नाथ! आपका आह्वानन कर, यहाँ बुलायें आपको।
स्थापन सन्निधीकरण कर, यहाँ बिठायें आपको।।
वंदे जिनवरम् , वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं।।टेक.।।
आवो आवो हृदय कमल में, स्वामिन्! आन विराजो जी।।
मन मंदिर का मोह अंधेरा, तत्क्षण दूर भगा दो जी।
भक्ति भाव से नमन करें हम, हृदय बिठायें आपको।।नाथ.।।
नाथ! हृदय में आप विराजे, मानस व्याधि कहाँ होगी।
तनु देवालय में तिष्ठे फिर, तनु की व्याधि कहाँ होगी।।
नित्य निरामय सिद्ध आप ही, हृदय बिठायें आपको।।नाथ.।।
सोलह गुण की पूजा करते, गुण अनंत मिल जायेंगे।
जो जन पूजें भक्तिभाव से, भवसमुद्र तिर जायेंगे।।
अष्टद्रव्य से पूजा करके, हृदय बिठायें आपको।।नाथ.।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
कंचन झारी ले करके, पद्म सरोवर जल भरके।
चरणों में त्रय धार करें, तृष्णा सरिता पार करें।।१।।
जन्म जरा मृति दूर करें, जिन में समरस पूर भरें।
गुण रत्नाकर भर जावे, सब दरिद्रता मिट जावे।।२।।
ऐसे पावन सिद्ध प्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
चंदन मलयागिरि लेके, स्वर्ण कटोरी में भरके।
प्रभु चरणों चर्चन करते, भव संताप सभी हरते ।।१।।।
मुनिगण भी तुम गुण गाते, मन को शीतल कर पाते।
चंदन सम गुण को धारें, जग में सौरभ विस्तारें।।२।।
गुण अनंतयुत सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
धुले धवल तंदुल लाये, पुंज रचाकर सुख पाये।
अक्षत सम अक्षय सुख हो, खंड खंड सब दु:ख के हों।।१।।
साधु आपका ध्यान करें, यम का भी संहार करें।
भक्त नवों निधि रिद्धि भरें, अक्षय धन भंडार भरें।।२।।
केवलज्ञानी सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
जुही कमल बेला लाके, पुष्प चढ़ावें हर्षाके।
कामदेव को नष्ट करें, निजगुण यश सौगंध्य भरें।।१।।
सुरपति नरपति यजते हैं, भववारिधि से तरते हैं।
हम भी शत शत नमन करें, रोग शोक दु:ख शमन करें।।२।।
गुण अनंत युत सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैंं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
घेवर फेनी शुद्ध बने, लाये हैं पकवान घने।
चरू आपको अर्पण है, उदर व्याधि का प्रशमन हैै।।१।।
क्षुधा व्याधि सम व्याधि नहीं, चरु पूजा औषधी सही।
अमृतपिंड चढ़ा सुरपति, पूजा करते हैं नितप्रति।।२।।
मुक्तिरमापति सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
वर कर्पूर जला करके, आरति करते ज्योति जगे।
मन का मोह तिमिर विघटे, केवलज्ञान रवी प्रकटे।।१।।
मुनि मन पंकज में ध्याते, आत्मज्योति को प्रगटाते।
इसी हेतु हम यजन करें, निज मन में उद्योत भरें।।२।।
गुण अनंतयुत सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैंं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
धूप दशांगी ले करके, अग्नि पात्र में खे करके।
कर्म असंख्य जलायेंगे, जिनगुणसंपति पायेंगे।।१।।
मुनिगण भी ध्यानाग्नी में, कर्म जलाते हैं क्षण में।
सुरगण धूप सदा खेते, जिनपूजा कर सुख लेते।।२।।
सोलह गुणयुत सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
फल अनार अंगूर लिये, प्रभु तुम आगे चढ़ा दिये।
मोक्ष महाफल मिल जावे, करें प्रार्थना गुण गावें।।१।।
बहुत कुदेव जजे हमने, दु:ख फल ही भोगा हमने।
प्रभु उत्तम फल प्राप्त किया, इसी हेतु हम शरण लिया।।२।।
अनवधि गुणमणि सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हों, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
सिद्धचक्र भगवंतों को हम, झुक झुक शीश नमाते हैं।
