चौबीस तीर्थंकर जगत में, सर्व का मंगल करें।
गणधर गुरूगुण ऋद्धिधर, नित सर्व मंगल विस्तरें।।
गुणरत्न चौंसठ ऋद्धियाँ, मंगल करें निज सुख भरें।
मैं पूजहूँ आह्वान कर, मेरे अमंगल दुख हरें।।१।।
ॐ ह्रीं चतु: षष्टिऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतु: षष्टिऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतु: षष्टिऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
रेवा नदी जल भराकर शुद्ध लाऊँ।
संपूर्ण कर्ममल दूर करो चढ़ाऊँ।।
बुद्धयादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।१।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरि केशर घिसूँ भरके कटोरी।
चर्चं मिटे हृदय ताप सु आश पूरी।।बुद्ध्यादि.।।२।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान धवलाक्षत थाल में हैं।
धारूँ सुपुंज निज सौख्य अखंड हो है।।बुद्ध्यादि.।।३।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला जुही कमल फूल खिले खिले हैं।
पूजूँ सदा सुयश सौख्य मिले भले हैं।।बुद्ध्यादि.।।४।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू पुआ घृत भरे पक्वान्न लाऊँ।
क्षुद् व्याधि नष्ट करने हित मैं चढ़ाउँ।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिल नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।५।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जलती करती उजाला।
ज्ञानैक ज्योति भरती भ्रमतम निकाला।।बुद्ध्यादि.।।६।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ सुगंध वर धूप सुअग्नि संगी।
दुष्टाष्ट कर्म जलते करते सुगंधी।।बुद्ध्यादि.।।७।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार फल आम्र भराय थाली।
अर्पूं तुम्हें नहिं मनोरथ जांय खाली।।बुद्ध्यादि.।।८।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ कर स्वर्णिम पुष्प लेऊँ।
अर्घावतार करके निज रत्न लऊँ।।बुद्ध्यादि.।।९।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौंसठ ऋद्धि समूह को, जलधारा से नित्य।
पूजत ही शांती मिले, चउसंघ में भी इत्य१।।१०।।
वकुल कमल बेला कुसुम, सुरभित हर सिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
गुणीजनों में गुण रहें, बिन आश्रय न बसंत।
अत: गुणों को पूजते, गुणी स्वयं पूजंत१।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
बुद्धि ऋद्धि के भेद अठारह जानिये।
पहली ऋद्धी अवधिज्ञान है मानिये।।
अणु से महास्कंध पर्यंते मूर्त को।
जो जाने मैं नित पूजूँ उस ऋद्धि को।।१।।
ॐ ह्रीं अवधिज्ञानबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनुज लोक के भीतर चिंतित वस्तु को।
आत्मा से उत्पन्न मनपर्यय ज्ञान जो।।
जाने अतिशय सूक्ष्म मूर्तमय द्रव्य को।
पूजूँ मैं मनपर्ययज्ञान सु ऋद्धि को।।२।।
ॐ ह्रीं मन: पर्ययज्ञानबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकालोक प्रकाशे केवलज्ञान जो।
इक क्षण में त्रयकालिक वस्तु प्रत्यक्ष हो।।
ज्ञान ज्योतिमय केवल भास्कर को जजूँ।
निज परमानंदामृत अनुभव को चखूँ।।३।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द संख्यातों अर्थ अनंतों से युते।
अनंत लिंगों साथ बीजपद जानते।।
बीजभूत पद सब श्रुत का आधार है।
जजूँ बीज बुद्धी शिवपद करतार है।।४।।
ॐ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्दरूप बीजों को मति से जो ग्रहें।
श्रेष्ठ धारणा युक्त मुनी वो ही कहें।।
मिश्रण बिन बुद्धी कोठे में जो धरें।
पृथक्-पृथक् सब अर्थ कोष्ठ बुद्धी खरे।।५।।
ॐ ह्रीं कोष्ठबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश सु पाय एक पद को ग्रहे।
