शुभ तीर्थकर महपुण्य प्रकृती जो मनुज यह बांधते।
उन मात पितु भी पूज्य जग में त्रिजग गुरु कहलावते।।
उन देह वर्ण सुआयु उत्तम पूज्य सुरनर वंद्य हैं।
उस पुण्य का आह्वान कर पूजूं उन्हें अभिनंद्य हैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्यसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्यसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्यसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
क्षीरोदधि का जल स्वच्छ, सुवरण भृंग भरूँ।
पूज्यों के शुभ चरणाब्ज पूजत धार करूँ।।
तीर्थंकर के पितु मात, आयू वर्ण सही।
मैं पूजूूँ पुलकित गात, पाऊँ पुण्य मही।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन द्रव सम शुचि पीत, चंदन घिस लाया।
मैं पूज्य पुरुष चरणाब्ज, चर्चत सुख पाया।।तीर्थंकर.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल शुचि धौत सफेद, पुंज धरूँ आगे।
मैं पूज्य चरण पंकेज, पूजॅूँ मन लाके।।
तीर्थंकर के पितु मात, आयू वर्ण सही।
मैं पूजूूँ पुलकित गात, पाऊँ पुण्य मही।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला केवड़ा गुलाब, सुरभित सुमनों से।
मैं जजूँ पूज्य चरणाब्ज, छूटूँ भव दुख से।।तीर्थंकर.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गुझियारु समोसा लाय, भूख तृषा हरने।
पूज्यों के निकट चढ़ाय, पाऊँ सुख झरने।।तीर्थंकर.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति अति तेज, जगमगती शोभे।
आरति करते निस्तेज, मोह तिमिर भागे।।तीर्थंकर.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेऊँ अगनी में।
उड़ती चहुँदिश में धूम्र, कर्म जलें क्षण में।।तीर्थंकर.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम, अर्पण करत भले।
पाऊँ जिन पद विश्राम, पूजा सुफल फले।।तीर्थंकर.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक वसु लेय, रत्न मिलाय लिया।
मैं पूज्य पुरुष पादाब्ज, जजत चढ़ाय दिया।।तीर्थंकर.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु: पुण्येभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य पुरुष के चरण में, शांतीधार करंत।
मिले पूज्यपद स्वयं का, चित्त विशुद्धि धरंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बकुल कमल बेला कुसुम, सर्व दिशा महकेय।
पूज्य चरण अर्पण करत, आतम गुण चमकेय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
परम चिदंबर चित्पुरुष, चिदानंद भगवान्।
पुष्पांजली चढ़ावते, मिले सौख्य अमलान।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
चौदह्वें कुलकर ‘नाभिराज’, साकेतपुरी के नाथ हुये।
श्री ऋषभदेव के जनक मान्य इंद्रों से पूज्य महान हुये।।
जो तीर्थंकर पितु को पूजें वे जगत् पिता बन जाते हैं।
धन धान्य समृद्धी संतति से सौभाग्यवान हो जाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवस्य नाभिराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेत पुरी के अधिनायक ‘जितशत्रु’ सभी के मित्र कहे।
श्री अजितनाथ के पिता हुए त्रिभुवन गुरु के भी गुरु हुए।।जो.।।२।।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथस्य जितशत्रुजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावस्ती के भूपति ‘जितारि’ संभव जिनवर के पिता हुए।
रत्नों के राशी बांट बांट सब जन के त्राता हितू हुये।।जो.।।३।।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथस्य जितारिजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेतपुरी के शासक ‘संवर राजा’ सुरगण पूज्य हुये।
अभिनंदन जिनके जनक बने सब नर नारी से पूज्य हुये।।
जो तीर्थंकर पितु को पूजें वे जगत् पिता बन जाते हैं।
धन धान्य समृद्धी संतति से सौभाग्यवान हो जाते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथस्य संवरराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन गुरु के पितु हुये ‘मेघप्रभ’ सुमतिनाथ के पिता हुये।
सुरपति सुरवृंद असंख्यों ने मिलकर उन पूजा भक्ति किये।।जो.।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथस्य मेघप्रभजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कौशाम्बी के नृप ‘धरणराज’ पद्मप्रभु पिता हुये जग में।
तीर्थंकर इनको नमस्कार नहिं करें तथापी इंद्र नमें।।जो.।।६।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभतीर्थंकरस्य धरणराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाराणसि राजा ‘सुप्रतिष्ठ’ सुरपति ने आकर पूजा की।
इनके सुत श्री सुपार्श्व जिनवर आते ही जग में शांती की।।जो.।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथस्य सुप्रतिष्ठजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नृप चंद्रपुरी के ‘महासेन’ श्री चंदाप्रभु के पिता हुये।
