श्री स्वयंसिद्ध जिनमंदिर यहाँ पर चार शतक अट्ठावन हैं।
मणिमय अकृत्रिम जिन प्रतिमा ऋषि मुनिगण में मन भावन हैं।।
सौ इंद्रों से वंदित जिनगृह मैं इनकी पूजा नित्य करूँ।
आह्वानन संस्थापन करके निज से सन्निध नित्य करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोकसंबंधिपचमेर्वादिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मध्यलोकसंबंधिपचमेर्वादिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मध्यलोकसंबंधिपचमेर्वादिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ये जन्म जरा मृति तीन रोग, भव भव से दुख देते आये।
त्रय धारा जल की देकर के मैं पूजूँ ये त्रय नश जायें।।
ये चार शतक अट्ठावन हैं जिनमंदिर शाश्वत स्वर्णमयी।
इनकी पूजा से जग जाती निज आतम ज्योति सौख्यमयी।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
नानाविध व्याधी रोग शोक, तन में मन में संताप करें।
चंदन से तुम पद चर्चूं मैं, यह पूजा भवभव ताप हरे।।ये.।।२।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
जग में इंद्रिय सुख खंड-खंड, नहिं इनसे तृप्ती हो सकती।
अक्षत के पुंज चढ़ाऊँ मैं, अक्षय सुख देगी तुम भक्ती।।ये.।।३।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
इस कामदेव ने भ्रांत किया, निज आत्मिक सुख से भुला दिया।
ये सुरभित सुमन चढ़ाऊँ मैं, निज मन कलिका को खिला लिया।।ये.।।४।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
उदराग्नी प्रशमन हेतु नाथ, त्रिभुवन के भक्ष्य सभी खाये।
नहिं मिली तृप्ति इसलिये प्रभो! चरु से पूजत हम हर्षाये।।ये.।।५।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अज्ञान अंधेरा निज घट में, नहिं ज्ञान ज्योति खिल पाती हैं।
दीपक से आरति करते ही, अघ रात्रि शीघ्र भग जाती है।।ये.।।६।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
वर धूप घटों के धूप खेय, चहुँदिश में सुरभि महकती है।
सब पाप कर्म जल जाते हैं, गुणरत्नन राशि चमकती है।।ये.।।७।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
नानाविध फल की आश लिये, बहुते कुदेव के चरण नमें।
अब सरस मधुर फल से पूजें, बस एक मोक्षफल आश हमें।।ये.।।८।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जल गंध आदि में चांदी के, सोने के पुष्प मिला करके।
मैं अर्घ चढ़ाऊँ हे जिनवर! रत्नत्रयनिधि दीजे तुरते।।ये.।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक संबंधिचतु:शतअष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शीत सुगंधित नीर से, प्रभुपद धार करंत।
त्रिभुवन में भी शांति हो, आतम सुख विलसंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून ले, पुष्पांजलि विकिरंत।
मिले सर्वसुख संपदा, परमानंद तुरंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय जय मध्यलोक के सब, शाश्वत जिनमंदिर मुनि वंदे।
जय जय जय प्रतिमा रत्नमयी, भविजन वंदत ही अघ खंडें।।
जय जय जिनमूर्ति अचेतन भी, चेतन को वांछित फल देतीं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, उनकी आतम निधि भर देतीं।।१।।
जय पांच मेरु के अस्सी हैं, जंबू आदिक तरु के दश हैं।
कुल पर्वत के तीसों जिनगृह, गजदंत गिरी के बीसहिं हैं।।
वक्षार गिरी के अस्सी हैं, इक सौ सत्तर रजतचल के।
दो इष्वाकार जिनालय हैं, चारहिं मंदिर मनुजोत्तर के।।२।।
नंदीश्वर के बावन, कुंडलगिरि रुचकगिरी के चउ चउ हैं।
ये चार शतक अट्ठावन इन, जिनगृह को मेरा वंदन है।।
प्रति जिनगृह में जिन प्रतिमायें, सब इक सौ आठ-आठ राजें।
उनचास हजार चारसौ चौंसठ, प्रतिमा वंदत अघ भाजें।।३।।
स्वात्मानंदैक परम अमृत झरने से झरते समरस को।
जो पीते रहते ध्यानी मुनि, वे भी उत्कंठित दर्शन को।।
ये ध्यान धुरंधर ध्यान मूर्ति, यतियों को ध्यान सिखाती हैं।
भव्यों को अतिशय पुण्यमयी, अनवधि पीयूष पिलाती हैं।।४।।
ढाई द्वीपों के मंदिर तक मानव विद्याधर जाते हैं।
आकाश गमन ऋद्धीधारी, ऋषिगण भी दर्शन पाते हैं।।
आवो आवो हम भी पूजें, ध्यावें वंदे गुणगान करें।
भव भव के संचित कर्मनाश, पूर्णैक ‘ज्ञानमति’ उदित करें।।५।।
जय जय श्रीजिनवर, धर्मकल्पतरु, जय जिन मंदिर सिद्धमही।
जय जय जिन प्रतिमा, सिद्धन उपमा, अनुपम महिमा सौख्यमही।।६।।
ॐ ह्रीं मध्यलोकसम्बन्धिचतु:अष्टपंचाशत्जिनालयजिनिंबबेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।