तीर्थंकरों के धर्म प्रवर्तन काल धर्म बरसे है।
केवलज्ञानी मुनी आर्यिका होते ही रहते हैं।।
तीर्थ प्रवर्तन काल पूजहूँ ऋषि मुनिगण को पूजूँ।
आह्वानन स्थापन करके सर्व दुखों से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सिंधु नदी का प्रासुक जल ले कंचन भृंग भराऊँ।
जिनपद गुरुपद धारा करते भव भव तपन बुझाऊँ।।
तीर्थंकर का तीर्थ प्रवर्तन काल जजूँ मन लाके।
जितने हुये केवली मुनिगण वंदूँ शीश झुकाके।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर चंदन कर्पूरादिक घिसकर सुरभित लाऊँ।
मोह ताप से तप्त स्वात्म में पद चर्चत सुख पाऊँ।।तीर्थं.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अक्षत अमल धोयकर पुंज चढ़ाके पूजूँ।
रत्नत्रय निधि प्राप्त होय मुझ भवभव दुख से छूटूँ।।तीर्थं.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद कमल बेला समनों का हार बनाकर लाऊँ।
कामदर्पहर प्रभुपद अर्चत मनवांछित फल पाउँ।।
तीर्थंकर का तीर्थ प्रवर्तन काल जजूँ मन लाके।
जितने हुये केवली मुनिगण वंदूँ शीश झुकाके।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपुआ पकवान समोसे भर भर थाल चढ़ाऊँ।
क्षुधा वेदनी शीघ्र नष्ट हो आतम तृप्ती पाऊँ।।तीर्थं.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण दीप में घृत भर करके तमहर ज्योति जलाऊँ।
सर्व हृदय अज्ञान दूर कर ज्ञान ज्योति प्रगटाऊँ।।तीर्थं.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित धूप घंटों में खेऊँ कर्म जलाऊँ।
पर से भिन्न निजातम सुख को पाकर दु:ख नशाऊँ।।तीर्थं.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अनार संतरा नींबू सरस मधुर फल लाऊँ।
स्वात्म सौख्य फलप्राप्त करन को प्रभु के निकट चढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत पुष्प चरुवर दीप धूप फल लाऊँ।
अर्घ बनाकर भक्तिभाव से प्रभु के निकट चढ़ाऊँ।।तीर्थं.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थकाल को पूजते, त्रयधारा सुखकार।
करूं शांतिधारा अबे, होवे शांति अपार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मल्लिका केवड़ा, सुरभित पुष्प अनेक।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, मिले आत्म निधि एक।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तीर्थ प्रवर्तन काल, उसमें केवलि मुनि हुये।
ये सब गुण मणिमाल, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सागर पचास सुलाख कोटी, तथा इक पूर्वांग है।
पुरुदेव जिनका तीर्थ वर्तन काल शास्त्र प्रमाण है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु जजूँ उनको नत हुये।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवस्य पंचाशल्लक्षकोटिसागरएकपूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ तीस लाख करोड़ सागर और त्रय पूर्वांग है।
श्री अजित जिनका तीर्थ वर्तन काल भविजन त्राण है।।इस.।।२।।
ॐ ह्रीं अजित्नााथस्य िंत्रशल्लक्षकोटिसागरपूर्वांगतीर्थप्रवर्तन कालकेवलि-श्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दश लाख कोटी सागरोपम तथा चउ पूर्वांग है।
संभव जिनेश्वर तीर्थ वर्तन काल शिव पथ दान है।।इस.।।३।।
ॐ ह्रीं संभव्नााथस्य दशलक्ष कोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव लाख कोटी सागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
