शुभ प्रातिहार्य सुआठ जिनगुण-संपदा सूचित करें।
तीनों जगत की ऋद्धियाँ, इस भांति से प्रभु को वरें।।
आनंदकंद महान परमानंद अमृत विस्तरें।
जो भव्यजन उन पूजते, वे स्वात्मरस अमृत भरें।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सुरगंगा१ को नीर कनक झारी भरूँ।
श्री जिनवर पद पूज, व्यथा सारी हरूँ।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टगंध वर सुरभित चंदन लाइया।
सकल तापहर जिनवर चरण चढ़ाइया।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम अक्षत धोय अखंडित लाइया।
कर्म पुंज क्षय हेतू पुंज रचाइया।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मौलसिरी औ पारिजात सुम लायके।
पूजूं श्री जिनपादपद्म हरषाय के।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी बरफी मोदक१ आदि ले।
स्वातम अनुभव हेतु जजूँ तुम पद भले।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक पात्र में दीप जलाकर लाइया।
अंतर ज्योती हेतु जिनेश्वर ध्याइया।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।६।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित अग्नि पात्र में खेवते।
कर्म शत्रु को नाश करूँ तुम सेवते।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।७।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला एला दाडिम आदिक फल लिये।
मोक्ष महाफल हेतु नाथ पद अर्चिये।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अर्घ्य मिलाकर थाल में।
तीर्थंकर पदपद्म जजूँ त्रयकाल मैं।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
जिनपद में धारा करूँ, सकलसंघ हितकार।।
सुरतरु१ के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
विकसित२ पुष्पों के गुच्छों से, तरुवर अशोक है शोभ रहा।
रत्नों की अनुपम कांती से, जन-जन के मन को मोह रहा।।
भविजन के मन का शोक हरे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।१।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर द्वारा नभ१ से वर्षाये, ये खिले कुसुम मानों हँसते।
श्री जिनवर का शुभ उज्ज्वल यश, मानों प्रमुदित वर्णन करते।।
भविजन के मन को विकसाता, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।२।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सात शतक औ अट्ठारह, भाषामय जिनवर की वाणी।
जो स्याद्वाद पीयूष भरी, दिव्यध्वनि त्रिभुवन कल्याणी।।
नित भविजन के भवरोग हरे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।३।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षों द्वारा ढोरे जाते, ये चौंसठ चमर बताते हैं।
जो श्री जिन आश्रय लेते हैं, वे निश्चित ऊपर जाते हैं।।
भविजन को ऊर्ध्वगतीकारी यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।४।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा चतु:षष्टि चामर महाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना रत्नों से जड़ा हुआ, सिंहासन सुर नर मन मोहे।
प्रभु के तन की कांती से वह, शतगुणित चमकता नित सोहे।।
अनुपम वैभव को प्रगट करे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।५।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा सिंहासनमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के तन की द्युति ही मानो, भामंउल बन कर प्रागट हुई।
जन उसमें अपने सात भवों, को देख रहे हैं सही सही।।
भविजन वैराग्य बढ़ाने को, यह प्रातिहाय& महिमाशाली।
हम पूजें अघ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।६।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा भामंडलमहाप्रातिहायजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
देवों की दुंदुभि बाज रही, मानो भविजन आह्वान करें।
आवो आवो हे भव्य जीव, जिनदशन कर निज भान करें।।
श्री जिन का गौरव प्रगट करे, यह प्रातिहाय& महिमाशाली।
हम पूजें अघ्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।७।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा देवदुंदुभिमहाप्रातिहायजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
ये तीन छत्र शशि मंडल१ सम, उनमें मुक्ता फल लटक रहे।
जिन देव देव के त्रिभुवन की, प्रभुता को मानो प्रगट कहें।।
भविजन का तीन२ ताप शामक३, यह प्रातिहाय महिमाशाली।
हम पूजें अघ्य& चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।८।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा छत्रत्रयमहाप्रातिहायजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
तीथंकर के आठ ये, प्रातिहाय जग सिद्ध।
पूजूँ पूरण अघ्य ले, पाऊँ जिनगुणरिद्ध।।९।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अष्टमहाप्रातिहायजिनगुणसंपदे पूणाघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
परमशुद्ध परमात्मा, परमपुण्य की खान।
तुम गुणमणि माला कहूँ, स्वात्म सौख्य हित जान।।१।।
नाथ आप को निहार चम नेत्र से तथापि,
हष& हो महान् तीन लोक में न मावता।
ज्ञान नेत्र से यदी विलोक१ लूं जिनेश आप,
तो पुन: कियंत२ हष हो न पार पावता।।
आप ही अनंत सौख्य राशि तेज पुंज देव,
आप ही त्रिलोक में अपूव कांतिमान हो।
योगिवृंद चित्तपद्म३ के विकास हेतु सूय&,
भव्यस्वांत४ कौमुदी विकास हेतु चांद हो।।१।।
आपकी अनक्षरी५ ध्वनी सुनें अनंत भव्य,
चित्त में धरें सदैव जन्म रोग टारते।
आप नाम मात्र को जपें यदी स्वचित्त में,
अनंत दु:ख वाधि से निजात्म को उबारते।।
आप ज्ञान हैं महान् तीन लोक के समान,
हों असंख्य लोक तो भी एक कोण में रहें।
सत्य में अनंत औ अनंत मान अभ्र६ भी,
निलीन७ आप ज्ञान में विशालता किती कहे।।२।।
आप भक्त के समीप सव सौख्य आय के,
अहं प्रथम८ अहं प्रथम कि बुद्धि से हि धावते,
कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतिताथ दायिरत्न९,
आपकी अचिन्त्य शक्ति देख के लजावते।।
सव& सिद्धि दायिनी जिनेन्द्र भक्ति एक ली,
समस्त दु:ख चूरणी धरा१ विषे प्रसिद्ध है।
साधु वृंद के अनेक चित्त के विकल्प को,
क्षणेक में निवारणे अमोघ२ शस्त्र सिद्ध है।।३।।
आप कीति बार बार शास्त्र में सुनी अत:,
जिनेन्द्रदेव! आज आप शण आन के लिया।
तारिये न तारिये जंचे प्रभो सुकीजिये,
प्रमाण आप ही मुझे स्वचित्त में दृढ़ी किया।।
आज जो दयानिधान! भक्त पे दयाद्र&भाव,
कीजिये उबारिये अनंत दु:ख सिंधु से।
ज्ञान दश सौख्य वीय संपदा निजात्म की जु,
मोहशत्रु से अभी दिलाय दीजिए मुझे।।४।।
प्रातिहाय& गुण के धनी, सिद्धि वधू के कांत।
‘ज्ञानमती’ सुख पूण कर, करिये पूण& प्रशांत।।५।।
ॐ ह्रीं अहं अष्टमहाप्रातिहाय जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से जिनगुणसुसंपति व्रत करें।
व्रत पूण कर प्रद्योत हेतू यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूण सुखकर इंद्रचक्री पद धरें।
फिर ‘ज्ञानमति’ से पूण गुणमय तूण शिवलक्ष्मी वरें।।१।।