श्री सिद्धप्रभू, त्रिभुवन के विभू, हम पूजा करने आये हैं।
निज आत्म सुधारस मिल जावे, यह आशा लेकर आये हैं।।टेक.।।
आह्वानन संस्थापन करके, सन्निधीकरण विधि करते हैं।
निज हृदय कमल में धारण कर, अज्ञान तिमिर को हरते हैं।।
सब एक शतक अट्ठाइस गुण की, अर्चा करने आये हैं।
श्री सिद्धप्रभू, त्रिभुवन के विभू, हम पूजा करने आये हैं।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
स्वच्छ आकाश गंगाजल है, निज आत्मा का हरता मल है।
धार देते मिले इष्ट फल है, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
आवो सिद्ध प्रभु के गुण गायें, जो इक सौ अट्ठाइस बताये।
इन्हें पूजें परम सुख पायें, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध कर्पूर केशर मेला, सौगंधित सुमिश्रित एला।
ताप संताप हरत अकेला, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेत मोती सदृश तंदुल हैं, पुंज धरते हृदय निर्मल है।
लाभ होता सुगुण उज्ज्वल है, जिनेन्द्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद मंदार सुमनस माला, कामदेव निमूल कर डाला।
आत्म संपद गुणों की माला, जिनेन्द्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।४।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्ग लाडू इमरती भरके, पूजते भूख रोगादि हरके।
आत्म पीयूष अनुभव करके, जिनेन्द्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।५।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण दीपक शिखा उज्ज्वल है, आरती से हरे मोह मल है।
होता आत्मा अपूर्व विमल है, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।६।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुरभि दशगंधी, धूूम्र पैâले दशों दिश गंधी।
होय कर्म अरी शतखंडी, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर दाड़िम फल हैं, जो फल दे उत्तम सुफल है।
तीन रत्नों की संपत्ति फल है, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि द्रव्य मिलाके, पूर्ण सौख्यादि होवे चढ़ाके।
अष्टकर्मारि बंधन हटा के, जिनेंद्र गुण वंदन करें हम नित ही।।
।।आवो सिद्ध प्रभु.।।९।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंगा नदी का जल पवित्र स्वर्ण भृंग में।
कैवल्यज्ञान से पवित्र आप चर्ण में।।
त्रयधार देके शांतिधार मैं सदा करूँ।
तिहुँलोक में भी शांति हो यह कामना करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
स्याद्वाद के उद्यान में बहुविध कमल खिले।
प्रभु गुण सुगंधि के समान सुरभि से मिले।।
बेला गुलाब पुष्प से प्रभु पाद कमल में।
पुष्पांजली करते निजात्म सौख्य हृदय में।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
एक शतक अठबीस, सिद्धगुणों को पूजहूँ।
नमूँ नमाकर शीश, मिले श्रेष्ठ गुण संपदा।।१।।
इति मंडलस्योपरि पंचमवलये (पंचमदले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
रतनत्रय मुक्ति का साधन, उसी में मूल समकित है।
प्रभू ने सात प्रकृती घात, कर सम्यक्त्व पाया है।।जलाओ.।।१।।
मुझे भी एक ही इच्छा, मिले सम्यक्त्व निधी तुमसे।
नमूँ मैं भक्ति से नित ही, मिली प्रभु छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
महामोहादि विरहित ज्ञान, सम्यग्ज्ञान है सुंदर।
चतुरनुयोग द्वादश अंग, से श्रुतज्ञान गाया है।।जलाओ.।।१।।
प्रभो श्रुतज्ञान को पूरो, यही अभिलाष है मन में।
नमूँ मैं भक्ति से तुमको, मिले प्रभु छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
निजात्मा की जो अनुभूती, वही सम्यक्त्वचारित है।
पाँच विध श्रेष्ठ चारित को, सभी मुनियों ने ध्याया है।।जलाओ.।।१।।
प्रभो चारित्र पूरा हो, यही इच्छा मेरे मन में।
नमूँ मैं शुद्ध चारित को, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
सभी द्रव्यादि हैं यह धर्म, निज अस्तित्व को कहता।
इसी ने सर्व सिद्धों की, पृथक् सत्ता को गाया है।।जलाओ.।।१।।
प्रभो अस्तित्व मेरा भी, इसी से सिद्धपद चाहूँ।
स्वयं अस्तित्व में चमकू, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं अस्तित्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
सभी गुण द्रव्य के आश्रित, यही वस्तुत्व गुण माना।