सिद्ध अनंतानंतों की हम, पूजा कर हर्षाते हैं।।टेक.।।
जल गंधादिक अर्घ लिये, स्वर्ण पुष्प बहु मिला दिये।
भगवन्! अर्घ्य चढ़ायेंगे, रत्नत्रय निधि पायेंगे।।१।।
रत्न अनर्घ्य बहुत जग में, उनसे तृप्ति न हो मन में।
प्रभु पूजा अतिशयकारी, इस सम पुण्य न हो भारी।।२।।
गणधर वंदित सिद्धप्रभू के, पावन गुण को गाते हैं।
ये ही गुण मुझमें प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
हे नाथ! स्वर्णभृंग में आकाश गंग जल।
हम शांतिधार कर रहे तुम पाद में विमल।।
तिहुँलोक में सुख शांति हो यह भावना करें।
हो मन पवित्र मेरा यह याचना करें।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु सुमन समान सुरभि पुष्प चुन लिये।
प्रभु पाद पंकरुह में कुसुम अंजली किये।।
धन धान्य सौख्य संपदा स्वयमेव आ मिलें।
प्रभु भक्ति से निज शक्ति हो शिवयुक्ति भी मिले।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
परमहंस चिन्मूर्ति, शुद्ध सिद्ध परमातमा।
नमते हो गुणपूर्ति, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।
अथ मंडलस्योपरि द्वितीयवलये (दले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(तर्ज—ऐ माँ तेरी सूरत से अलग……)
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
दर्शन आवरण करम, उसके नव भेद कहे।
ये चक्षुदर्शनादी, निजगुण को ढांक रहे।।
हम इसका विनाशन करके प्रभो, स्वात्मा का दर्शन कर लेंगे।।भग.।।१।।
प्रभु अनंतदर्शन को पा, स्वात्मा को प्रकाशा है।
इस गुण से ही तुमने, त्रिभुवन प्रतिभासा है।।
हम तेरी छाया में भगवन्! निज का अवलोकन कर लेंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
मतिज्ञान के भेद सभी, त्रय सौ छत्तीस कहे।
श्रुतज्ञान के ग्यारह अंग, अरु चौदह पूर्व कहे।।
हम इन क्षयोपशम ज्ञानों का, आत्मा में प्रगटन कर लेंगे।।भग.।।१।।
अवधी में सर्वावधि, मनपर्यय विपुलमती।
बस एक ज्ञान केवल, इससे तिहँुलोकपती।।
तुम अनंतज्ञानी के गुण गा, अब ज्ञान प्रकाशन कर लेंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
मेरी अनंतशक्ती, अंतराय ने नष्ट किया।
भव भव में दु:ख दिये, प्रभु मुझको थका दिया।।
प्रभु अनंत शक्तीमान तुम्हीं, तुमसे मन तन बल पा लेंगे।।भग.।।१।।
शिवपथ में विघ्न घने, मन विचलित कर देते।
प्रभु दीजे यह शक्ती, विघ्नों को दूर कर दें।।
प्रभु तेरी छाया पा करके, निज समरथ प्रगटन कर लेंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
हे प्रभो! अनादी से, अब तक नहिं सुख पाया।
दु:ख सहे अनंतावधि, अब इनसे अकुलाया।।
प्रभु तुम अनंतसुख के स्वामी, तुम चरणस्पर्शन कर लेंगे।।प्रभु.।।१।।
प्रभु काल अनंतों तक, निज सुख के भोक्ता हो।
इक कण भी मुझको दो, यदि सच्चे दाता हो।।
हम बारंबार नमन करके, सुख अमृत मन भर पी लेंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतसुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
प्रभु आज मेरा समकित, क्षायोपशमिक ही है।
चल मलिन अगाढ़ सभी, दोषों से मलयुत है।।
प्रभु तुम अनंत सम्यक्त्व धनी, तुम पद का वंदन कर लेंगे।।भग.।।१।।
प्रभु तुम सानिध्य मिले, कब ऐसा दिन होगा।
क्षायिक सम्यक्त्व तभी, मुझमें प्रगटित होगा।।
हम इसीलिये सारा जीवन, तुमको ही समर्पण कर देंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतसम्यक्त्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
प्रभु वचन अगोचर हो, मन भी नहिं पा सकता।
फिर नयनों से तेरा, नहिं दर्शन हो सकता।।
बस तेरी प्रतिमा का ही यहाँ, नेत्रों से दर्शन कर लेंगे।भग.।।१।।
