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ऋषिमंडल पूजा विधान चौबीस तीर्थंकर पूजा
August 2, 2024
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jambudweep
ऋषिमंडल पूजा विधान
चौबीस तीर्थंकर पूजा
शंभु छंद
जिन प्रभु ने निजकर्मारि जीत, वैवल्यसूर्य को प्रकट किया।
जग में भ्रमते सब जीवों को, दिव्य ध्वनि से संबोध दिया।।
फिर सादी हो भी अंतरहित, अक्षय निर्वाण धाम पाया।
उन ऋषभ आदि वीरांत जिनेश्वर, को मैं अब यजने आया।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभादि वर्धमानान्तास्तीर्थंकर परमदेवाः! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं ऋषभादि वर्धमानान्तास्तीर्थंकर परमदेवाः! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं ऋषभादि वर्धमानान्तास्तीर्थंकर परमदेवाः! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् इति सन्निधापनम् ।
अथ अष्टक-शंभु छंद
शशि सदृश विमल सन्मित्र सदृश, है मधुर और लघु मन भाया।
कर्पूर विमिश्रित कमलगंध, सुरभित शीतल जल भर लाया।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभाजितसंभवाभिनंदनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचंद्रप्रभपुष्पदंत-शीतलश्रेयांसवासुपूज्यविमलानंतधर्मशांतिकुंथुअरमल्लिमुनिसुव्रतनमिनेमिपार्श्व-वर्धमानेभ्यः तीर्थंकरपरमदेवेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर सित चंदन, घनसार घिसा कर लाया हूँ।
बाहर अन्तर का ताप हरे, ऐसी इच्छा से आया हूँ।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं ऋषभाजितसंभवाभिनंदनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचंद्रप्रभपुष्पदंत-शीतलश्रेयांसवासुपूज्यविमलानंतधर्मशांतिकुंथुअरमल्लिमुनिसुव्रतनमिनेमिपार्श्व-वर्धमानेभ्यः तीर्थंकरपरमदेवेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिसम सागर के फेन सदृश, औ कुंद पुष्प सम उज्ज्वल हैं।
माधुर्य गंधयुत सुभग पात्र में, रखे अखंडित तंदुल हैं।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं……..अक्षतं……..।
मंदार कुंंद जाती कदंब, पंकज औ पारिजात लाया।
दशदिश में सुरभि करें ऐसे, बहु फूल चढ़ाकर सुख पाया।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं……….पुष्पं……..।
उत्तम-उत्तम नाना व्यंजन, पकवान बनाकर लाया हूँ।
निज क्षुधा व्याधि परिहरने को, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं……..नैवेद्यं………।
निर्धूम शिखा है पीतकांति, जगमग-जगमग चहुँदिशी करे।
दीपक से आरति करते ही, निज अन्तर ज्ञान प्रकाश करे।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं…….दीपं………..।
कृष्णागरु आदि सुगन्धित बहु, द्रव्यों से धूप सुगंधित है।
जिन चरण निकट धूपायन में, खेते ही सुरभित दश दिक् हैं।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं ऋषभाजितसंभवाभिनंदनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचंद्रप्रभपुष्पदंत-शीतलश्रेयांसवासुपूज्यविमलानंतधर्मशांतिकुंथुअरमल्लिमुनिसुव्रतनमिनेमिपार्श्व-वर्धमानेभ्यः तीर्थंकरपरमदेवेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल नारंगी केलाफल, एला व विजौरा थाल भरे।
जिनराज निकट अर्पण करते, नवनिधियों से भंडार भरे।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं……फलं………।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू, औ दीप धूप फल ले आया।
वसु अर्घ सजाकर जिनवर के, चरणों ढिग अर्पण को आया।।
वृषभादि वीर तक चौबीसों, तीर्थंकर का गुण गान करूँ।
उनके चरणों की पूजा कर, निज आत्म सुधारस पान करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं…….अर्घ्यं……..।
दोहा- कंचन झारी में भरा, शीतल प्रासुक नीर।
जिनपद में धारा करूँ, मिले भवाम्बुधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल बकुल बेला कुसुम, सुरभित सुन्दर लाय।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, सुख संपति अधिकाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक पूजा
शंभु छंद
जो परमानंद देह धारी, सुख ज्ञान अनंत पूर्ण धरते।
धर्मामृत की वर्षा करके, सब जीवों की पुष्टी करते।।
ऐसे श्रीनाभिराज नंदन, उनकी मैं पूजा करता हूँ।
संपूर्ण अमंगल दूर भगा, शुभ मंगल को विस्तरता हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय जलं…….।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय चंदनं……।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय अक्षतं…..।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय पुष्पं……..।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय नैवेद्यं……।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय दीपं……..।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय धूपं……..।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय फलं…….।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री ऋषभतीर्थज्र्र परमदेवाय अर्घ्यं……।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
