तीर्थंकर के मुख से खिरती, अनअक्षर दिव्यध्वनी भाषा।
बारह कोठों में सबके हित, परिणमती सर्वजगत् भाषा।।
गणधर गुरु जिनध्वनि को सुनकर, बाहर अंगों में रचते हैं।
हम दिव्यध्वनी का आह्वानन, करके भक्ती से यजते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनि-वाणीसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनि-वाणीसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनि-वाणीसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—भुजंगप्रयात छंद
मुनीचित्त सम नीर पावन लिया है।
सरस्वति चरण तीन धारा दिया है।।
जजूूं तीर्थंकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।१।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तपे स्वर्णरस सम घिसा गंध लिया।
सरस्वति चरण चर्च कर सौख्य पाया।।जजूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: चदंनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले श्वेत अक्षत अखंडित लिये हैं।
प्रभो१ कीर्ति को पुंज अर्पण किये हैं।।
जजूूं तीर्थंकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।३।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही मोंगरा केतकी पुष्प लेके।
चढ़ाऊँ प्रभू की ध्वनी को रुची से।।जजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मलाई पुआ खीर पूरी बनाके।
चढ़ाऊँ प्रभू कीर्ति को क्षुध विनाशे।।जजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जले दीप ज्योती दशों दिक् प्रकाशे।
जजें नाथ ध्वनि को स्वपर ज्ञान भासे।।जजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगनिपात्र में धूप खेऊँ सुगंधी।
सरस्वति कृपा से करूँ मोह बंदी।।जजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंनास अंगूर केला फलों को।
चढ़ाऊँ महामोक्ष फल हेतु ध्वनि को।।जजूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादी लिये स्वर्ण पुष्पों सहित मैं।
करूँ अर्घ अर्पण सरस्वति चरण में।।जजूँ.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंगा नदि का नीर ले, शारदा मां पद कंज।
त्रय धारा देते मिल, मुझे शांति सुखकंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
पुष्पांजलि:।
दिव्य ध्वनी की अर्चना, भरे स्वात्म विज्ञान।
रोग शोक दुख वंचना, करके करे महान।।१।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जिन दिव्य ध्वनि त्रयकाल में, त्रय त्रय मुहूर्तों तक खिरे।
सुर नर पशू के कान में जा, सर्व भाषा को धरे।।
फिर भी अठारह महाभाषा, लघू भाषा सात सौ।
इस दिव्य ध्वनि को पूजते, अतिशीघ्र ही शिवधाम हो।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतअष्टादशमहाभाषासप्तशतकक्षुल्लक-भाषामयदिव्यध्वनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनि सुन गणाधरा, गूंथे बारह अंग।
उनको पूजूंं रुचि धरा, मिले ज्ञान आनंद।।
मुनियों के आचार प्रधान, उनका पूरण करे बखान।
करो यत्नपूर्वक सब क्रिया, जिससे मिले शीघ्र शिवप्रिया।।
पद है ‘आचारांग’ में, अठरह सहस प्रमाण।
जो पूजें नित अर्घ ले, मिले सौख्य निर्वाण।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतआचारांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वसमय परसमयों को कहे, स्त्री के लक्षण वरणये।
‘सूत्रकृतांग’ दूसरा अंग, इसको नमत मिले सुखसंग।।
इसी दूसरे अंग में, पद छत्तीस हजार।
पूजत ही भ्रम नाशके, मिले समय का सार।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसूत्रकृतांगय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीव और पुद्गल के भेद, एक दोय त्रय आदि अनेक।
वर्णे ‘स्थानांग’ सदैव, पूजत मिले ज्ञान स्वयमेव।।
तीजे स्थानांग में, पद व्यालीस हजार।
जो पूजें वे शीघ्र ही, लहें स्वात्म निधिसार।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतस्थानांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य अपेक्षा रहें समान, उसे कहें ‘समवाय’ सुमान।
क्षेत्र काल अरु भाव समान, इनका भी यह करे बखान।
एक लाख चौंसठ सहस, पद इसके हैं जान।
पूजत ही जिनके सदृश, मिलता स्वात्मनिधान।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसमवायांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीव अस्ति या नास्ती आदि, साठहजार प्रश्न इत्यादि।