प्रभु ऐसा दिन कब हो, जब ध्यान तेरा कर लें।
अपने मन मंदिर की, वेदी में तुम्हें रख लें।।
प्रभु अनंत सूक्षम को ध्याके, आत्मा को पावन कर लेंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतसूक्ष्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
कुछ सुख कुछ दु:ख दिखता, वह दु:ख ही दु:ख सच में।
सुख में बाधायें हैं, आकुलता भी उसमें।।
प्रभु अव्याबाध गुणों युत हो, तुम चरण शरण हम ले लेंगे।।भग.।।१।।
मुनिगण तुम आश्रय ले, सब बाधा दूर करें।
निज गुणमणि रत्नों से, निज का शृंगार करें।।
तुम पद आश्रय से सब दु:ख को, सुख में परिवर्तित कर देंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अव्याबाधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
प्रभु भक्ति तेरी करते करते, खुद को भगवान बना लेंगे।
भगवान-भगवान नहीं बनते जब तक, तब तक प्रभु भक्ति न छोड़ेंगे।।टेक.।।
अवगाहन गुण से ही, सबको अवकाश दिया।
सब सिद्ध अनंतों को, अपने में समा लिया।।
हम तेरी भक्ती गंगा में, नितप्रति अवगाहन कर लेंगे।।भग.।।१।।
प्रभु सबके पास गया, नहिं किंचित् शांति मिली।
तुम छाया मिलते ही, मन कलियां आज खिलीं।।
हम तेरी श्रद्धा भक्ती से, निज में अवगाहन कर लेंगे।।भग.।।२।।
ॐ ह्रीं अवगाहनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
(तर्ज—तुमसे लागी लगन, ले लो अपनी शरण….)
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
आत्मनिधि प्राप्त हो, मृत्यु का नाश हो, दु:ख जायें।
नाथ पूजें, निजानंद पायें।।१।।
आप अक्षोभ गुण से सहित हो, श्रेष्ठ रत्नाम्बुनिधि के सदृश हो।
आपको वंदते, सर्व संकट मिटे, पुण्य पायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अक्षोभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
कोई उपसर्ग हो, ध्यान एकाग्र हो, ये ही भायें।
करके पूजा अतुलशक्ति पायें।।१।।
सिद्ध पद में अचल होके तिष्ठे, मोह को कर विफल स्वात्मनिष्ठे।।
आपको जो जजें, सर्व दुख से छुटें, धर्म पायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अचलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
जो जजें भक्ति से, सर्व दारिद नशे, धन बढ़ायें।
करके पूजा सभी रोग जायें।।१।।
आपके गुण कभी ना छिदेंगे, आप अच्छेद हो मुनि रटेंगे।
इसलिये हम भजें, निज गुणों से सजें, कीर्ति गायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अच्छेदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।
आपके गुण सभी, भेद उनमें कभी, हो न पायें।
इसलिये हम तुम्हें नित मनायें।।१।।
शुद्ध आत्मा कहा शुद्ध नय से, मैं करूँ शुद्ध व्यवहार नय से।
रीति ये ही सही, मुनिगणों ने कही, हम भी पायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अभेदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
नहिं बुढ़ापा तुम्हें, फिर भी बाबा कहें, भक्त आयें।
इंद्रगण भी तुम्हें शिर झुकायें।।१।।
आपने ही अजर नाम पाया, जो जजें उनकी नहिं जीर्ण काया।
वे सदा स्वस्थ हों, रोग से मुक्त हों, यश कमायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अजराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
काम क्रोधादि ये, पाँच इन्द्रिय विषै, शत्रु गाये।
आपने दूर इनको भगाये।।१।।
मृत्यु को जीत मृत्युंजयी हो, हो अमर कर्मसेना जयी हो।
हम भी वंदन करें, यम का खंडन करें, मुक्ति पायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अमराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