सब इंद्र इंद्राणी ने आकर पितु माता की अर्चना किये।।जो.।।८।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभनाथस्य महासेनजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काकंदी नगरी के राजा ‘सुग्रीव’ जगत में मान्य हुये।
प्रभु पुष्पदंत के जनक बने इंद्रों से पूज्य महान हुये।।जो.।।९।।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथस्य सुग्रीवजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्दलप्ाुर के ‘दृढ़रथ’ राजा इंद्रों ने उनकी पूजा की।
शीतल के जनक हुये जग में धनपति ने रत्नसुवर्षा की।।जो.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथस्य दृढ़रथजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नृप सिंहपुरी के ‘विष्णुराज’ श्रेयांसनाथ के पिता हुये।
धनपति ने पंद्रह महिने तक उन महलों रत्न सुवृष्टि किये।।जो.।।११।।
ॐ ह्रीं श्री श्रेयांसनाथस्य विष्णुराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपानगरी के ‘महाराज’ वसुपूज्य जगत् के पोषक हैं।
प्रभु वासुपूज्य के पिता हुये त्रिभुवनजन के मनमोहक हैं।।जो.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यनाथस्य वसुपूज्यजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंपिलापुरी के ‘कृतवर्मा’ सब न्याय नीति के वेत्ता थे।
श्री विमलनाथ के पिता बने, सब धर्म रीति के नेता थे।।जो.।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथस्य कृतवर्माजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेतपुरी के ‘सिंहसेन’ के महलों रत्न बरसते थे।
जिनवर अनंत के पिता आपको सुर नरपति मिल यजते थे।।जो.।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथस्य सिंहसेनजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नृप रत्नपुरी के ‘भानुराज’ श्री धर्मनाथ के जनक हुये।
श्री आदि देवियों ने पितु से आज्ञा ले माँ के दर्श किये।।जो.।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथस्य भानुराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस हस्तिनागपुर के राजा ‘श्री विश्वसेन’ को विश्व नमें।
श्री शांतिनाथ के पिता हुये सुर तुम चरणों के भक्त बने।।जो.।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथस्य विश्वसेनजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नृप ‘सूर्यसेन’ भी हस्तिनागपुर के राजा विख्यात हुये।
श्री कुंथुनाथ के तात बने सूर्योदय के सुप्रभात हुये।।जो.।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथस्य सूर्यसेनजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूपति ‘सुदर्शन’ हस्तिनागपुर के सुर वंदित जग पूजित।
अरनाथ जिनेश्वर के पितु हो तुम नाम लेत नर आनंदित।।जो.।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री अरनाथस्य सुदर्शनजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथिलापुरी के नृप ‘कुंभराज’ श्री मल्लिनाथ के जनक हुये।
तनु निर्मल मलमूत्रादि रहित सुरनर खगपति से विनुत हुये।।जो.।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथस्य कुंभराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राजा ‘सुमित्र’ पुरि राजगृही में मुनिसुव्रत के पिता हुये।
धनपति बरसाये रत्न दान दे दे कर दाता महा हुये।।जो.।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथस्य सुमित्रराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमिनाथ पिता मिथिलापुरी के नृप ‘विजयनरेश’ प्रधान हुये।
तीर्थंकर के पितु होने का अतिशय गौरव पा मान्य हुये।।जो.।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथस्य विजयराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शौरी पुरि नृपति ‘समुद्रविजय’ श्री नेमिनाथ के सविता थे।
त्रिभुवन के मान्य इंद्र वंदित मुनिगण भी करें प्रशंसा थे।।जो.।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथस्य समुद्रविजयजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाराणसि के नृप ‘अश्वसेन’ श्री पार्श्वनाथ के पिता हुये।
दीक्षा के समय तीर्थंकर भी पितु अनुमति ले गृहत्याग किये।।जो.।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथस्य अश्वसेनजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंडलपुर के राजा ‘सिद्धार्थ’ महावीर प्रभु के जनक हुये।
सोलह स्वप्नों का फल कहकर प्रियकारिणि का मनमुदित किये।।जो.।।२४।।
ॐ ह्रीं श्री महावीरस्वामिन: सिद्धार्थराजजनकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर सविता पुण्य पिता, सुरपति आ उन पूजा करते।
धनराज नगरि को खूब सजाकर तोरण से शोभा करते।।
माता के आंगन रत्नवृष्टि श्री आदि देवियाँ सेवारत।
ये धन्य पिता जग के त्राता मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जगदम्बिके! जिनमात! ‘मरुदेवि’ आपको।