अभिनंदनेश्वर तीर्थ वर्तन काल सब जग त्राण है।।इस.।।४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनतीर्थंकरस्य नवलक्षकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नब्बे हजार करोड़ सागर और चउ पूर्वांग है।
श्री सुमतिजिन का तीर्थ वर्तन काल मुक्ति निदान है।।इस.।।५।।
ॐ ह्रीं सुमत्निााथस्य नवतिसहस्रकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव सहस कोटी सागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
श्रीपद्म जिनका तीर्थ वर्तन काल मुक्ति प्रदान है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु जजूँ उनको नत हुये।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभ्नााथस्य नवसहस्रकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नौ सौ करोड़ सुसागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
सूपार्श्व जिनका तीर्थ वर्तन काल मोक्ष निदान है।।इस.।।७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्व्नााथस्य नवशतकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तनकालकेवलि-श्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सागर सुनब्बे कोटि चउ पूर्वांग काल प्रमाण है।
श्री चंद्रप्रभु का तीर्थ वर्तन चतु: संघ निधान है।।इस.।।८।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभ्नााथस्य नवतिकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवकोटी सागर में पूर्वांग अठाइस पल्यका चतुर्थांश।
कम कीजे पुन: मिला दीजे इक लाख पूर्व का वर्ष अंक।।
श्री पुष्पंदत का तीर्थ प्रवर्तन काल धर्म युग माना है।
पाव पल्य तक इसमें धर्म तीर्थ विच्छेद बखाना है।।
धर्म तीर्थ विच्छेद में, चतु: संघ नहिं होय।
शेष काल के केवली, मुनी नमूँ नत होय।।९।।
ॐ ह्रीं पुष्पंदत्नााथस्य पल्यचतुर्थांशअष्टाविंशतिपूर्वांगहीनएकलक्ष-वर्षाधिकनवकोटिसागरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्याय-साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक कोटी सागर में सौ सागर आधा पल्य हीन करिये।
छ्यासठ लख छब्बिस सहसवर्ष कम पच्चिस सहस पूर्व धरिये१।।
शीतल जिनका यह तीर्थ प्रवर्तन काल चार संघ से राजे।
इसमें जिन धर्मतीर्थविच्छित्ती आधा पल्य शास्त्र भाषें।।
तीर्थ प्रवर्तन काल में, नग्न दिगंबर साधु।
मोक्ष सतत जाते रहें, नमूँ साम्यरस स्वादु।।१०।।
ॐ ह्रीं शीतल्नााथस्य अर्धपल्यशतसागरन्यूनएककोटिसागरषट्षष्टि-लक्षषट्विंशतिसहस्रवर्षन्यूनपंचिंवशतिसहस्रवर्षपूर्वतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलिआचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौवन सागर इक्कीस लाख वर्षों में पौन पल्य कम हैं।
श्रेयांसनाथ का तीर्थकाल इसमें केवलिगण मुनिगण है।।
इनके तीरथ में पौन पल्य जिनधर्म तीर्थ व्युच्छिन्न रहा।
धर्मामृत इच्छुक मुनि ने ही इस तीर्थ काल को पूज्य कहा।।
रत्नत्रयनिधि के धनी, केवलज्ञानी साधु।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे जन्म की व्याधि।।११।।
ॐ ह्रीं श्रेयांस्नााथस्य पादोपल्यहीनएकिंवशतिलक्षवर्षअधिकचतु:पंचा-शत्सागरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ तीस सागरा चौवन लाख बरस में एक पल्य कम है।
श्रीवासुपूज्य का तीर्थकाल यह मोक्षमार्ग का साधन है।।