आप ज्ञाता कहे, ज्ञेय भी हो रहे, साधु गायें।
फिर भी वे जान तुमको न पायें।।१।।
अप्रमेय प्रभो! इसलिये हो, योगि के ध्यान में गम्य ही हो।
स्वच्छ शुभ ध्यान से, निज हृदयकंज में, प्रभु बिठायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
भक्ति में हो मगन, आये तेरी शरण, अर्घ्य लाये।
नाथ! पूजें परम सौख्य पायें।।टेक.।।
आत्मा में सदा, कर्म में लीनता, जग भ्रमाये।
आपने कर्म बंधन हटाये।।१।।
आप अविलीन शिवधाम तिष्ठे, आत्म अमृत रसास्वाद चखते।
स्वात्म तल्लीन हों, पूर्ण स्वाधीन हो, नित्य ध्यायें।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं अविलीनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
भक्ती गंगा में स्वर लहरें, उठ रहीं दिखें सुंदर सुंदर।
स्नान करें अघमल धो लें, आत्मा हो रही स्वच्छ सुंदर।।
सोलह गुण पूर्ण सिद्ध भगवन्! आवो मम हृदय विराजो जी।
जल गंधादिक से पूजूं नित, मेरे गुण कमल विकासो जी।।१।।
ॐ ह्रीं षोडशगुणसमन्वितसिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जय जय सिद्ध अनंतानंते, जय जय श्री भगवंता।
जय जय परमानंद सुधारस, आस्वादी शिवकंता।।
श्री तीर्थंकर छ्यालिस गुणधर, सिद्ध हुये सुख पाये।
तीर्थंकर बिन हुए अनंते, भव्य सिद्ध पद पाये।।१।।
कोई अंतकृत केवलि होकर, सिद्ध हुए गुण गायें।
बिना अंतकृत केवलि भी तो, अगणित जन शिव पाये।।
जल से भी हुये सिद्ध अनंते, सो वैâसे यह सुनिये।
कोई देव या खेचर मुनि को, जल में डालें सुनिये।।२।।
सत्रह लाख सु बानवे सहस्र, नब्बे, अकृत्रिम नदियां।
जंबूद्वीप में कृत्रिम कूप, जलधि सरवर बहुनदियां।।
द्वीप धातकी पुष्करार्ध में, नदी कुंड ह्रद आदी।
लवणोदधि कालोदधि सागर, ये जल भरे अनादी।।३।।
तत्क्षण केवलज्ञानी होकर, शिव पाते ये जल से।
नमूँ नमूँ मैं सिद्ध अनंतानंत, भाव उज्ज्वल से।।
थल से सिद्ध अनंतानंते, भूमि तथा पर्वत से।
सब सिद्धों का वंदन करते, मिले सिद्धगति सुख से।।४।।
जंबूद्वीप में तीन सौ ग्यारह, पर्वत मेरू आदी।
चौंतिस कर्मभूमि छह भोग, भूमि जंबूतरु द्व्यादी।।
इक सौ सत्तर म्लेच्छ खंड अरु, चौंतिस आरज खंड हैं।
इनसे मुक्त जो स्थल सिद्धा, नमत पाप शत खंड हैं।।५।।
गगन पथों में अधर रहें भी, अगणित मुनि शिव पाते।
ये भी सब उपसर्ग सिद्ध हों, गणधर गुरु इन ध्याते।।
ऊर्ध्वलोक से एक लाख, योजन तक अधर कहीं से।
मध्यलोक से अधोलोक से, बिल सुरंग जलधी से।।६।।
इन सबसे उपसर्ग सहन कर, बिन उपसर्ग शिव जाते।
सुषमसुषम आदिक छह कालों, से भी मुक्ती पाते।।
प्रथम द्वितीय रु तृतिय व पंचम, छठे काल से भी हों।
उपसर्गों से सिद्ध हुये ये, चौथे में द्वय विध हों।।७।।
तृतिय अंत में सिद्ध हुए, श्रीवृषभ आदि भगवंता।
पंचमकाल के आरंभ में, गौतम आदिक शिवकंता।।
शाश्वत इक सौ साठ कर्मभू, काल वहाँ चौथा ही।
पाँच भरत पण ऐरावत में, काल परावृत छह ही।।८।।
नाना भेद कहे सिद्धों के, भूत सुनैगमनय से।
वहाँ न किंचित् भेदभाव है, सबके गुण इक जैसे।।
ढाईद्वीप में अणूमात्र भी, जगह नहीं है ऐसी।
मुक्त नहीं हैं हुये जहाँ से, सिद्धशिला भी वैसी।।९।।
धन्य घड़ी यह धन्य दिवस यह, धन्य भाग्य है मेरा।
सब सिद्धों के गुण गाने का, मिला प्रभात सबेरा।।
नमूँ नमूँ मैं सिद्ध अनंते, हृदय कमल में ध्याऊँ।
पूजन वंदन गुण कीर्तन कर, जिनगुण संपति पाऊँ।।१०।।
चिदानंद चिद्रूप को, नमूँ नमूँ शिर टेक।
मांगू केवल ‘‘ज्ञानमति’’, यही याचना एक।।११।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं षोडशगुणसमन्वितसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।