चौबिस जिनके समवसरण में, भूमि खातिका द्वितयी।
फूले कमल कुमुद पुष्पों से, स्वच्छ नीर भृत सुभयी।।
हंस प्रभृति पक्षी कलरव ध्वनि, मणिमय सीढ़ी सोहें।
पूजूँ जिनवर समवसरण को, सुरनर खग मन मोहें।।१।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितसमवसरणस्थितचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितसमवसरणस्थितचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितसमवसरणस्थितचतुा\वशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
नीर सुरभि युत शुद्ध, त्रयधारा जिनपद करूँ।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।१।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन सुरभि युक्त, जिनपद पंकज चर्च के।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।२।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत उज्जवल धौत, पुंज धरूँ जिन अग्र मैें।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।३।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित बहुविध पुष्प, जिनपद पंकज अर्पते।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।४।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर मोदक शुद्ध, जिनवर अग्र चढ़ाय के।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।५।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगमग ज्योती युक्त, दीपक से जिन पूजके।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।६।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशवस्तु विमिश्रित धूप, जिनवर सन्मुख खेवते।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।७।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध फल रसयुक्त, जिनवर अग्र चढ़ाय के।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।८।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन मिश्रित अर्घ, भर भर थाल चढ़ाय के।
भूमि खातिका युक्त, समवसरण पूजूँ सदा।।९।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतानदि को नीर, सुवरण झारी में भरुँ।
मिले भवोदधितीर, जिनपद त्रयधारा करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला वकुल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
पुष्पांजलि को आप, चरण चढ़ाते यश बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
द्वितिय खातिका भूमि, चारों तरफी घिर रही।
कुसुमांजली समीप, करके पूजूँ जिनचरण।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
प्रथम भूमि के आगे वेदी, चारों तरफी घेरे।
चारों गोपुर द्वारों से युत, इस पर बने कंगूरे।।
उसके आगे बनी खातिका, भूमि समवसरण में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।१।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितवृषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर ऊँचाई से खाई, चौथाई गहरी हैं।
चारों तरफी गोलाई युत, जल से पूर्ण भरी हैं।।
खिली कमलनी जनमन हरतीं, मुख दीखे इस जल में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।२।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितअजितनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्र इन्द्राणी सुर किन्नर गण, इनमें क्रीड़ा करते।
देख खातिका की शोभा सब, जिन स्तवन उचरते।।
खिले पुष्प मानों कहते हैं, हँसो सदा जीवन में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।३।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितसंभवनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन के समवसरण में, भूमि खातिका सोहे।
सुरनर किन्नर विद्याधर नर सबके मन को मोहे।।
तीर्थंकर की महिमा अनुपम, वैभव समवसरण में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।४।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितअभिनंदननाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ ने घाति कर्म को, हनकर केवल पायो।
निजपर भेद विज्ञान ध्यान से, ज्ञान ज्योति प्रगटायो।।
धनद देव से निर्मित उत्तम, राजें अधर गगन में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।५।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितसुमतिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू ने राज्यविभव तज, निज की लक्ष्मी पाई।
गुण अनंत के रत्नाकर बन, केवल ज्योति जलाई।।
धनददेव से निर्मित सुन्दर, राजें अधर गगन में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।६।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितपद्मप्रभूजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व ने पूर्व जनम में, सोलह भावन भाया।
तीर्थंकर प्रकृती को बांधा, निज आतम चमकाया।।
गर्भ जन्म तप ज्ञान कल्याणक, उत्सव किया सुरों ने।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।७।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितसुपार्श्वजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रनाथ जिनचंद्र कांति सम, उज्ज्वल तनु को धारें।
रोग शोक दुख दारिद संकट, निज भक्तों के टारें।।