उसके उपदेश या पहले के पद लहे।।
उभय ग्रहे या त्रय विध पदानुसारिणी।
जजूँ ऋद्धि यह बुद्धि बढ़ावन कारिणी।।६।।
ॐ ह्रीं पदानुसारिणीबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रोत्रेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाहिजे।
संख्यातों योजन तक नर पशु सर्व के।।
अक्षर अनक्षरात्क वच सुन उत्तरें।
संभिन्न श्रोतृ बुद्धी को पूजूँ रुचि धरें।।७।।
ॐ ह्रीं संभिन्नश्रोतृतृत्वबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसनेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य जो।
संख्यातों योजन नाना रस स्वाद को।।
जो जाने दूरास्वादन ऋद्धी धरें।
इस ऋद्धी को जजूँ सर्व व्याधी हरें।।८।।
ॐ ह्रीं दूरास्वादित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन स्पर्श सब जानहीं।।
तप बल से यह ऋद्धि, प्रगट हो साधु के।
जजूँ भक्ति से मिले, ऋद्धियाँ ठाठ से।।९।।
ॐ ह्रीं दूरस्पर्शत्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राणेंन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य में।
संख्यातों योजन सुगंध को जानने।।
अधिक क्षयोपशम पाय ऋद्धि यह ऊपजे।
जजूँ ऋद्धि को सर्वसौख्य गुण पूरते।।१०।।
ॐ ह्रीं दूरघ्राणत्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्णेन्द्रिय उत्कृष्ट विषय के बाहिरे।
संख्यातों योजन मनुष्य पशु अक्षरे।।
पृथक् पृथक् सुन लेय ऋद्धिधर मुनिवरा।
जजूूँ दुरश्रवणत्व ऋद्धि को रुचिधरा।।११।
ॐ ह्रीं दूरश्रवणत्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र से बाह्य जो।
संख्यातों योजन सब कुछ भी देख वो।।
चक्रवर्ती के नेत्र विषय से अधिक भी।
दूरदर्शिता ऋद्धि जजूँ रुचिधर अभी।।१२।।
ॐ ह्रीं दूरदर्शित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रोहिणी प्रभृति महाविद्यायें, पाँच शतक मानी हैं।
लघु विद्या अंगुष्ठ प्रसेना प्रभृति सप्त शत ही हैं।।
दशम पूर्व पढ़ने पर ये विद्यायें आज्ञा मांगे।
पूजूँ अभिन्नदश पूर्वी जो इन वश में नहिं जाते।।१३।।
ॐ ह्रीं दशपूर्वित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ऋषि सब आगम के ज्ञाता, श्रुतकेवलि कहलाते।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब पढ़ यह ऋद्धी पाते।।
आगम ज्ञान पूर्ण होवे मुझ इस आशा से पूजूँ।
स्वपर भेद विज्ञान प्राप्त कर सर्वभयों से छूटूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्वित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभ्र१ भौम अंग स्वरव्यंजन लक्षण चिन्ह स्वपन२ हों।
आठ निमित्तों से जनके शुभ अशुभ बताते मुनि जो।।
वे अष्टांग महानिमित्तकी ऋद्धि धरें बहु ज्ञानी।
इस ऋद्धी को पूजत ही मैं बनूँ सर्वसुखदानी।।१५।।
ॐ ह्रीं अष्टांगमहानिमित्तऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो महर्षि अध्ययन बिना उत्कृष्ट क्षयोपशम से ही।
चौदह पूर्व विषय अति सूक्षम जाने निरूपते भी।।
औत्पत्तिक परिणामिक विनयिक कही कर्मजा बुद्धी।
चार भेदयुत जजूँ, इसे यह प्रज्ञा श्रमण सु ऋद्धी।।१६।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रमणऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश बिना कर्मों के, उपशम से तप बल से।
जो प्रत्येक बुद्धि ऋद्धी है, ऋषियों के की प्रगटे।।
सम्यग्ज्ञान महातप मुझको मिले इसी से पूजूँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के सर्वदुखों से छूटूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब परमत को सुरपति को भी जो कर सकें निरुत्तर।
