श्री सिद्धशिला नरलोक मात्र पैंतालिस लाख सुयोजन है।
त्रैलोक्य शिखर पर अष्टम भू, पर रुक्मी१ अर्ध चंद्र सम है।।
श्री सिद्ध अनंतानंत इसी पर तिष्ठें अष्ट गुणान्वित हैं।
आह्वानन कर इनको पूजूँ, ये देते सौख्य अपरिमित हैं।।१।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
श्री सिद्ध सुयशसम उज्ज्वल जल, लेकर झारी भर लाया हूँ।
निज समरस सुख पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूूँ।।
श्रीसिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्ध शिला पर शीघ्र बसूँ।।१।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों सम अतिशीतल, चंदन घिसकर के आया हूूं।
निज की शीतलता पाने को, प्रभू चरण चढ़ाने आया हूूँ।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध सौख्य सम खंड रहित, उज्ज्वल तंदुल ले आया हूँ।
जिन आत्म सौख्य पाने हेतु, प्रभु पुंज चढ़ाने आया हूूँ।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्धगुणों सम अति सुगंध, पुष्पों को चुनकर लाया हूूँ।
निज गुण सुगंधि पाने हेतू, प्रभु चरणों पुष्प चढ़ाया हूूँ।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध पुष्टि सम नानाविध, पकवान बनाकर लाया हूँ।
निज आत्म तृप्ति पाने हेतु, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूूँ।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध ज्ञान सम ज्योतिर्मय, कर्पूर जलाकर लाया हूँ।
निज ज्ञानज्योति पाने हेतु, मैं आरति करने आया हूँ।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों की सुरभि सदृश, वर धूप सुगंधित लाया हूँ।
निज आत्म सुरभि पाने हेतु, अग्नी में धूप जलाया हूँ।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध सुखामृत सदृश मधुर, रसभरे बहुत फल लाया हूँ।
निज मोक्ष सुफल हेतू भगवन्! फल आज चढ़ाने आया हूँ।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों के सम अनर्घ, यह अर्घ सजाकर लाया हूूँ।
निज तीन रत्न पाने हेतु, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूूँ।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सिद्धशिला पर आज, मन से जल धारा करूँ।
पूर्ण शांति साम्राज्य, मिले त्रिजग में शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सिद्ध शिला पर आज, पुष्पांजलि मन से करूँ।
मिले सिद्धि साम्राज्य, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सिद्ध शिला को पूजते, सर्व कार्य हों सिद्ध।
पुष्पांजलि कर पूजते, हों प्रसन्न सब सिद्ध।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
इस जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र, में कर्म भोग भू आदिक हैं।
निज इच्छा से उपसर्गादिक, से सिद्ध हुये मुनि आदिक हैं।।
जिस जिस थल से निर्वाण गये, बस वहीं शिला पर पहुँच गये।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं, मेरे सब वांछित सिद्ध भये।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिकर्मभूमिभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस द्वीप में सत्रह लाख बानवे, हजार नब्बे नदियां हैं।
ये शाश्वत हैं कृत्रिम उपसागर, सरवर आदिक नदियाँ हैं।।