इस एक पल्य कम में ही तीर्थ का छेद बखाना है।
इन दिनों न होवें जैन साधु शिवद्वार बंद ही माना है।।
तीर्थ काल के केवली, साधु सुरासुर वंद्य।
नमूँ नमूँ उनके चरण, हरूँ जगत का फंद।।१२।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्य्नााथस्य एकपल्यहीनत्रिंशत्यसागरचतु:पंचाशल्ल-क्षवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव सागर पंद्रह लाख बरस में पौन पल्य कम कर दीजे।
यह विमलनाथ का तीर्थ प्रवर्तन काल इसे वंदन कीजे।।
यह पौन पल्य का धर्म तीर्थ व्युच्छेद शास्त्र में गाया है।
जिनशासन के केवल ज्ञानी मुनियों को शीश नमाया है।।
बहिरातमता छोड़कर, निज शुद्धात्म स्वरूप।
ध्याते परमात्मा बनें, चिदानंद चिद्रूप।।१३।।
ॐ ह्रीं विमल्नााथस्य पादोपल्यहीननवसागरपंचदशलक्षवर्षतीर्थप्रवर्तनकाल-केवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह सात लाख पच्चास सहस है बरस चार सागर माना।
बस आधा पल्य घटा दीजे यह तीर्थ विछेद काल माना।।
जिनवर अनंत के शासन में केवलज्ञानी बहुतेहि मुनी।
रस वर्ण गंध स्पर्श शून्य निज आत्म ध्यान करते सुगुणी।।
भव्य जहां दीक्षाभिमुख, नहीं हुये वह काल।
धर्मतीर्थ विच्छेद का, कहें यति१ वृषभ कृपालु।।१४।।
ॐ ह्रीं अनंत्नााथस्य अर्धपल्योनचतु:सागरसप्तलक्षपंचाशत्सहस्रवर्षतीर्थ-प्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलिआचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो लाख पचास हजार वर्ष त्रय सागर में इक पल्य हीन।
यह धर्मनाथ का तीर्थकाल इसमें करते मुनि कर्म क्षीण।।
जिनधर्म ध्वजा फहराती है भवि ज्ञान ज्योति से जग देखें।
हम पूजें उन सब मुनियों को जो भव्य कमल विकसाते थे।।
पाव पल्य विच्छेद था, धर्मतीर्थ इस काल।
तीर्थ प्रवर्तन काल को, नमूँ नमूँ नत भाल।।१५।।
ॐ ह्रीं धर्म्नााथस्य एकपल्यहीनत्रयसागरद्विलक्षपंचाशत्सहस्रवर्ष-तीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह शतक सुपचास वर्ष व अर्ध पल्य प्रमाण है।
श्रीशांतिजिन का तीर्थ वर्तन काल जिनमत प्राण है।।
श्रीशांतिजिन से आज तक औ दुषम कालावधी तक।
निरबाध चउविध संघ है होता रहेगा अंत तक।।१६।।
ॐ ह्रीं शांत्निााथस्य अर्धपल्यद्वादशशतपंचाशत्वर्षतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवसौ निन्यावे कोटि निन्यानवे लक्ष सत्तानवे।
हजार द्विशत पचास वर्ष कम पल्य के चतुर्थांश में।।
यह तीर्थ वर्तन काल कुंथूनाथ का सुरवंद्य है।
मुनि केवली होते रहें पूजूँ उन्हें वे वंद्य हैं।।१७।।
ॐ ह्रीं कुंथु्नााथस्य नवार्बुदनवनवतिकोटिनवनवतिलक्षसप्तनवतिसहस्र-द्विशतपंचाशत्वर्षहीनपल्यचतुर्थभागतीर्थप्रवर्तन कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नौ अरब निन्यानवे कोटि निन्यानवे ही लाख हैं।
छ्यासठ सहस सौ वर्ष अरजिन तीर्थ वर्तन काल है।।
ऋषि मुनि यती अनगार केवल ज्ञान प्राप्ती कर रहें।
इनकी करें अर्चा सतत ये ताप त्रय मेरे दहें।।१८।।
ॐ ह्रीं अरह्नााथस्य नवार्बुदनवनवतिकोटिनवनवतिलक्षषट्षष्टिसहस्रशत-वर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन तीर्थ चौवन लाख सैंतालिस सहस चउशत बरस।
यह मल्लि प्रभु का सुरगणों के आगमन से जिनसदृश।।
मुनिराज जिन मुद्रा धरें विहरें सदा मंगल करें।
हम पूजतें इन साधुओं को विघ्न बाधा परिहरें।।१९।।