परके द्रव्य गुणादि परीक्षा परके छिद्र लखें भर।।
वाद कुशल इन मुनि चरणों में शत शत शीश नमाऊँ।
इस वादित्व ऋद्धि को जजते स्वसमय ज्ञान उपाऊँ।।१८।।
ॐ ह्रीं वादित्यऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अणु बराबर छिद्र, में जो ऋषि घुस जावें।
चक्रवर्ति का कटक, क्षण में पूर्ण बनावें।।
उनके अणिमा ऋद्धि, धरे विक्रिया भारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूं जगत् हितकारी।।१९।।
ॐ ह्रीं अणिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरु बराबर देह, विक्रिय से जो करते।
महिमा ऋद्धि समेत, तप बल से ही बनते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, बनूं जगत् हितकारी।।२०।।
ॐ ह्रीं महिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायू से भी अधिक, हल्की देह बनावें।
लघिमा ऋद्धि विशिष्ट, मुनिवर के गुण गावें।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२१।।
ॐ ह्रीं लघिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अधिक भारयुत वङ्का-सदृश देह धरें जो।
गरिमा ऋद्धि धरंत, तप अतिशायि करें जो।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को हितकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२२।।
ॐ ह्रीं गरिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूमी पर ही रहें, सूर्च चंद्र छू लेते।
अंगुलि से ही साधु, मेरु शिखर छू लेते।।
प्राप्तिनाम विक्रिया, सब जन को हितकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२३।।
ॐ ह्रीं प्राप्तिविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू पर ही जलसदृश, उन्मज्जन कर सकते।
जल में भी भू सदृश, सरल गमन कर सकते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को हितकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२४।।
ॐ ह्रीं प्राकाम्यविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में पड़े प्रभुत्व, यह ईशत्व कहावें।
सब जन करें प्रशंस, यह अतिशय बन आवे।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२५।।
ॐ ह्रीं ईशत्वविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन वश में होंय, सब गुरु के गुण गाते।
ऋद्धि वशित्व समेत, जजत सभी दुख जाते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२६।।
ॐ ह्रीं वशित्वविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके बल से शैल, शिला आदि के मधि से।
वृक्ष आदि में छेद, किये बिना ही चलते।।
विक्रिय अप्रतिघात, ऋद्धि जगत उपकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२७।।
ॐ ह्रीं अप्रतिघातविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धि से साधु, हों अदृश्य नहिं दिखते।
ऋद्धी अन्तर्धान, तप बल से ही उपजे।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२८।।
ॐ ह्रीं अंतर्धानविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकहि साथ अनेक-रूप बना सकते जो।
काम रूप यह ऋद्धि, तप बल से प्रगटे जो।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूं अर्घ चढ़ाय, बनूंं जगत् हितकारी।।२९।।
ॐ ह्रीं कामरूपविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धि बल से मुनिवरा, आकाश में भी चल रहे।
बैठे लगा आसन चलें, या कायोत्सर्ग से चल रहें।।
इस नभस्तलगामित्व ऋद्धी, को जजूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३०।।
ॐ ह्रीं नभस्तलगामित्वचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से चलें जलकाय जन्तू, घात नहिं होवे वहां।
यह ऋद्धि अतिशय दयाधारी, मुनी पा सकते यहांं।।
