सौधर्म अरु ऐशान में सब साठ लाख विमान हैं।
सबमें जिनेश्वर धाम अनुपम सासते अभिराम हैं।।
प्रत्येक में जिनबिंब इक सौ आठ-आठ विराजते।
पूजूँ यहाँ आह्वान कर ये स्वात्मसिद्धि करावते।।१।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनलायजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनलायजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनलायजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
जिन पद में धारा हेतु, शीतल नीर भरूँ।
निज आतम पावन हेतु, जल से धार करूँ।।
शाश्वत श्रीजिनवर धाम, जिनवर बिंब सही।
मैं पूजूँ विश्व ललाम, पाऊँ मोक्ष मही।।१।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनपद में चच्रन हेतु, गंध सुगंध लिया।
निज आतम अनुभव हेतु, आप चढ़ाय दिया।।शाश्वत.।।२।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
तंदुल मोतीसम श्वेत, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज गुण अखंड के हेतु, भक्ति बढ़ाऊँ मैं।।शाश्वत.।।३।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षfिवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु चरण कमल सुख कंद, पुष्प चढ़ाऊँ मैं।
निज में ही परमानंद, सौख्य बढ़ाऊँ मैं।।शाश्वत.।।४।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु क्षुधा तृषा से दूर, खीर चढ़ाऊँ मैं।
प्रभु मिले साम्यरस पूर, भूख नशाऊँ मैं।।शाश्वत.।।५।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु लोकालाक विलोक, ज्ञान प्रकाश भरे।
मैं पाऊँ निज आलोक, दीप प्रजाल करें।।शाश्वत.।।६।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु गुण अनंत की गंध, पैली त्रिभुवन में।
मिल जावे आत्म सुगंध, धूप सु खेऊँ मैं।।शाश्वत.।।७।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
मैं गया बहुत के पास, बहुफल आश लिये।
अब पूरो शिव फल आश, सुफल चढ़ाय दिये।।शाश्वत.।।८।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु अर्घ चढ़ाऊँ आज, फल अनमोल मिले।
मिल जावे निज साम्राज्य, मन की कली खिले।।शाश्वत.।।९।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानकल्पयुगलषष्टिलक्षवमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनवर पद अरविंद में, धारा तीन करंत।
त्रिभुवन में भी शांति हो, निज गुणमणि विलसंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिनवर चरण सरोज में, सुरभित कुसुम धरंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निज गुण मणि विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
इंद्रक श्रेणीबद्ध, तथा प्रकीर्ण विमान हैं।
सब में जिनवर सद्म, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘ऋतु’ नामक है पहला इंद्रक, इसके चारों दिश में।
बासठ बासठ विमान श्रेणीबद्ध नाम प्रति दिश में।।
पहला इदं्रक पैंतालिस लख योजन विस्तृत सुंदर।
श्रेणीबद्ध असंख्ये योजन पूजूँ जिन गृह सुंदर।।१।।
ॐ ह्रीं ऋतुइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्द्वाषष्टिद्वाषष्टिश्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘विमल’ नाम इंद्रक विमान के चारों दिश में गिनिये।
इकसठ इकसठ विमान श्रेणीबद्ध नाम से भणिये।।
इन सबमें जिनमंदिर शाश्वत रत्नमयी जिन प्रतिमा।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर रुचि से पाऊँ सौख्य अनुपमा।।२।।
