इस जम्बूद्वीप के कुल पर्वत छह, हैं गजदंत गिरी चउ हैं।
वक्षाराचल सोलह सुन्दर, विजयार्ध गिरी सित चौंतिस हैं।।
इन सब पर शाश्वत जिनमंदिर, मणिमय शाश्वत जिन प्रतिमायें।
आह्वानन विधिकर मैं पूजूं, ये स्वात्म गुणों को दिलवायें।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पद्मद्रह नीर शीतल सुगंधित लिया।
नाथ के पाद में तीन धारा किया।।
शाश्वते जैन मंदिर जजूँ भाव से।
जन्मवार्धी तिरुं भक्ति की नाव से।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
गंध के नाथ पादाब्ज को चर्चते।
देह की दाह मेटूं प्रभू अर्चते।।शाश्वते.।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
मोतियों के सदृश शालि के पुंज से।
पूजहँ आपको सौख्य पूरो अबे।।शाश्वते.।।३।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
मल्लिका पारिजातादि चुन के लिये।
पुष्प अर्पण करत कीर्ति सौरभ किये।।शाश्वते.।।४।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
पूरियाँ मोदकादी भरे थाल में।
पूजते आत्म तृप्ती सु तत्काल में।।शाश्वते.।।५।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दीप कर्पूपर ज्योति तमो वारती।
आरती से भरे ज्ञान की भारती।।शाश्वते.।।६।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुगंधी उठे अभ्र में।
कर्म भस्मी हुये सौख्य हो स्वात्म में।।शाश्वते.।।७।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
सेव अंगूर फल को चढ़ाऊँ तुम्हें।
मोक्ष की आश पूरो प्रभो शीघ्र में।।शाश्वते.।।८।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
अर्घ में रत्न धरके चढ़ाऊँ प्रभो।
रत्नत्रय दीजिये शीघ्र ही हे विभो।।शाश्वते.।।९।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलगजदंतवक्षारविजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतिधारा मैं करूँ, जिनवदपद अरविंद।
त्रिभुवन में भी शांति हो, मिले निजात्म अनिंद।।१०
शांतये शांतिधारा।
सुरभित हरसिंगार ले, पुष्पांजली करंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निजनिधि मिले अनंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जंबूद्वीप में साठ, पर्वत पर जिनगेह हैं।
नमूँ नमाकर माथ, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘हिमवान’ पर्वतकनकद्युतिमय द्वय तरफ बहुवर्ण का।
वर कूट ग्यारह में कहा इक सिद्धकूट जिनेन्द्र का।।
उस पर जिनेश्वर धाम है पूजा करुं अति चाव से।
संसार खार अपार सागर तिरुं भक्ती नाव से।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिहिमवत्पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पर्वत ‘महाहिमवान’ चांदी वर्ण का सुंदर दिखे।
इस उपरि आठ सुकुट पूरब सिद्धकूट परम दिखे।।उस पर.।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिमहाहिमवत्पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पर्वत ‘निषध’ है तप्त स्वर्णिम वर्णबहु द्वय पार्श्व हैं।
हृद वेदिका वन कूट नव में सिद्धकूट विख्यात है।।उस पर.।।४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिनिषधपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर ‘नीलगिरि’ वैडूर्यवर्णी द्वयतरफ पचरंगिमा।
नव कूट में इक सिद्धकूट जजें सदा रवि चंद्रमा।।उस पर.।।५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिनीलपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेम्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘रूक्मी’ अचल रूपामयी वर कूट आठ सुशोभते।
पूरब दिशी में ‘सिद्धकूट’ सुरेन्द्र का मन मोहते।।उस पर.।।६।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिरूक्मिपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘शिखरी’ अचल सोने सदृश शुभ कूट ग्यारह नित्य हैं।
पूरब दिशा में सिद्धकूट सुपूजते सब भव्य हैं।।उस पर.।।७।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिशिखरिपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘माल्यवंत’ गजदंत है, मेरु के ईशान।
