बल्लीवनी को वेढ़कर, परकोट सुंंदर स्वर्ण का।
चउ गोपुरों से युक्त उससे, बाद चौथी भूमिका।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्य द्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।१।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अतिस्वच्छ शीतल नीर से, जिनपाद त्रयधारा करूँ।
निजमानसिक संताप शांती, हेतु मैं आशा धरूँ।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।१।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरी का गंध सुरभित, घिस कटोरी भर लिया।
निज तापत्रय संहार हेतू, नाथ पद चर्चन किया।।उप.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि धौत तंदुल चन्द्रदीधित, सम धवल के पुंज से।
तुम पूजते निज आत्म अक्षय सौख्य होवे भक्ति से।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।३।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
दश दिश सुगंधित कर रहे, ये पुष्प बेला मल्लिका।
तुम पद कमल अर्पण किये, हो स्वात्म सुरभित संपदा।।उप.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूआ अंदरसा पूड़ियाँ, हलुआ भराया थाल में।
निज भूख व्याधी दूर होने, हेतु अर्पूं आज मैं।।उप.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर बाती जगमगे, तुम आरती रूचि से करूँ।
अज्ञान तम विध्वंस हो, निजज्ञान की ज्योति धरूँ।।उप.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध मिश्रित धूप सुरभित, अग्नि में खेऊँ अबे।
सब कर्म भस्मीभूत होकर, धूम्र के छल से भगें।।उप.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर केला आम अमरख, फल मधुर बहु ले लिया।
तुम पाद अग्र चढ़ावते, निज आत्म सुख अनुभव किया।।उप.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, स्वर्ण पुष्प मिलाइया।
यह अर्घ आप चढ़ाय के, निज आत्म निधि को पा लिया।।उप.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवरण झारी में भरूँ, गंगानदि को नीर।
शांतिधारा त्रय करूँ, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली केवड़ा बेला वकुल गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, शीघ्र स्वात्मसुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
समवसरण प्रभु आप, त्रिभुवन की लक्ष्मी धरे।
पुष्पांजलि समर्प, चैत्यवृक्ष जिन पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरिउपवनभूमिचैत्यवृक्षस्थाने पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
वृषभेश जिनके समवसृति में वनधारा में पूर्वदिश।
वन है अशोक कहा वहाँ तरु हैं कुसुम पत्रों भरित।।
उन मध्य एक अशोक तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्षसंबंधि-चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभेश जिनके समवसृति दक्षिण दिशी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें बहुत फल पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभेष प्रभु के समवसृति में पश्चिमी वन भूमि में।
चंपक तरु शोभें बहुत सुरभित कुसुम पत्ते घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्षसंबंधि-चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदिनाथ समवसरण में उत्तरी वन भूमि में।
तरु आम्र के फल पुष्प पत्तों युत वहाँ शोभें घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्यतरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्षसंबंधि-चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजितनाथ समवसरण में पूर्वदिक् वनभूमि में।
तरु हैं अशोक अनेक विध पुष्पादि से शोभें घने।।
उन मध्य चैत्य अशोक तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।५।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब भव्यजन का शरण जो इस दक्षिणी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें विविध फल पुष्प पत्रों युत घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।६।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब भक्तजन को दे शरण उस पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरु शोभे बहुत विध पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य चंपक चैत्यतरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।७।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धनपतिरचित इस समवसृति में उत्तरी वन भूमि में।
तरु आम्र के शोभें विविध फल पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्य तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।८।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनेश्वर समवसृति में वन धरा में पूर्व दिक्।
तरु वर अशोक विभासते पुष्पादि से सौगंध युत।।