इसी ने आपके गुण को, अनंतों ही बताया है।।जलाओ.।।१।।
प्रभो मेरे अनंतों गुण, सभी मोहारि ने छीने।
दिला दीजे मेरे गुण को, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं वस्तुत्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
नहीं कोई प्रमाणों से, तुम्हें प्रभु जान सकता है।
अत: तुम अप्रमेयी हो, नहीं तुम माप पाया है।।जलाओ.।।१।।
प्रभो तुम योगि के गोचर, मेरे चित में विराजो जी।
नमूँ कर जोड़ मैं तुमको, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयत्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
गोत्र कर्मारि के क्षय से, अगुरुलघु गुण तुम्हारे में।
त्रिजग के शीश पर तिष्ठे, जगद्गुरु नाम पाया है।।जलाओ.।।१।।
मुझे मेरा अनादीसिद्ध, यह गुण प्राप्त हो जावे।
इसी हेतू नमूँ तुमको, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं अगुरुलघुत्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
प्रभो चैतन्य चिंतामणि, तुम्हीं चिन्मूर्ति माने हो।
इसी गुण से सभी पर से, पृथक् अस्तित्व पाया है।।जलाओ.।।१।।
देह भी जब पृथक् मुझसे, पुन: पर अन्य क्या मेरे।
निजातम तत्त्व को पाऊँ, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं चेतनत्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
वरण रस स्पर्श गंधों से, रहित हो प्रभु अमूर्तिक हो।
सभी कर्मों के क्षय से आप, को चिन्मूर्ति गाया है।।जलाओ.।।१।।
जगत में जीव संसारी, सुनिश्चयनय से चिन्मूरत।
प्रभो! चिन्मय बना दीजे, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं अमूर्तित्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
जलाओ दीप खुशियों के, प्रभू ने मोक्ष पाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य सिद्धों को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक.।।
कहे मिथ्यात्व जो हैं तीन, सौ त्रेसठ असंख्यों भी।
इन्हें विध्वंस कर तुमने, निजी सम्यक्त्व पाया है।।जलाओ.।।१।।
प्रभो चारों गती में घूम, कर अब छूटना चाहूँ।
निकालो भवजलधि दु:ख से, मिली तुम छत्रछाया है।।जलाओ.।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
जो ज्ञान मोह क्षय कर देता, उसको प्रभु तुमने प्राप्त किया।
वह ज्ञान हमें भी मिल जावे, हम शीश झुकाने आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
चैतन्यप्राण से जो तीनों, कालों में जीता जीव वही।
यह शुद्ध प्राण हमको भी मिले, यह आशा लेकर आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं जीवधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
सम्पूर्ण नाम कर्मारि हना, सूक्ष्मत्व नाम गुण प्राप्त किया।
यह गुण मुझमें भी प्रगटित हो, यह भाव संजोकर लाये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
सब आयू कर्म विनाश किया, अवगाहन गुण को प्राप्त किया।
अपमृत्यु टले सुसमाधि मिले, यह आशा लेकर आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं अवगाहनधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
सब वेदनीय को नष्ट किया, गुण अव्याबाध को प्राप्त किया।
निज परमानंद सुखामृत की हम आश लगाकर आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं अव्याबाधधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
प्रभु आप स्वसंवेदन ज्ञानी, इस बल से केवलज्ञान लिया।
हम निज संवेदन प्राप्त करें, ये ही अभिलाषा लाये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं स्वसंवेदनज्ञानधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
प्रभु निजस्वरूप का ध्यान किया, वैâवल्यरमा को वरण किया।
निज से निज में निज को पाऊँ, यह भाव हृदय में लाये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं स्वस्वरूपध्यानधर्मसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
वर ज्ञान दरस सुख वीर्य चार, ये ही आनन्त्य चतुष्टय हैं।
अर्हंत प्रभू इनके स्वामी, हम शीश झुकाने आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं अनंतचतुष्टयत्वसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
जो सम्यक्त्वादि आठ गुण हैं, उनको पाकर प्रभु सिद्ध हुये।