वर्ण रुचिर वैडूयमणि, नवकूटों युत मान।।
मेरु निकट जिनराजगृह, सिद्धकूट पर सिद्धि।
मन वच तन से पूज कर, पाऊं नव निधि रिद्धि।।७।।
ॐ ह्रीं सुमेरुपर्वतईशानदिक्माल्यवान्गजदंतपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मेरु के आग्नेय दिश, ‘महासौमनस’ नाम।
रजतमयी गजदंत यह, सातकूटयुत जान।।मेरु.।।८।।
ॐ ह्रीं सुमेरुपर्वतआग्नेयदिक्महासौमनसगजदंतपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मेरु व नैऋत्यदिश, ‘विद्युत्प्रभ’ गजदंत।
वर्ण तपाये स्वर्णसम, नव कूटहिं शोभंत।।मेरु.।।९।।
ॐ ह्रीं सुमेरुपर्वतनैऋत्यदिक्विद्युत्प्रभगजदंतपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘गंधमादनाचल’ कहा, मेरु के वायव्य।
सातकूट युत स्वर्णसम, पूजें सुर नर भव्य।।मेरु.।।१०।।
ॐ ह्रीं सुमेरुपर्वतवायव्यदिक्गंधमादनगजदंतपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतानदि के उत्तर तट पर, भद्रशाल वेदी के पास।
‘चित्रकूट’ वक्षार स्वर्णमय, चार कूट के से मंडित खास।।
नदी तरफ के सिद्धकूट पर, श्रीजिनमंदिर बना विशाल।
जल फल आदिक अर्घ बनाकर, पूजन करूँ मिटे जगजाल।।११।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीउत्तरतटेचित्रकूटवक्षारपर्वतस्थित-सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीता नदि के उत्तर तट पर, क्रम से ‘नलिनकूट’ वक्षार।
स्वर्णमयी पर चार कूट हैं, देव देवियाँ करें विहार।।नदी.।।१२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीउत्तरतटेनलिनकूटवक्षारपर्वत—स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पद्मकूट’ वक्षार अचलपर, विद्याधर गण करें विहार।
पर्वत महिमा निरख निरख कर, तृप्त हुये मन हर्ष अपार।।नदी.।।१३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीउत्तरतटेपद्मकूटवक्षारपर्वतस्थित-सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘एकशैल’ वक्षार मनोहर, सुर वनितायें करें विनोद।
चारण मुनिगण विहरण करते, समरसमय मन भरें प्रमोद।।नदी.।।१४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीउत्तरतटेएकशैलकूटवक्षारपर्वत—स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीता नदि के दक्षिण तट पर, देवारण्य वेदिका पास।
अचल ‘त्रिकूट’ चार कूटों युत, जिनगृह युत वक्षार सनाथ।।नदी.।।१५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिसीतानदीदक्षिणतटेत्रिकूटवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
क्रम से फिर ‘वैश्रवण’ कूट है, देव देवियों से भरपूर।
वापी वन उद्यान मनोहर, मुनिगण करें पाप को दूर।।नदी.।।१६।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीदक्षिणतटेवैश्रवणवक्षारपर्वतस्थित-सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अंजनगिरि’ वक्षार मनोहर, स्वर्णवर्णमय अतिसुखकार।
सुर विद्याधर गगन गमनचर, ऋषिगण को भी है सुखकार।।नदी.।।१७।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीदक्षिणतटेअंजनगिरिवक्षारपर्वत—स्थित-सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आत्मांजन’ वक्षार आठवां, योगीजन करते नित ध्यान।
निज आतम परमानंदामृत, अनुभव कर हो रहे महान्।।नदी.।।१८।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपूर्वविदेहस्थसीतानदीदक्षिणतअंजनात्मावक्षारपर्वत—स्थित-सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिमविदेह सीतोदा के, दक्षिण में भद्रसाल वेदी।
उस सन्निध ‘श्रद्धावान’ कहा, वक्षार कनकमय पर्वत ही।।
नदि के सन्निध है सिद्धकूट, उसमें शाश्वत चैत्यालय है।
जल गंधादिक से पूजूँ मैं, मेरे हित सौख्य सुधालय है।।१९।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटेविजटावानवक्षार-पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतोदा के दक्षिण तट पर, गिरि ‘विजटावान’ कहाता है।