भवसागर से तरने हेतू, बस एक सेतु सदृश जो हैं।
ध्यानाग्नि ताप से कामदेव को, भस्म किया भव विजयी हैं।।
निरवधिक सौख्य की प्राप्ति हेतु, निर्वाण धाम को प्राप्त किया।
रागारि जीतकर अजित हुए, उनको मैं पूजूँ शुद्ध हिया।।२।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री अजिततीर्थज्र्र परमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें)
जिन ध्यान अग्नि की ज्वाला से, निज कर्मवृक्ष को दग्ध किया।
भवरहित हुए श्रीसंभव जिन, अतिशय अमंद आनंद लिया।।
जिनके चरणाम्बुज में सुरपति, के मुकुट सदा झुकते रहते।
उन संभव जिन की पूजा कर, हम भी अनंत भव दुख दहते।।३।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री सम्भवतीर्थज्र्र परमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें)
]
पीयूष सदृश पयसागर के, जल से जिनका अभिषेक हुआ।
व्यंजन लक्षण से शोभित तन, रवि से भी तेज विशेष हुआ।।
करुणामय जल से अखिल भव्य, जो तर्पित करते रहते हैं।
उन अभिनंदन जिनको पूजूँ, वे मन आनंदित करते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री अभिनन्दनतीर्थज्र्र परमदेवाय जलं……।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें)
संपूर्ण कमल से अधिक सुरभि, ऐसा निर्मल शरीर प्रभु का।
सुर असुर असंख्यों चरणों में, नत रहते भक्ति अधीन मुदा।।
सब जन मन को हरने वाले, अन्वर्थनामधारी जिन हैं।
ऐसे श्री सुमतिनाथ प्रभु को, मैं पूजूँ वे सुमतिप्रद हैं।।५।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री सुमतितीर्थज्र्र परमदेवाय जलं…….।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें)
गर्विष्ठ हुए वादी जन का, अभिमान नशे जिनके वच से।
अरविंद आदि उत्तम लक्षण, जिनके शरीर में अति विलसे।।
संपूर्ण तत्त्व के ज्ञाता हैं, मुनि मन को आह्लादित करते।
तन लाल कमल सम सुन्दर है, उनको मैं पूजूँ रुचि धरके।।६।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्रीपद्मप्रभतीर्थज्र्र परमदेवाय जलं….।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें)
सब भव्य जनों को हितकारी, उपदेश सुना भव से तारें।
निःशेष कर्म को नष्ट किया, निर्दोष अखिल गुण को धारें।।
संपूर्ण चराचर विश्वतत्त्व, को जान लिया केवलज्ञानी।
ऐसे सुपार्श्व की पूजा कर, मैं करूँ सर्व दुख की हानी।।७।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री सुपार्श्वतीर्थज्र्र परमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें।)
पूनों के चंद सदृश तन है, औ चंद्रचिन्ह से जग जाने।
करुणासागर सब पापरहित, शत इंद्र वंद्य जगगुरु माने।।
ऐसे ही चंद्रनाथ जिनकी, मैं नितप्रति अर्चा करता हूँ।
बस क्षायिक सम्यक् लब्धि हेतु, जिनगुण की चर्चा करता हूँ।।८।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री चन्द्रप्रभतीर्थज्र्र परमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें।)
जिनने अन्तर शत्रू जीते, औ कामदेव मद नष्ट किया।
परिग्रह विरहित हो करके भी, संपूर्ण गुणों का संघ किया।।
तीनों लोकों के भव्यजीव, जिनके पद कमलों में नमते।
उन पुष्पदंत की पूजाकर, हम मोहराज को भी हनते।।९।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री पुष्पदन्ततीर्थज्र्र परमदेवाय जलं……।
(इसी मंत्र से चन्दन से लेकर अर्घ्य तक चढ़ावें।)
कर्पूर श्वेत चंदन हिमकण, औ चंद्रकिरण से भी शीतल।
संसार दवानल शमन हेतु, जिनके वच मेघ सदृश शीतल।।
जो मुक्ति मार्ग दिखलाने में, भास्कर हैं फिर भी शीतल हैं।
ऐसे शीतल की पूजा से, होता भाक्तिक मन शीतल है।।१०।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री शीतलतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
भविजीवों को पुण्यानुबंध, भरपूर कराते पुण्यरूप।
सत्पुरुषों के स्वामी अनंत, गुणपुंज चिदानंदैकरूप।।
सब मोह, काम औ मृत्युराज, इन तीनों का संहार किये।
त्रिपुरारि हुए श्रेयांसनाथ, उनको मैं पूजूँ भक्ति लिये।।११।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री श्रेयांसतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
यतिपतियों के नायक माने, कल्याण संतती के वर्धक।
निज समवसरण के द्वादशगण, को दिव्य वचन से संवर्धक।।
सब वासवगण से पूजित हैं, श्रीवासुपूज्य जिन तीर्थेश्वर।
उनको मैं अर्चूं श्रद्धा से, वे होवें मुझको श्रेयस्कर।।१२।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री वासुपूज्यतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं……।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
जो भावकर्म औ द्रव्यकर्म, नोकर्म मलों से विरहित हैं।
इसलिए विमल अन्वर्थ नाम, धारण करते भवभयहृत हैं।।
भक्तों के कर्म कलंक रूप, सम्पूर्ण मलों को धोते हैं।