ॐ ह्रीं विमलनामइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक् एकषष्टिएकषष्टिश्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘चंद्र’ विमान चतुर्दिश श्रेणीबद्ध विमाना।
साठ साठ ये शाश्वत सुंदर असंख्य योजन माना।।इन.।।३।।
ॐ ह्रीं चंद्रनामइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्षष्टिषष्टिश्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘वल्गु’ विमान चतुर्दिश श्रेणीबद्ध बने हैं।
उनसठ उनसठ चारों दिशमें असंख्य योजन में हैं।।इन.।।४।।
ॐ ह्रीं वल्गुइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्एकोनषष्टिएकोनषष्टिश्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘वीर’ नाम के चहुंदिश श्रेणीबद्ध विमाना।
अट्ठावन अट्ठावन मानें असंख्य योजन माना।।इन.।।५।।
ॐ ह्रीं वीरइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्अष्टपंचाशत्अष्टपंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘अरुण’ विमान चतुर्दिक, श्रेणीबद्ध बने हैं।
सत्तवन-सत्तावन शाश्वत उनमें देव घने हैं।।इन.।।६।।
ॐ ह्रीं अरुणइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्सप्तपंचाशत्सप्तपंचाशत्श्रेणीबद्धविमान—स्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘नंदन’ इंद्रक उसके चारों दिश में श्रेणीबद्धा।
छप्पन छप्पन विमान शोभें देव रहे उन मध्या।।इन.।।७।।
ॐ ह्रीं नंदकइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्षट्पंचाशत्षट्पंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंंद्रक ‘नलिन’ विमान स्वर्ग में इक इक के ऊपर ये।
श्रेणीबद्ध कहें चहुँदिश में पचपन पचपन हैं ये।।इन.।।८।।
ॐ ह्रीं नलिनइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्पंचपंचाशत्पंचपंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘कंचन’ इंद्रक अतिशय सुंदर, इसके चारों दिश में।
चौवन चौवन विमान श्रेणीबद्ध कहें स्वर्गन में।।इन.।।९।।
ॐ ह्रीं कंचनइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्चतु:पंचाशत्चतु:पंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘रोहित’ सुरमन हारी, इसके चारों दिश में।
त्रेपन त्रेपन श्रेणी बद्धे, विमान सोहें दिव में।।इन.।।१०।।
ॐ ह्रीं रोहितइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्त्रिपंचाशत्त्रिपंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘चंचत्’ इंद्रक अतिशय सुंंदर, इसके चारों दिश में।
बावन बावन श्रेणी बद्धे, विमान सोहें दिव में।।
इन सबमें जिनमंदिर शाश्वत रत्नमयी जिन प्रतिमा।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर रुचि से पाऊँ सौख्य अनुपमा।।११।।
ॐ ह्रीं चंचत्इंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्द्विपंचाशत्द्विपंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘मरुत्’ मणीमय शाश्वत, इसके चारों दिश में।
इक्यावन इक्यावन सोहें देव विमान अधर में।।इन.।।१२।।
ॐ ह्रीं मरुत्इंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्एकपंचाशत्एकपंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक है ‘ऋद्धीश’ अकृत्रिम, इसके चारों दिश में।
सुरविमान पच्चास पचासहिं श्रेणी बद्ध अधर में।।इन.।।१३।।
ॐ ह्रीं ऋद्धीशइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्पंचाशत्पंचाशत्श्रेणीबद्धविमानस्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर इंद्रकं ‘वैडूर्य’ रत्नमय, शाश्वत के चहुँदिश में।
