त्रिभुवनपति सन्मति सकल, विश्ववंद्य भगवान्।
जिनके वंदन से मिले, ऋद्धि सिद्धि सुखखान।।१।।
प्रथम सु जंबूद्वीप में, मेरु सुदर्शन नाम।
पूर्व धातकीखंड में, विजय मेरु सुखधाम।।२।।
अपरधातकीद्वीप में, अचल मेरु अचलेश।
पुष्करार्ध वर पूर्व में, मंदर मेरु नगेश।।३।।
पश्चिम पुष्कर अर्ध में, विद्युन्माली मेरु।
ढाई द्वीप विषे कहे, पावन पांचों मेरु।।४।।
सोलह सोलह जिनभवन, एक एक में जान।
पंचमेरु के ये सभी अस्सी जिनगृह मान।।५।।
भद्रसाल नंदन तथा वन सौमनस सुरम्य।
चौथा पांडुकवन कहा चारों वन अतिरम्य।।६।।
प्रतिवन के चारों दिशी, चार चार जिनगेह।
प्रतिजिनगृह एकांतरा से उपवास करेय।।७।।
चार चार उपवास पर, इक इक बेला जान।
इस विधि से उपवास सब, हो अस्सी परिमाण।।८।।
वन वन प्रति बेला किये, बेला होवे बीस।
पंच मेरु व्रत की कही, उत्तम विधी मुनीश।।९।।
यदि इतनी शक्ति नहीं, करो शक्ति अनुसार।
व्रत की उत्तम भावना, करे भवोदधि पार।।१०।।
व्रतपूर्ण हुये उद्यापन विधि, हेतू गुरु के सन्निध जाके।
आज्ञा ले आशिष ले करके, निज शक्ति समान करे आके।।
सुवरन चाँदी पाषाणादी, से सुन्दर मेरु बनवाओ।।११।।
यदि इतनी शक्ति नहीं हो तो, मेरु विधान पूजन करिये।
आचार्य निमंत्रण विधिवत् कर याजक की आज्ञा शिरधरिये।।
नानारंग चूर्णों से अथवा नाना विध रंगे चावलों से।
मंडल बनवाओ अति सुंदर, पाँचों मेरु चित्रित करके।।१२।।
तोरण ध्वज चंद्रोपक घंटा, ककिणियों छत्र चामरों से।
वसु मंगल द्रव्य कलश माला, पुष्पों कदली स्तंभों से।।
मंडल अत्यर्थ सजा उस पर, रजतादी के मेरु रखिये।
मंडल के मध्य सहासन पर, जिनमूर्ति स्थापित करिये।।१३।।
सकलीकरणादि विधी करके, इंद्रादि प्रतिष्ठा विधि करिये।
शास्त्रोक्तपूर्वविधि को करके, मंडल पूजा क्रम से करिये।।
इसविधव्रत का निष्ठापन कर, तुम यथा शक्ति दानादि करो।
चउ विध संघ की पूजा करके, पिच्छी शास्त्रादि प्रदान करो।।१४।।
पूजा पुस्तक या अन्य ग्रंथ, छपवाकर ज्ञानदान दीजे।
औषधि आहार अभय देकर, बहु पुण्य उपार्जित कर लीजे।।
जिन मंदिर में उपकरण दान, जीर्णोद्धारादिक भी करिये।
निजशक्ति के अनुरूप धर्म करके, भव भव का संकट हरिये।।१५।।
पंचमेरु व्रत जो करे, पंचकल्याणक पाय।
पंच परावृत नाशकर, पंचमगति को जाय।।
पुष्पांजिंल क्षिपेत्
श्रीपंचमेरुस्थजिनेन्द्रगेहान् , प्रणम्य बबानि च वीरनाथं।
तत्राभिषेकाप्तजिनाधिपांश्च, तान् पंचमेरुन् किल संस्तवीमि।।१।।
सुदर्शनगििंर स्तुवे विजयमेर्वचलमंदरान्।
सुविद्युदनुमालिभूमिभृदनाद्यनंतात्मकान्।।
सुरेन्द्रविहितातिशायिजिनजन्मकालोत्सवे।
सुधर्मवरतीर्थकृत्स्नपनवैश्च पूज्यानिमान्।।२।।
तीर्थंकरस्नपननीरपवित्रजात:,
तुंगोस्ति यस्त्रिभुवने निखिलाद्रितोपि।
देवेन्द्रदानवनरेन्द्रखगेन्द्रवंद्य:,
तं श्रीसुदर्शनगििंर सततं नमामि।।१।।
यो भद्रसालवननंदनसौमनस्यै:,
भातीह पांडुकवनेन च शाश्वतोपि।
चैत्यालयान् प्रतिवनं चतुरो विधत्ते,
तं श्रीसुदर्शनगििंर सततं नमामि।।२।।
जन्माभिषेकविधये जिनबालकानाम् ,
वंद्या: सदा यतिवरैरपि पांडुकाद्या:।
धत्ते विदिक्षु महनीयशिलाश्चतसृ:,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।३।।
योगीश्वरा: प्रतिदिनं विहरन्ति यत्र,
शान्त्यैषिण: समरसैकपिपासवश्च।
ते चरणर्द्धिसफलं खलु कुर्वतेऽत्र,
तं श्रीसुदर्शनगििंर सततं नमामि।।४।।
ये प्रीतितो गिरिवरं सततं नमन्ति,
वंदन्त एव च परोक्षमपीह भक्त्या।
ते प्राप्नुवंति किल ज्ञानमतीं श्रियं हि,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।५।।
पंचमेरुभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं, इमम्हि मज्झलोए अड्ढाइज्जदीवमज्झट्ठिदसव्वोच्चमंदरसेलेसु भद्दसालणंदणसोमणस—पांडुकवणेसु चउचउदिसासु असीदिजिणायदणाणं पांडुवणविदिसासु तित्थयरण्हवणपवित्तपांडुपहुदिसिलाणं जिण—जिणघरवंदणट्ठविहरमाणचार—णरिद्धिजुत्तरिसीणं च णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।