इंद्राणियों भि पूजतीं नमा के माथ को।।
पुरुदेव को दे जन्म आप धन्य हो गई।
तुम पूजते सौभाग्य सुयश प्राप्त हो यहीं।।१।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवस्य मरुदेवीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विजयावती’ माता ने पुत्ररत्न को दिया।
प्राची दिशा समान ही अद्भुत रवी हुआ।।
इंद्रोें ने न्हवन करके अजित नाम को धरा।
हे मात! आप पूजते मन पुण्य से भरा।।२।।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथस्य विजयावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे मात! ‘सुषेणा’ तुम्हें इंद्रादि पूजते।
त्रिभुवन गुरू को जन्म दिया रत्न प्रसूते।।
श्री देवियाँ तुम पास गूढ़ प्रश्न करें थीं।
तुम नाम भक्त के समस्त पाप हरेगी।।३।।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथस्य सुषेणाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धारथा प्रसू’! तुम्हारे पादपद्म को।
चक्रीश इंद्र खगपती भी पूजते अहो।।
अभिनंदनेश मात आप धन्य जगत में।
हम अर्घ से पूजें पुन: भव वन में ना भ्रमें।।४।।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथस्य सिद्धार्थाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मा ‘मंगला’ मंगल शरीर आपका कहा।
मलमूत्र रजोधर्म उसमें लेश ना रहा।।
श्री आदि देवियों ने गर्भ शोधना करी।
सुमती प्रभू को जन्म दे मंगल किया घरी।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथस्य मंगलाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे अंबिके ‘सुसीमा’ जिनराज प्रसू हो।
बस एक पद्मप्रभ से तुम वीर प्रसू हो।।
तीर्थेश मात दूसरे सुत को नहीं जने।
फिर भी हैं जगन्माता जग पूजता उन्हें।।६।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभनाथस्य सुसीमाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथिवीमती’ माता क्षमादि संख्य गुण धरें।
उनके समान नारी नहिं कोई अवतरे।।
सुपार्श्व जिनेश्वर ने तुमसे जनम लिया।
तुमने अपूर्व सुत दे जीवन सफल किया।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथस्य पृथिवीमतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘लक्ष्मीमती’ त्रिभुवन गुरु की मात प्रसिद्धा।
चन्द्राप्रभू को जन्म दिया शील विशुद्धा।।
तुम गोद में तीर्थेश शिशू खेलते जबे।
थी धन्य घड़ी मात तुम्हें पूजहूँ अबे।।८।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभनाथस्य लक्ष्मीमतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘रामा’ सुमात गर्भ में जब पुष्पदंत थे।
बस सीप में मोती के सदृश ही अलिप्त थे।।
माता को रंच मात्र तभी कष्ट ना हुआ।
तीर्थेश के अतिशय से तुम्हें सौख्य ही हुआ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथस्य रामावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माँ पुष्पवती ना तथापि पुत्र फल दिया।
तुम शुद्ध उदर में हि गर्भवास जिन किया।।
मुनिगण से श्लाघनीया हे मात! ‘सुनंदा’।
तुम पूजते हे मात:! स्वात्म जन्म आनंदा।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथस्य सुनंदाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘वेणुमति’ अंबे! श्रेयांस की प्रसू।
तुम भक्ति से पुन: पुन: न गर्भ में बसूं।।
तुम एक पुत्र जन्म देय अंत कर दिया।
फिर छेद स्त्रीलिंग मुक्तिवास ले लिया।।११।।
ॐ ह्रीं श्री श्रेयांसनाथस्य वेणुमतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ जन्म से हि कुक्षि धन्य तुम्हारी।
‘विजयावती’ पूजें तुम्हें सब पुरुष व नारी।।
तुम भक्ति से नर विश्व में सौभाग्यवान हों।
नारी सदा सौभाग्यवती गुण की खान हों।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यनाथस्य विजयावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे मात! ‘जयश्यामा’ मैं आपको नमूँ।
विमलेश प्रसू जजते मिथ्यात्व को वमूँ।।
तुम गर्भवती माँ को इंद्राणियाँ भजें।
मुनिराज भि तुम कीर्ति गाते नहीं थकें।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथस्य जयश्यामाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘माँ सर्वयशा’ तुम अनंतनाथ की जननी।
हे मात! प्रसव पीड़ा बिन पुत्र की जननी।।
नर नारियों के सर्वदु:ख शोक हरणी।
पूजूँ तुम्हें तुम्हीं हो मोक्षमार्ग की तरणी।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथस्य सर्वयशाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माँ ‘सुव्रतावती’ ने धर्म तीर्थंकर जना।
जिनसे अपूर्व सौख्य मार्ग विश्व में बना।।
श्री आदि देवियाँ सदा जिन मात को सेवें।
जिन जन्म महोत्सव आनंद मुनि भि लेवें।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथस्य सुव्रतावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ऐरावती’ हे अंब! शांतिनाथ की माता।