इन नदियों से उपसर्ग आदि से बहुत मुनीश्वर मुक्त हुये।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं मेरे सब इच्छित पूर्ण हुये।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिअकृत्रिमनंदीकृतिमउपसागरनदीसरोवरतडागादिजल—स्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस जंबूद्वीप में मेरु आदि त्रय शत ग्यारह पर्वत मानों।
ये शाश्वत हैं कृत्रिम बहुते सम्मेदशिखर आदिक जानों।।
इनसे इन मध्य गुफाओं से मेरु की मध्य गुफा से भी।
वृक्षादिक से जो सिद्ध हुये इन नभ सिद्धों को जजूँ अभी।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिअकृत्रिमसुमेर्वादिपर्वतकृत्रिमसम्मेदशिखरादिपर्वतेभ्य: सिद्ध पदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
लवणोदधि में लंकादि द्वीप कूभोगभूमि बहु स्थल हैं।
वहाँ से जो मुनिवर मुक्त हुये उपसर्ग व इच्छा के वश हैं।।
इन सब सिद्धों को पूजूँ नित ये भव दुख हरने वाले हैं।
ये स्थलसिद्ध अनंतें हैं ये सब सुख करने वाले हैं।।४।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिसंबंधिलंकादिद्वीपकुभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपद प्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्वीपों के नदी सरोवर से लवणोदधि के जल ऊपर से।
उपसग आदि के कारण से बहुते मुनिवर शिवपुर पहुँचे।।
इन सब सिद्धों को पूजूँ नित ये परमानंदाबुधि में न्हावें।
ये जल से सिद्ध अनंतें हैं इनको वंदत निज सुख पावें।।५।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिसंबंधिलंकादिद्वीपमध्यस्थितनदीसरोवरकूपतडागादिजलसमुद्र जलस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
लवणोदधि मध्य हंस आदिक लंकादि द्वीप में पर्वत हैं।
इन पर से सिद्ध हुये जो मुनि उपसर्ग आदि के कारण हैं।।
लवणोदधि वेदी ऊपर से या वहीं अन्य वृक्षादिक से।
जो सिद्ध हुये उनको पूजूँ जिससे निजात्म शक्ती प्रगटे।।६।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिसंबंधिलंकादिद्वीपस्थितत्रिकूटाचलादिपर्वतेभ्य: सिद्धपदप्राप्त सर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वरद्वीप धातकी खंड द्वितिय में कर्मभूमि अरु भोगभूमि।
वन उपवन की भूआदि स्थल से सिद्ध हुये पावनभूमी।।
तीर्थंकरगण मुनिगण बहुते सब कर्म काटकर मुक्त हुये।
उपसर्ग आदि से सब थल से उन पूजत सौख्य अनंत लिये।।७।।
ॐ ह्रीं धातकीखंडद्वीपसंबंधिकर्मभूमिभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपदप्राप्त सर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस द्वीप धातकी में कृत्रिम अकृत्रिम अगणित नदियाँ हैं।
सब आर्यखंड में उपसागर सरवर कूपादिक नदियाँ हैं।।
इन सबके जल के ऊपर से बहुतेक साधु गण मुक्ति गये।
चारण ऋद्धीधर या उपसर्ग आदि से हम उन जजत भये।।८।।
ॐ ह्रीं धातकीखंडद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमनदीउपसागरकूपतडागादिजल—स्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस धातकि में दो मेरु अन्य अगणित पर्वत कूटादिक हैं।
धात्री तरु शाल्मलितरु आदि बहुविध उपवन तरु आदिक हैं।।
इन नभस्थान से सिद्ध हुये ऋद्धीबल उपसर्गादिक से।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं आतमनिधि मिल जावे जिससे।।९।।
ॐ ह्रीं धातकीखंडद्वीपसंबंधिमेवादिपर्वतकृत्रिमपर्वतकृत्रिमअकृत्रिमवृक्षादिन भस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कालोदधि मध्य कुभोगभूमि से मागध आदि द्वीप थल से।