ॐ ह्रीं मल्ल्निााथस्य चतु:पंचाशल्लक्षसप्तचत्वािंरशत्सहस्रचतु:शतवर्षतीर्थ-प्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छह लाख पांच हजार वर्षों धर्म वर्तन काल है।
प्रभु मुनीसुव्रत नाथ का शासन महान उदार है।।
जो केवली मुनिगण हुये हैं मैं उन्हें वंदन करूँ।
निज आत्म सौरभ प्राप्त करके जगत को सुरभित करूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रत्नााथस्य षट्लक्षपंचसहस्रवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलि-श्रुतकेवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पण१लाख अठरह सौ वरस नमिनाथ तीरथ काल है।
अर्हंतमुद्रा धारि मुनिगण करें भविक निहाल हैं।।
मैं आत्मरस पीयूष अनुभव प्राप्ति हेतू जजत हूँ।
सम्यक्त्व क्षायिक होय मेरा आश यह मन धरत हूँ।।२१।
ॐ ह्रीं नम्निााथस्य पंचलक्षअष्टादशशतवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौरासि सहस्र सु तीन सौ अस्सी बरस तक धर्म है।
श्री नेमि जिनका तीर्थ वर्तन करत भवि को धन्य है।।
सज्जाति१ सद्गार्हस्थ्य पारिव्राज्य और सुरेंद्रता।
साम्राज्य अरु आर्हन्त्य परिनिर्वाण पूजत हों स्वत:।।२२।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथस्य चतुरशीतिसहस्रत्रयशतअशीतिवर्षतीर्थप्रवर्तनकाल-केवलिश्रुतकेवलि आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो सौ अठत्तर वर्ष तक प्रभु पार्श्व का शासन चला।
इसमें सतत सुरगण यहां जिन भक्त का करते भला।।
मैं पूजहूँ निज सात परम स्थान पाने के लिये।
हे नाथ! अब करके दया मुझ थान मुझको दीजिये।।२३।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथस्य द्विशतअष्टसप्ततिवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक्किस सहस ब्यालिस बरस तक वीर का शासन यहाँ।
तब तक चतुर्विध धर्म चलता ही रहेगा नित यहाँ।।
त्रय वर्ष साढ़े आठ महिने पूर्व पंचम काल तक।
यह अविच्छिन्न परंपरा मुनि की सभी को नमूँ नत।।२४।।
ॐ ह्रीं महावीरस्वामिन: एकिंवशतिसहस्रद्विचत्वािंरशद्वर्षतीर्थप्रवर्तनकाल-केवलिश्रुतकेवलि आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री ऋषभदेव से लेकर के अंतिम वीरांगज मुनि तक भी।
जिन मुद्राधारी रत्नत्रय निधि२ धरा धरत धारेंगे भी।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय युत निज आत्मतत्त्वविद इन सबको।
नित शत शत मेरा वंदन है मैं भक्ती से पूजूँ गुरु को।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनकालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्योपाध्याय-पंचमकालान्त्यवीरांगजसाधुपर्यंतसर्वसाधुभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्राह्मी सुंदरि से लेकर के, अंतिम साध्वी सर्वश्री तक।
संयतिका जिनकी हुईं हो रहीं होवेंगी आरजखंड तक।।
दो साड़ी मात्र परिग्रह धर उपचार महाव्रतिका मानीं।
इन सबको मेरा वंदन है प्रतिवंदन है ये गुणखानी।।२६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनकालब्राह्मीगणिनीप्रभृतिसर्वश्रीआर्यिका-पर्यंतसर्वआर्यिकाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
काल मोक्ष उपदेश का, मुनिगण श्लाघ्य महान।
गाऊँ गुणमणिमालिका, मिले सिद्धि अमलान।।१।।
जय जय ऋषभदेव तीर्थंकर, जय जय श्री महावीरा।
जय जय जय चौबीस जिनेश्वर, जय जय मुनिगण धीरा।।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में, आर्यखण्ड छह भेदा।