जो पूजते तुम्हें वो लहें सौख्य व साता।।
शिशु गर्भ में फिर भी उदर न आपका बढ़ा।
तीर्थेश का अतिशय तुम्हारा तेज भी बढ़ा।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथस्य ऐरावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माता ‘श्रीमती’ ने कुंंथनाथ सुत जना।
महिलाओं में शिरोमणी हो पाप हो हना।।
रत्नों के पालने में लाल को झुला रहीं।
स्वर्गों की देवियाँ जिनेश गीत गा रहीं।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथस्य श्रीमतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन अंबिका ‘सुमित्रा’ अरनाथ की प्रसू।
मैं पूजहूँ अनंत जन्म दु:ख से बचूँ।।
तुम गर्भवती फिर भी त्रिवली न भंग थी।
ऐसा जिनेन्द्र अतिशय ना कष्ट रंच भी।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री अरनाथस्य सुमित्राजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माता ‘प्रभावती’ से मल्लिनाथ जिन हुये।
स्वयमेव प्रसू को कभी प्रणाम ना किये।।
फिर भी सुरेन्द्र सब भी मां के चरण जजें।
त्रिभुवन गुरु की माता स्तुति करें सबें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिानाथस्य प्रभावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मावती’ माता तुम्हीं ने तीर्थकर जना।
सुर ने मुनी सुव्रत रखा था नाम सोहना।।
बस एक पुत्र से ही तुम वीर सू हुईं।
पूजें तुम्हें कुल मंडन सुत पावते सही।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथस्य पद्मावतीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माँ ‘वप्रिला’ से नमी सूर्य का उदय हुआ।
सब विश्व का अज्ञान मोह ध्वांत नश गया।।
सुर के घरों में बाजे स्वयमेव बज उठे।
सुर इंद्र यहाँ माँ के चरणों में थे झुके।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथस्य वप्रिलाजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माता ‘शिवादेवी’ ने नेमि को जन्म दिया।
सुर शैल पे शिशू का सुरपति न्हवन किया।।
पंद्रह महीने आंगन में रत्न बरसते।
सुन मात कीर्ति सुरगण दर्शन को तरसते।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथस्य शिवादेवीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माँ ‘वर्मिला’ प्रसूति गृह में शची गई।
माँ की प्रदक्षिणा कर रोमांच हो गई।।
बालक को लिया गोदी आ इंद्र को दिया।
सुरपति ने न्हवन करके पार्श्व नाम रख दिया।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथस्य वर्मिलादवीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रियकारिणी’ माता ने महावीर पुत्र को।
देकर जनम सफल किया नारी जनम अहो।।
इंद्रों ने जन्म उत्सव सुमेरु पे किया।
माता चरण पूजे जीवन सफल किया।।२४।।
ॐ ह्रीं श्री महावीरस्वामिन: प्रियकारिणीजनन्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनमाता सोहल स्वप्नों को, देखें फिर फल पूूछें पति से।
तीर्थंकर सुत होगा तुमको, सुनकर अति पुलकित हों सुख से।।
जब पुत्र रत्न को जनती हैं, त्रिभुवन में आनंद छाता है।
उस क्षण माता के चरणों में, सारा जग शीश झुकाता है।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजननीभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
ऋषभदेव तनु दो हजार कर१, तुंग स्वर्णमय सोहे।
इंद्र हजार नेत्रकर निरखें, तदपि तृप्त नहिं होवें।।
वृषभचिन्ह से जग पहिचाने, जजूूँ अर्घ ले रुचि से।
जो प्रभु देह वर्ण को पूजें, रूप सम्पदा लभते।।१।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवस्य स्वर्णवर्णशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ तनु एक हजार आठ सौ हस्त ऊँचाई।
हाथी चिन्ह ध्ारे शरीर की कनक छवी मन भाई।।
तुम समरूप न जग में दूजा सुरनर निरख निरखकर।
पुलकित होते भक्तिभाव से जजतें नित्य पुरन्दर।।२।।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथस्य कनकच्छविशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनका तनु सौलह सौ, हाथ उतुंग कहावे।
अश्वचिन्ह है तनु की स्वर्णिम, आभा जन मन भावे।।
इंद्र स्वर्ग से वस्त्राभूषण ला प्रभु को पहनाते।
जो पूजें तनु अर्घ चढ़ाकर सुख संपत्ति बढ़ाते।।३।।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथस्य स्वर्णिमकांतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन तनु चौदह सौ कर ऊँचा चिन्ह कपी१ है।
तप्त स्वर्ण की आभा सुन्दर लाजें कोटि रवी हैं।।
प्रभु तनु वर्ण सदा मैं पूजूँ देह वर्ण से छूटूँ।
ज्ञानशरीरी शुद्ध निरंजन स्वात्मसंपदा लूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथस्य तप्तकांचनद्युतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ तनु बारह सौ कर, तुंग चिन्ह चकवा है।
तप्त कनकद्युति रूप मनोहर, त्रिभुवन मन हरता है।।
जो पूजें सौन्दर्य सम्पदा अतिशय कारी पावें।