इस नीर चारण क्रिया ऋद्धी, को जजूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३१।।
ॐ ह्रीं जलचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो चार अंगुल भूमि तजकर, अधर ही नभ में चलें।
घुटने बिना मोड़े खड़े ही, ऋद्धि के बल से चलें।।
इस ऋद्धि जंघाचारणी को, मैं जजूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३२।।
ॐ ह्रीं जंघाचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वन के फलों पर पुष्प पत्तों, पर चरण धर के चलें।
इस ऋद्धि से नहिं जीव को, पीड़ा कभी हो सुख भले।।
फलपुष्प पत्र सु चारिणी, ऋद्धी जजूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३३।।
ॐ ह्रीं फलपुष्पपत्रचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नी शिखा पर चलें बाधा, जीव को नहिं रंच हो।
जो धुयें का अवलंब कर, अस्खलित पग चलते अहो।।
यह अग्नि धूम सुचारणी, ऋद्धी जजूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३४।।
ॐ ह्रीं अग्निधूमचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मेघ पर भी चलें, अप्कायिक दया से पूर्ण हैं।
बहु मेघ जलधारा बरसतीं, पर चलें व्रत पूर्ण हैं।।
यह मेघधारा चारणी, ऋद्धी जजूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३५।।
ॐ ह्रीं मेघचारणधाराचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मकड़ियों के तंतु पर, अत्यंत हल्के पग रखें।
अति शीघ्र करजावें गमन, बाधा न हो कुछ जंतु के।।
इस तंतु चारण ऋद्धि को, मैं पूजहूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३६।।
ॐ ह्रीं तंतुचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूर्य चंद्र सुतारका, नक्षत्र ग्रह ही किरण का।
अवलंब लेकर गमन करते, बहुत योजन भी सदा।।
यह ऋद्धि ज्योतिष चारिणी, मैं नित्य पूजूँ भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३७।।
ॐ ह्रीं ज्योतिश्चारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धि से मुनि वायु पंक्ती, के सहारे चल सकें।
अस्खलित पद विक्षेप करते, बहुत कोशों चल सकें।।
यह ऋद्धि वायू चारणी, मैं नित्य पूजूँ भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३८।।
ॐ ह्रीं मरुच्चारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप ऋद्धी के हैं सात भेद, उनमें हि उग्र तप पहला है।
दीक्षा उपवास आदि करके, मरणांत काल तक चलता है।।
एकेक उपवास अधिक करते, जीवन भर बढ़ता तप करते।
उस उग्र तपस्या ऋद्धी को, हम पूजत ऋद्धि सिद्धि वरते।।३९।।
ॐ ह्रीं उग्रतप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला आदिक उपवास करें, जब ऋद्धि दीप्त तप हो जाती।
आहार१ न हो बल तेज बढ़ें नहिं होती उन्हें भूख व्याधी।।
यह इस ऋद्धी का ही प्रभाव, तनु में बल मांस रुधिर वृद्धी।
मैं पूजूँ अतिशय भक्ती से, इससे दिन पर दिन हो दीप्ती।।४०।।
ॐ ह्रीं दीप्ततप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से आहार ग्रहें, वह तपे लोह पर जल सदृश।
नीहार न हो मलमूत्र शुक्र, आदिक धातू नहिं बने विविध।।
बस शक्ति बढ़े तप बढ़े सदा, यह तप ऋद्धी कहलाती है।
इसको पूूजूँ तप शक्ति बढ़े, यह कर्म समुद्र सुखाती है।।४१।।
ॐ ह्रीं तप्ततप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अणिमादिक चारण आदिक, बहुती ऋद्धी से युक्त रहें।
मंदर पंक्ती सिंह निष्क्रीडित, आदिक उत्तम उपवास गहें।।
वो चार ज्ञानधारी ऋषि गण, ही महातपो ऋद्धी धारें।
इसको पूजें हम इस बल से, नाना विध तप में मन धारें।।४२।।
