गिरि मेरु के उत्तर दिशी उत्तरकुुरू शोभे अहा।
उसमें सुदिक् ईशान के जंबूतरू राजे महा।।
दक्षिण दिशा में देवकुरु नैऋत्य कोण सुहावनी।
तरु शाल्मली शुभरत्नमय, सुन्दर दिखे शाखाघनी।।१।।
दोनों तरु की शाख पर, दो श्री जिनवर गेह।
आह्वानन कर मैं जजूँ, सदा हृदय धर नेह।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षसंबंधिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षसंबंधिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षसंबंधिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सुरगंगा को नीर सुरभि प्रासुक किया।
जिनपद धारा देय, सकल मल क्षय किया।।
जंबू-शाल्मलि वृक्ष, तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि घनसार सुकुंकुम गंध ले।
सिद्धनि के प्रतिबिंब, चरण को चर्च ले।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से धौत सुअक्षत मुक्ताफल समा।
पुुंज धरूँ जिनसन्मुख भक्ती अनुपमा।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही चमेली कमल केवड़ा फूल ले।
प्रभु के चरण चढ़ाऊँ भव के दुख टले।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।४।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सद्यजात१ घेवर बावर मोदक घने।
चरु की पूजा नित्य क्षुधा व्याधी हने।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।५।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप की ज्योति दशों दिश तम हरे।
अंतर भेद विज्ञान प्रगट हो भ्रम टरे।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।६।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप अगनि में खेय धूम दशदिश उड़े।
कर्म पुंज प्रज्वले सतत आनंद बढ़े।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।७।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु के परिपक्व सरस फल लाय के।
प्रभु की पूजा करूँ हरष गुण गाय के।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।८।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वारि सुचंदन अक्षत फूल चरू मिले।
दीप धूप शुचि उत्तम फल युत अर्घ्य ले।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहें शिव धाम को।।९।।
ॐ ह्रीं जम्बूशाल्मलिवृक्षजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देत, शांति करो सब लोक में।।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
जिनपद पंकज अर्प्य, यश सौरभ चहुँदिश भ्रमे।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जंबू शाल्मलि वृक्ष, तिनके जिनगृह को जजूँ।
पुष्पांजलि कर नित्य, जो पूजें सो शिव लहें।।१।।
इति जम्बूवृक्षशाल्मलिवृक्षस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘जंबूतरु’ की उत्तरी शाखा विषे जिनधाम है।
सब देव-देवी करें अर्चा, मैं जजूूँ इह थान है।।
वर नीर चंदन आदि वसुविध, द्रव्य थाली में लिया।
संसार रोग निवार स्वामी, अर्घ्य से पूजन किया।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिजम्बूवृक्षस्य उत्तरशाखायां जिनालयजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘द्रुम शाल्मलि’ की दक्षिणी, शाखा उपरि जिनगेह है।
योगी सदा ध्यातें उन्हें, हम भी जजें धर नेह है।।
वर नीर चंदन आदि वसुविध, द्रव्य थाली में लिया।
संसार रोग निवार स्वामी, अर्घ्य से पूजन किया।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिशाल्मलिवृक्षस्य दक्षिणशाखायां जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जंबू-शाल्मलि वृक्ष पर, दो जिनमंदिर सिद्ध।
पूर्ण अर्घ्य ले मैं जजूँ, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितसिद्धकूटजिनालयसर्व जिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो सौ सोलह जानिये, जिनप्रतिमा अभिराम।
नित प्रति अर्घ चढ़ाय के, शत-शत करूँ प्रणाम।।४।।
ॐ ह्रीं जम्बूवृक्षशाल्मलिवृक्षजिनालयमध्यविराजमानद्विशतषोडशजिन बिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रैलोक्यजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
तरु की शाखा मांहि, रत्नमयी जिनबिंब हैं।
तिन की यह जयमाल, भक्तिभाव से मैं पढ़ूँ।।१।।
जंबूतरु का स्वर्णिम स्थल, पाँच शतक योजन है।
इस थल का परकोटा कांचन-मयी मनो मोहन है।।
पीठ आठ योजन का ऊँचा, मध्य माहिं चाँदी का।
इस पर जंबूवृक्ष अकृत्रिम, पृथ्वीमय रत्नों का।।२।।
यह तरु तुंग आठ योजन है, वङ्कामयी जड़ जानो।
मणिमय तना हरित मोटाई, एक कोश परमानो।।
तरु की चार दिशाओं में हैं, चार महाशाखाएँ।
छह योजन की लंबी इतने, अंतर से लहराएँ।।३।।
मरकत कर्वेâतन मूँगा, कांचन के पत्ते उत्तम।
पाँच वर्ण रत्नों के अंकुर, फल अरु पुष्प अनूपम।।
इसमें फल जामुन सदृश हैं, कोमल चिकने दिखते।
रत्नमयी हैं फिर भी अद्भुत, पवन लगत ही हिलते।।४।।
उत्तर शाखा पर जिनमंदिर, सुरगृह त्रय शाखा पे।
सम्यक्त्वी आदर व अनादर, व्यंतर रहते उनपे।।
तरु को चारों तरफ घेर कर, बारह पद्म वेदियाँ।
उनके अंतराल में तरु की, परिकर वृक्ष पंक्तियाँ।।५।।
एक लाख चालिस हजार, इक सौ उन्नीस कहाएँ।
इन जंबू परिवार वृक्ष पर, सुर परिवार रहाएँ।।
मेरू की ईशान दिशा में, नीलाचल के दाएँ।
माल्यवन्त के पश्चिम में, सीता के पूर्व कहाएँ।।६।।
तरु स्थल के चारों तरफे, त्रय वन खंड कहाते।
फल-फूलों युत सुरमहलों युत, जल वापी युत भाते।।
इस द्रुम के जिन गृह में इक सौ, आठ जिनेश्वर प्रतिमा।
इसी तरह शाल्मली वृक्ष की, जानो सारी रचना।।७।।
शाल्मलि तरु के अधिपति व्यंतर, वेणु वेणुधारी हैं।
ये सुर सम्यक्त्वी जिनमत के, प्रेमी गुणधारी हैं।।
जितने जंबू शाल्मलि तरु हैं, उतने जिनमंदिर हैं।
क्योंकि सभी पर सुर रहते हैं, सबमें जिनमंदिर हैं।।८।।
दो चैत्यालय मुख्य अकृत्रिम, हैं स्वतंत्र दो तरु के।
उनकी अरु सब जिन प्रतिमा की, करूँ वंदना रुचि से।।
सुर किन्नरियाँ नित गुण गातीं, वीणा की लहरों से।
दर्शन करते नर्तन कीर्तन, करतीं भक्ति स्वरों से।।९।।
जय जय जिनप्रतिमा, अद्भुत महिमा, पढ़े सुने जो जयमाला।
जय ‘ज्ञानमती’ श्री, सिद्धिवधू प्रिय, सो नर पावे खुशहाला।।१०।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिजम्बूशाल्मलिवृक्षसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, त्रैलोक्य जिन पूजा करें।
सब रोग-शोक विनाश कर, भवसिंधु जल सूखा करें।।
चिंतामणी चिन्मूर्ति को, वे स्वयं में प्रगटित करें।
‘‘सुज्ञानमति’’ रविकिरण से, त्रिभुवन कमल विकसित करें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।