ये मुझको भी मिल जावें प्रभु, हम शीश झुकाने आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वादिगुणसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।टेक.।।
जो पंचाचारों का पालन, करके अन्यों से करवाया।
परमात्मसिद्ध पद प्राप्त किया, उन चरण शरण में आये हैं।।हे.।।१।।
ॐ ह्रीं पंचाचाराचरणसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
मन वचन काय त्रय योग कहे, संरंभ समारंभ आरंभा।
कृत कारित अनुमति चउ कषाय, इनको आपस में गुणितांता।।
सब इक सौ आठ भेद होते, जो क्रोध करे मन संरंभ से।
इस रहित सिद्ध को पूजूँ मैं, मेरा मन क्रोध सभी विनशे।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
जो पर से मन संरंभ क्रोध, करवाता कर्मास्रव करता।
इनसे विरहित प्रभु सिद्धों की, अर्चा से पापास्रव टलता।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
मन से संरंभ क्रोधपूर्वक, उसका अनुमोदन जो करते।
उनके पापास्रव होते हैं, प्रभु पूजा से ही टल सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करके पापास्रव करते हैं।
प्रभु सिद्धों के गुण गाते ही, सब अशुभकर्म भी झड़ते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करवाते पापास्रव करते।
प्रभु भक्ती से वे बंधे कर्म, फल दिये बिना भी झड़ सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करने वाले को अनुमति दें।
उनके जो कर्म बंधे वे भी, जिन भक्ती से फल नहिं भी दें।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
क्रोधित मन से आरंभ करें, मनकृत आरंभ क्रोधधारी।
ये कर्मबंध भव भव दुखप्रद, इन कर्मों से ही संसारी।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
क्रोधित मन से आरंभ करें, उसको जो प्रेरित करते हैं।
वे पाप बंध कर जन्म मरण, दुखों को भरते रहते हैंं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
क्रोधित मन हो आरंभ करें, उसको जो अनुमति देते हैं।
वे गर्भवास के दुख सहें, नाना संकट भर लेते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
हम उन सिद्धों की पूजा कर, दुख दारिद दूर भगाते हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
मान करे मन से संरंभ, पाप कर्म का करता बंध।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
मान सहित जो मन संरंभ, उसे कराके कर्म निबंध।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
मनसंरंभ मानयुत कहा, अनुमति देकर हर्षित रहा।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
मानसहित मन का व्यापार, समारंभ यह दुख दातार।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, जजूूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
मानसहित मन का व्यापार, करवाता जो मूढ़ अपार।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
समारंभ जो मान समेत, अनुमोदें आतमदुख हेत।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, जजूूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
मान सहित मन से आरंभ, कार्य करे जो दुख का फंद।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
मान सहित मन से आरंभ, करवाते वे पाप प्रबंध।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
मान सहित मन से आरंभ, अनुमति दे हो आस्रव बंध।
इनसे रहित सिद्ध भगवान्, नमूँ परम आनंद निधान।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
मायायुत मन संरंभ जान, तिर्यंच गती का है निदान।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
मायायुत मन संरंभ होय, जो करवाते नित मुदित होय।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
मायायुत मन संरंभ लीन, अनुमति देते वे सौख्य हीन।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
मायायुत मन का समारंभ, जो स्वयं करें वे भव भ्रमंत।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
माया से मन का समारंभ, जो करवाते वे करें बंध।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
माया से मन का समारंभ, जो पर को अनुमति दें अनंद।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
मायायुत मन आरंभ लीन, जो स्वयं करें वे स्वात्महीन।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