उन मध्य चैत्य अशोक तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।९।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधरगणों युत समवसृति में दक्षिण वन भूमि में।
तरु सप्तच्छद शोभें विविध पुष्पादि से फूले घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१०।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिगण सहित जिन समवसृति में पश्चिमीवनभूमि में।
चंपक तरु शोभें विविध पुष्पों सहित सुरभित घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।११।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशगणों युत समवसृति में उत्तरी वन भूिम में।
बहु आम्र तरु शोभें विविध फल पुष्प पत्रों युत घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्यतरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।१२।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ अभिनंदन समवसृति पूर्वदिक् वनभूमि में।
तरुवर अशोक विभासते बहु पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य चैत्य अशोकतरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१३।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसृति सौख्यकर दिश दक्षिणी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें वहाँ बहु पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनराजपरिषद सर्वहितकर पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरु शोभे विविध कुसुमादि से सुरभित घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसृति सिद्धिप्रद की उत्तरी वनभूमि में।
तरु आम्र के शोभें बहुत विध पुष्प फल से युत घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्य तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१६।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ के समवसरण में, पूरब वन भूमी में।
तरु अशोक के वृक्ष घनेरे, शोक हरें पलपल में।।
उनके बीच अशोक चैत्यतरु में, चहुंदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत उनको अर्घ चढ़ायें।।१७।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण में दक्षिण दिश उपवन भूमी में।
सप्तच्छद के वृक्ष घनेरे पुष्प सुगंधित उनमें।।
उनके बीच सप्तच्छद तरु, चउदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत उनको अर्घ चढ़ायें।।१८।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरण्स्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छद चैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब मंगलकर समवसरण में, पश्चिम वनभूमी में।
चंपक तरु हैं नित पुष्पों से सुरभि करें दशदिश में।।
उनके बीच वृक्ष चंपक में चहुंदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत उनको अर्घ चढ़ायें।।१९।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लाकोत्तम जिन समवसरण में उत्तर वन भूमी में।
आम्रवृक्ष हैं फल पुष्पों युत सुरनर रमते उनमें।।
उनके बीच आम्रतरु इनमें चहुंदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत उनको अर्घ चढ़ायें।।२०।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू के समवसरण में पूरब दिश उपवन में।
तरु अशोक सब पवन झकोरे हिलते हैं क्षण क्षण में।।
उनके बीच अशोक चैत्य तरु, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२१।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण सुखदाता, दक्षिण दिश उपवन में।
वृक्ष सप्तछद पृथिवीकायिक पुष्प पत्र हैं उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२२।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जन शरणभूत है, उसमें पश्चिम वन में।
चंपक वृक्ष सुगंधित सुंदर, सुरगण रमते उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु चंपक, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२३।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में उपवन भूमि उत्तर दिश में सोहें।
आम्रवृक्ष फल पुष्पों से युत सुरकिन्नर मन मोहें।।
उनके बीच आम्र चैत्यतरु उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२४।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व जिनसमवसरण में, पूरबदिश उपवन में।
तरु अशोक हैं मणिमय पत्ते पुष्प लगे हैं उनमें।।
उनके बीच वृक्ष इक सुंदर उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२५।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण त्रिभुवन हितकारी, उसमें दक्षिण वन में।
वृक्ष सप्तछद मरकतमणिमय, पत्तों से युत उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२६।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण सब रोग शोकहर, उसमें पश्चिम वन में।
चंपक वृक्ष रत्नमणि निर्मित उन सुगंध दश दिश में।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण सब वैर कलह हर, उसमें उत्तर वन में।
