गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी।
निज पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।।
तीर्थेश की ध्वनि श्रवणकर, उन बीज पद के अर्थ को।
जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं जजूँ उन गणनाथ को।।१।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पयोराशि का नीर निर्मल भराऊँ।
गुरू के चरण तीन धारा कराऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि१ को मैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधीत चंदन लिये भर कटोरी।
जगत्तापहर चर्च हूँ हाथ जोरी।।जजूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले श्वेत अक्षत लिये थाल भरके।
धरूँ पुंज तुम पास बहु आशधर के।।जजूं.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केतकी पुष्प की माल लाऊँ।
सभी व्याधिहर आप चरणों चढ़ाऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि१ को मैं।।४।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस मिष्ट पक्वान्न अमृत सदृश ले।
परमतृप्ति हेतू चढ़ाऊँ तुम्हें मैं।।जजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की जगमगाती भली है।
जजत ही तुम्हें ज्ञानज्योती जली है।।जजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु धूप खेते उड़े धूम्र नभ में।
दुरित कर्म जलते गुरूभक्ति वशतें।।जजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्नास नींबू बिजौरा लिये हैं।
तुम्हें अर्पते सर्व वांछित लिये हैं।।जजूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिये थाल में अर्घ है भक्ति भारी।
गुरू अर्चना है सदा सौख्यकारी।।जजूँ.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर पदधारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यांतिक सुख देत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
स्वानुभूति से आप, नित आतम अनुभव करेंं।
द्वादश गण के नाथ, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र के चौरासि गणधर मान्य हैं।
गुरु ‘ऋषभसेन’ प्रधान इनमें सर्व रिद्धि निधान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं पूजहूँ नित भक्ति से गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरस्य ऋषभसेनप्रमुखचतुरशीतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजितनाथ जिनेन्द्र के नब्बे गणाधिप मान्य हैं।
‘केशरीसेन’ प्रधान इनमें सर्व ऋद्धि निधान हैं।।द्वादश.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य केशरिसेनप्रमुखनवतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनेश्वरके सु इक सौ पाँच गणधर ख्यात हैं।
गुरु ‘चारुदत्त’ प्रधान इनमें सर्व ऋद्धि सनाथ हैं।।द्वादश.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथरस्य चारुदत्तप्रमुखपंचाधिकशतगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन अभिनंदन के गणाधिप एक सौ त्रय ख्यात हैं।
गुरु ‘वङ्काचमर’ प्रधान इसमें सर्व ऋद्धि सनाथ हैं।।द्वादश.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य वङ्काचमरप्रमुखत्रयाधिकशतगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुमति जिनके एक सौ सोलह गणाधिप मान्य हैं।
‘श्रीवङ्का’ गणधर मुख्य इनमें सर्वऋद्धि खान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं पूजहूँ नित भक्ति से गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकरस्य वङ्काप्रमुखषोडशोत्तरएकशतगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपद्मप्रभ के एक सौ ग्यारह गणाधिप ख्यात हैं।
‘श्रीचमर’ गणधर मुख्य उनमें सर्वरिद्धि सनाथ हैं।।द्वादश.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरस्य चमरप्रमुखएकादशोत्तरएकशतगणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सुपारस के गणीश्वर ख्यात पंचानवे हैं।