श्रेणी बद्ध रहें उनचासे, उनचासहिं स्वर्गों में।।इन.।।१४।।
ॐ ह्रीं वैडूर्यइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्एकोनपंचाशत्एकोनपंचाशत्श्रेणीबद्धविमान स्थित जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘रुचक’ रुचे सुरगण को, इसके चारों दिश में।
अड़तालिस अड़तालिस श्रेणी बद्ध विमान अधर में।।इन.।।१५।।
ॐ ह्रीं रुचकइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्अष्टचत्वािंरशत्अष्टचत्वािंरशत्श्रेणीबद्ध—विमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘रुचिर’ रुचे इंद्रों को, इसके चारों दिश में।
सैतालिस सैंतालिस सुंदर श्रेणी बद्ध गगन में।।इन.।।१६।।
ॐ ह्रीं रुचिरइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्सप्तचत्वािंरशत्सप्तचत्वािंरशत्श्रेणीबद्ध—विमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
है ‘अंक’ इंद्रक मध्य में, इसके चतुर्दिश शोभते।
छ्यालीस छ्यालीस श्रेणी बद्ध, विमान दिव मन मोहते।।
इनमें जिनेश्वर धाम शाश्वत, इंद्र मिल पूजा करें।
गणधर गुरु भी वंदते, हम भक्ति से पूजा करें।।१७।।
ॐ ह्रीं अंकइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्षट्चत्वािंरशत्षट्चत्वािंरशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘स्फटिक’ इंद्रक रत्नमय, इसके चतुर्दिश अधर में।
पैंतालिसे पैंतालिसे, सुविमान श्रेणी बद्ध में।।इन.।।१८।।
ॐ ह्रीं स्फटिकइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्पंचचत्वािंरशत्पंचचत्वािंरशत्श्रेणीबद्ध—विमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तपनीय इंद्रक अकृत्रिम, इसके चतुर्दिश स्वर्ग में।
चौवालिसे चौवालिसे, सुविमान श्रेणी बद्ध में।।इन.।।१९।।
ॐ ह्रीं तपनीयइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्चतुश्चत्वािंरशत् चतुश्चत्वािंरशत्श्रेणी बद्धविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर ‘मेघ’ इंद्रक रम्य है, इसके चतुर्दिश स्वर्ग में।
तेतालिसे तेतालिसे, सुविमान श्रेणी बद्ध में।।इन.।।२०।।
ॐ ह्रीं मेघइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्त्रिचत्वािंरशत्त्रिचत्वािंरशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक सु ‘अभ्र’ विमान शाश्वत, स्वर्ग में सुरगण रहें।
ब्यालीस ब्यालिस श्रेणीबद्धे, चार दिश में दिख रहें।।इन.।।२१।।
ॐ ह्रीं अभ्रइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्द्विचत्वािंरशत्द्विचत्वािंरशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘हारिद्र’ इंद्रक रत्नमय के, चार दिश में शोभते।
इकतालिसे इकतालिसे, सुविमान सुरमन मोहते।।इन.।।२२।।
ॐ ह्रीं हारिद्रइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्एकचत्वािंरशत्एकचत्वािंरशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक अकृत्रिम ‘पद्ममाल’, विमान के चारों दिशी।
चालीस चालिस श्रेणीबद्धे, शोभते दिन अरु निशी।
इनमें जिनेश्वर धाम शाश्वत, इंद्र मिल पूजा करें।
गणधर गुरु भी वंदते, हम भक्ति से पूजा करें।।१७।।
ॐ ह्रीं पद्ममालइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्चत्वािंरशत्चत्वािंरशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘लोहित’ सु इंद्रक अकृत्रिम के, चार दिश सुरगण बसें।
उनचालिसे उनचालिसे, सुविमान श्रेणी से लसें।।इन.।।२४।।
