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अर्हन्त पूजा
August 3, 2024
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पूजा नं0 2
अर्हन्त पूजा
-स्थापना-गीताछन्द-
अरिहंत प्रभु ने घातिया को, घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह, दोष का सब क्षय किया।।
शत इन्द्र नित पूजें उन्हें, गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम अर्चना, के हेतु अभिनंदन करें।।1।।
णमोअरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननं।
णमोअरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ स्थापनं।
णमोअरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं-ड्डग्विणी छंद
साधु के चित्त सम स्वच्छ जल ले लिया।
कर्ममल क्षालने तीन धारा किया।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।1।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सौगंध्य से नाथ को पूजते।
सर्व संताप से भव्यजन छूटते।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।2।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धौत अक्षत लिये स्वर्ण के थाल में।
पुंज धर के जजूं नाय के भाल मैं।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।3।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
केतकी कुंद मचकुंद बेला लिये।
कामहर नाथ के पाद अर्पण किये।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।4।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्ग मोदक इमरती भरे थाल में।
आत्म सुख हेतु मैं अर्पिहूँ हाल में।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।5।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण के दीप में ज्योति कर्पूर की।
नाथ पद पूजते मोह तम चूरती।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।6।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप को अग्नि में खेवते शीघ्र ही।
कर्म शत्रू जलें सौख्य हो शीघ्र ही।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।7।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव अँगूर दाड़िम अनन्नास ले।
मोक्ष फल हेतु जिन पाद पूजूँ भले।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।8।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य लेकर जजूँ नाथ को आज मैं।
स्वात्म संपत्ति का पाऊँ साम्राज मैं।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।9।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- जिन पद में धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांती धारा जगत में, आत्यन्तिक सुख देत।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हर सिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
सोरठा- परमानन्द समेत, श्री अरिहंत जिनेश हैं।
निजगुण संपत्ति हेतु, तिनके गुणमणि को जजूँ।।1।।
इति मंडले प्रथमदलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जन्म के दश अतिशय
नरेंद्र छंद- जन्म समय से ही दश अतिशय, प्रभु के तन में सोहे।
सौधर्मेन्द्र बना नित किंकर, प्रभु के मन को मोहे।।
देह पसेव रहित है प्रभु का, यह अतिशय मन भावे।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।1।।
स्वेदरहित सहजातिशयधारक अर्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
मात गर्भ से जन्में फिर भी, मलमूत्रदि रहित हैं।
मुनि मन को निर्मल करने में, सचमुच आप निमित्त हैं।।
सुर नर असुर इंद्र विद्याधर, बहु रुचि से गुण गावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।2।।
निर्मलत्व सहजातिशयधारक अर्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
प्रभु शरीर में श्वेत दुग्ध सम, रुधिर रहे अतिशायी।
रुधिर लाल नहिं यह शुभ अतिशय, सब जनमन सुखदायी।।
गणधरगण नित हर्षित मन से, प्रभु का ध्यान लगावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।3।।
क्षीरगौर रुधिरत्व सहजातिशय सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
तन सुडौल आकार मनोहर, समचतुरड्ड कहावे।
जिस जिस अवयव का जितना है, माप वही मन भावे।।
इस अतिशययुत श्री जिनवर को, हम भी पूजें ध्यावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।4।।
समचतुरड्डसंस्थान सहजातिशय सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
वज्रवृषभनाराच संहनन, उत्तम प्रभु का जानों।
अद्भुत महिमाशाली जिनवर, का शुभ देह बखानों।
इस अतिशय को हम नित पूजें, अतिशय भक्ति बढ़ावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।5।।
वज्रवृषभनाराचसंहनन सहजातिशय सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
कोटिक कामदेव छवि लाजें, अतिशय रूप मनोहर।
इंद्र हजार नेत्र कर निरखें, तृप्त न होवे तो पर।।
सुन्दर सुन्दर सब परमाणू, प्रभु के तन बस जावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।6।।
अतिशयरूप सहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
