अर्हंत सिद्धाचार्य पाठक, सर्व साधू पांच ये।
निजनिज गुणों से युत इन्हों को, भजूँ मन वच काय से।।
सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित, मुक्ति के कारण कहे।
व्यवहार निश्चय से द्विधा, इनको जजें शिवपथ लहें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुतत्त्वदृष्टिज्ञानचारित्राणि! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुतत्त्वदृष्टिज्ञानचारित्राणि! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुतत्त्वदृष्टिज्ञानचारित्राणि! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् सन्निधापनं।
अर्हंत सिद्ध सूरि उपाध्याय साधु को।
सम्यक्त्वदरश ज्ञान चरित मुक्ति मार्ग को।।
मैं अष्ट द्रव्य लेय भक्तिभाव से जजूँ।
उनके सुपद की प्राप्ति हेतु नित्य ही भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं मोक्षसुखोपलंभबीजभूतेभ्यः अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु-तत्त्वदृष्टिज्ञानचारित्रेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(इसी मंत्र से चंदन आदि चढ़ावें।)
माता के उर में आने से, छह महिने भी पहले से ही।
सुरपति आज्ञा से धनद यहाँ, रत्नों को वर्षावे नित ही।।
मेरु पर हो अभिषेक प्रभू, दीक्षा ले केवलज्ञान वरें।
सब कर्मजीत शिव लहें उन्हीं, अर्हंतों का हम यजन करें।।१।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनसमर्थेभ्य: अर्हत्परमेष्ठिभ्यो जलं……।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
नहिं रूप अतः जो निराकार, साकार निजात्म प्रदेशों से।
सब लोक-अलोक जगत् देखें, जाने निज ज्ञान दरश गुण से।।
उत्पादनाश औ ध्रौव्यसहित, फिर भी परिपूर्ण स्वस्थ सुन्दर।
त्रिभुवन से पूजित सिद्धों को, मैं पूजूँ भक्तिभाव मन धर।।२।।
ॐ ह्रीं निष्ठितपरिपूर्णभव्यार्थेभ्यः सिद्धेभ्यो जलं………।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
जो सब शास्त्रों के पारंगत, जिनकी वाणी सूक्तिमय है।
जो मिथ्यामत का वमन कराकर, धर्मौषधि पिलाते हैं।।
सम्पूर्ण गुणों के आकर हैं, शिष्यों का पालन करते हैं।
उन आचार्यों को नित पूजूँ, वे शिवपथ में ले धरते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं भेदाभेदरत्नत्रयपालनसमर्थेभ्यः आचार्येभ्यो जलं…….।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
सद्विद्या का अभ्यास करें, पर को अध्ययन कराते हैं।
इंद्रिय सुख आशा से विरहित, मुक्ती की आश कराते हैं।।
शास्त्रों का अर्थ प्रगट करके, शिष्यों को संतर्पित करते।
उन उपाध्याय को मैं पूजूँ, वे सम्यक् ज्योति प्रकट करते।।४।।
ॐ ह्रीं सद्विद्यानुष्ठानाभ्यासोद्यतेभ्यः पाठकेभ्यो जलं…..।
(इस मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
एकत्व भावना को भाते, निज आतम अनुभव करते हैं।
निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय का, नितप्रति आराधन करते हैं।।
इंद्रिय औ मन को साधित कर, शुद्धोपयोग में रमते हैं।
उन साधू को हम नित पूजें, वे मुक्ती साधना करते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं परमसुखप्राप्तिबद्धकक्षापरमोपेक्षानियतेभ्यः सर्वसाधुभ्यो जलं…..।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
तत्त्वार्थों की श्रद्धा करना, यह सम्यग्दर्शन माना है।
चारित्रादि का मूल भूत, द्वयभेद रूप से माना है।।
भव का अत्यन्त विनाश करे, इसलिए इसे मैं यजता हूँ।
क्षायिक समकित लब्धी हेतू, नितप्रति मैं अर्चा करता हूँ।।६।।
ॐ ह्रीं संसारान्तकरणसमर्थायै तत्त्वदृष्टये जलं……।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
संशय आदिक से रहित ज्ञान, तत्त्वार्थ बोधकारी जो है।
चारित से मैत्री करवाता, बस सम्यग्ज्ञान नाम यह है।।
वैâवल्य प्राप्ति में बीजभूत, मैं इसकी अर्चा करता हूँ।
निज शुद्धातम अनुभव हेतू, इसकी ही चर्चा करता हूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सत्सुखप्राप्तिमूलभूताय सम्यग्ज्ञानाय जलं…….।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
सावद्य योग से जो विरहित, आरम्भ परिग्रह नहिं जिसमें।
संसार नाश का कारण है, वह है सम्यक्चारित सच में।।
मन वच तन से रुचि पूर्वक मैं, उसका अभिनंदन करता हूँ।
पंचम चारित की प्राप्ति हेतु, चारित का अर्चन करता हूँं।।८।।
ॐ ह्रीं स्वर्गादिसंपत्ति निदानभूताय सम्यक्चारित्राय जलं……।
(इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ावें।)
अर्हंत सिद्ध सूरी पाठक, साधू सम्यक्त्व ज्ञान चारित।
जो इन आठों को नित पूजें, वे तिर जाते हैं भव वारिध।।
निज रत्नत्रय की पूर्तिहेतु, मैं पूरण अर्घ चढ़ाता हूँ।
सब क्षेम और सुख शांति मिले, बस यही भावना भाता हूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुतत्त्वदृष्टिज्ञानचारित्रेभ्ये: पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।