ॐ ह्रीं लोहितइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्एकोनचत्वािंरशत्एकोन चत्वािंरशत्श्रेणी बद्धविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर ‘वङ्का’ इंद्रक रत्नमय के, चार दिश सुविमान हैं।
अड़तीस अड़तीस श्रेणीबद्धों, में सुरों के थान हैं।।इन.।।२५।।
ॐ ह्रीं वङ्काइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्अष्टिंत्रशत्अष्टिंत्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक सु ‘नंद्यावर्त’ में, इंद्रादिगण्सा के वास हैं।
सैंतीस सैंतीस श्रेणीबद्ध, विमान देव निवास हैं।।इन.।।२६।।
ॐ ह्रीं नंद्यावर्तइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्सप्तिंत्रशत्सप्तिंत्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इंद्रक ‘प्रभंकर’ अकृत्रिम के, चार दिश सुविमान हैं।
छत्तीस छत्तीस श्रेणी बद्ध सुरेन्द्र गण के थान हैं।।इन.।।२७।।
ॐ ह्रीं प्रभ्करइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्षट्िंत्रशत्षट्त्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पृष्टक’ सु इंद्रक रत्नमय के, चार दिश सुरगण बसें।
पैंतीस पैंतिस श्रेणिबद्ध, विमान इनके शुभ लसें।।इन.।।२८।।
ॐ ह्रीं पृष्टकइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्पंचिंत्रशत्पंचिंत्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘गज’ नाम इंद्रक सासता के, चार दिश सुविमान हैं।
चौतींस चौतिंस श्रेणीबद्ध, सुदेव देवी स्थान हैं।।इन.।।२९।।
ॐ ह्रीं गजइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्चतुिंस्त्रशत्चतुिंस्त्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर ‘मित्र’ इंद्रक मध्य में, इस चार दिश सुविमान हैं।
तेतीस तेतिस श्रेणिबद्ध, असंख्य योजन मान हैं।।इन.।।३०।।
ॐ ह्रीं मित्रइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्त्रयिंस्त्रशत्त्रयिंस्त्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘प्रभ’ नाम इंद्रक मध्य में, इस चार दिश सुविमान हैं।
बत्तीस बत्तिस श्रेणी बद्ध, असंख्य योजन मान हैं।।
दक्षिणदिशी अट्ठारहवें में, सौधर्म इंद्र निवास हैं।
उत्तरदिशी अट्ठारवें में, ईशान इंद्र निवास है।।
इंद्रक श्रेणीबद्ध में, इंद्रों के सुविमान।
इनमें जिनवर धाम को, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।३१।।
ॐ ह्रीं प्रभनामकइंद्रकविमानतच्चतुर्दिक्द्वािंत्रशत्द्वािंत्रशत्श्रेणीबद्धविमान स्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रकीर्णकविमान चैत्यालय अर्घ्य-शंभु छंद
इकतिस लख पंचानवे हजार, पाँच सौ अट्ठानवे कहें।
सौधर्म कल्प में ये विमान, प्रकीर्णक नाम प्रसिद्ध गहें।।
इनमें छहलख चालीस सहस संख्याते योजन प्रमाण के।
बाकी के असंख्यात योजन, सबमें जिन गृह वंदूँ रुचि से।।३३।।
ॐ ह्रीं सौधर्मस्वर्गसंबंधिएकिंत्रशत्लक्षपंचनवतिसहस्रपंचशतअष्टनवतिप्रमाण प्रकीर्णकविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सत्ताइस लाख अट्ठानवे हजार, पाँच सौ तेतालिस माने।
ईशान स्वर्ग में ये विमान, सु प्रकीर्णक से जाते जाने।।
ये पाँचलाख अरु साठ सहस, संख्यात योजने विस्तृत हैं।
बाकी के असंख्यात योजन, सब में जिनगृह को वंदन है।।३४।।
ॐ ह्रीं ईशानस्वर्गसंबंधिसप्तिंवशतिलक्षअष्टनवतिसहस्रपंचशतत्रिचत्वारिंशत्—प्रमाण प्रकीर्णकविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सौधर्म इंद्र के भवन अग्र, न्यग्रोध वृक्ष अतिशय ऊँचे।
ये पृथिवीकायिक रत्नमयी, हैं चैत्य वृक्ष अतिशय शोभें।।
