समवसरण में पीठ दूसरा स्वर्ण का।
आठ दिशा में आठ ध्वाजायें वर्णिता।।
नव निधि मंगल द्रव्य धूप घट शोभते।
पूजूं भक्ति बढ़ाय, सर्वमन मोहते।।१।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
काल अनादी से तृष्णा दुख देत है।
तास निवारण हेतु नीर शुचि लेत हैं।।
महाध्वजायें आठ पूजते भक्ति से।
कीर्ति ध्वजा फर हरे उन्हों की चहुंदिशे।।१।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव भव के त्रयताप निवारण कारणे।
मलयागिरि चंदन घिस लायो पावने।।महा.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल उज्जवल धोय, पुंज रचना करें।
निज अखंड पद मिले, पुनर्भव ना धरें।।महा.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
विविध वर्ण के पुष्प सुगंधित लावते।
पूजत ही यश सुरभि बढ़े दशहूँ दिशे।।महा.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक पेड़ा बरफी भर के थाल में।
पूजत भागे क्षुधा व्याधि तत्काल में।।महा.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक में कर्पूर जला आरति करें।
ज्ञान ज्योति को जला भ्रांति तम परिहरें।।महा.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप धूप घट में जो खेते भक्ति से।
स्वपर भेद विज्ञान उन्हें हो युक्ति से।।महा.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतफल अंगूर आम केला भले।
फल से पूजत सर्व सौख्य मिलते भले।।महा.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदिक अर्घ्य चढ़ाते सुख मिले।
पाप ताप संताप मिटे जन मन खिलें।।महा.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुं जग में मुझमें सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नील कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
महाध्वजा के खंभ, द्वितिय पीठ पर हैं खड़े।
यजन हेतु अठ द्रव्य, वहीं मिले जन पूजते।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
आदि तीर्थेश के श्री समोशर्ण में।
हैं द्वितीय पीठ पे सीढ़ियाँ दिक्क१में।।
पूजहूँ मैं ध्वजा आठ भक्ती भरे।
सिद्ध के आठ गुण सम धवल फरहरें।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टअष्ट-महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थ स्वामी अजितनाथ के पीठ पे।
जो जजें ध्वज सदा सर्वगुण से दिपें।।पूजहूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट-महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ संभव हरे पंच संसार को।
पूजते ही महामोह संहार हो।।पूजहूँ.।।३।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टमहाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अभिनंदनेश्वर निजानंद दें।
भक्ति से भव्यजन सर्व आनंद लें।।पूजहूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुमतिनाथजी सर्व कुमती हरें।
जो जजें सर्व रिद्धी समृद्धी भरें।।पूजहूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभु जब चलें चर्ण तल पद्म हों।
वे सुगंधी भरे स्वर्णमय पद्म हों।।पूजहूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ सान्निध्य पा पूज्य होतीं ध्वजा।
जो सुपारस जजें सर्व नाशे व्यथा।।पूजहूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रप्रभ की धवल कांति उन कीर्तिसम।
जो जजें वो करें मुक्ति पथ को सुगम।।पूजहूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंतेश निजभक्त के ईश हैं।
इन्द्रशत वंदते नित नमां शीश हैं।।पूजहूँ.।।९।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ शीतल भविक चित्त शीतल करें।
जो जजें वो महा दु:ख वारिधि तरें।।पूजहूँ.।।१०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ श्रेयांस हरते जगत् की व्यथा।
भव्य पंकज खिलाती उन्हीं की कथा।।
पूजहूँ मैं ध्वजा आठ भक्ती भरे।
सिद्ध के आठ गुण सम धवल फरहरें।।११।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ वसुपूज्य सुत सर्व जग के पिता।
जो शरण आ गये वे तुम्हीं में रता।।पूजहूँ.।।१२।।