धनद देव से निर्मित परिषद्, राजें अधर गगन में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।८।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचंद्रप्रभसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पुष्पदंत जिनदेवा, सुरपति करते तुम सेवा।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।९।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितपुष्पदंतजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतलनाथ जिनेशा, हरते भव क्लेश अशेषा।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।१०।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितशीतलनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री जिन श्रेयांस श्रेयस्कर, त्रिभुवन के हित क्षेमंकर।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।११।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितश्रेयांसजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन वासुपूज्य वासवनुत, गणधर मुनिगण से संस्तुत।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।१२।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितवासुपूज्यजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन विमल कर्म मल वर्जित, निजस्वात्म सुधारस तर्पित।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।१३।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितविमलनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर अनंत अघ हंता, सब मंगलकर भगवंता।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।१४।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितअनंतनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ सुखदाता, सब मेटें कर्म असाता।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।१५।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितधर्मननाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन शांतिनाथ भगवंता, सब जग में शांति करंता।
पूजूँ जिन समवसरण को, खाई भूयुत अनुपम जो।।१६।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितशांतिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश्वर कुंथनाथ जगपाल, हरें जनमन की व्यथा कृपाल।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।१७।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितकुंथुनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश्वर अरहनाथ जगसूर्य, मुनी मनकमल विकासें सूर्य।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।१८।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितअरहनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश्वर मल्लिनाथ भगजिष्णु, ज्ञान से व्याप्त किया जगविष्णु।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।१९।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितमल्लिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोकेश्वर मुनिसुव्रतदेव, जजत ही सभी दु:ख हों छेव।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।२०।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितमुनिसुव्रतजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भविक जन को नमिजिन रक्षंत, अनंतों गुणमणि से विलसंत।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।२१।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितनमिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिजिन राजमती को त्याग, किया शिवरमणी से अनुराग।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।२२।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितनेमिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमठ उपसर्ग विजेतानाथ, मुझे करिये हे पार्श्व सनाथ।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।२३।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितपार्श्वनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाकल्पद्रुम वीर जिनेश, सभी इच्छित पूरो परमेश।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितीय खाई भूसहित ललाम।।२४।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितमहावीरजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जिनवर के समवसरण में, द्वितिय भूमि खाई है।
खिले कुसम को देख देख कर, जनता हरषाई है।।
बहु वैभव यह धनपति निर्मित, जिनवर चरण कमल में।
मैं पूजूूँ नित अर्घ चढ़ाकर, नहीं फिरूँ भववन में।।२५।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
जयो जिनेंद्र! आपके पदरविंद में नमें
असंख्य देवदेवियों समेत इंद्र आय के।
जयो जिनेन्द्र! आपके गुणानुवाद को भणें
असंख्य देव देवियाँ स्वशीश नाय नाय के।।
गणीश आपके गुणों को गिन नहीं सकें कभी
स्व भक्ति वश पुन: पुन: संस्तुती उचारते।
मुनीशवृंद आपके समीप आय आय के
निजात्म तत्त्व प्राप्ति हेतु तीनरत्न धारते।।१।।
सुरेन्द्र के कहेनुसार धनपती यहाँ पे आ
निमेष अर्धमात्र में समोसरण बनावते।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य से सनाथ आप
नाथ तीनलोक के समस्त जीव गावते।।
लवण समुद्र के समान स्याहि घोल शारदा
लिखे अनंतगुण अनंत काल तक सु आपके।
तथापि माँ सरस्वती कभी न पार पा सके
गणीन्द्र और बृहस्पती सदैव हार मानते।।२।।
अहो! महान् पुण्य के प्रभाव से जिनेन्द्र आप
वंदना करूँ नमाय माथ हाथ जोड़ के।
अहो! जिनेन्द्र आपकी परोक्ष अर्चना करूँ
यहीं जिनालयों में भक्ति से हि हाथ जोड़के।।
न हो मुझे कभी यहां पुनर्जनम का दु:ख भी
यही करूँ सुयाचना जिनेन्द्र! आश पूरिये।
सुज्ञान की मती करो न देर एक पल करो
अखंड ज्ञान दो मुझे समस्त सौख्य पूरिये।।३।।
परिखा से मंडित प्रभो! समवसरण है आप।
‘ज्ञानमती’ सुखसंपदा, देकर करो सनाथ।।४।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।