इन वृक्ष मूल में चारों दिश, जिन प्रतिमा एक एक सोहें।
गणधर मुनिगण भी नित वंदे, मैं पूजूँ ये सुरमन मोहें।।३५।।
ॐ ह्रीं सौधर्मइंद्रभवनसन्मुखस्थितन्यग्रोधचैत्यवृक्षचतुर्दिकचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
ईशान इंद्र के भवन अग्र, न्यगा्रेध चैत्यतरु शोभ रहा।
मरकतमकणिमय पत्ते सुंदर कोंपल फूलों से शोभ रहा।।
इस मूल भाग में चारों दिश, जिन प्रतिमायें पद्मासन हैं।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर के, ये आत्म कमल विकसावन हैं।।३६।
ॐ ह्रीं ईशानइंद्रभवनसन्मुखस्थितन्यग्रोधचैत्यवृक्षचतुर्दिकचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अट्ठारवें श्रेणी विमान में, सौधर्म इंद्र का नगर बना।
चौरासी हजार योजन यह, पण वेदी से चहुँओर घना।
अतिदूर दिशाक्रम से अशोक, सप्तच्छद चंपक आम्र वनी।
चारों में चैत्य वृक्ष सुंदर जिनप्रतिमा पूजूँ भक्ति घनी।।३७।।
ॐ ह्रीं सौधर्मइंद्रनगरसंबंधिचतुर्दिंकचतुर्वनस्थितचतुश्चैत्यवृक्षमूलभागविराजमान चतुश्चतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इकतीसवें इंद्रक के उत्तर, श्रेणी अठारवें विमान में।
ईशान इंद्र का नगर सु अस्सी, हजार योजन है उसमें।।
चौतरफी पाँच वेदियाँ हैं, अतिदूर चार दिशि चउ वन हैं।
इनके शुभ चार चैत्यद्रुम में, जिन प्रतिमायें सुर वंदित हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं ईशनइंद्रनगरसंबंधिचतुर्दिंकचतुर्वनस्थितचतुश्चैत्यवृक्षमूलभागविराजमान चतुश्चतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सौधर्म इंद्र के ऋतु आदिक, इकतीसों इंद्रक विमान हैं।
पूरब पश्चिम दक्षिण दिश के, सब श्रेणीबद्ध इन्हीं के हैं।।
नैऋत्य अग्नि दिश प्रकीर्ण के, ये सब सौधर्म इंद के हैं।
ये इकतिस लख पंचानवे सहस पाँच सौ अट्ठानवे कहें।।
चार हजार व तीन सौ इकहत्तर परिणाम।
श्रेणीबद्ध कहे नमूँ, जिनगृह सबके मान्य।।१।।
ॐ ह्रीं सौधर्मकल्पस्थितएकत्रिंशत् इन्द्रकविमानचतु:सहस्रिंत्रशत्एकसप्ततिश्रेणी बद्धविमानएकिंत्रशल्लक्षपंचनवतिसहस्रपंचशतअष्टनवतिप्रकीर्णकविमानस्थित सर्वजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
उत्तरदिश के सब श्रेणिबद्ध, वायव्य ईशान के प्राकीर्णक।
चौदह सौ सत्तावन श्रेणी के, विमान पुनरपि प्राकीर्णक।।
सत्ताइस लख अट्ठानवे हजार पाँचसौ तेतालिस।
ये सब ईशान इंद्र के हैं, इन सबके जिनगृह वंदूँ नित।।
ये ईशान सुइंद्र के, श्रेणी बद्ध प्रकीर्ण।
इनके जिनगृह नित नमूँ, करूँ सर्व दुख क्षीण।।२।।
ॐ ह्रीं ईशानकल्पस्थितचतुर्दशशतसप्तपंचशतश्रेणीबद्धविमानसप्तिंवशतिलक्ष अष्टनवतिसहस्रपंचशतत्रिचत्वारिंशत्तिप्रकीर्णकविमानस्थितसर्वजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सौधर्मैशान के जिन मंदिर, शाश्वत मणिरत्नों से निर्मित।
जिन प्रतिमा इकसौ आठ-आठ, अकृत्रिम मणि रत्नों निर्मित।।
चौंसठ करोड़ अस्सी सुलक्ष, जिन प्रतिमाओं को नित वंदूँ।
निज आतम अनुभव प्राप्त हेतु, शत शत वंदूँ शत शत वंदूँ।।३।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानयुगलस्वर्गस्थितषष्टिलक्षविमानसंबंधिप्रतिजिनालयविराजमान चतु:षष्टिकोटिअशीतिलक्षजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय सौधर्म स्वर्ग के सब, जिनमंदिर बत्तिस लाख नमूँ।
जय जय ऐशान स्वर्ग के सब, जिनगृह अट्ठाइस लाख नमूँ।।
जय जय शाश्वत जिनप्रतिमायें, जय चैत्य वृक्ष जिन प्रतिमायें।