अठरा कोड़ाकोड़ी सागर कुछ१ कम में पुरुदेवा।।२।।
इनने तीर्थ चलाया उसमें प्रथम अनंतवीरज जी२।
मुक्ति वधूवर हुये मुक्त का द्वार उघाड़ा इनही।।
तब से सुविधिनाथ होने तक मुक्तिमार्ग अविछिन्ना।
धर्मनाथ तक सात तीर्थ में कुछ कुछ हुआ विछिन्ना।।३।।
शांतिनाथ से महावीर तक तीर्थ विछेद रहित है।
मुनी आर्यिका श्रावक और श्राविका संघ सहित है।।
महावीर निर्वाण दिवस ही गौतम केवलज्ञानी।
गौतम सिद्ध हुये दिन सुधर्म मुनि थे केवलज्ञानी।।४।।
ये शिव गये जम्बू स्वामी, केवलज्ञानी उस दिन ही।
ये अनुबुद्ध केवली बासठ, दिन में हुये त्रयों ही।।
अंतिम केवलि श्रीधर मुनि कुंडल गिरि से शिव पायी।
अन्त सुपार्श्वचंद चारण ऋषि पुनि ये ऋद्धि न आयी।।५।।
प्रज्ञा श्रमण वङ्कायश अंतिम, अवधि ज्ञानि श्रीनामा१।
मुकुट धरों में चंद्रगुप्त मुनि अंतिम हैं सुखधामा।।
नंदी१ नंदिमित्र२ अपराजित३ गोवर्धन४ गुरुवर्ये।
भद्रबाहू५ ये पण२ श्रुतकेवलि सौ वर्षो में हूये।।६।।
मुनिविशाख१ प्रोष्ठिल२ क्षत्रिय३ जय४ नाग५ सिद्धारथ६ मुनि छह।
धृतीषेण७ सु विजय८ बुद्धिल९ गंगदेव१० सुधर्म११ ये ग्यारह।।
इक सौ त्र्यासी वर्ष मध्य ये दशपूर्वी मुनि माने।
दो सौ बीस वर्ष में ग्यारह अंग धारि गुरु माने।।७।।
वे नक्षत्र१ जयपाल२ पांडु३ ध्रुवसेन४ कंसमुनि५ जाने।
पुनि सुभद्र१ यशभद्र२ यशो बाहु३ लोहार्य४ बखाने।।
आचारांग धारि ये इक ३सौ अठरह बरस सुमध्ये।
गौतम गुरु से लोहाचार्य तक छह सौ त्र्यासि बरस ये।।८।।
नंतर३ बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्ष पर्यंते।
धर्म प्रवर्तन कारण यह श्रुत तीर्थ चले शिवपंथे।।
गुरु लोहार्य के कुछ दिन नंतर अर्हद्वलि यति हूये।
माघनंदि धरसेन पुष्पदंत भूतबली गुरु हूये।।९।।
गुरु धरसेन द्वितीय पूर्व के तनिक अंश के ज्ञानी।
उभय साधु को ज्ञानदान दे किया अक्षुण्ण जिनवाणी।।
उभय शिष्य ने षट्खंडागम सूत्र रचा श्रुत रुचि से।
श्रुतपंचमि तिथि पूज्य हुई उस श्रुत की पूर्ति निमित से।।१०।।
गुणधरयति ने कसायपाहुड़ रच उपकार किया है।
कुंदकुंद ने चौरासी पाहुड़ श्रुतसार दिया है।।
गुरु यतिवृषभ उमास्वामी मुनि समंतभद्र अकलंका।
वीरसेन जिनसेन १अमृतशशि प्रभृति हुये श्रुतवंता।।११।।
गुरु संतति में चारित चक्री शांतिसागराचार्या।
पट्ट शिष्य गुरु वीरासागरा आदि अनेकाचार्या।।
इस विधि अविच्छिन्न मुनिस्रङ्२ में वीरांगज मुनि होंगे।
कल्की को कर३ प्रथम ग्रास दे अवधिज्ञानी होंगे।।१२।।
सर्वश्री आर्यिका अग्निदत श्रावक पंगुश्री महिला४।
चउविध संघ समाधी लेकर स्वर्ग लहेंगे पहला।।
असुर कुमार देव आकर यहं कल्की को मारेंगे।
धर्म, नृपति, अग्नी, उस ही दिन तीनों नश जावेंगे।।१३।।
तीन वर्ष साढ़े अठ महीने बाद काल छट्ठा हो।
त्रेसठ सहस वर्ष नंतर पुनि मोक्षमार्ग अच्छा हो।।
उत्सर्पिणि के प्रथम तीर्थकर महापद्म प्रभु होंगे।
उनको शतशत नमन हमारा शिवपथ दर्शक होंगे।।१४।।
जय जय तीर्थकाल की जय हो, जैन धर्म की जय हो।
जय जय केवलि, श्रुतकेवलि की, सब मुनिगण की जय हो।।
जय जय सर्व आर्यिका की जय, चउविध संघ की जय हो।
जय जय जिनशासन की जय हो मोक्षमार्ग की जय हो।।१५।।
तीर्थ प्रवर्तन काल यह, जिनशासन सुखकार।
तीन रत्न के हितु मैं इसे, नमूँ अनंतों बार।।१६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलिआचार्यो-पाध्यायसर्वसाधुभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।