ॐ ह्रा वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीविमलनाथ निजको विमल कर लिया।
स्वात्म करने विमल भक्त शरणा लिया।।पूजहूँ.।।१३।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंतेश के गुण अनंते कहे।
जो जजें वे स्वयं गुण अनंते लहें।।पूजहूँ.।।१४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ सानिध्य पा ये ध्वजा पूज्य हैं।
जो शरण आ गये वो बने पूज्य हैं।।पूजहूँ.।।१५।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांति तीर्थेश के पाद पंकेज को।
जो जजें वो लहें शांति पीयूष को।।पूजहूँ.।।१६।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथु भगवान् मेरी कुबुद्धी हरो।
भेद विज्ञान हो श्रेष्ठ बुद्धी भरो।।पूजहूँ.।।१७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरहनाथ के पाद अरविन्द को।
पूजते ही भविक को निजानंद हो।।पूजहूँ.।।१८।।
ॐ ह्रीं अरहनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लि तीर्थेश पूरें भविक याचना।
फेर होता न संसार में आवना।।पूजहूँ.।।१९।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ मुनिसुव्रतं को नमूं प्रीति से।
शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होवो मुझे।।पूजहूँ.।।२०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो नमीनाथ की नित्य अर्चा करें।
दु:ख दारिद्र हर रिद्धि सिद्धी भरें।।पूजहूँ.।।२१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं करूँ नेमिजिन की सदा वंदना।
राग द्वेषादि की हो स्वयं वंचना।।पूजहूँ.।।२२।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वजिन भक्त के सर्व संकट हरें।
क्रोध ईर्ष्यादि हरके क्षमा गुण भरें।।
पूजहूँ मैं ध्वजा आठ भक्ती भरे।
सिद्ध के आठ गुण सम धवल फरहरें।।२३।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महावीर प्रभु में महावीरता।
मृत्यु को मारने की जगे वीरता।।पूजहूँ.।।२४।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्ट महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीसों जिनराज की, कटनी द्वितिय अपूर्व।
आठ ध्वजाओं को जजत, उगे ज्ञानरवि१ पूर्व।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणद्वितीयपीठोपरिस्थितद्विनवत्य-धिकएकशतमहाध्वजाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
जय समवसरण में, पीठ स्वर्णमय, उस पर मणिमय खंभों में।
जय अतिशय ऊँची, नभ को छूतीं, आठ महाध्वज हैं उनमें।।
ये सिंह, बैल, पंकेज, चक्र, माला व गरुड़ गज चिन्ह धरें।
जो इनको पूजें, शिवपथ सूझे, ये अपयश अरु विघ्न हरें।।१।।
नाथ आप पाद वंद मैं निहाल हो गया।
आप से हि तीनरत्न को संभाल के लिया।।
धन्य ये घड़ी व आज धन्य जन्म हो गया।
धन्य नेत्र हैं मेरे व धन्य शीश हो गया।।२।।
धन्य स्वात्म तत्त्व का भि ज्ञान प्राप्त हो गया।
हरेक क्षण बना रहे सु एक प्रार्थना किया।।
आत्म तेज सूर्य चंद्र अग्नि तेज को जिते।
सर्वरत्न तेज से अनंत गुणा हो दिपे।।३।।
आतमा अनंत सौख्य धाम दीप्तिमान है।
आतमा अनंत गुण निधान कीर्तिमान है।।
एक आत्मज्ञान ही समस्त दोष को हरे।
एक स्वात्मज्ञान ही सदा प्रसन्न मन करे।।४।।
स्वात्म के समान अन्य ना हुआ न होयगा।
मोक्ष धाम दे यही न अन्य कोइ देयगा।।
स्वात्मसिद्धि हेतु एक साम्यभाव ही कहा।
साम्य रससुधा बिना न सिद्धि हो कभी यहाँ।।५।।
शत्रु मित्र जन्म मृत्यु लाभ वा अलाभ में।
एकरूपता१ रहे सदैव सुक्ख दु:ख में।।
नाथ आप भक्ति ये यही सुशक्ति प्राप्त हो।
सम्यक्त्व ज्ञान युत्ति२ से हि मुक्ति प्राप्त हो।।६।।
ना होय फेर फेर मुझे भव में आवना।
नाथ! मेरि पूरिये एक येहि कामना।।
मात्र इसी हेतु मैं कोटि बार पग पडूं।
सर्वसिद्धि सीढ़ियों पे बढ़ते कदम चढूं।।७।।
पूजन सामग्री धरी, कटनी पर बहु भांति।
भव्य वहां पूजन करें, मिले ज्ञानमति शांति।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणद्वितीयपीठोपरिस्थितद्विनवत्य-धिकएकशतमहाध्वजाभ्य: जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।