चिच्चैतन्य प्रकाशमय, चिदानंद भगवान।
शुद्ध सिद्ध परमात्मा, नमूँ नमूँ गुणखान।।१।।
तीर्थंकर अभिषेक से, पावन पूज्य प्रसिद्ध।
पंचमेरु हैं सासते, ढाई द्वीप में सिद्ध।।२।।
सोलह सोलह जिनभवन, एक एक में जान।
पंचमेरु के जिननिलय, हैं अस्सी परिमाण।।३।।
जिनवर बिंब विराजते, सबमें इक सौ आठ।
भक्तिभाव से नमत ही, होवे मंगल ठाठ।।४।।
पंचमेरु मंगलकरण, व्रतउद्यापन हेतु,
विधिवत् मैं अर्चा करूँ, श्रद्धा भक्ति समेत।।५।।
इति जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सुरनरवंदित पंचमेरु नरलोक में।
ऋषिगण जहं विचरण करते निज शोध में।।
दुषमकाल में वहाँ गमन की शक्ति ना।
पूजूँ भक्ति समेत यहीं कर थापना।।१।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बसमूह ! अत्र अवतर—अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सुरसरिता का जल स्वच्छ, बाहर मल धोवे।
जल से ही जिनपद पूज, अंतर्मल खोवे।।
पांचों सुरगिरि जिनगेह, जिनवर की प्रतिमा।
मैं पूजूँ भाव समेत, पाऊं निज महिमा।।१।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचनद्रव सम वर गंध, चंदन दाह हरे।
चंदन से जजत जिनेश, भव—भव दाह हरे।।पांचों.।।२।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिद्युति सम उज्ज्वल धौत, अक्षत थाल भरे।
अक्षय अखंड सुख हेतु, जिनढिग पुंज धरें।।पांचों.।।३।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हैं वकुल कमल कुसुमादि, सुरभित मन हारी।
भवविजयी जिनवरपाद, पूजत दु:खहारी।।पांचों.।।४।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत शर्करयुत पकवान, लेकर थाल भरें।
निजक्षुधा रोग की हान, हेतू यजन करें।।पांचों.।।५।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिमय दीपक कर्पूर, ज्योती तिमिर हरे।
प्रभु पद पूजत ही शीघ्र, ज्ञान उद्योत करे।।पांचों.।।६।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेवत अग्नी में।
कर अष्टकर्म चकचूर, पाऊँ निजसुख मैं।।पांचों।।७।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
दाड़िम केला अंगूर, उत्तम फल लाऊँ।
शिवफलहित फल से पूज, स्वातम निधि पाऊँ।।पांचों।।८।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वरधूप फलों से युक्त, अर्घ समर्पं किया।।पांचों।।९।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम शांति सुख हेतु, शांतीधारा मैं करूँ।
सकल जगत में शांति, सकल संघ में हो सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरिंसगार, पुष्प सुगंधित अर्पिते।
होवे सुख अमलान, दु:ख दारिद्र पलायते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य – ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
(लवंग या पुष्पों से ९ बार, २७ या १०८ बार करें)
परमानन्द जिनेंद्र की, शाश्वत मूर्ति अनूप।
परम सुखालय जिनभवन, नमूँ—नमूँ चिद्रूप।।१।।
मेरु सुदर्शन विजय अचल, मंदर विद्युन्माली जग में।
पूज्य पवित्र परमसुख दाता, अनुपम सुरपर्वत सच में।।
अहो अचेतन होकर भी ये, चेतन को सुख देते हैं।
दर्शन पूजन वंदन करते, भव—भव दुख हर लेते हैं।।२।।
अनादि अनिधन पृथिवीमय ये, सर्वरत्न से स्वयं बने।
भद्रसाल नंदन सुमनस वन, पांडुक वन से युक्त घने।।
सुरपति सुरगण सुरवनितायें, सुरपुर से आते रहते।
पंचम स्वर से जिनगुण गाते, भक्ति सहित नर्तन करते।।३।।
विद्याधरियाँ विद्याधर गण, जिनवंदन को आते हैं।
कर्मभूमि के नरनारी भी, विद्याबल से जाते हैं।।
चारण ऋषिगण नित्य विचरते, स्वात्मसुधारस पीते हैं।
निज शुद्धातम को ध्या ध्याकर, कर्मअरी को जीते हैं।।४।।
मैं भी वंदन पूजन अर्चन, करके भव का नाश करूं।
मेरे शिव पथ के विघ्नों को, हरो नाथ!यम त्रास हरूँ।।
बस प्रभु केवल ‘ज्ञानमती’ ही, देवो इकही आश धरूँ।
तुम पद भक्ति मिले भव भव में, जिससे स्वात्म विकास करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्यजन श्रीपंचमेरु, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित, महा पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो, अभिषेक सुरगिरिपर लहें।
त्रयज्ञानमति चउज्ञान धर, फिर अंत में केवल लहें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।