उत्थित-उत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्ट-उत्थित और उपविष्ट-निविष्ट। जो साधु खड़े होकर जिनमुद्रा से कायोत्सर्ग कर रहे हैं और उनके परिणाम भी धर्मध्यान या शुक्लध्यान रूप हैं उनका वह कायोत्सर्ग उत्थित-उत्थित है। जो कायोत्सर्ग मुद्रा में तो खड़े हैं किन्तु परिणाम में आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यान चल रहा है । उनका वह कायोत्सर्ग उत्थित-निविष्ट है। जो बैठकर योगमुद्रा से कायोत्सर्ग कर रहे हैं किन्तु अन्तरंग में धर्मध्यान या शुक्लध्यानरूप उपयोग चल रहा है। उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्ट-उत्थित है। जो बैठकर आर्तध्यान या रौद्रध्यानरूप परिणाम कर रहे हैं। उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टनिविष्ट कहलाता है। इनमें से प्रथम और तृतीय अर्थात् उत्थित-उत्थित और उपविष्टोत्थित ये दो कायोत्सर्ग इष्टफलदायी हैं और शेष दो अनिष्ट फलदायी हैं। जो प्राणायामविधि से मानसिक जाप्य करने में असमर्थ हैं वे उपांशुरूप वचनोच्चारण-पूर्वक वाचनिक जाप्य करते हैं किन्तु उसके फल में अन्तर पड़ जाता है। यथा- ‘‘कायोत्सर्ग में वचन द्वारा ऐसा उच्चारण करें कि जिससे अपने पास बैठा हुआ भी कोई न सुन सके उसे उपांशु जाप्य कहते हैं। यह वाचनिक जाप्य भी किया जाता है। किन्तु इसका पुण्य सौ गुणा है तो मानसिक जाप्य का पुण्य हजारगुणा अधिक होता है।’’ श्री उमास्वामी आचार्य ने इस महामंत्र को हमेशा जपते रहने को कहा है- उठते, बैठते, चलते, फिरते समय, घर से निकलते समय, मार्ग में चलते समय, घर में कुछ काम करते समय पद-पद पर णमोकार को जो जपते रहते हैं उनके कौन से मनोरथ सफल नहीं हो जाते हैं ? अर्थात् सम्पूर्ण वांछित सिद्ध हो जाते हैं।’’ अन्यत्र भी कहा है- ‘‘छींक आने पर, जँभाई लेने पर, खाँसी आदि आने पर या अकस्मात् कहीं वेदना के उठ जाने पर या चिन्ता हो जाने पर इत्यादि प्रसंगों पर महामंत्र का जाप करना चाहिये। सोते समय और सोकर उठते ही णमोकार मंत्र का स्मरण करना चाहिये।’’ कहने का तात्पर्य यही है कि हमेशा महामंत्र का ध्यान व चिंतवन या उच्चारण करते रहना चाहिये । इससे विघ्नों का नाश होता है, शांति मिलती है तथा क्रम से ध्यान की सिद्धि होती है।
कृत्वा कायोत्सर्गं, चतुरष्टदोषविरहितं सुपरिशुद्धम्। अतिभक्तिसंप्रयुक्तो, यो वन्दते स लघु लभते परमसुखम्।।१।।