चारणऋशि या उपसर्ग आदि कारण से मुनि शिवपुर पहुँचे।।
वर द्वीप जलधि के वेदी के थल से भी जो मुनि सिद्ध हुये।
उन सब सिद्धों को पूजूं मैं ये मेरे सिद्धि निमित्त हुये।।१०।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंबंधिकुभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कालोदधि के जल से कुभोगभूमि के नदी सरोवर से।
चारण ऋषि मुनि या उपसर्गादिक से मुनिगण शिवपुर पहुंचे।।
इन जल से मुक्ति प्राप्त मुनि को मैं नितप्रति शीश झुकाता हूूं।
इन सब सिद्धों को अर्घ चढ़ाकर शिव की आश लगाता हूँ।।११।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंंबंधिकुलोगभूमिआदिमध्यस्थितनदीसरोवरसमुद्रजलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस सागर मध्य कुभोगभूमि मागध सुर आदि निवास बनें।
उनमें जो पर्वत कूट शिखर तरु आदि नभस्थल हों जितने।।
उन पर से जो मुनि सिद्ध हुये उन सबको वंदन करता हूँ।
सब इष्ट वियोग अनिष्ट योग टल जावे अर्चन करता हूूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंबंधिकुभोगभूमिमागधद्वीपादिमध्यस्थितपर्वतकूटवृक्षादि—स्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पुष्करवर द्वीप मध्य वलयाकृति मनुजोत्तर पर्वत सोहे।
इस परे मनुष नहिं जा सकते इस तक नरलोक चित्त मोहे।।
इसमें जो कर्मभूमि अरु भोगभूमि वन उपवन स्थल हैं।
उन सबमें सिद्ध हुये जिनवर मुनिगण उन सबको वंदन है।।१३।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपसंबंधिकर्मभूमिभोगभूमिवनउपवनवेदिकादिस्थलेभ्य: सिद्धपद प्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस पुष्करार्ध में गंगादिक अगणित अकृत्रिम नदियां हैं।
कृत्रिम सरवर कूपादि तथा उपसागर आदिक नदियां हैं।।
इन जल से चारण बल से या उपसर्ग आदि से सिद्ध हुये।
उन सबको पूजूँ अर्घ चढ़ा मेरे सब मनरथ सफल हुये।।१४।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमनदीसरोवरउपसागरकूपतडागादि—जलेभ्य: सिद्धपद प्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इस पुष्पकरार्ध में दो मेरु हिमवन आदिक बहुपर्वत हैं।
शाश्वत पर्वत कृत्रिम पर्वत इन गुफा कंदरा आदिक हैं।।
इन ऊपर से मुनि सिद्ध हुये पुष्कर शाल्मलि तरु आदिक से।
इन सब सिद्धों को पूजूँ मैं रत्नत्रय निधी मिले जिससे।।१५।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपसंबंधिमेर्वादिअकृत्रिमकृत्रिमपर्वततन्मध्यगुहादिवृक्षादि—स्थानेभ्य: सिद्धपद प्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
यह सिद्धशिला पैंतालिस लाख सुयोजन मनुज लोक प्रम है।
सर्वतत्र अनंतानंदत सद्धि से भरी अकृत्रिम अनुपम है।।
गणधर मुनिगण से वंद्य शिला इसको मेरा शत शत वंदन।
यह सिद्ध शिला जब तक न मिले, तब तक इसको शत शत वंदन।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितपंचचत्वािंरशल्लक्षयोजनप्रमाणसिद्धशिलायै अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इन ढाई द्वीप दो सागर तक पैंतालिस लाख सुयोजन है।
यह मनुज लोक इसमें ही मानव मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।।
इसमें थल जल पर्वत चोटी आदिक सब थल से सिद्ध हुये।