उनकी कीर्ति पताका ऊँची त्रिभुवन में लहरावे।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथस्य तप्तकनकदीप्तिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू तनु लाल कमल सम, कमल चिन्ह से शोभे।
एक हजार हाथ तनु ऊँचा, इंद्रों का मन लोभे।।
जन्मजात शिशु स्वयं अंगूठे से अमृत को पीते।
देवों का लाया भोजन कर सबके मन को जीतें।।६।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभनाथस्य २कल्हारवर्णशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्वतनु मरकत मणि सम आभा अतिशयकारी।
नंद्यावर्त३ चिन्ह ऊँचाई हाथ आठ सौ प्यारी।।
सुरपति नरपति खगपति नितप्रति आस्यकमल४ अवलोकें।
चरणकमल की पूजा करते, सर्वोत्तम सुख भोगें।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथस्य मरकतमणिसमहरितवर्णशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रप्रभू तनु चंद्र सदृश, अतिशायि कांति धरे हैं।
छह सौ हाथ तनू उँâचा है, शशि का चिन्ह धरे हैं।।
माँ का दूध न पीते फिर भी दूज चंद्रसम बढ़ते।
चंद्रकिरण समगुण अति उज्ज्वल त्रिभुवन जनमन हरते।।८।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभनाथस्य चद्रद्युतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद पुष्पसम पुष्पदंततनु, मकर चिन्ह से जानो।
चार शतक हस्त ऊँचाई, यौवन में सरधानो।।
बाल्यकाल्य से सुर बालक बन, प्रभु के संग में खेलें।
सुरपति प्रभु कीr क्रीड़ा देखें नर भी आनंद ले लें।।९।।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथस्य कुन्दपुष्पच्छविशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतलजिनतनु कांचनद्युतिमय स्वस्तिक चिन्ह विराजें।
हाथ तीन सौ आठ ऊँचाई, देखत ही अघ भाजें।।
शिशु अस्पष्ट वचन भी अमृत, सम शीतल सुखदायी।
मात पिता सुन पुलकित होते, मैं पूजूँ हरसायी।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथस्य कांचनद्युतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन श्रेयांस तनु जांबूनद१ छवि गेंडा चिन्ह धरे हैं।
हाथ तीन सौ बीस तुंग है पितु मन मोद भरे हैं।।
शिशु का मणिभूमी पर चलना मंदमंद मुस्काना।
माता देख हर्ष से फूलें, सबको लगे सुहाना।।११।।
ॐ ह्रीं श्री श्रेयांसनाथस्य कांचनद्युतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य तनु पद्मरागमणि सम सौन्दर्य धरे हैं।
महिष चिन्हयुत दो सौ अस्सी हाथ उतुंग धरे हैं।।
इंद्राणी जिनरूप निरखते स्त्रीलिंग को छेदे।
इंद्र हजार नेत्रकर प्रभु की सुन्दरता को देखे।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यनाथस्य पद्मरागमणितिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ तनु स्वर्ण वर्ण सम घृष्टि१ चिन्ह से जानो।
दो सौ चालिस हाथ ऊँचाई, अतिशय सुन्दर मानो।।
जो जन पूजें प्रभु के तन को सब जन में प्रिय होवें।
सुभग और सुस्वर पा करके सबके मनको मोहें।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथस्य स्वर्णदीप्तिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंतजिन कनकदीप्तिमय सेही चिन्ह धरे हैं।
दो सौ हाथ तुंग यौवन में सुरनर चित्त हरे हैं।।
मात पिता के पुत्र पौत्र के बीच सूर्य सम सोहें।
उनके देहवर्ण को पूजत स्वस्थ शरीरी होवें।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथस्य कनकदीप्तिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ तनु कांचन छवियुत वङ्का चिन्ह को धारें।
इक सौ अस्सी हस्त ऊँचाई दर्शन से दुख टारें।।
प्रभु तन पूजत काचकामला कुष्ठ रोग नश जावे।
कामदेव सम रूप मिले सब जन से पूजा पावे।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथस्य कांचनच्छविशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ तनु तप्तकनकद्युति हरिण चिन्ह से जानो।
हस्त एक सौ साठ तुुंग है कामदेव पद मानो।।
शशिसम सौम्य सूर्यसम भास्वर निरख निरख सुख पावें।
चक्रवर्ती संपत्ति घनेरी, पूजत शांती पावें।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथस्य तप्तकनकद्युतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथुनाथ तनु स्वर्ण वर्णमय अज है चिन्ह प्रसिद्धा।
हाथ एक सौ चालीस ऊँचे लाजें सूरज चंदा।।
छ्यानवे सहस रानियाँ सुन्दर, पुत्र पौत्र परिवारा।
एक छत्र शासन छह खंड पे नमें त्रिजग यह सारा।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथस्य तप्तस्वर्णवर्णशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरहनाथ तनु कनक कांतिमय तगर कुसुम१ से चिन्हित।
हस्त एक सौ बीस ऊँचाई, शत इंद्रों से वंदित।।
चक्रवर्तिपद रूप मनोहर, जो जन पूजें रुचि से।
पुत्र पौत्र संतान सौख्य, धनधान्य समृद्धि लभते।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री अरहनाथस्य कनककांतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ तनु स्वर्ण सदृश है कलश चिन्ह है प्यारा।