ऐसे श्री विमलनाथ की हम, पूजा करके मल धोते हैं।।१३।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री विमलतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
जिनने अन्तक का अन्त किया, औ अन्तातीत कहाये हैं।
दर्शन औ ज्ञान सौख्य वीरज, इनको अनन्त युत पाये हैं।।
सुरपति नरपति धरणीपति भी, जिनके पदपंकज को पूजें।
इन श्री अनन्त जिनकी पूजा, करके हम अन्तक को जीतें।।१४।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री अनंततीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
जिनने असंख्य भवि प्राणी को, धर्मोपदेश दे पुष्ट किया।
सद्धर्म चक्र का वर्तनकर, भारत को पूर्ण पवित्र किया।।
मुनिमन सरसिज निज वचकिरणों से, विकसित करने वाले हैं।
उन धर्मनाथ को मैं पूजूँ, वे भव दुख हरने वाले हैं।।१५।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री धर्मतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
निज को परिपूर्ण शांति देकर, पर को भी शांति प्रदान करें।
घाती कर्मों का कर विघात, पर को भी मार्ग विधान करें।।
तीर्थंकर चक्री कामदेव, तीनों पद को संप्राप्त किया।
उनकी पूजा भक्ती करके, मैंने सद्दर्शन लाभ लिया।।१६।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री शान्तिनाथतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
शशि रश्मीसम उज्ज्वल कीर्ती, जिनकी त्रिभुवन में पैâल रही।
सूक्ष्म स्थूल सभी जंतू पर, करुणा करिये वचन यही।।
ऐसे श्री कुंथुनाथ जिनका, मैं नमन और अर्चन करता।
सब रोग शोक दुख संकट हर, सुख संपति और सिद्धि लभता।।१७।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री कुंथुतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
छहखंड जीतकर कीर्ति ध्वजा, फहराई भरत क्षेत्र भर में।
संसार भोग से राग छोड़, फिर धर्मचक्र धारा कर में।।
भविजन चातक के लिए मेघ, श्री अर जिनवर को मैं ध्याऊं।
उनकी पूजा भक्ति करके, सब पाप चक्र से बच जाऊं।।१८।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री अरनाथतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
जो मोहमल्ल औ काममल्ल, औ मृत्युमल्ल को जीत चुके।
निज विषयकषाय दूर करने, हेतू भविजन नित जिन्हें जजें।।
ऐसे श्री मल्लिनाथ जिनकी, मैं अष्ट विधार्चन करता हूँ।
निजसाम्य सुधारस पीने की, इच्छा से वंदन करता हूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री मल्लितीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
जिनने शरीर से आत्मा को, निजध्यान शस्त्र से पृथक् किया।
अणुव्रत महाव्रत आदी देकर, पर का भी मार्ग प्रशस्त किया।।
उन मुनिसुव्रत तीर्थंकर की, जो श्रद्धा से पूजन करते।
वे भी उत्तम व्रत पा करके, उस बल संसार जलधि तिरते।।२०।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री मुनिसुव्रततीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
सब भवनवासि व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी वैमानिकसुर।
अपने परिवार देवियों सह, नित भक्ती करने में तत्पर।।
प्रभु के चरणों में स्वयं भाल, घिस घिस कर नमस्कार करते।
ऐसे नमि जिनवर के पद की, पूजनकर पाप तिमिर हरते।।२१।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री नमिनाथतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
बलभद्र और श्रीकृष्ण जिन्हों के, चरणों में नित नमते थे।
जो राजमती से हो विरक्त, मुक्ती की आशा करते थे।।
जिनका तनुु नील वर्ण सुन्दर, लज्जित हो नीलकमल उससे।
चरणों में शंख चिन्ह स्थित, उन नेमी को पूजूँ रुचि से।।२२।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री नेमिनाथतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
क्रोधाग्नी से संतप्त कमठ, प्रभु तुम पर अति उपसर्ग किया।
फिर शांत रूप तुम रूप देख, तुम पद पंकज का भक्त हुआ।।
संकट को सहने में तुमही, अनुपम क्षमताधारी माने।
हे पार्श्वनाथ! तुम पूजन से, हम भी सब दुःख संकट हाने।।२३।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री पार्श्वनाथतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
सिद्धार्थ नृपति तुम सम सुत पा, निज जीवन धन्य बनाया था।
तुम जन्मोत्सव पर सुरपति ने, कुण्डलपुर तीर्थ बनाया था।।
श्री वर्धमान अतिवीर वीर, सन्मति औ महावीर स्वामी।
मैं पूजूँ अति श्रद्धारुचि से, प्रभु वाञ्छित देने में नामी।।२४।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थाय श्री वर्धमानतीर्थज्र्रपरमदेवाय जलं…..।
(इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।)
दोहा- चौबीसों तीर्थेश को, पूरण अर्घ्य प्रदान।
जिन भक्ती देती सकल, शांति श्री कल्याण।।२५।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थेभ्यः चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो पूर्णार्घ्यं।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
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