‘बलदत्त’ गणधर हैं प्रमुख सब ऋद्धियों से भरे हैं।।द्वादश.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकरस्य बलदत्तप्रमुखपंचनवतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्रप्रभ के गणपती तेरानवे गणपूज्य हैं।
‘वैदर्भ’ गणधर प्रमुख उनमें सर्व ऋद्धी सूर्य हैं।।द्वादश.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभतीर्थंकरस्य वैदर्भप्रमुखत्रिनवतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पुष्पदंत जिनेश के गणधर अठासी मान्य हैं।
‘श्रीनाग’ मुनि गणधर प्रमुख सब ऋद्धियों की खान हैं।।द्वादश.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंततीर्थंकरस्य नागमुनिप्रमुखअष्टाशीतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल जिनेश्वर के सत्यासी गणधरा जग वंद्य हैं।
‘श्री कुंथु’ गणधर प्रमुख इनमें सर्वरिद्धी कंद हैं।।द्वादश.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलतीर्थंकरस्य कुंथुप्रमुखसप्ताशीतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेयांस जिनके पास सत्तत्तर गणाधिप श्रेष्ठ हैं।
‘श्रीधर्मगुरु’ गणधर प्रमुख सबऋद्धि गुण में ज्येष्ठ हैं।।द्वादश.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसतीर्थंकरस्य धर्मप्रमुखसप्ततिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र के छ्यासठ गणाधिप गण धरें।
‘मंदर’ मुनी गणधर प्रमुख ये सर्व रिद्धि गुण भरें।।द्वादश.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरस्य मंदरप्रमुखषट्षष्टिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ के गणधर पचपन, सब ऋद्धि से पावन।
‘जयमुनि’ प्रमुख उन्हों में गणधर भव सागर से तारन।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती देकर भव से तारें।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकरस्य जयमुनिप्रमुखपंचपंचाशत्गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंत जिनवर के गणधर हैं पचास गुण आकर।
‘श्री अरिष्ट’ गणधर प्रमुख्य हैं ऋद्धि सिद्धि रत्नाकर।।ये.।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथतीर्थंकरस्य अरिष्टप्रमुखपंचाशत्गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के गणधर सब ऋद्धी से पूर्ण तितालिस।
‘श्री अरिष्टसेन’ उनमें गुरु, ज्ञानज्योति से भासित।।ये.।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकरस्य अरिष्टसेनप्रमुखत्रिचत्वािंरशत्गणधर-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के छत्तिस गणधर, चौंसठ ऋद्धि समन्वित।
‘चक्रायुध’ गणधर उनमें गुरु, सर्व गुणों से मंडित।।ये.।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथतीर्थंकरस्य चक्रायुप्रमुखषट्त्रिंशत्गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथुनाथ के पैंतिस गणधर, शिवपथ विघ्न विनाशें।
प्रमुख ‘स्वयंभू’ गणधर उनमें, भविमन कुमुद विकासें।।ये.।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकरस्य स्वयंभूप्रमुखपंचिंत्रशद्गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर जिनवर के तीस गणाधिप सर्वऋद्धि के धारी।
‘कुंभ’ प्रमुख हैं गणधर सबमें परमानंद सुखकारी।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती देकर भव से तारें।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथतीर्थंकरस्य कुंभप्रमुखिंत्रशद्गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के अट्ठाइस गण नामक गुणमणि धारें।
‘श्री विशाख’ गणधर गुरु उनमें, भक्त विघन परिहारें।।ये.।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथतीर्थंकरस्य विशाखप्रमुखअष्टाविंशतिगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत के अठरह गणधर, व्रत गुण शील समन्वित।
‘मल्लि’ प्रमुख हैं गणधर उनमें, सब श्रुत ज्ञान समन्वित।।ये.।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रततीर्थंकरस्य मल्लिप्रमुखअष्टादशगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमि जिनवर के सत्रह गणधर, यम नियमों के सागर।
