इस प्रथम जंबू द्वीप में दो सूर्य दिन दिन चमकते।
ये ढाईद्वीपों तक सु इक सौ बत्तिसे दिनकर दिपें।।
ये अर्ध गोलक सम सभी भास्कर विमान प्रकाशते।
इन मध्य जिनमंदिर जजूँ ये आत्म ज्योति प्रकाशते।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके सूर्यवमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके सूर्यवमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके सूर्यवमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
मुनि मन सम जल अति स्वच्छ, चरणों धार करूं।
निज आतम हो प्रत्यक्ष, भवदधि शीघ्र तिरूं।।
भास्कर विमान जिनधाम, संख्यातीत कहें।
पूजत पाऊँ निज धाम, शिवतिय प्रीति गहे।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
काश्मीरी केशर गंध, चरणों लेप करूँ।
हो आतम गुण की गंध, भव संताप हरूं।।भास्कर.।।२।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
मोती सम तंदुल स्वच्छ, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज आतम गुण प्रत्यक्ष, निज पद पाऊँ मैं।।भास्कर.।।३।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
सुर तरु के सुमन सुगंध, चरण चढ़ाऊँ मैं।
निज आतम कीर्ति अमंद, पा हरषाऊँ मैं।।भास्कर.।।४।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
घेवर फेनी पकवान, आप चढ़ाऊँ मैं।
कर आत्म सुधारस पान, निज सुख पाऊँ मैं।।भास्कर.।।५।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कर्पूर शिखा चमकेय, जग का ध्वांत हरे।
आरति से मन हरषेय, ज्ञान विकास करे।।भास्कर.।।६।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
सित चंदन मिश्रित धूप, खेऊं अगनी में।
मिले निजानंद रस कूप, शिवतिय परणूँ मैं।।भास्कर.।।७।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
काजू पिस्ता अखरोट, आप चढ़ाऊँ मैं।
सक कार्य सरें बेरोक, बलि बलि जाऊं मैं।।भास्कर.।।८।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु अर्घ चढ़ाऊं आज, तुम चरणों आगे।
निज तीन रतन के काज, पूजूँ अघ भागे।।भास्कर.।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले स्वात्म साम्राज्य, त्रिभुवन में सुखशांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार, कुसुमांजलि अर्पण करूँ।
मिले सर्वसुखसार, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
रवि विमान के मध्य में, दिव्य कूट दीपंत।
उनपे जिन गृह नित जजूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जंबूद्वीप के भीतर इकसौ अस्सी योजन जानों।
लवणोदधि में तीन शतक तीसे योजन अधिकानों।।
इतने में इकसौ चौरासी गलियों में ये चलते।
दो रवि के विमान में दो जिनगृह पूजत दुख ढलते।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थद्वयसूर्यविमानस्थितद्वयजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
लवणोदधि के चार दिवाकर मेरु प्रदिक्षण देते।
अर्ध गोले सम ये विमान नीचे से खूब चमकते।।
सम भागों पर जिन मंदिर हैं रवि के भवन बने हैं।
जिन प्रतिमाओं को मैं पूजूँ देतीं सौख्य घने हैं।।२।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिस्थितचतु:सूर्यविमानस्थितचतुर्जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
धातकिखंड द्वीप में बारह सूर्य विमान चले हैं।
मेरू की प्रदक्षिणा क्रम में नित ही भ्रमण करे हैं।।
इनकी गति से दिन रात्री हो ये विमान ही चमके।
इनके जिनमंदिर मैं पूजूँ आत्म ज्योति अति चमके।।३।।
ॐ ह्रीं धातकीखण्डद्वीपस्थद्वादशसूर्यविमानस्थितद्वादशजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कालोदधी में चंद्र ब्यालिस रवि हैं नित्य भ्रमण करते हैं।
बारह सहस उग्र किरणों के जगप्रकाश करते हैं।।
सबही सूर्य प्रतीन्द्र कहाते सब विमान चमकीले।
सबमें जिनमंदिर मैं पूजूँ अशुभ कर्म हों ढीले।।४।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंबंधिद्विचत्वािंरशत्सूर्यविमानस्थिताचत्वािंरशत्जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पुष्करार्ध द्वीप में भास्कर कहे बहत्तर भ्रमते।
नित्य मेरु की करें प्रदिक्षण जगत् अंधेरा हरते।।
इनके जिनमंदिर को पूजूँ मोह अंधेरा भागे।
आत्म ज्योति से जगे उजेला मोक्ष महल हो आगे।।५।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपस्थद्वासप्ततिसूर्यविमानस्थितद्वासप्ततिद्विजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मनुजोत्तर पर्वत से बाहर पुष्करार्ध पश्चिम में।