आम्र व्रक्ष सब कुबेर निर्मित, फल फूलोंयुत उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२८।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रप्रभू के समवसरण में पूरब दिश उपवन में।
तरु अशोक उद्यान कुसुम युत शोक हरे पल में।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।२९।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण श्रेयस्कर, उसमें दक्षिण वन में।
वृक्ष सप्तछद विविध रत्नमय, पत्र पुष्प हैं उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।३०।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण है विश्वहितंकर, उसमें पश्चिम वन में।
चंपक तरु उद्यान मनोहर, खिले कुसुम उन सबमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।३१।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण सब भव्य हितंकर, उसमें उत्तर वन में।
आम्रवृक्ष फल पुष्प भारयुत, सुरभि करें दशदिश में।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको पूजूँ सर्व सौख्यप्रद लोकोत्तर जिन महिमा।।३२।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत के समवसरण में वन मही१।
पूरबदिश में तरु अशोक वन सोभहीं।।
उसके मध्य अशोक चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३३।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जिनवर का नवनिधि से भरा।
उसमें दक्षिण दिश सप्तच्छद वन धरा१।।
उसके बीच सप्तछद तरु इक शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३४।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत जिन अधर राजते गगन में।
समवसरण में चंपक वन दिश अपर में।।
उसके बीच चैत्य चंपकतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३५।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत की दिव्यधुनी मुनिगण सुनें।
उत्तरदिश में आम्र वनी में तरु घने।।
उसके बीच आम्र चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३६।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल जिनका समवसरण शीतल करे।
उसमें पूरब दिश अशोक वन मन हरे।।
उसके मध्य अशोक वृक्षवन शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३७।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में चैत्यवृक्ष को मुनि नमें।
दक्षिण में सप्तच्छद वन में सुर रमें।।
उसके मध्य सप्तछद तरु इक शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३८।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्यवृक्ष जिनप्रतिमा गणधर वंद्य हैं।
पश्चिमदिश में चंपक वन अभिनंद्य है।।
उसके मध्य चैत्य चंपकतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।३९।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरनर पूजें चैत्यवृक्ष जिनबिंब को।
उत्तर वन में चैत्य आम्रतरु बिंब को।।
यह वन मणिमय प्रतिमा से अति शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांसजिनसमवसरण अतिशय भरा।
त्रिभुवन जन क्षेमंकर पूरब वन धरा।।
उसके मध्य अशोक चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण में सुरपति भक्त हैं।
दक्षिण दिश सप्तच्छद वन अतिरम्य है।।
उसके मध्य सप्तछद चैत्य तरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रेयांस्नााथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण सौ इंद्रों वंध है।
पश्चिम दिश में चंपक वन अभिबंध है।।
उसके बीच चैत्य चंपक तस शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथजसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में रोग शोक पीड़ा नहीं।
उत्तर दिश में सुन्दर आम्रतरु मही।।
उसके बीचों आम्र चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य जिन समवसरण में राजते।
वहाँ पूर्ववन में अशोक तरु लसें।।
उसके मध्य अशोक चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४५।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनिजसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में भूख प्यास बाधा नहीं।
दक्षिण दिश में सप्तच्छद वन की मही।।
उसके मध्य सप्तछद तरुवर शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४६।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनिजसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में अपमृत्यू भय दुख नहीं।
पश्चिमदिश चंपक वन अतिशय शोभहीं।।
उसके बीच चैत्य चंपकतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४७।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनिजसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में सम्यग्दृष्टि जा सकें।
उत्तरवन के जिन बिंबों को भज सकें।।