‘सुप्रभ’ प्रमुख गणाधिप उनमें, करते ज्ञान उजागर।।ये.।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकरस्य सुप्रभप्रमुखसप्तदशगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के ग्यारह गणधर, ऋद्धि सिद्धि गुण धारें।
‘श्री वरदत्त’ प्रमुख गणधर हैं, गुणमणि माला धारें।।ये.।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथतीर्थंकरस्य वरदत्तप्रमुखएकादशगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के दश गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धि धरें हैं।
‘प्रमुख स्वयंभू’ गणधर उनमें, स्वात्मपियूष भरे हैं।।ये.।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकरस्य स्वयंभूप्रमुखदशगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर प्रभु के गणधर हैं, ग्यारह सब गुण पूरे।
‘इंद्रभूति गौतम’ स्वामी हैं, यम की समरथ चूरें।।ये.।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकरस्य इंद्रभूतिप्रमुखएकादशगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबिस जिनके सब गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धी को धारे हैं।
ये चौदह सौ उनसठ१ मानें, भक्तों को भव से तारे हैं।।
सर्वौषधि आदिक ऋद्धी से, सब रोग शोक दु:ख हरण करें।
हम इनको पूजें भक्ती से, ये मुझमें समरस सुधा भरें।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरऋषभसेनादिएकोनषष्ट्यधिकचतुर्दशशतगणधर-चरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
जय जय श्री गणधर, धर्म धुरंधर, जिनवर दिव्यध्वनी धारें।
द्वादश अंगों में, अंग बाह्य में, गूँथे ग्रन्थ रचें सारे।।
गुरु नग्न दिगंबर, सर्व हितंकर, तीर्थंकर के शिष्य खरे।
मैं नमूँभक्ति धर, ऋद्धि निधीश्वर, मुझ शिवपथ निर्विघ्न करें।।१।।
मैं नमूँ मैं नमूँ नाथ गणधार को।
शील संयम गुणों के सुभंडार को।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।२।।
ऋद्धियाँ सर्व तेरे पगों के तले।
सर्व ही सिद्धियाँ आप चरणों भले।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि के तारना।।३।।
हलाहल विष कभी पाणि में आवता।
शीघ्र अमृत बने ऋद्धि गुण गावता।।नाथ.।।४।।
दीप्ततम ऋद्धि से नित्य१ उपवास है।
देह की कांति फिर भी द्युतीमन्त है।।नाथ.।।५।।
सर्व चौंसठ ऋद्धी धरें गुण भरें।
भक्तगण की सभी आश पूरी करें।।नाथ.।।६।।
विघ्न बाधा हरो सर्व सम्पत भरो।
स्वात्मपीयूष दे नाथ तृप्ती करो।।नाथ.।।७।।
मोह का नाशकर क्रोध शत्रू हरो।
मृत्यु को मार दूँ ऐसी शक्ती भरो।।नाथ.।।८।।
चार ज्ञानी प्रभो! चारगति भय हरो।
दे चतुष्टय अनंती सदा सुख करो ।।नाथ.।।९।।
इन्द्रभूती महाज्ञान मद से भरे।
पास आते हि सम्यक्त्व निधि को धरें।।नाथ.।।१०।।
शिष्य होके दिगम्बर मुनी बन गये।
चार ज्ञानी हुये गणपती बन गये।।नाथ.।।११।।
वीरकी ध्वनि छियासठ दिनों में खिरी।
इंद्र का हर्ष ना मावता उस घरी।।नाथ.।।१२।।
श्रावणी प्रतिपदा दिन प्रथम वर्ष का।
वीर शासन दिवस आज भी शर्मदा।।नाथ.।।१३।।
बारहों अंग पूर्वों कि रचना करी।
आज तक भी वही सार२ में है भरी।।नाथ.।।१४।।
गणधरों के बिना दिव्यध्वनि ना खिरे।
पद उन्हें जो प्रभू पास दीक्षा धरें।।नाथ.।।१५।।
गणधरों का सुमाहात्म्य मुनि गावते।
कीर्ति गाके कोई पार ना पावते।।नाथ.।।१६।।
धन्य मैं धन्य मैं धन्य मैं हो गया।
धन्य जीवन सफल आज मुझ हो गया।।नाथ.।।१७।।
आप गणइंद्र की भक्ति शोकापहा१।
आप की भक्ति ही सर्वसौख्यावहा२।।नाथ.।।१८।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो सुख असाधारणा।।नाथ.।।१९।।
चौबीसों तीर्थेश के, गणधर गुण आधार।
नमूँ नमूँ उनके चरण, मिले स्वात्मनिधिसार।।२०।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरपरमदेवानां वृषभसेनादिएकोनषष्टिअधिक-चतुर्दशशतगणधरचरणेभ्य: जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।