ॐ ह्रीं महातप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनशन आदिक बारह विध के, तप उग्र उग्र जो करते हैं।
बहुहिंस्र जंतु से भरे बनों में, विचरें तनु से दुख सहते हैं।।
ज्वर से पीड़ित होकर भी जो, आतापनादि तप धारे हैं।
वे घोर तपो ऋद्धी धारी, उन पूजत हम भव पारे हैं।।४३।।
ॐ ह्रीं घोरतप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि घोर पराक्रम ऋद्धी से, अतिशायी शक्ती पाते हैं।
त्रिभुवन संहार करण जलधी-शोषण में समरथ होते हैं।।
यद्यपि ये कार्य नहीं करते, फिर भी बहुती सामर्थ्य धरें।
तप बल से ऐसी ऋद्धि हुई, इसको पूजत हम ताप हरें।।४४।।
ॐ ह्रीं घोरपराक्रमतप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अघोर यानी पूर्ण शांत, महाव्रत समिती गुप्ती पालें।
वे व्रतमय ब्रह्मा से चरते, अघोर ब्रहचर्या पालें।।
इनसे दुर्भिक्ष कलह वध रोग, वैर आदिक टल जाते हैं।
इस ऋद्धि अघोरब्रह्मचारी, को जजत ब्रह्मपद पाते हैं।।४५।।
ॐ ह्रीं अघोरब्रह्मचारित्वतप:ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बल ऋद्धी के तीन प्रकारा, मनबल ऋद्धि मनोबल धारा।
दोय घड़ी से सब श्रुत चिंते, उन पूजत मनबल को सिंचे।।४६।।
ॐ ह्रीं मनोबलऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हीन कंठ नहिं श्रम नहिं होवे, सब श्रुत उच्चारण कर लेवें।
यही वचन बल ऋद्धि विशेषा, जजत मिले वच सिद्धि अशेषा।।४७।।
ॐ ह्रीं वचनबलऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायोत्सर्ग करें बहु भेदा, त्रिभुवन उठा सकें बिन खेदा।
कायबली अतिशायी ऋद्धी, पूजत हो मुझ शक्ति समृद्धी।।४८।।
ॐ ह्रीं कायबलऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औषधि ऋद्धी के आठ भेद, आमर्शौषधि यह ऋद्धि एक।
जिन तनुस्पर्श से हो निरोग, यह ऋद्धि जजूँ सब हरे शोक।।४९।।
ॐ ह्रीं आमर्शौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके कफ भूक व लार आदि, तप बल औषधि हों हरे व्याधि।
खेलौषधिऋद्धि जजूं महान, जिससे तनु होता सुख निधान।।५०।।
ॐ ह्रीं क्ष्वेलौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु स्वेद जल्ल तनुमल कहाय, तपबल से औषध रूप थाय।
सब रोग हरें भक्ती करंत, हम पूजें हो तनुरोग अंत।।५१।।
ॐ ह्रीं जल्लौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके जिह्वा कर्णादि मैल, सब रोग हरें हो सौख्य मेल।
यह ऋद्धि मलौषधि जो धरंत, उन पूजत हम भवदधि तरंत।।५२।।
ॐ ह्रीं मलौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से मलमूत्र आदि, भक्तों की हरते सकल वयधि ।
उस ऋद्धी को जो नित यजंत, वे सर्व ऋद्धि के बने कंत।।५३।।
ॐ ह्रीं विप्रुषौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसे स्पर्शित नीर वायु, सब रोग हरें करते चिरायु।
यह सर्वौषधि ऋद्धी महान, मैं जजूँ यही है सौख्य खान।।५४।।
ॐ ह्रीं सर्वौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे कटु या विष व्याप्त अन्न, बस वचन मात्र से निर्विषान्न।
मुनि वच सुनते नर व्याधि मुक्त, मुख निर्विष ऋद्धी जजूँ शुद्ध।।५५।।
ॐ ह्रीं मुखनिर्विषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रोग विषादि समेत जीव, अवलोकन से हों स्वस्थ जीव।
दृष्टी निर्विष ऋद्धी महात्म्य, मैं जजूँ मिले निज सौख्य साम्य।।५६।।
ॐ ह्रीं दृष्टिनिर्विषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋद्धि रस के छहों भेद में एक है।
ऋद्धि आशीविषा बस ‘मरो’ ये कहे।।
वो मरे शीघ्र ही ऋद्धि ये दु:खदा।
ना प्रयोगें इसे साधु पूजूं सदा।।५७।।
ॐ ह्रीं आशीर्विषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्टि विष ऋद्धि से रोष से देखते।