वक्षार सदा चउकूटों युत, सुरनर सब के मन भाता है।।नदी.।।२०।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटेविजटावानवक्षार-पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आशीविष’ है वक्षार कहा, इस पर रत्नों की वेदी है।
परकोटे वापी उपवन से, जिनगृह से कर्मन भेदी है।।नदी.।।२१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटेआशीविषवक्षार-पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वक्षार ‘सुखावह’ अतिसुन्दर, सुर ललना की क्रीड़ा भूमी।
यतिगण के विहरण से पावन, सबको आनंदकरी भूमी।।नदी.।।२२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटेसुखावहवक्षार-पर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतोदा के उत्तर तट पर, शुभ भूतारण्य बनी वेदी।
उस सन्निध ‘चंद्रमाल’ पवर्त, जन मन का मोह तिमिर भेदी।।नदी.।।२३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटेचंद्रमालवक्षार-पर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वक्षार मनोहर ‘सूर्यमाल’, सोने के भवन सुहाते हैं।
सुरललनाओं की वीणा के, तारों से जिनगुण गाते हैं।।नदी.।।२४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटेसूर्यमालवक्षार-पर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर ‘नागमाल’ वक्षार अलच, अनुपम कांती छिटकाता है।
जिनवर के दर्शन करते ही, सबके अघपुंज नशाता है।।नदी.।।२५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटेनागमालवक्षार-पर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वक्षार सोलवां ‘देवमाल’, रत्नों की कांति लजाता है।
जिनदेव देव के गृह में नित, देवों का नृत्य कराता है।।नदी.।।२६।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसम्बन्धिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटेदेवमालवक्षार-पर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतानदि के उत्तरतट में, भद्रसाल वन पासे।
कच्छादेश विदेह बीच में, विजयारध गिरि भासे।।
नव कूटों के सिद्धकूट पर, जिनवर भवन महाना।
ऋषिगण वंदन करने जाते, मैं पूजूँ इह थाना।।३३।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहस्थसीतानदीउत्तरतटेकच्छादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थितसिद्ध—कूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मेरु के पश्चिम उस तटपर, देश सुकच्छा सोहे।
तामध रजताचल अतिसुंदर सुर किन्नर मन मोहे।।नव.।।२८।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेसुकच्छादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश महाकच्छा कहलाता, रूपाचल ता मध्ये।
विद्याधर ललना किन्नरियां, जिनगुण गाती तथ्ये।।नव.।।२९।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेमहाकच्छादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेम्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देशकच्छकावती सुमध्ये, रूपाचल सुखकारी।
सुरललना के वीणा स्वर से, जन जन का मनहारी।।नव.।।३०।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेमहाकच्छादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश कहा आवर्ता सुंदर, रूपाचल तसु बीचे।
रक्ता-रक्तोदा नदियों से, छहखंड होते नीके।।नव.।।३१।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेआवर्तदेशमध्यस्थितविजयार्धपर्वत-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश कहा ‘लांगल’ आवर्ता, तामध रूपाचल है।
तीनों कटनी पर वनदेवी, वापी जल निर्मल है।।नव.।।३२।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेलांगलावर्तादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सुन्दर देश पुष्पकला के मधि रूपाचल मन भावे।
उभय तरफ पचपन-पचपन, खगनगरी मन ललचायें।।नव.।।३३।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेपुष्कलादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश पुष्कलावती सुहाता, उसमें रजतगिरी है।