तुंग एक सौ हाथ प्रभू ने ब्रह्मचर्य व्रत धारा।।
सुरनर किन्नर रूप गुणों को गाते नही अघाते।
सुरकिन्नरियाँ नर्तन करतीं मुनिगण भी यश गातें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथस्य स्वर्णवर्णशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत तनु नीलमणी सम कछुआ चिन्ह सुहाना।
अस्सी हस्त तुंग अतिसुन्दर, सुरनर हृदय लुभाना।।
जो जन प्रभु का रूप निरखते सौम्य छवी को जजते।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के सब दुख संकट हरते।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथस्य इंद्रनीलमणिद्युतिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमि जिन देह स्वर्ण आभायुत चिन्ह नील उत्पल२ है।
साठ हाथ उत्तुंग मनोहर, विकसित आस्य३ कमल है।।
देव देवियाँ विद्याधर अरु नर नारी नित पूजें।
चरण कमल का आश्रय लेते उनके सब दुख धूजें।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथस्य स्वर्णवर्णनिभशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ तनु इंद्र नील मणि आभा धरें मनोहर।
चालिस हाथ तुंग अति प्यारा, शंख चिन्ह से सुंदर।।
राजमती तज बालयती हुये, शत इंद्रों से पूजित।
प्रभु का रूप जजें जो रुचि से, पावें देह अमूर्तिक।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथस्य वैडूर्यमणिच्छविशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ तनु गारुत्मणि छवि सर्प चिन्ह से शोभित।
तुंग हाथ नव मुनिगण वंदित, सौ इंद्रों से सेवित।।
बाल ब्रह्मचारी प्रभु गुण को, देह वर्ण को जजते।
जन स्वात्म सुधारस पीकर शिवललना को वरते।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथस्य गारुत्मणिच्छविशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उगते सूर्य सदृश तनु सुंंदर सिंह चिन्ह प्रभु माना।
सात हाथ उत्तुंग जगत में मुनि ने सुयश बखाना।।
त्रिशला नंदन शत शत वंदन करता शीश झुकाके।
पाप निकंदन निज सुख मंडन पाते भवि गुण गाके।।२४।।
ॐ ह्रीं श्री महावीरस्वामिन: बालादित्यदीप्तिशरीराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्मजात शिशु शक्ति अनंती पांडुकशिला विराजें।
एक हजार आठ कलशों से सुरपति उन्हें न्हवाते।।
सुर आसन कंपाते जिनवर स्वयं रंच नहिं कांपे।
इनके देहवर्ण को पूजें उनके अघरिपु कांपे।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसहस्राक्षविलोकितअप्रतिमसौंदर्यमंडित-पंचवर्णशरीरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
श्री आदिनाथ सुकुमार काल, है बीस लाख वर्ष पूरव।
है त्रेसठ लाख पूर्व का राज्य समय छद्मस्थ सुहजार बरस।।
केवली काल हज्जार बरस कम एक लाख पूरब माना।
चौरासीलाख पूर्व आयु को पूजत सुख संपति नाना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य चतुरशीतिलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन अजित अठारह लाख पूर्व कौमार काल, पुनि राज्य काल।
पूर्वांग एक युत त्रेपन लाख सुपूर्व पुन: छद्मस्थ काल।।
यह बारह वर्ष पुन: सु बारह वर्ष एक पूर्वांग शून्य।
केवली काल इक लाख पूर्व पूर्णायु बहत्तर लाख पूर्व।।२।।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथस्य द्वासप्ततिलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनका कौमार काल, है पंद्रह लाख पूर्व माना।
अरु राज्य चवालिस लाख पूर्व पूर्वांग चार युत सरधाना।।
छद्मस्थ सु चौदह वर्ष, केवली एक लाख पूरब में कम।
चौदह सु वर्ष पूर्वांग चार, पूर्णायु साठ लाख पूर्व नमन।।३।।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथस्य षष्टिलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन का कौमार्य पूर्व बारह सु लाख पच्चास सहस।
है राज्य आठ पूर्वांग छत्तीस लाख पूर्व पच्चास सहस।।
छद्मस्थ अठारह वर्ष केवली एक लाख पूरब में कम।
अठरह सुवर्ष पूर्वांग आठ पूर्णायु पचास लख पूर्व नमन।।४।।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथस्य पंचाशल्लक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीसुमति कुमार पूर्व दसलख, अरुराज्य द्विदश पूर्वांग सहित।
उन्तीस लाख वर्ष पूरब, छद्मस्थ बीस ही वर्ष कथित।।
इक लाख पूर्व में बीस वर्ष बारह पूर्वांग कम केवलि का।
पूर्णायू चालिस लाख पूर्व पूजत नशती अपमृत्यु घटा१।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथस्य चत्वािंरशल्लक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभु का कौमार पूर्व लख सात पचास हजार कहा।
इक्किस लख सहस पचास पूर्व सोलह पूर्वांग तक राज्य रहा।।
छद्मस्थ माह छह पुनि केवलि इक लाख पूर्व में कम जानो।
छह माह, सोलह पूर्वांग पूर्ण आयु लख तीस पूर्व मानो।।६।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभनाथस्य िंत्रशल्लक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूपारस जिन कौमार्य पांच लख पूर्व राज्य पूर्वांग बीस।