उसके बीच आम्रचैत्यत्ारु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब जजूँ मन मोहता।।४८।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनिजसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ के समवसरण में, भविजन निजको शुद्ध करें।
उपवन भूमी के चारों दिश, जिनप्रतिमा की भक्ति करें।।
पूरबदिश अशोक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।४९।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में गणधर मुनिगण, सुरनर पशुगण भक्ति करें।
स्वपर भेद विज्ञान प्राप्त कर, चतुर्गती के दु:ख हरें।।
दक्षिणदिश सप्तच्छद तरुवन, चैत्य वृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५०।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण में आलस निद्रा तंद्रा कष्ट नहीं।
रोग शोक दुख संकट मृत्यु वैर कलह विद्वेष नहीं।।
पश्चिमदिश चंपक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५१।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में जिनवर अतिशय, क्रूर पशु गण शांत बने।
सभी वैर विद्वेष छोड़कर, करें परस्पर प्रेम घने।।
उत्तर दिशी आम्रतरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुर वंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५२।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंतजिन अंतक भयहर, गुण अनंत के स्वामी हैं।
समवसरण में अधर विराजें, त्रिभुवन अंतर्यामी हैं।।
पूरब दिश अशोकतरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुर वंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५३।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण सुरनिर्मित, नवनिधि सुख संपत्ति भरें।
जो जन पूजें भक्तिभाव से, सर्व अमंगल दोष हरें।।
दक्षिण दिश सप्तच्छद उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धनकुबेर ने सब संपत्ती, समवसरण में लाय धरी।
भव्यजनों के सर्वमनोरथ, तभी भक्ति ने पूर्ण करी।।
पश्चिमदिश चंपकतरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५५।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह सभा बनी हैं उनमें, मुनिगण सुरनर पशु बैठे।
जिनवर दिव्यध्वनी सुन करके, चतुर्गती के दु:ख मेटे।।
उत्तरदिश में आम्र वृक्षवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५६।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के समवसरण में धर्मामृत नित बरस रहा।
मुनी आर्यिका श्रावक और श्राविका रुचि से पियें अहा।।
पूरबदिश अशोक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५७।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण यह असंख्य भवि को, धर्मसुधा से तृप्त करे।
भवअनंत के अगणित दुख को इक क्षण में ही नष्ट करे।।
दक्षिणदिश सप्तच्छद उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५८।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण को वंदत, सप्त परमस्थान मिले।
भक्ती में रत भव्यजनों के, मन की कलियाँ शीघ्र खिलें।।
पश्चिमदिश चंपक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।५९।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर वंदत इन्द्र संपदा, चक्रवर्ति साम्राज्य मिले।
अधिक और क्याजिनगुण संपद, मुक्तिरमा सहशीघ्र मिले।।
उत्तरदिश में आम्र तरुवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।६०।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के समवसरण में, इन्द्रराज भी भक्त बनें।
भक्तपूर्ण शांती को पाकर, जन्म मृत्यु का कष्ट हनें।।
पूरब दिश अशोक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।६१।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितउप्वनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में सुरललनायें, भक्तिभाव से नृत्य करें।
धवल चंद्रकिरणों सम उज्ज्वल, प्रभु की गुण कीर्ती उचरें।।
दक्षिण दिश सप्तच्छद उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।६२।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में शारीरिक, मानस आगंतुक कष्ट नहीं।
षट्ऋतु के फल फूल वहाँ, इक साथ फलें फूलें नित ही।।
पश्चिम दिश में चंपक तरु वन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।६३।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में जिनप्रभाव से, वैर कलह संघर्ष नहीं।
सिंह हिरण अरु सर्प नेवला प्रेम परस्पर करें सही।।
उत्तर दिश उद्यान आम्र का, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, पूजत सुख संपत्ति बढ़े।।६४।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री कुंथुनाथ जिनदेवा, तुम समवसरण दुख छेवा।
उपवन अशोक पूरब में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६५।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण के अंदर, सौधर्म इन्द्र प्रभु किंकर।