महा सुगंधित प्रभु का तन है, देव सुमन से बढ़कर।
अन्य सुरभि नहिं है इस जग में, उस सदृश अति सुखकर।।
जन्म समय से ही यह अतिशय, सब जन मन को भावे।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।7।।
सौगन्ध्य शरीर सहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
एक हजार आठ शुभ लक्षण, प्रभु के तन में सोहें।
सब सर्वोत्तम गुण के सूचक, त्रिभुवन जन मन मोहें।।
जन्मकाल से ये शुभ लक्षण, सब इनको ललचावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।8।।
अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहितशरीरसहजातिशयधारकार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
तुलना रहित अतुलबल प्रभु तन, जग में है न किसी के।
इंक्त चक्रवर्ती से अद्भुत, शक्ती है जिन जी के।।
निज शक्ती के प्रगटन हेतू, हम भी प्रभु गुण गावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से परमानंद सुख पावें।।9।।
अप्रमितवीर्यसहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
प्रिय हित मधुर वचन अमृतसम, सबको तृप्त करे हैं।
बाल्यकाल में आप संग में, सुर शिशु आन रमे हैं।।
ऐसे अतिशय युत जिनवर की, हम नित पूज रचावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानंद सुख पावें।।10।।
प्रियहितवादित्वसहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
केवलज्ञान के दश अतिशय
रोला छन्द- चार चार सौ कोश, चारों दिश में जानो।
रहे सुभिक्ष सुकाल, यह जिन अतिशय मानो।।
केवलज्ञान दिनेश, प्रगट हुआ सुखदायी।
मैं पूजूँ शिरनाय, पाऊँ सुख अतिशायी।।1।।
गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षत्वघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
ज्ञान उदय तत्काल, नभ में गमन करे हैं।
पांच सहस धनु जाय, ऊपर अधर चले हैं।।
असंख्यात सुर आय, जय जय ध्वनि उचरें हैं।
मैं पूजूँ शिरनाय, कर्म कलंक टरे हैं।।2।।
आकाशगमनघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
जहाँ गमन प्रभु होय, प्राणी बध न वहाँ पे।
दयासिंधु जिनदेव, सबकी दया तहाँ पे।।
मुझ पर भी अब नाथ! दृष्टि दया की कीजे।
मैं पूजूं शिरनाय, रत्नत्रय निधि दीजे।।3।।
अदया{भावघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
कोटि पूरब वर्ष, कुछ कम उसमें जानों।
कवलाहार विहीन, तन की स्थिति सरधानों।
यह अतिशय जिनराज, भविजन श्रद्धा ठानें।
जो पूजें मन लाय, कर्म कुलाचल हानें।।4।।
कवलाहाराभावघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
घाति चतुष्टय घात, यह अतिशय सुखकारी।
सुर नर पशू अजीव, कृत उपसर्ग निवारी।।
गणधर मुनिगण नित्य, तुम चरणाम्बुज ध्यावें।
जो पूजें शिरनाय, अक्षय पद को पावें।।5।।
उपसर्गाभावघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
समवसरण में आप, चारों दिश मुख दीखे।
पूरब मुख ही आप, या उत्तरमुख तिष्ठे।।
यह अतिशय तुम नाथ! सब जन को सुखदायी।
मैं पूजूँ शिरनाय, पाऊँ सुख अतिशायी।।6।।
चतुर्मुखत्वघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
सब विद्या के आप, ईश्वर एक कहे हैं।
तुमको पूजत भव्य, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।
यह अतिशय तुम नाथ, सब जन मन को भावे।
मैं पूजूँ शिरनाय, मेरे कर्म नशावें।।7।।
सर्वविद्येश्वरत्वघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
परमौदारिक देह, पुद्गलमय कहलावे।
फिर भी छाया हीन, यह अतिशय मन भावे।।
कल्पवृक्ष तुम देव, तुम छाया मैं चाहूँ।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, भव भव ताप नशाऊँ।।8।।
छायारहितघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
नेत्र पलक नहिं होत, नहीं टिमकार प्रभू के।
सौम्यदृष्टि नासाग्र, अतिशयवान प्रभू के।।
अंतर्दृष्टी हेतु, मैं भी जिनपद ध्याऊँ।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, फेर न भव में आऊँ।।9।।
पक्ष्मस्पंदरहितघातिक्षयजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
नहीं बढ़े नख केश, केवलज्ञानी प्रभु के।
दिव्य शरीर विशेष, यह अतिशय हैं प्रभु के।।
सम्यक्दर्शन हेतु, मैं त्रयकाल जजूँ हूँ।
जन्म मरण भय दुःख, नाशन हेतु भजूँ हूँ।।10।।
समाननखकेशत्वघातिक्षयजातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
देवकृत चौदह अतिशय
शंभु छंद
सर्वार्धमागधी भाषा है, तीर्थंकर की भवि सुखकारी।
सुरकृत यह अतिशय सब जन के, मन चमत्कार करता भारी।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।1।।
सर्वार्धमागधीयभाषादेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
प्रभु का विहार हो जहां जहां, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब जाति विरोधी जीव वहां, आपस में वैर हरें विचरें।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।2।।
सर्वजीवमैत्रीभावदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
जब श्रीविहार होता प्रभु का, औ समवसरण जहां राजे हैं।