अणुमात्र जगह नहिं रिक्त यहाँ सब सिद्धों को मैं धरूँ हिये।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपद्विसमद्रमितमनुष्यलोकस्थितसर्वजलस्थलपर्वतवृक्षगुहा दिस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय त्रिलोक शिखर अग्र सिद्ध शिला है।
जय जय त्रिलोक शिखर अग्र मोक्ष इला१ है।।
जय जय अनंतानंत सिद्ध इसपे राजते।
जय जय त्रिकाल सिद्ध अनंत गुण से भासते।।१।।
सर्वार्थ सिद्धि इंद्रक के ध्वजादंड से।
बारह सुयोजनोपरि भू आठवीं लसे।।
यह पूर्व अपर दिश में सुएक राजू है।
उत्तर दखिन के कुछ कम यह सात राजु है।।२।।
योजन सुआठ मोटी वायूवलय घिरी।
घनउदधि घनवायु तनुवायु से घिरी।।
इस मध्य ‘ईषत्प्राग्भार’ नाम क्षेत्र है।
चांदी सुवर्ण रत्नपूर्ण सिद्धक्षेत्र है।।३।।
उत्तान धवल छत्र सदृश सिद्धशिला ये।
योजन सुपैंतालिसलाख सिद्धशिला ये।।
ये आठ योजन मध्य में फिर अंततक घटती।
नरलोक के प्रमाण है इस क्षेत्र की परिधी१।।४।।
यह अर्ध चंद्रसम त्रिलोक अग्रभाग में।
अनंत अनंत सिद्ध वहां राजते निज में।।
तीर्थेश होके सिद्ध अनंते वहाँ तिष्ठे।
तीर्थेश बिना सिद्ध अनंतानंत वहाँ पे।।५।।
जल थल व गगन से अनंत सिद्ध हुये हैं।
सामान्यकेवलि अंतकृत केवलि भि सिद्ध हैं।।
उत्कृष्ट पाँच सौ पचीस धनु शरीर से।
जघन्य साढ़े तीन हाथ देह मात्र से।।६।।
मध्यम अनके विधि की अवगाहना धरें।
ये सिद्ध हुये हम उन्हों को चित्त में धरें।।
जो उर्घ्व लोक अधोलोक तिर्यक लोक् से।
सब कर्म नाश सिद्ध हुये मर्त्यलोक से।।७।।
उत्सर्पिणि अवसर्पिणी के छहों काल से।
उपसर्ग निमित्त सिद्ध हुये नमूँ भाल से।।
उपसर्ग बिना सिद्ध चौथे काल से हुये।
इन पाँच भरत पांच ऐरावत से शिव गये।।८।।
दो ज्ञान त्रय व चार से वैâवल्य पायके।
जो सिद्ध हुये हैं अनंत सौख्य पायके।।
जो साधु संहरण से सिद्ध हो गये यहां।
बिन संहरण अनंत सिद्ध हो रहे यहां।।९।।
कुछ साधु समुद्घात सिद्ध हुये है।
कुछ केवली बिन समुद्घात सिद्ध हुये हैं।।
खड्गासनो से सिद्ध भी अनंत हुये हैं।
पद्मासनों से भी अनंत सिद्ध हुये हैं।।१०।।
सब्र द्रव्य से पुंवेदी ही सिद्ध हुये हैं।
हां भाव से त्रश्य वेद से भी सिद्ध हुये हैं।।
प्रत्येक बुद्ध स्वयंबुद्ध सिद्ध हुये हैं।
बोधित प्रबुद्ध भी अनंत सिद्ध हुये हैं।।११।।
सब आठ कर्म नाश करके सिद्ध हुये हैं।
वे इक सौ अड़तालीस प्रकृति नष्ट किये हैं।।
सब सिद्ध अंतिम देव से कुछ न्यून कहे हैं।
इस विध से अन्त्यदेह के आकार रहे हैंं।।१२।।
से सर्व सिद्ध गुण अनंतानंत धारते।
से सर्व सिद्ध सुख अनंतानंत धारते।।
से सर्व सिद्ध जन्म मरण शून्य हो गये।
ये सर्व सिद्ध ज्ञान गुण से पूर्ण हो गये।।१३।।
इन ढाई द्वीप से अनंत सिद्ध हुये हैं।
दो ही समुद्र से अनंत सिद्ध हुये हैं।।
नरलोक में सब एकसौ सत्तर हैं कर्मभू।
नइमें जनम के प्राप्त करें मनुज मुक्तिभू।।१४।।
नरलोक में अणुमात्र भी ना रिक्त थान है।
जहां से न हुये सिद्ध सब निर्वाण स्थान है।।
मेरु की चूलिका से भी सिद्ध हुये हैं।
वे मेरु की गुफा से ही सिद्ध हुये हैं।।१५।।
अनंतानंत सिद्धों की वंदना करूँ।
मैं नित अनंतानंत बार वंदना करूँ।।
श्री सिद्धशिला को नमूँ मैं भक्ति भाव से।
ये सिद्धशिला प्राप्त करूँ भक्ति भाव से।।१६।।
नमूँ सिद्ध परमात्मा, सिद्धशिला मुनिवंद्य।
‘ज्ञानमती’ गुण पूर्णकर, पाऊँ परमानंद।।१७।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनंतानंतसिद्धेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।