चौदह लख पूर्व तथा छद्मस्थ काल नौ वर्ष हुआ व्यतीत।।
नौ वर्ष बीस पूर्वांग हीन इक लाख पूर्व केवलि जानो।
पूर्णायु बीस लख पूर्व जजो दीर्घायु स्वास्थ्य मिलता मानो।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथस्य िंवशतिलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदा प्रभु का कौमार्य दोय लाख सहस पचास पूर्व जानो।
छह लाख पचास हजार पूर्व चौबिस पूर्वांग राज्य मानो।।
छद्मस्थ मास त्रय केवलि में त्रिमास चौबिस पूर्वांग हीन।
इक लाख पूर्व है पूर्णायू दश लाख पूर्व जजते प्रवीण।।८।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभनाथस्य दशलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन पुष्पदंत कौमार्य पूर्व पच्चास सहस पुनि राज्य काल।
पच्चास सहस पूरब अट्ठाइस पूर्वांग पुन: छद्मस्थ काल।।
चउ वर्ष बाद केवलि चउ वर्ष अट्ठाईस पूर्वांग हीन।
इक लाख पूर्व पूर्णायु द्विलख पूरब पूजत ही दुख क्षीण।।९।।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथस्य द्विलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल जिनका कौमार्य पूर्व पच्चीस सहस पुनि राज्य काल।
पच्चास हजार पूर्व नंतर छद्मस्थ वर्ष त्रय तप: काल।।
त्रय वर्ष हीन पच्चीस हजार पूर्व केवलि का समय कहो।
इक लाख पूर्व पूर्णायु जजों, दीर्घायु मिले तनु स्वस्थ लहो।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथस्य एकलक्षपूर्वायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेयांसनाथ कौमार्य वर्ष इक्कीस लाख पुनि राज्य काल।
ब्यालिस लख वर्ष पुन: दो वर्ष मात्र तप्ा का छद्मस्थ काल।।
केवली समय दो वर्ष न्यून इक्कीस लाख ही वर्ष कहा।
पूर्णायु चुरासी लाख वर्ष, पूजत आकस्मिक दु:ख दहा।।११।।
ॐ ह्रीं श्री श्रेयांसनाथस्य चतुरशीतिलक्षवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन वासुपूज्य कौमार्य अठारह लाख वर्ष नहिं राज्य किया।
प्रभु बाल ब्रह्मचारी छद्मस्थ काल इक वर्ष व्यतीत किया।।
इक वर्ष हीन चौवन लाख वर्षों तक केवलि भगवान रहे।
पूर्णायु बहत्तर लाख वर्ष पूजत ही आधी व्याधि दहें।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यनाथस्य द्वासप्ततिलक्षवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन विमलनाथ कौमार्य वर्ष पंद्रह लख नंतर राज्य काल।
वह तीस लाख वर्ष नंतर त्रय वर्ष मात्र छद्मस्थ काल।।
त्रय वर्ष हीन पंद्रह सु लाख वर्षों तक केवलि काल आप।
पूर्णायु वर्ष है साठ लाख मैं पूजूँ नाशूँ सकल ताप।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथस्य षष्टिलक्षवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर अनंत कौमार्य वर्ष है सात लाख पच्चास सहस।
है राज्य वर्ष पंद्रह सु लाख, छद्मस्थ तपस्या दोय बरस।।
लख सात उनंचास सहस न नवसौ अट्ठानवे वर्ष केवलि का।
पूर्णायु वर्ष है तीस लाख पूजत पाऊँ भवदधि नौका।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथस्य िंत्रशल्लक्षवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ कौमार्य काल दो लाख पचास हजार बरस।
है राज्य काल पण लाख बरस छद्मस्थ तपस्या एक बरस।।
दो लाख उनचास हजार नौ सौ निन्यान्वे बरस केवली का।
पूर्णायु है दश लाख बरस मैं पूजत पाऊँ फल नीका।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथस्य दशलक्षवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ कौमार्य काल, पच्चीस हजार बरस सुखप्रद।
मंडलेश्वर पच्चिस सहस वरस, चक्रित्व पचीस हजार बरस।।
तप सोलह वर्ष पुन: चौबीस हजार सु नवसौ चौरासी।
केवली काल के वर्ष जजूँ आयू इक लाख बरस तक की।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथस्य एकलक्षवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन कुंथुनाथ कौमार्य सु तेइस सहस सात सौ पचास वर्ष।
इनते ही बरस मंडलेश्वर फिर इतने ही चक्रीश बरस।।
तप सोलह वर्ष पुन: तेईस हजार सात सौ चौंतिस तक।
इनते वर्षों केवली जजूँ पूर्णायु पंचान्वे सहस बरस।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथस्य पंचनवतिसहस्रवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरनाथ प्रभू कौमार्य सहस इक्कीस वर्ष पुन राज्य काल।
इतना ही समय मंडलेश्वर पुन: इतना ही चक्रित्व काल।।
तप सोलह वर्ष केवली बीस हजार सु नवसौ चौरासी।
ये वर्ष पुन: पूर्णायु चुरासी हजार सहस गुण की राशी।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री अरनाथस्य चतुरशीतिसहस्रवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मल्लिनाथ कौमार्य काल सौ वर्ष न उनने राज्य किया।
ब्रह्मचारी रह दीक्षा लेली छद्मस्थ काल छह दिवस लिया।।
फिर चौवन सहस आठ सौ निन्यानवे वर्ष ग्यारह महिने।