इनका उत्तर देवे नित्य, ‘व्याख्याप्रज्ञप्ती’ वह सिद्ध।।
पद मानें दो लाख अरु, अट्ठाईस हजार।
वसुविध अर्घ चढ़ायहूं, मिले सुगुण भंडार।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतव्याख्याप्रज्ञप्तिअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर को धर्मकथादि, दिव्यध्वनि से वर्णे सादि।
त्रय संध्या में खिरती ध्वनी, संशय आदि दोष को हनी।।
पाँच लाख छप्पन सहस, पद हैं इसमें जान।
१‘नाथधर्मकथांग’ यह, जजूं इसे गुणखान।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलवििनर्गतनाथधर्मकथांयाग अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाक्षिक नैष्ठिक साधक भेद, श्रावक के प्रतिमादि अनेक।
इनका वर्णन करे अमंद, सो ‘उपासकाध्ययन’ सु अंग।।
ग्यारह लख सत्तर सहस, पद हैं इसमें सिद्ध।
जो पूजें नित भाव से, वे पद लहें अनिंद।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतउपासकाध्ययनांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रति तीर्थंकर तीरथकाल, दश दश मुनि निज आत्म संभाल।
घोर घोर उपसर्ग सहंत, केवलि हों निर्वाण लहंत।।
‘अंत:कृतदश’ नाम यह, अंग जजूँ धर नेह।
तेइस लख अठबिस सहस, पद से यह वर्णेय।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतअन्त:कृतदशांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबिस तीर्थंकर का तीर्थ, उनमें हो दशदश मुनिईश।
घोरोपसर्ग सहें मृति करें, अनुत्तर में इन्द्र अवतरें।।
‘अनुत्तरौपपादिकदशं’, अंग जजूं सुखकार।
पद बियानवे लाख अरु, चवालीस हज्जार।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतअनुत्तरौपपादिकदशांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आक्षेपिणि विक्षेपिणि तथा, संवेदनि निर्वेदनि कथा।
नष्ट मुष्टि चिंतादिक प्रश्न, वर्णन करता है यह अंग।।
इसमें पद तिरानवे, लाख व सोल हजार।
‘प्रश्नव्याकरण’ अंग को, जजूँ मिले सुखसार।।११।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतप्रश्नव्याकरणांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ वा अशुभ कर्मफलपाक, वर्णन करता अंग विपाक।
द्रव्य क्षेत्र काल अरु भाव, इनके आश्रय कहे स्वभाव।।
इस ‘विपाकसुत्रांग’ में, पद हैं एक करोड़।
लाख चुरासी भी कहें, जजूं सदा कर जोड़।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतविपाकसुत्रांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन शतक त्रेसठ मत भिन्न, उनका वर्णन करें अखिन्न।
नाना भेद सहित यह अंग, ‘दृष्टिवाद’ नाम यह अंत।।
इक सौ आठ करोड़ अरु, पद हैं अड़सठ लाख।
छप्पन हजार पाँच भी, जजूं नमाकर माथ।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतदृष्टिवादांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस ‘दृष्टिवाद’ के पाँच भेद, ‘परिकर्म’ ‘सूत्र’ ‘प्रथमानुयोग’।
‘पूरबगत’ अरु चूलिका’ कही, इनमें भी कहे प्रभेद योग।।
परिकर्म प्रथम में पाँच भेद, उनमें ‘शशिप्रज्ञप्ती’ पहला।
इसमें पद छत्तिस लाख पाँच, हज्जार जजूूं ले अर्घ भला।।१४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतचंद्रप्रज्ञप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दूजा ‘सूरज प्रज्ञप्ति’ कहा, परिकर्म सूर्य से संबंधी।
आयू मंडल परिवार ऋद्धि, अरु गमन अयन दिनरात विधी।।
इन सबका वर्णन करता यह, इसको भक्ती से पूजूं मैं।
पद पाँच लाख अरु तीन सहस, इन वंदत भव से छूटूं मैं।।१५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसूर्यप्रज्ञप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रज्ञप्ती जंबूद्वीप’ नाम, यह मेरु कुलाचल क्षेत्रादिक ।
वेदिका सरोवर नदी भोग-भू जिनमंदिर सुर भवनादिक।।
इस जंबूद्वीप के मध्य विविध रचना का वर्णन करता हैं।
पद तीन लाख पच्चीस सहस, इनका अर्चन भव हरता है।।१६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतजंबूद्वीपप्रज्ञप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस मध्य लोक में ‘द्वीप और सागर’ हैं संख्यातीत कहे।
किसमें क्या है? यह सब वर्णे, व्यंतर आदिक आवास कहे।।