वन सप्तच्छद दक्षिण में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६६।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिनाथ प्रभू गुण भजते, सुर किन्नर पूजा रचते।
चंपक वन पश्चिम दिश में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर तुम गुण को गाते, निज में परमानंद पाते।
वन आम्र तरु उत्तर में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६८।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन अरहनाथ मुनिनाथा, इन्द्रादि नमाते माथा।
उन समवसरण पूरब में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६९।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसमवसरण अतिशायी, त्रिभुवनजन को सुखदायी।
सप्तच्छद वन दक्षिण में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७०।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सन्निध पा करके, भविजन भव भव दुख हरते।
चंपक वन पश्चिम दिश में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७१।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चहुँदिश प्रतिमा के सन्मुख, हैं मानस्तंभ चतुर्मुख।
आमों का वन उत्तर में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७२।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनमल्लिनाथ भव विजयी, उन समवसरण सुखकरई।
उपवन अशोक पूरब में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७३।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजपरमानंद सुखदाता, जो भजे सर्व सुख पाता।
सप्तच्छदवन दक्षिण में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७४।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन आतम रस सुख पायो, उन समवसरण शिर नायो।
चंपक तरुवन पश्चिम में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७५।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण जो यजते, उन सर्व मनोरथ फलते।
आमों का वन उत्तर में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७६।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत जिन भवहर्ता, उन पूजत सब सुख भर्ता।
उपवन अशोक पूरब में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७७।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण की पूजा, इस सम नहिं हितकर दूजा।
सप्तच्छद वन दक्षिण में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७८।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आधि व्याधि परिहारे, जिन समवसरण गुणधारे।
चंपक वन पश्चिम दिश में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७९।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिम्दिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समवसरण मन धारें, वे दुख दारिद सब टारें।
आमों का वन उत्तर में, जजुँ चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।८०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण नमिनाथ का, सब सुख का भंडार।
वन अशोक पूरब दिशी, जजूँ चैत्यतरु सार।।८१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दस धर्मों का कल्पतरु, समवसरण सुखकार।
सप्तच्छदवन दक्षिणी, जजूँ चैत्यतरु सार।।८२।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर की अद्भुत सभा, भविजन सुख दातार।
चंपक वन पश्चिम दिशी, जजूँ चैत्यतरु सार।।८३।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म जन्म के पाप सब, नाशूँ जिन गुणधार।
आम्रवनी उत्तर दिशी, जजूँ चैत्यतरु सार।।८४।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ की भक्ति से, मिले स्वात्म साम्राज।
तरु अशोक वन पूर्वदिश, जजूँ चैत्यतरु आज।।८५।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जिनराज का, त्रिभुवन सुख साम्राज।
दक्षिणदिश वन सप्तछद, जजूँ चैत्यतरु आज।।८६।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनभक्ति से इंद्र पद, मिले चक्रि साम्राज्य।
चंपक वन पश्चिम दिशी, जजूँ चैत्यतरु आज।।८७।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनभक्ति से ही मिले, मुक्तिपुरी का राज।
उत्तर दिश में आम्रवन, जजूँ चैत्यतरु आज।।८८।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण प्रभुपार्श्व का, सब मंगल करतार।
तरु अशोकवन पूर्वदिश, जजूँ चैत्यतरु सार।।८९।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व अमंगल दोषहर, धर्मतीर्थ करतार।
दक्षिण दिश वन सप्तछद, जजूँ चैत्यतरु सार।।९०।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम मंत्र जिन पार्श्व का, सर्व सौख्य दातार।
चंपक का पश्चिमदिशी, जजूँ चैत्यतरु सार।।९१।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संकट मोचन पार्श्वप्रभु, कलियुग दुख हरतार।