विद्याधर की कर्मभूमियाँ, मुक्तीमार्ग पुरी हैं।।नव.।।३४।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीउत्तरतटेपुष्कलावतीदेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित-सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पूर्वविदेह विषे सीता के, दक्षिणतट में माना।
देवारण्य वेदिकासन्निध, वत्सादेश बखाना।।
मध्य रजतगिरि सिद्ध कूटपर, जिनमंदिर अभिरामा।
जिनवर चरण कमल हम पूजें, मिले सर्वसुख धामा।।३५।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेवत्सादेशस्थितरजताचलसिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतानदी के दक्षिणतट पर, देश सुवत्सा सोहे।
तीर्थंकर चक्री प्रतिचक्री, हलधर वहं नित होवें।।मध्य.।।३६।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेसुवत्सादेशस्थितविजयार्धपर्वत-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
क्रम से देश महावत्सा में, रजताचल है जानो।
गंगा सिन्धू नदियों से भी, छह खंड होते मानों।।मध्य.।।३७।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेमहावत्सादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश वत्सकावती वहाँ नित, कर्मभूमि मन भावे।
भव्य जीवगण कर्म अरो हन, मुक्तिरमा सुख पावें।।मध्य.।।३८।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेवत्सकावतीदेशमध्यविजयार्धपर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रम्यादेशे आर्यखंडे में असि मषि आदि क्रिया हैं।
क्षत्रिय वैश्य शूद्र त्रयवर्णी, होते सदा जहाँ हैं।।मध्य.।।३९।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेरम्यादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश सुरम्या शुभ विदेह में, देह नाश कर प्राणी।
हो जाते हैं वे विदेह इस, हेतू सार्थक नामी।।मध्य.।।४०।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेसुरम्यादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रमणीया शुभ देश वहाँ पर, तीर्थंकर नित होते।
समवसरण में भव्यजीवगण, जिनधुनि सुन मल धोते।।मध्य.।।४१।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेरमणीयादेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देशमंगलावती जहाँ पर, मुनिगण नित्य विचरते।
चिच्चैतन्य चमत्कारी निज, शुद्धातम में रमते।।मध्य.।।४२।।
ॐ ह्रीं पूर्वविदेहसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटेमंगलावतीदेशमध्यविजयार्धपर्वतस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अपर विदेह नही सीतोदहिं इधर में।
भद्रसाल वनपास जु पद्मा नगरि में।।
मध्य रजतगिरि उसपर श्री जिनगेह है।
जिनगुण संपति हेतु जजों धर नेह है।।४३।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटे पद्मादेशमध्यरजताचलस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अपरविदेह सुमाहिं नदी के अवर में।
देश सुपद्या मध्ये आरजखंड में।।मध्य.।।४४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेसुपद्मादेशमध्यरजताचलस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश महापद्मा छह खंडों युत सही।
असि मषि आदिक छह किरिया वहाँ नित कहीं।।मध्य.।।४५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेमहापद्मादेशमध्यरजताचलस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश पद्मकावती मनोहर जानिये।
जिन चैत्यालय ठौर ठौर पर मानिये।।मध्य.।।४६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेपद्मकावतीदेशम्ध्यरजताचल—स्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शंखा देश विषें जिनधर्महि एक है।
अन्य धर्म का नाम जहां नहिं लेश है।।
मध्य रजतगिरि उसपर श्री जिनगेह है।
जिनगुण संपति हेतु जजों धर नेह है।।४७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेशंखादेशमध्यरजताचलस्थित सिद्धकूटजिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नलिनी देश विदेह कर्मभूमी सदा।