जन मरें शीघ्र ही साधु के कोप से।।
ना प्रयोगें इसे साधु करुणा धरें।
पूजहूँ ऋद्धि यह शक्ति तप की भरें।।५८।
ॐ ह्रीं दृष्टिविषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्ततल पे रखा रुक्ष आहार भी।
क्षीरवत् परिणमें ऋद्धि बल से सभी।।
उन वचन भी सदा क्षीरवत् गुण भरें।
क्षीरस्रावी जजें ऋद्धि पुष्टी धरें।।५९।।
ॐ ह्रीं क्षीरस्राविरसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्त तल में रखे रुक्ष भोज्यादि को।
मिष्ट मधुवत् करे ऋद्धि मधुस्रावि जो।।
उन वचो भी मधुर मिष्ट शीतल करें।
पूजहूँ ऋद्धि से सर्व सुख को भरें।।६०।।
ॐ ह्रीं मधुस्राविरसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतास्रावि विष वस्तु अमृत करें।
उन वचन दु:ख हर कर्ण अमृत भरें।।
अमृतास्रावि ऋद्धी जजूं भक्ति से।
स्वात्म अमृत पिऊं आपकी भक्ति से।।६१।।
ॐ ह्रीं अमृतस्राविरसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्त तल में रखा रुक्ष भोज्यादि भी।
घी सदृश परिणमें ऋद्धि बल से सभी।।
दिव्य वच भी सदा पुष्टि तुष्टी करें।
पुजहूँ ऋद्धि को सर्व शांती धरें।।६२।।
ॐ ह्रीं सर्पि:स्राविऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहे ऋद्धि अक्षीण के भेद दो हैं।
मुनी लेंय आहार जिस गेह में हैं।।
भले चक्रवर्ती कटक जीम लेवे।
जजूँ ऋद्धि जिससे नहीं अन्न छीवे।।६३।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहानसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धनुष चार ही हो चतुष्कोण भूमी।
असंख्ये दिविज नर पशू बैठते भी।।
सु अक्षीण आलय महा ऋद्धि पूजूं।
मिले शक्ति ऐसी सभी ऋद्धि लूटूं।।६४।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहालयऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो बुद्धि विक्रिया और क्रिया, चारण तप बल औषध रस युत।
अक्षीण इन्हीं आठोें से चौंसठ, भेद सभी ऋद्धी से युत।।
ये गणधर गुरु ही होते अन्य, मुनी कतिपय ऋद्धी धारें।
उन गुरुओं की सब ऋद्धी को, पूजूं मुझ सौख्य मिलें सारे।।६५।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
ऋद्धि उन्हीं के होय, यथाजात मुद्रा धरें।
नमूं नमूं नत होय, जिनमुद्रा की शक्ति हो।।१।।
धन्य हैं धन्य हैं धन्य हैं ऋद्धियाँ।
वंदते ही फलें ये सभी सिद्धियाँ।।
मैं नमूं मैं नमूूं सर्व ऋद्धीधरा।
ऋद्धियों को नमूं मैं नमूं गणधरा।।२।।
बुद्धि ऋद्धी कही हैं अठारा विधा।
विक्रिया ऋद्धियाँ हैं सुग्यारा विधा।।
है क्रियाचारणा ऋद्धि नौ भेद में।
ऋद्धि तप सात विध दीप्त तप आदि में।।३।।
ऋद्धि बल तीन विध शक्ति वर्धन करें।
औषधी आठ विध स्वास्थ्य वर्धन करें।।
ऋद्धि रस षट्विधा क्षीर अमृत स्रवे।
ऋद्धि अक्षीण दो भेद अक्षय धरें।।४।।
आठ विध ये महा ऋद्धि चौंसठ विधा।
भेद संख्यात होते सु अंतर्गता।।
बुद्धि ऋद्धी जजें बुद्धि अतिशय धरें।
विक्रिया पूजते विक्रिया बहु करें।।५।।
चारणी ऋद्धी आकाशगामी करे।
पुष्प जल पर चलें जीव भी ना मरें।।
दीप्ततप आदि ऋद्धी धरें जो मुनी।
कांति आहार बिन भी रहे उन घनी।।६।।
तप्ततप से कभी भी न नीहार हो।
शक्ति ऐसी जगत् सौख्य करतार जो।।
क्षीररत्तवी मुधरत्तवी अमृतरत्तवी।
इन वचो भी बने क्षीर अमृतरत्तवी।।७।।
औषधी ऋद्धी से रुग्ण नीरोग हों।
साधु तनवायु से विषरहित स्वस्थ हों।।
ऋद्धी अक्षीण से अन्न अक्षय करें।
पूजते साधु को पुण्य अक्षय भरें।।८।।
जय जय सब ऋद्धी, गुणमणिनिद्धी, पूजत ही सुखसिद्धि करें।
जय ‘ज्ञानमती’ धर, नमें मुनीश्वर, निज शिवपद सुख शीघ्र भरें।।९।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।