभित करते दश दिशा।
मारमल्लहर१ देव तुम पद अर्पूं मैं सदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
मनुजोत्तर नग पूर्वदिश, जिनचैत्यालय सार।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, करो सकल सुख सार।।१।।
इति मानुषोत्तरपर्वतस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नग मानुषोत्तर से परे, नहिं मनुष जा सकते कभी।
इस हेतु सार्थक नाम पर्वत, शास्त्र कहते हैं सभी।।
इस पूर्व दिश में जैनमंदिर, मूर्तियाँ जिनराज की।
पूजूँ चढ़ाकर अर्घ्य ले, पदवी मिले जिनराज की।।१।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय शाश्वत जिनभवन, जय जय जिनवर मूर्ति।
जय जय जयमाला कहूँ, करुँ रतनत्रय पूर्ति।।१।।
जय जय मनुजोत्तर नग जग में, जय जय उसकी अति महिमा।
जय जय पूरब दिश का जिनगृह, जय जय रतनमयी प्रतिमा।।
जय जय कर्मारी संहारक, जय जय जिन भव पार करें।
जय जय तीन लोक के नायक, भक्तों को सुख अतुल भरें।।२।।
सत्रह सौ इक्कीस सुयोजन, तुंग कहा यह ग्रन्थन में।
इक हजार बाइस योजन यह, मूूल में है विस्तृत सच में।।
मध्य भाग में सत सौ तेइस, चउ सौ चौबीस ऊपर में।
स्वर्णमयी है अनादि अनिधन, चौदह महागुफा इसमें।।३।।
टंकोत्कीर्ण भीतरी तरफे, घटता बाहिर तरफ कहा।
दिव्य रत्नमय रचना बहुविध, सुर खेचर मन मोह रहा।।
पर्वत तल में औ ऊपर भी, तट वेदी चउ तरफ कहीं।
वेदी मध्य सरस उपवन में, तरु पंक्ती फल फूल रहीं।।४।।
इस पे चारों दिश िजनमंदिर, भविजन पूजें भक्ति करें।
पूरब दिश के जिन चैत्यालय, की पूजन हम नित्य करें।।
अगणित भव भव के अघ संचित, तत्क्षण ही निज शक्ति हरें।
निज फल देने में बल विरहित, साता में संक्रमण करें।।५।।
जय जय शिवभर्ता, सब अघहर्ता, निज सुख कर्ता तुमहिं नमें।
सो ‘ज्ञानमती’ कर, सर्वकुमति हर, शिव सुख पाकर चिरहिं रमें।।६।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।