मुनिवर आतम ध्याय कर्म से हों जुदा।।मध्य.।।४८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेनलिनीदेशमध्यरजताचलस्थित-सिद्धकूट-जिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कुमुद देश के माहिं जिनेश्वर नित रहें।
समवसरण में भविक, धर्म अमृत लहें।।मध्य.।।४९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेकुमुददेशमध्यरजताचलस्थित-सिद्धकूट-जिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सरित देश में सदा मुमुक्षु जन बसें।
मोक्ष प्राप्ति की आश धरें तन को कसें।।मध्य.।।५०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमविदेहसंबंधिसीतोदानदीदक्षिणतटेसरितदेशमध्यरजताचलस्थित-सिद्धकूट-जिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतोदा के उत्तरदिक में, देवारण्य निकट वप्रा में।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोहे, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५१।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे वप्रादेशस्थितरजताचलसिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देव सुवप्रा आरज खंड में, ईति भीति दुर्भिक्ष न उनमें।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५२।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे सुवप्रादेशस्थितरजताचलसिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश महावप्रा सुखदाता, स्वर्ग मोक्ष का सही विधाता।।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५३।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे महावप्रादेशस्थितरजताचल—सिद्धकूट-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश वप्रकावती सुहाता, सुरनर किन्नर के मन भाता।।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५४।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे वप्रकावतीदेशस्थितरजताचल-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गंधा देश विषें जिनगेहा, उन्हें जजें सुरनर धर नेहा।।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५५।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे गंधादेशस्थितरजताचल जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश सुगंधा मुक्ति प्रदानी, मुनि तप करें वरें शिवरानी।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५६।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे सुगंधादेशस्थितरजताचल—जिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश गंधिला में जो जन्में, पूर्वकोटि आयु वर उनमें।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५७।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे गंधिलादेशस्थितरजताचल—जिनालय-जिनिंबबेम्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गंधमालिनी में होते जो, तनु ऊँचे वर धनुष पांचसौ।
बीचों बीच रूप्यगिरि सोह, तापर जिनगृह मुनि मन मोहे।।५८।।
ॐ ह्रीं अपरविदेहसंबंधिसीतोदानदीउत्तरतटे गंधामालिनीदेशस्थितरजताचल-जिनालयजिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘भरतक्षेत्र’ में हैं छहखंड, विजयाद्रि इस आरज खंड।
सिद्धकूट वर श्री जिनधाम, जिनपद पूजूँ करूँ प्रणाम।।५९।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थविजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘ऐरावत’ अधिरजत गिरीश, तापर सिद्धकूट जिनईश।
जल गंधादिक अर्घ मिलाय, पूजन करूँ मुदित गुणगाय।।६०।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रस्थविजयार्धपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस जंबूद्वीप में हिमवन आदिक, नग पर छह जिनमंदिर है।
गजदंतों पर चउजिनमंदिर, सोलह वक्षारचल पर हैं।।
चौंतिस विजयार्ध अचल पर हैं, जिनमंदिर साठ अकृत्रिम हैं।