इसमें पद बावन लाख तथा छत्तीस हजार बखाने हैं।
हम पूजें भक्ती से इनको, जिससे भव भव दुख हाने हैं।।१७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वीपसागरप्रज्ञप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्याख्याप्रज्ञप्ती’ परीकर्म, जीवाजीवादिक द्रव्यों को।
भव्यों व अभव्यों सिद्धों को वर्णे बहुवस्तू भेदों को।।
इसमे पद लाख चुरासी अरु, छत्तीस हजार बखाने हैं।
हम इसकी पूजा करके ही निज आत्मा को पहचाने हैं।।१८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतव्याख्याप्रज्ञप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस दृष्टिवाद का भेद द्वितिय जो ‘सूत्र’ नाम का माना है।
है जीव अबंधक अवलेपक इत्यादिक करे बखाना है।।
यह क्रिया अक्रिया वादों को अरु विविध गणित को वर्णे है।
पर हैं अट्ठासी लाख कहें इसको पूजूं भवतरणी ये।।१९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतदृष्टिवादभेदेसूत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर चक्री हलधर अरु नारायण प्रतिनारायण हैं।
त्रेसठ ये शलाका पुरुष कहे, इनके चरित्र को वर्णे ये।।
जिनवर विद्याधर ऋद्धीधर मुनियों राजादिक पुरुषों को।
वर्णे, पद इसमें पाँच सहस, ‘प्रथमानुयोग’ पूजूँ इसको।।२०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतदृष्टिवादभेदप्रथमानुयोगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौथा है भेद ‘पूर्वगत’ जो इसके भी चौदह भेद कहें।
‘उत्पादपूर्व’ पहला यह भी उत्पत्ति नाश स्थिति कहे।।
सब द्रव्यों की पर्यायों को, यह वर्णे इसको पूजूँ मैं।
इसमें पद एक करोड़ कहें, वंदत भव दुख से छूटूँ मैं।।२१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतउत्पादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अग्रायणीय पूरब’ दूजा, यह सुनय सातसौ अरु दुर्नय।
छह द्रव्य पदार्थों को वर्णे, इसमें पद् छ्यानवे लाख अभय।।
इस द्वितिय पूर्व को पूजूँ मैं, इसका कुछ अंश आज भी है।
षट्खंडागम जो सूत्र ग्रंथ, उन भक्ती भव भय हरती है।।२२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतअग्रायणीयपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वीर्यानुवाद’ है तृतीय पूर्व, यह आत्मवीर्य परवीर्यों को।
तपवीर्यादिक को कहता है, पद सत्तर लाख इसी में जो।।
इसकी भक्ती से शक्ति बढ़े, फिर युक्ति मिले शिव मारग की।
फिर ज्ञान पूर्ण हो मुक्ति मिले, मैं पूजा करूँ सतत इसकी।।२३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतवीर्यानुप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ‘अस्ती नास्ति प्रवाद पूर्व’, स्वद्रव्य क्षेत्र कालादिक से।
सब वस्तू का अस्तित्व कहे, नास्तित्व अन्य द्रव्यादिक से।।
यह दुर्नय का खंडन करके, नय द्वारा विधि प्रतिषेध कहे।
इसमें पद साठ लाख मानें, इसको पूजत सम्यक्त्व लहे।।२४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतअस्तीनास्तिप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ‘ज्ञानप्रवाद’ नाम पूरब, प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों का।
मति श्रुत अवधी मनपर्यय अरु केवल इन पाँचों ज्ञानों का।।
बहु भेद प्रभेद सहित वर्णे, इसके पूजत हो ज्ञान पूर्ण।
इसमें पद इक कम एक कोटि, इस वंदत हो अज्ञान चूर्ण।।२५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतज्ञानप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह ‘सत्यप्रवाद पूर्व’ दशविध, सत्यों का वर्णन करता हैं
यह सप्तभंग से सब पदार्थ, का सुंदर चित्रण करता है।।
इसके पूजन से झूठ कपट दुर्भाषायें नश जाती हैं।
पद एक कोटि छह हैं पूजूँ दिव्य ध्वनि वश हो जाती हैं।।२६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसत्यप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निश्चय से शुद्ध कहा, फिर भी अशुद्ध संसारी है।
व्यवहार नयाश्रित ही कर्मों का कर्ता है भवकारी है।।
यह ‘आत्मप्रवाद पूर्व’ कहता, इसमें पद छब्बिस कोटि कहे।
इसको पूजत ही आत्म निधी, मिलती है जो भव दु:ख दहे।।२७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतआत्मप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह ‘कर्मप्रवाद पूर्व’ नानाविध कर्मों का वर्णन करता।