जय जय मानस्तंभों की प्रतिमा, जय जय जिनवर की प्रतिमायें।।१।।
सौधर्म इंद्र ईशान इंद्र, इनके एकेक प्रतीन्द्र कहें।
चौरासी सहस सौधर्म सुरेश्वर के सामानिक देव रहें।।
तेतिस ही त्रायस्ंत्रशदेव, हैं लोकपाल बस चार कहें।
त्रयलाख सुछत्तिससहस आत्मरक्षक सुरपति का विभव कहें।।२।।
बारह चौदह सोलह हजार, क्रम से त्रय पारिषद सुर हैं।
सब सात कोटि छ्यालिस लाख छीयत्तर सहस अनीक सुर हैं।।
प्राकीर्णक आभियोग्य किल्विषका देव असंख्य बताये हैं।
इक लाख साठ हज्जार देवियाँ, विक्रिय बहुत बनाये हैं।।३।।
सत्ताइस कोटि देवियाँ हैं, कोई आचार्य बताते हैं।
सह सम्यक्तप का ही फल है, ऐसा जिन आगम गाते हैं।।
मुख्या देवी हैं आठ शची, पद्मा व शिवा श्यामा नामा।
कालिंदी सुलसा तथा अंजुका, भानु देवि से शुभ नामा।।४।।
सौधर्म इंद्र की वर आयु, दो सागर के कुछ अधिक रहे।
इंद्राणी की है पाँच पल्य, शचि इक भव धर के मोक्ष लहे।।
इक सुरपति की चालीस नील, परिमाण शची शिव पा लेतीं।
तब इंद्र मनुज हो शिव पावे, यह आयु सागरोपम सेती।।५।।
है ऊर्ध्व लोक सात राजू, सौधर्म ईशान डेढ़ राजू।
बस एक लाख चालिस योजन, यह मध्यलोक सो१ कम राजू।।
मेरु पर्वत से बाल मात्र का, अंतर ऋजु विमान में है।
यह मध्यलोक की ऊँचाई, इस ऊर्ध्व लोक से ही ली है।।६।।
ये सब विमान हैं पाँच वर्ण, घन उदकं के आधर रहें।
सौधर्म इंद्र का मुकुट चिन्ह, वाराह२ ईशान का हरिण कहें।।
सौधर्म इंद्र का आभियोग्य, बालक सुर ऐरावत बनता।
जिन जन्म ज्ञान कल्याणक में, सुरपति उसपे चढ़कर चलता।।७।।
यह एक१ लाख योजन विस्तृत, इसके बत्तिस मुख होते हैं।
ये दिव्य रत्नमालाओं से, किंकिणि से रुन झुन करते हैं।।
एकेक मुखों के चार दांत, उनपर जल भरे सरोवर हैं।
एकेक सरों में कमलवनी, विकसित कमलों से शोभें हैं।।८।।
एकक कमल खंड में बत्तिस बत्तिस महाकमल खिले शोभें।
इक इक योजन के महाकमल, ये कनकमयी सुरभित शोभें।।
एकेक कमल पर एक एक, शुभ नाटकशालायें सुंदर।
एकेक नाट्यशाला में बत्तिस अप्सरियां नाचें सुंदर२।।९।।
सौधर्म इंद्र का यह वैभव, कुछ कम ईशान इंद्र का है।
इन देव देवि का उपपादिक, शय्या से जन्म सु होता है।।
छह लाख प्रथम दिव में विमान, ईशान स्वर्ग में चार लाख।
इनमें केलव देवी जन्में३, ऊपर ले जाते देव आप।।१०।।
बाकी के यहाँ विमानों सब, देव देवियां भी जन्में।
ये अंतर्मुहूर्त में ही तनु, सोलह वर्षीय लहें उनमें।।
वहाँ जन्मत ही घंटा बजते, सब परिकर देव चले आते।
जय जय कोलाहल ध्वनि करते, आनंद महोत्सव करवाते।।११।।
ये इंद्र जन्मते ही अवधी, पाते द्रह में स्नान करें।
तत्क्षण ही मंगल वस्त्र पहिन, जिनमंदिर आते भक्ति भरे।।
सम्यग्दृष्टि अतिशय भक्ती, करके क्षीरोदधि जल लाते।
वर एक हजार आठ कलशों से, जिन का न्हवन करें गाते।।१२।।
जो कोई मिथ्यादृष्टि देव, वे भी जिनदर्शन करते हैं।
‘कुलदेव’ मान कर भक्ति करे, जिनवर चरणों में नमते हैं।।
सौधर्म इंद्र सम त्रिभुवन में, नहिं जिनभक्ती कोई कर सकते।
तीर्थंकर प्रभु का ककर यह, प्रभु आज्ञा को नित शिर धरते।।१३।।
जिन भक्ती गंगा महानदी, सब कर्म मलों को धो देती।
मुनिगण का मन पवित्र करके, तत्क्षण शिव सुख भी दे देती।।
सुर नर के लिये काम धेनु, सब इच्छित फल को फलती है।
मेरे भी ‘ज्ञानमती’ सुख को, पूरण में समरथ बनती है।।१४।।
जय जय जय जिनवर भवन, जय जय जय जिनरूप।
नमूँ अनंतों बार मैं, मिले चिदानंदरूप।।
ॐ ह्रीं सौधर्मैशानस्वर्गसंबंधिषष्टिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।