इन पूजूँ नित प्रति अर्घ चढ़ा, ये निज सुखदाता अनुपम हैं।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलचतु:गजदंतषोडशवक्षारचतुिंस्त्रशत् विजयार्धपर्वतस्थितषष्टिजिनालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सब जिनगृह में जिन प्रतिमायें, इकसौ अठ इकसौ आठ कहीं।
ये चौंसठ सौ अस्सी मूर्ति, जिनवर समपुण्य प्रदायक हीं।।
इनकी पूजा भक्ती करते, संपूर्ण अमंगल दूर भगें।
निज आतम अनुभव आते ही, निज में निज आतम ज्योति।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकुलाचलादिस्थितषष्टिजिनालयमध्यविराजमानषट्सहस्र-चतुशतअशीतिजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्य निर्वपामिति स्वाहा।
इस जंबूद्वीप में मेरु सुदर्शन, पर सोलह जिनमंदिर हैं।
जंबू तरु शाल्मलि तरु के दो बाकी पर्वत साठ कहे।।
ये सब अठसत्तर जिनमंदिर, शाश्वत रत्नों के शोभे हैं।
इन सबको अर्घ चढ़ाकर के पूजत ही अनुपम सुख हो है।।३।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिसुदर्शनमेरुजम्बूतरुशाल्मलितरूकुलाचलादिस्थित-अष्टसप्ततिजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्य निर्वपामिति स्वाहा।
इन अठसत्तर जिनमंदिर में, जिन प्रतिमायें शाश्वत राजें।
ये आठ हजार चार सौ चौबिस, जिनमूर्ति सब सुख साजें।।
गणधर मुनिगण सुरगण नरपति, खगपति भी वंदन करते हैं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, वे यम का बंधन हरते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिअष्टसप्ततिजिनालयमध्यविराजमानअष्टसहस्रचतु:शतचतु वशतिजिनप्रतिम्भ्य: पूर्णार्घ्य निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय तीर्थंकर सुखआकर, जय जय तुम नाम मंत्र माना।
जय जय तुम मूर्ति अचेतन भी, सब कुछ फल देतीं जग जाना।।
जय जय कुल पर्वत के जिनगृह, जय जिनगृह गजदंताचल के।
जय जय वक्षारों के जिनगृह, जय जय जिनगृह रजताचल के।।१।।
त्रय कुल पर्वत क्रम से सौ दो सौ चउसौ योजन ऊँचे हैं।
आगे त्रय क्रम से चउसौ दो सौ सौ योजन ही ऊँचे हैं।।
हिमवन दससौ बावन योजन, कुछ अधिक सुविस्तृत विख्याता।
आगे चौगुने कहे फिर आधे-आधे हैं यह श्रुत ख्याता।।२।।
ये क्षेत्र बराबर लंबे हैं, इन मध्य सरों में कमल खिले।
उन पर श्री ह्री धृति कीर्ति बुद्धि, लक्ष्मी देवी हैं निज महले।।
गंगा सिद्धू आदिक चौदह, नदियाँ इन सरवर से निकलीं।
भरतादि सात क्षेत्रों में नित बहतीं फिर लवणोदधि में मिलीं।।३।।
गंजदंत मेरु के निकट पांचसौ, योजन ऊँचे माने हैं।
निषधाचल नील निकट चउसौ, योजन ऊँचे मुनि जाने हैं।।
पण शत योजन विस्तृत ये तीस, सहस दोसौ नव लंबे हैं।
विदिशा में मेरु के नग तक, गजदंत सदृश ये लंबे हैं।।४।।
वक्षार पांचसौ योजन विस्तृत, नग से नदि तब लंबे हैं।
नग निकट चारसौ योजन के, नदि निकट पांचसौ तुंग रहें।।
सोलह सहस पांचसौ बारह, योजन क्षेत्र बराबर हैं।
इनके जिनगृह को वंदू मैं, ये मुक्ति श्री ललना घर हैं।।५।।
सब रचताचल पच्चिस योजन, ऊँचे पचास ही विस्तृत हैं।
ये क्षेत्र बराबर लंबे त्रय कटनीयुत खगनगरी युत हैं।।
नग पर कूटों के देव भवन, वर सिद्धकूट पर जिनगृह हैं।
चारण ऋद्धि मुनिगण विहरें, वंदन करते स्तुति में रत हैं।।६।।
शाश्वत जिनमंदिर वंदन से, सब पाप समूह विनश जाते।
सब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, टलते रोगादि विनश जाते।।
व्यंतर डाकिनि शाकिन बाधा, संपूर्ण उपद्रव टलते हैं।
अतिशायि पुण्य रवी उगता, धन धान्य सुयश सुख मिलतें हैं।।७।।
हे नाथ! आपकी भक्ति से, मुझ घट में ज्ञान प्रभाव खिले।
मुरझाया समकित कमल खिले, रत्नत्रय निधियाँ शीघ्र मिले।।
मोहांधकार रात्री विनशे, मुझको समरस पीयूष मिले।
शुभ ‘ज्ञानमति’ प्रगटित होकर, जग में चमके सुप्रकाश मिले।।८।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसम्बन्धिकुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबबेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।