उत्तर दिश में आम्रवन, जजूँ चैत्यतरु सार।।९२।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जिन वीर का, अतिशय गुण भंडार।
जजूँ अशोक तरु बिंब को, सर्व सौख्य भंडार।।९३।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन सन्मति दें सन्मती, कुमति विनाशनहार।
जजूँ सप्तछद बिंबको, सर्व सौख्य भंडार।।९४।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्य-वृक्षसंबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्द्धमान भगवान का, समवसरण सुखकार।
चंपक तरु प्रतिमा जजूँ, सर्व सौख्य भंडार।।९५।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीर प्रभू का नाम है, स्वातम निधि दातार।
आम्र वृक्ष प्रतिमा जजूँ, सर्व सौख्य भंडार।।९६।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्ष-संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबिस जिनवर के समवसरण में, चौथी उपवन भू मानी है।
चारों दिश इक इक चैत्य वृक्ष, चहुँदिश जिनप्रतिमा मानी हैं।।
चारों दिश की जिन प्रतिमा के, सन्मुख में मानस्तंभ खड़े।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, दिन पर दिन सुख सौभाग्य बढ़े।।९७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिसंबंधिषण्णवतिचैत्य-वृक्षचतुरशीत्यधिकत्रिशतजिनप्रतिमातावत्प्रमाणमानस्तम्भसंबंधिषट्िंत्रशदधिकएक-सहस्रपंचशतजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:
नासा दृष्टी सौम्य छवि, जिनवर सम जिनबिंब।
नमूँ नमूँ मस्तक नमाँ, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।१।।
जय जय श्री जिनवर समवसरण, जयजय चौथी उपवन् भूमी।
जय जय मणिमय जिन चैत्यवृक्ष, जय जय सुर नर वंदित भूमी।।
जय जय गणधर गुरु से वंदित, जयजय मुनिगण विहरण भूमी।
जय जय अशोक सप्तच्छद अरु, चंपक व आम्रवन की भूमी।।२।।
परकोटा दूजा स्वर्णमयी, चउ गोपुर द्वारों से युत है।
व्यंतर सुर मुद्गर लेकर के, जिनभक्त वहाँ पर रक्षक हैं।।
तोरण द्वारों के उभय तरफ, अठ विध के मंगल द्रव्य धरे।
प्रत्येक एक सौ आठ कहे, ये सर्व अमंगल दोष हरें।।३।।
उसके आगे वेष्टित करके, उपवन भूमी अति शोभ रही।
दिशक्रम से अशोक सप्तच्छद, चंपक व आम्रवन दिखें वहीं।।
चारों दिश इक इक चैत्य वृक्ष, प्रभु से बाहर गुणिते ऊँचे।
प्रत्येक चैत्यतरु में चारों, दिश इक-इक जिन प्रतिमा दीखें।।४।।
ये आठ प्रातिहार्यों संयुत, मणिमय श्रीजिन प्रतिमायें हैं।
हर प्रतिमाओं के सन्मुख इक, इक मानस्तंभ कहायें हैं।।
ये तीन कोट से परिवेष्टित त्रय कटनी के ऊपर शोभें।
मानस्तंभों के चारों दिश इक इक जिन प्रतिमायें शोभें।।५।।
चौबिस जिनवर के उपवन में, छ्यानवे चैत्यतरु माने हैं।
उनमें त्रय शतक सुचौरासी, मणिमय जिनबिंब बखाने हैं।।
इनके मानस्तंभ तीन शतक चौरासी ही हो जाते हैं।
चारों दिश जिनवर बिंब सभी पंद्रह सौ छत्तिस गाते हैं।।६।।
इन जिनबिंबों को भक्ती से, जो नित प्रति वंदन करते हैं।
वे सर्व मनोरथ पूर्ण करें, क्रम से शिव लक्ष्मी वरते हैं।।
इन उपवन में कहिं बावड़ियाँ, कहिं क्रीड़ा पर्वत दिखते हैं।
कहिं भवन बने सुंदर ऊँचे, इनमें सुर नर नित रमते हैं।।७।।
पूरबदिशवन में बावड़ियाँ१, नन्दा नन्दोत्तर आनंदा।
नन्दवती व अभिनन्दिनी, नन्दिघोषा जलभरी महानंदा।।
जो जन इनकी पूजा करते, वे उदय सुफल को पाते हैं।
वापी से पुष्पों को लेकर, जिनबिंब पूजते जाते हैं।।८।।
दक्षिणदिश विजय तथा अभिजय, जैत्री व वैजयन्ती वापी।
अपराजित जयोत्तरा नामा, ये यजत विजय फल को देतीं।।
पश्चिमदिश कुमुदा नलिनी अरु, पद्मा पुष्करा वापियाँ हैं।
विश्वोत्पला, कमला ये छह, यजते प्रीति फल देती हैं।।९।।
उत्तर में प्रभासा भासवती भासा, सुप्रभा भरीं जल से।
पुन भानुमालिनी स्वयंप्रभा, ख्याती फल देतीं पूजन से।।
वापी जल से स्नान किये, भवि जन इक भव को देखे हैं।
उस जल अवलोकन से निज के ही सात भवों को देखे हैं।।१०।।
इन उदय और प्रीती फलदा, बावड़ियों के मधि मारग के।
द्वय तरफी तीन तीन खन की, बत्तीस नाट्यशाला दीखें।।
प्रत्येक में बत्तिस बत्तिस, ज्योतिषि, देवी नर्तन करती हैं।
वे हाव भाव से तन्मय हो, जिनवर गुण कीर्तन करती हैं।।११।।
हम नित्य नमें जिन प्रतिमा को सारे कलिमल धुल जावेंगे।
निज आत्म सुधारस पीकर के, निजमें ही तृप्ती पावेंगे।।
सब आधि व्याधि पीड़ा संकट, इक क्षण में ही नश जावेंगे।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करके, सिद्धालय में बस जावेंगे।।१२।।
जय जय जिन प्रतिमा, अनवधि महिमा, जयजिनवरगुण पूर्ण भरे।
जय सर्व सुखाकर, गुण रत्नाकर पूजक भवदधि तूर्ण तरें।।१३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितउपवनभूमिसंबंधिमानस्तंभ-सहितसर्वचैत्यवृक्षजिनप्रतिमाभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।