ईर्यापथ कर्म कृती कर्मों को अध: कर्म को भी कहता।।
इसमें पद एक करोड़ लाख अस्सी हैं इसको पूजूँ मैं।
निज पर का भेद ज्ञान करके, इन आठ करम से छूटूँ मैंं।।२८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतकर्मप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ‘प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व’ वह द्रव्य क्षेत्र कालादिक से।
नियमित व अनियमित कालों तक बहु त्याग विधी को बतलाके।।
वस्तू सदोष का त्याग करो, निर्दोष वस्तु भी तप रुचि से।
पद हैं चौरासी लाख कहें पूजूँ इसको मैं बहु रुचि से।।२९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतप्रत्याख्यानपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह ‘विद्यानुप्रवाद’ रोहिणि, आदिक महविद्या पाँच शतक।
अंगुष्ठ प्रसेनादिक विद्या, मानी हैं लघु ये सात शतक।।
इनके सब साधन विधि आदिक को वर्णे इसको जजूँ यहाँ।
पद एक कोटि दस लाख कहे, इसे पढ़ च्युत हों कुछ साधु यहाँ।।३०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतविद्यानुप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणप्रवाद पूर्व’ वर्णे, शशि सूर्य ग्रहादिक गमन क्षेत्र।
अष्टांग महान निमित्तादिक, पद इसमें छब्बिस कोटि मात्र।।
तीर्थंकर के कल्याणक को, चक्री आदिक के वैभव को।
यह कहता इसको पूजें हम, इससे कल्याण हमारा हो।।३१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतकल्याणप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह ‘प्राणावायप्रवाद’ पूर्व इंद्रिय बल आयु उच्छ्वासों का।
अपघात मरण अरु आयु बंध, आयू अपकर्षण आदी का।।
यह आयुर्वेद के अष्ट अंग का, अति विस्तृत वर्णन करता।
इसमें पद तेरह कोटि कहे, पूजत ही स्वास्थ्य लाभ मिलता।।३२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतप्राणावायप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो नृत्य शास्त्र संगीत शास्त्र, व्याकरण छंद अरु अलंकार।
पुरुषादिक के लक्षण कहता, जिसमें नव कोटी पद विचार।।
सो है ‘किरियाविशाल पूरब’ इसको जो रुचि से यजते हैं।
वे सब शास्त्रों में हो प्रवीण, फिर स्वपर भेद को भजते हैं।।३३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतक्रियाविशालपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिकर्म और व्यवहार रज्जु राशी गुणकार वर्ग घन को।
बहु बीज गणित को भी वर्णे कहता है मुक्ती लक्षण को।।
पद बारहकोटि पचास लाख इसको पूजूँ ले अर्घ भले।
यह ‘लोकबिंदुसार पूरब’ इसके वंदत लोकाग्र मिले।।३४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतलोकिंबदुसारपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है दृष्टिवाद का भेद चूलिका पाँच भेद भी इसके हैं।
‘जलगता’ प्रथम जल में स्थलवत् चलना इत्यादिक वर्णे है।।
जलस्तंभन के मंत्र तंत्र तप आदि अग्नि भक्षण आदिक।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी सहस द्विशत पूजूँ नितप्रति।।३५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतजलगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ‘स्थलगता’ चूलिका है, मेरु कुलपर्वत क्षेत्रों को।
उनमें गमनादिक मंत्र तंत्र तप आदिक बहुविधि कहती वो।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी हजार दो सौ हैं इसमें।
इसको पूजूँ मैं अर्घ लिये, यह साधन भवदधि तरने में।।३६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतस्थलगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ‘मायागता’ चूलिका वह माया का खेल सिखाती है।
बहु इंद्रजाल क्रीड़ाओं की, मंत्रादिविधी बतलाती है।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी हजार दो सौ हैं इसमें।
मैं जजूँ इसे यह कुशल सदा सब जग की माया हरने में।।३७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतमायागताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह ‘रूपगता’ चूलिका सिंह गज घोड़ा मनुजादिक बहुविध।
रूपों को धरने के मंत्रों तप आदिक को वर्णे नित प्रति।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी हजार दो सौ माने हैं।