षट्ऋतु के सब फल फलते हैं, सब फूल खिलें अति भासे हैं।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।3।।
सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणामदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
दर्पण तलसम भूरत्नमयी, जहँ जहँ प्रभु विहरण करते हैं।
यह अतिशय सुरकृत मनहारी, भवि पूजत ही दुख हरते हैं।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।4।।
आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
अनुकूल पवन है मन्द मन्द, सुरभित सुखकर जन मन हारी।
सब आधी व्याधी शोक टलें, स्पर्श पवन का हितकारी।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।5।।
सुगंधितविहरणमनुगतवायुत्वदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
जहँ जहँ प्रभु का हो श्रीविहार, सब जन परमानन्दित होते।
परमानन्दामृत पी करके, मुनिगण भी कर्म पंक धोते।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।6।।
सर्वजनपरमानन्दत्वदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
धूलि कंटक आदिक विरहित, भूमी अति स्वच्छ सदा दिखती।
प्रभु के विहार के अतिशय से, दुर्भिक्ष मरी व्याधी टरती।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।7।।
वायुकुमारोपशमित धूलिकंटकादिदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
सुरभित गन्धोदक की वर्षा, भक्ती से मेघकुमार करें।
प्रभु का ही अतिशय पुण्यमहा, जो पूजें भवदधि पार करें।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।8।।
मेघकुमारकृत गंधोदकवृष्टिदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं–।
जहँ जहँ प्रभु चरणकमल धरते, तहँ तहँ शुभ स्वर्ण कमल खिलते।
सुरकृत अतिशय को देख देख, जन-जन के हृदय कमल खिलते।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।9।।
चरणकमलतलरचितस्वर्णकमलदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
शाली आदिक सब धान्य भरित, खेती फल से झुक जाती है।
सुरकृत अतिशय से चहुँदिश में, सुन्दर पृथ्वी लहराती है।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।10।।
फलभारनम्रशालिदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
आकाश शरद् ऋतु के सदृश, सब दशों दिशा धूमादि रहित।
भक्ती से जन जन का मन भी, सब पाप पंक से हो विरहित।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।11।।
शरत्कालवन्निर्मलगगनदिग्भागत्वदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
आवो आवो सब सुरगण मिल, आवो आवो जयकार करो।
जिनवर की अतिशय भक्ती कर, अब मोहराज पर वार करो।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।12।।
एतैतेति चतुर्णिकायामरपरापराह्नानदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
वर धर्मचक्र सर्वाण्हयक्ष, मस्तक पर धारण करते हैं।
प्रभु के आगे चलते जग में, ये धर्मचक्र शुभ करते हैं।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।12।।
धर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
कलश ध्वज छत्र चमर दर्पण, भृंगार ताल औ सुप्रतीक।
ये मंगलद्रव्य आठ इनको, देवी कर धारें मंगलीक।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।13।।
अष्टमंगलद्रव्यदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
आठ प्रातिहार्य
गीता छन्द-
वर प्रातिहार्य अशोक तरुवर, शोक जन मन को हरे।
गारुत्मणी के पत्र सुन्दर, पवन प्रेरित थरहरें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।1।।
अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—-।
सुरगण करें सुरकल्पतरु के, पुष्प की वर्षा घनी।
अतिशय सुगंधित पुष्प पंक्ती, सर्व मन हरसावनी।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।2।।
सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
प्रभु दिव्यध्वनि चउकोश तक, गम्भीर ध्वनि करती खिरे।
निर अक्षरी फिर भी असंख्यों, भव्य को तर्पित करे।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।3।।
दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
चौंसठ चमर ढोरें अमर बहु, पुण्य संचय कर रहें।
ये चमर मानों कह रहे प्रभु, भक्त ऊरध गति लहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।4।।
चतुःषष्टिचामरमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
बहुरत्न संयुत सिंहपीठ, जिनेश जिस पर राजते।
जो भव्य पूजें नाथ को वे, आत्म ज्योति प्रकाशते।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।5।।
सिंहासनमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
प्रभु देह कांती प्रभामंडल, कोटि सूर्य तिरस्करे।
भवि सात भव उसमें निरख जिन, विभव लख शिरनत करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।6।।
भामंडलमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
सुरदुंदुभी बजती विविध, भविलोक को हर्षित करे।
धुनि श्रवणकर जिन दर्शकर,जन पुण्य बहु अर्जित करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।7।।
सुरदुंदुभिमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
जिननाथ के मस्तक उपरि त्रय, छत्र सुन्दर फिर रहें।
त्रैलोक्य की प्रभुता प्रभू की, है यही सब कह रहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।8।।
छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
चार अनंत चतुष्टय
नाराच छंद-तीन लोक तीन काल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्क्त अर्चते जिन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।1।।
अनंतज्ञानसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
लोक औ अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनन्त दर्श सर्व को।।
जो अनन्त दर्शयुक्त इन्द्र अर्चते जिन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनन्त दर्श हेतु मैं।।2।।
अनंतदर्शनसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
बाधहीन जो अनन्त सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनन्तकाल आवते न ह्यां कदा।।
वे अनन्त सौख्य युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनन्त सौख्य हेतु मैं।।3।।
अनंतसौख्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
जो अनन्तवीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनन्तकाल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
वे अनन्त शक्तियुक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनन्त वीर्य हेतु मैं।।4।।
अनन्तवीर्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं—।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
दश अतिशय जन्म समय से हों, दश केवल ज्ञान उदय से हों।
देवोंकृत चौदह अतिशय हों, चौंतिस अतिशय सब मिलकें हो।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, सु अनन्त चतुष्टय चार कहें।
इन छ्यालिस गुणयुत अर्हत को, हम पूजें वांछित सर्व लहें।।
षट्चत्वारिंशद् गुणसंयुक्तार्हत्परमेष्ठिभ्यः पूर्णार्घ्यं—।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-
अर्हत्सिद्धाचार्याेपाध्यायसर्वसाधुभ्योः नमः।
जयमाला
-दोहा-
श्री अरिहंत जिनेन्द्र का, धरूँ हृदय में ध्यान।
गाऊँ गुणमणिमालिका, हरूँ सकल अपध्यान।।1।।
-शंभु छंद-
जय जय प्रभु तीर्थंकर जिनवर, तुम समवसरण में राज रहे।
जय जय अर्हत् लक्ष्मी पाकर, निज आतम में ही आप रहे।।
जन्मत ही दश अतिशय होते, तन में न पसेव न मल आदी।
पय समसित रुधिर सु समचतुष्क, संस्थान संहनन है आदी।।1।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु है, शुभ लक्षण सहस आठ सोहें।
अतुलितबल प्रियहितवचन प्रभो, ये दशअतिशय जनमनमोहें।।
केवल रविप्रगटित होते ही दश, अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधानो।।2।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीबध, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखे सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़ें प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चौदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।3।।
सर्वार्धमागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब ऋतु के फल और फूल खिलें, दर्पणवत् भूरलाभ धरें।।
अनुकूल सुगंधित पवन चले, सब जन मन परमानन्द भरें।
रजकंटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधोदक वृष्टी देव करें।।4।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर,शाली आदिक बहुधान्य फलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर धर्मचक्र चलता आगे।
वसुमंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।5।।
तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चौंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रत्रय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।6।।
क्षुधा तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चउ घाति घात नवलब्धि पाय, सर्वज्ञ प्रभू सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के भवभव के कलिमल धोते हैं।।7।।
मैं भी भवदुःख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ज्ञानमती सिद्धी, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।8।।
-दोहा-
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य।
नमो नमो अरिहंत को, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।9।।
णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यः जयमाला अर्घ्यं—-।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-गीताछन्द-
अर्हंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु को जो पूजते।
वे मोह को कर दूर मृत्यु, मल्ल को भी चूरते।।
अद्भुत सुखों को भोग क्रम से, मुक्तिलक्ष्मी वश करें।
कैवल्य अर्हंत ‘ज्ञानमति’ पा, पूर्ण सुख शाश्वत करें।।
।। इत्याशीर्वादः ।।
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