आठ वलय हैं सूर्य गमन के, रवि शशि घूमें उनमें।।
बारह सौ चौंसठ भास्कर वहं जहं ते तहं स्थिर हैं।
उनके जिनमंदिर मैं पूजूँ देते पद सुस्थिर हैं।।६।।
ॐ ह्रीं अपरपुष्पकरार्धद्वीपस्थद्वादशशतचतु:पष्टिसूर्यविमानस्थितद्वादशशतचतु: पष्टिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पुष्करवर समुद्र में बत्तिस वलय ज्योतिषी सुर के।
प्रथम वलय में पच्चीस सौ अट्ठाइस सूरज चमकें।।
ब्यासी सहस आठ सौ अस्सी सभी वलय के मानें।
इनके ज्िान मंदिर को पूजूँ ये सब अघ तम हाने।।७।।
ॐ ह्रीं पुष्करवरसमुद्रस्थद्वयशीतिसहस्रअष्टशताशीतिसूर्यविमानस्थितएतावत् जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्वीप वारुणीवर चौथे में प्रथम वलय में दूने।
चउ चउ बढ़ते चौंसठ वलयों तक सब रवि तम लूने१।।
आगे असंख्यात द्वीपोदधि तक ये बढ़ते जाते।
संख्यातीत सूर्य के जिनगृह पूजत निज पद पाते।।८।।
ॐ ह्रीं वारुणीवरद्वीपप्रभृतिस्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंतसंख्यातीतसूर्यविमानस्थित संख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जंबूद्वीपसे अंत स्वयंभूरमण वार्धि पर्यंते।
असंख्यात रवि के विमान हैं मध्य लोक पर्यंते।।
मनुज लोक में इक सौ बत्तिस सूर्य विमान चमकते।
सबके जिनमंदिर मैं पूजूँ ज्ञान ज्योति विलसंते।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपात्स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंतसंख्यातीतसूर्यविमानस्थितसंख्यातीत जिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मनुज लोक के रवि के जिनगृह इक सौ बत्तिस वंदूँ।
सबमें इकसौ आठ-आठ जिन प्रतिमा शत शत वंदूँ।।
चौदह हजार दो सौ छप्पन ये जिनप्रतिमा गिनने।
सब रवि जिनगृह की जिनप्रतिमा संख्यातीत सुनमनें।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपात्स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंतसंख्यातीतसूर्यविमानस्थितसंख्यातीत जिनालयमध्यविराजमानसंख्यातीतजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
सूर्य बिंब जो दिख रहे, देव विमान विशाल।
इनमें श्री जिनभवन को, नमूँ नमूँ त्रयकाल।।१।।
जय जय जय रवि विमान के मधि, जिनमंदिर शाश्वत सुंदर हैं।
जय जय जय मणिमय अकृत्रिम, जिनप्रतिमा भव्य हितंकर हैं।।
जय जय पद्मासन जिन प्रतिमा, नासाग्रदृष्टि छवि सौम्य धरें।।
जय जय जिनवर सम जिनप्रतिमा, वंदत ही आतम सौख्य भरें।।२।।
ये रवि विमान पृथिवी कायिक, चमकीलि धातु से बने हुये।
जो आतप नाम कर्म वाले, वे जीवकाय ले जनम लिये।।
इनकी किरणें बस उष्ण रहें, नहिं मूल में किंचित् गर्मी है।
ये लगभग तीन सहस१ इकसौ सैंतालिस मील के विस्तृत हैं।।३।।
मोटाई इससे आधी है, समतल में नगर बसा सुंदर।
मधि तुंग कूट पर जिनमंदिर, वंदन करते गणधर मुनिवर।।
मंदिर के चारों तरफ महल, उनमें भास्वान प्रतीन्द्र रहें।
उनके सामानिक आत्म रक्ष, प्राकीर्णकादि सब देव रहें।।४।।
मुखदेवी द्युतिश्रुति प्रभंकरा, सूर्य प्रभा अर्चिमालिनी हैं।
प्रत्येक के चउ चउ सहस प्रमित, परिवार देवियाँ मानी हैं।।
रवि देव की आयू एक पल्य, इक सहस वर्ष की होती है।
देवी की आयु निज पति की, आयु से आधी होती है।।५।।
ये रविविमान इक मिनट में हि, बहु दूर गमन कर लेते हैं।
चउ लख सैंतालिस हजार छह सौ तेइस मील चल लेते हैं।।
इस जंबूद्वीप में दो सूरज, इक यहां द्वितिय ऐरावत में।
ये दोनों मेरु परिक्रम दें, पहुँचे विदेह तब रात्रि बनें।।६।।
जब सूर्य प्रथम गलि में आता, जब नगर अयोध्या के चक्री।
निजगृह की छत से रविविमान, जिनबिंब दर्श करते चक्री।।
सैंतालिससहस१ दो सौ त्रेसठ योजन कुछ अधिक नेत्र विषया।
इतनी दूरी से चक्रवर्ति, जिन दर्श करें हर्षित हृदया।।७।।
जो रवि के जिनमंदिर वंदे, उनके भवताप शांत होते।
वे रवि सम चमकें त्रिभुवन में, अतिशय सुख कीर्ति कांत होते।।
अज्ञान तिमिर की दूर भगा, निज आत्म सूर्य को पा लेते।
निज ‘ज्ञानमती’ शुभ ज्योती से, त्रिभुवन में प्रकाश छा देते।।८।।
सूर्य विमान असंख्य में, जिनवर धाम महान्।
कोटि कोटि वंदन करूँ, बनूँ पूर्ण धनवान्।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके सूर्यविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।