चौबिस दिन तक केवली आयु पचपन हजार बरस गिनने।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथस्य पंचपंचाशत्सहस्रवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत जिन कौमार्य सात हज्जार पाँच सौ वर्ष कहा।
पुनि राज्य काल पंद्रह हजार वर्षों तप ग्यारह माह रहा।।
केवली काल चौहत्तर सौ निन्यान्वे वर्ष माह इक है।
पूर्णायू तीस हजार वर्ष पूजत मनुष्य दीर्घायुष हैं।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथस्य िंत्रशत्सहस्रवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमिनाथ कुमारकाल पच्चिस सौ वर्ष राज्य पण सहस वर्ष।
तप नौ बरस केवली दो सहस चउसों इक्यानवे वर्ष।।
पूर्णायू दश हज्जार वर्ष जो जिन आयुष को जजते हैं।
वे सब दुर्घटना अपमृत्यू को टाल चिरायू बनते हैं।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथस्य दशसहस्रवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन नेमिनाथ कौमार्य तीन सौ वर्ष पुन: नहिं राज्य किया।
ब्रह्मचारी रह दीक्षा ले ली छप्पन दिन तक तप घोर किया।।
छह सौ निन्यान्वे वर्ष मास दस चार दिवस केवली रहे।
पूर्णायू एक हजार वर्ष हम पूजें शोक विषाद दहें।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथस्य एकसहस्रवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्वनाथ कौमार्य काल बस तीस बर्ष नहिं राज्य किया।
प्रभु बाल ब्रह्मचारी दीक्षित चउ महिने मौन विहार किया।।
उनहत्तर वर्ष आठ महिने केवलि प्रभु धर्मुपदेश दिया।
सौ वर्ष आयु मैं पूजूँ नित जिससे प्रभु ने शिव सौख्य लिया।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथस्य एकशतवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर प्रभू कौमार्य काल बस तीस बरस नहिं राज्य किया।
प्रभु बाल ब्रह्मचारी दीक्षा लेकर तप बारह वर्ष किया।।
पुनि तीस वर्ष केवलज्ञानी प्रभु समवसरण में उपदेशा।
पूर्णायु बहत्तर वर्ष नमूँ, जजतें मृत्युंजय पद होता।।२४।।
ॐ ह्रीं श्री महावीरस्वामिन: द्वासप्ततिवर्षायुषे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर प्रभु अंतिम नरायु, पाकर आयू का अंत करें।
फिर काल अनंतानंतों तक परमानंदामृत पान करें।।
जो प्रभु की आयु जजें वे क्रम से नर सुर की पूर्णायु धरें।
छ्यासठ हजार त्रयशत छत्तिस भव क्षुद्र सभी निर्मूल हरें।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरकौमारकालराज्यकालछद्मस्थकालकेवलिकाल-समेतपूर्णायुर्भ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जय जय तीर्थंकर, पुण्य अनुत्तर, मात पिता भी पूज्य बनें।
तुम जीवन अनुपम, आयु पूज्यतम, पूजत मृत्युंजयी बनें।।
तुम तन सुंदरता, त्रिजग अतुलिया, पुण्यमयी अणु उतने ही।
माँ रत्नसुगर्भा, ज्ञानसुगर्भा, तीन ज्ञानयुत तुमसे ही।।१।।
तीर्थकर के पिता तीन जग के पिता।
इंद्र उन चर्ण में शीश नावें सदा।।
तीर्थंकर पुण्य माहात्म्य मुनि गावते।
इंद्र नागेंद्र चक्रेंद्र शिर नावते।।२।।
देवियाँ मात सेवा करें भक्ति से।
सूतिका गेह में जा शची अर्चते।।तीर्थं.।।३।।
जो पिता को जजें सर्व त्राता बने।
मात को पूजते विश्व माता बने।।तीर्थं.।।४।।
जो प्रभू रूप सौंदर्य को पूजते।
इंद्र उन रूप को देखते प्रीति से।।तीर्थं.।।५।।
नाथ का काल कौमार्य जो पूजते।
देव बालक बनें संग उन खेलते।।तीर्थं.।।६।।
राज्य का काल जो अर्चते भाव से।
इंद्र आज्ञा उन्हों की सदा पालते।।तीर्थं.।।७।।
जो जजें आप छद्मस्थ के काल को।
वे हि दीक्षा स्वयं१ ग्राह्य पद प्राप्त हों।।तीर्थं.।।८।।
केवली काल पूजें उन्हों के पुरा।
पग तले स्वर्ण पंकज खिलाते सुरा।।तीर्थं.।।९।।
पूर्ण आयू प्रभू की सदा जो जजें।
मृत्यु को हन सदा काल तक जीवतें।।तीर्थं.।।१०।।
मल्लि वसुपूज्य सुत नेमि जिनपार्श्वजी।
वीर जिन पाँच ये ब्रह्मचारी यती।।तीर्थं.।।११।।
बाल यति पाँच तीर्थेश जो पूजते।
ब्रह्म१ ऋषिदेव हों मुक्तिवर होवते।।तीर्थं.।।१२।।
पालने में भि प्रभु ज्ञान महिमा धरें।
साधु दर्शन करत तत्त्व१ शंका हरें।।तीर्थं.।।१३।।
गर्भ में आवते मास छह पूर्व ही।
इंद्र गण खूब उत्सव करें नित्य ही।।तीर्थं.।।१४।।
धन्य हो धन्य हो हे पिता धन्य हो।
धन्य विश्वेश्वरी मात जगवंद्य हो।।तीर्थं.।।१५।।
धन्य तुम रूप सौंदर्य अद्भुत खनी।
तीन जग में किसी से न उपमा बनी।।तीर्थं.।।१६।।
धन्य तुम जन्म कौमार्य अरु राज्य भी।
धन्य छद्मस्थता केवली काल भी।।तीर्थं.।।१७।।
धन्य हैं द्रव्य अरु क्षेत्र शुभ काल भी।
धन्य हैं भाव प्रभु आज तत्काल भी।।तीर्थं.।।१८।।
मैं नमूँ मैं नमूँ आपको भाव से।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो आप गुण गावते।।तीर्थं.।।१९।।
तीर्थंकर के पुण्य की, महिमा अपरंपार।
गणधर गुरु नहिं कह सके, मैं क्या कहूँ अबार।।२०।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरजनकजननीदेहोत्सेधवर्णायु:पुण्येभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।