मैं जजूँ मिले मुझ आत्मरूप, मुझको पररूप हटाने हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गततरूपगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आकाशगता’ चूलिका सदा नभ में गमनादि सिखाती है।
बहुविध के मंत्र तंत्र तप से साधन की विधि सिखलाती है।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी हजार दो सौ से वर्णे।
मैं इस आशा से जजूँ मिले, मुझे लोकाकाश अग्र क्षण में।।३९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतआकाशगताचूिलकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सामायिक स्तववदंनादि, चौदह प्रकीर्णकों का वर्णन।
ये अंगबाह्य करता सुंदर, इस पूजत मिटे परावर्तन।।
पच्चीस लाख त्रय सहस तीन सौ अस्सी श्लोक प्रमाण रहे।
इस ‘अंगबाह्य’ को अर्घ चढ़ाकर पूजूँ समरस स्त्रोत बहे।।४०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसामायिकादिचतुर्दशप्रकीर्णकस्वरूप-अंगबाह्येभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतज्ञान सकल यह द्वादशांगमय जिनवर ध्वनि से प्रकट सांच।
इक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अठावन सहस पाँच।।
इन द्वादशांग अरु अंगबाह्य को नित प्रति वंदन करता हूँ।
भक्ती से अर्घ चढ़ा करके श्रुतज्ञान ज्योति को धरता हूँ।।४१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतगणधरदेवग्रथितद्वादशांगबाह्यस्वरूप-दिव्यध्वनिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
जय जय तीर्थंकर धर्म चक्रधर, जय प्रभु समवसरण स्वामी।
जय जय त्रिभुवन त्रयकाल एक, क्षण में जानो अंतर्यामी।।
जय सब विद्या के ईश, आप की दिव्यध्वनी जो खिरती है।
वह तालु ओष्ठ कंठादिक के, व्यापर रहित ही दिखती है।।१।।
अठरह महाभाषा सातशतक, क्षुद्रक भाषामय दिव्य धुनी।
उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।।
तीनों संध्या कालों में वह, त्रय त्रय मुहूर्त स्वयमेव खिरे।
गणधर चक्री अरु इन्द्रों के, प्रश्नों वश अन्य समय भि खिरे।।२।।
भव्यों के कर्णों में अमृत बरसाती शिव सुखदानी है।
चैतन्य सुधारस की झरणी, दुखहरणी यह जिनवाणी है।।
जन चार कोश तक उसे सुने, निजनिज के सब कर्तव्य गुने।
नित ही अनंत गुण श्रेणि रूप परिणाम शुद्ध कर कर्म हने।।३।।
छह द्रव्य पाँच है अस्तिकाय, अरु तत्त्व सात नवपदार्थ भी।
इनको कहती ये दिव्य ध्वनि, सबजन हितकर शिवमार्ग सभी।।
आनन्त्य अर्थ के ज्ञान हेतु जो बीज पदों का कथन करे।
अतएव अर्थकर्ता जिनवर उनकी ध्वनि मेघ समान खिरे।।४।।
उन बीजपदों में लीन अर्थ प्रतिपादक बारह अंगों को।
गणधर गूँथे अतएव ग्रंथकर्ता मानें वंदूँ उनको।।
जिन श्रुत ही महातीर्थ उत्तम, उसके कर्ता तीर्थंकर हैं।
वे सार्थक नाम धरें जग में, इससे तिरते भवसागर है।।५।।
जय जय प्रभुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जयजय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अति शीतल है।
चंदन अरु मोतीहार चंद्रकिरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।६।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।७।।
प्रत्येक वस्तु है अस्तिरूप, अरु नास्तिरूप भी है वो ही।
वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही।।
वो अस्तिरूप अरु अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव भंग धरे।
फिर अस्तिनास्ति अरु अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।८।।
इस सप्तभंगमय सिंधू में, जो नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह राग द्वेषादि रूप, सब कर्म कालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्य सुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
फिर परमानंद परमज्ञानी होकर, शाश्वत सुख भजते हैं।।९।।
मैं जिन अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाउँ।।१०।।
भगवन्! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुतदृग से निजको अवलोवूँ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निजको अवलोवूँ सुख पाऊँ।।११।।
सब भाषामय दिव्य ध्वनि, वाङ्मय गंगातीर्थ।
इसमें अवगाहन करूँ, बन जाऊँ जग तीर्थ।।१२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।