मायायुत मन आरंभ लीन, करवाते जो वे सौख्यहीन।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
मायायुत मन आरंभ होय, उसको अनुमति दे बंध होय।
इनसे विरहित श्रीसिद्धदेव, मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
लोभ सहित मन से करे, जो संरंभ महान्।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ सिद्ध भगवान्।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
लोभचित्त संरंभ को, जो करवाते जीव।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ सिद्ध सुख नींव।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
अनुमोदें जो लोभयुत, मनसंरंभ करंत।
इनसे विरहित सिद्ध को, जजत मिले भव अंत।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:संरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ जो जीव।
पापास्रव करते सतत, नमते हों दुख छीव।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१।।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ नरवृंद।
करवाते वे मूढ़जन, नमूँ सिद्ध सुखकंद।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
लोभ सहित मन से करे, समारंभ जो कोय।
अनुमोदें उनसे रहित, जजूँ सिद्ध सुख होय।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:समारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
लोभचित्त आरंभ जो, करे पाप में लीन।
उनसे विरहित सिद्ध को, नमूँ स्वात्म सुख लीन।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५४।।
लोभचित्त आरंभयुत, करवाते जो पाप।
उनसे विरहित सिद्ध को नमत बनूँ निष्पाप।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५५।।
लोभचित्त आरंभयुत, अनुमोदें जो नित्य।
कर्म बांधते उन रहित, नमूँ सिद्ध गुण नित्य।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५६।।
क्रोध में वाक्य से कार्य की भूमिका, नाम संरंभ है जो करें सर्वदा।
पाप को बांधते चारगति में भ्रमें, आपने नाशिया मैं जजूँ अर्घ्य ले।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५७।।
क्रोध में वचन से जो कराते सदा, नाम संरंभ है कार्य की भूमिका।
कर्म आते इन्हें आपने नाशिया, मैं जजूँ अर्घ्य ले ज्ञान सम्यक् किया।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५८।।
क्रोध से वचन संरंभ में अनुमती, सर्व प्राणी इसी से लहें दुर्गती।
आपने नाश के पाई पंचमगती, मैं नमूँ मैं नमूँ पाऊँ सम्यक्मती।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५९।।
क्रोध से वच समारंभ जो आचरें, कार्य की सर्व वस्तू इकट्ठी करें।
ये समारंभ कर्मारि का मित्र है, आपने नाशिया आप ही शर्ण हैं।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६०।।
क्रोध में वचन से जो समारंभ हो, जो करावें इसे कर्म बांधें अहो।
आप ही नाथ हो आज रक्षा करो, अर्घ्य लेके जजूँ मम सुरक्षा करो।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६१।।
क्रोध से वचन व्यापार में अनुमती, जो करें सो भ्रमें तीन जग में दुखी।
आप जगवंद्य हो नाथ! रक्षा करो, मैं जजूँ अर्घ्य ले मम सुरक्षा करो।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६२।।
क्रोध में वचन से कार्य को आरभे, नाम आरंभ कृत कर्म को बांधते।
आप आरंभ को त्याग परमातमा, मैं जजूँ आपको होउं शुद्धातमा।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६३।।
कार्य आरंभते को करे प्रेरणा, क्रोध से वचन से पाप बांधे घना।
जो तजे दोष को वे हि शुद्धातमा, मैं जजूँ प्राप्त कर लूँ स्वपरमातमा।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६४।।
कार्य आरंभते को अनूमोदते, क्रोध में वचन से कर्म को बाँधते।
आप सिद्धातमा कर्म से शून्य हो, मैं जजूँ कर्मवैरी स्वयं चूर हो।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६५।।
मानकृत वचन संरंभ से पाप हो, सो जगत में भ्रमें दु:ख संताप हो।
सर्व संरंभ से मुक्त सिद्धात्मा, मैं जजूँ साम्यपीयूष पीऊँ यहाँ।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६६।।
मान से वचन से कार्य की भूमिका, जो कराता सभी लोक में घूमता।
आपने नाश के स्वात्मसंपद लिया, मैं जजूँ आपको शुद्ध सम्यक् लिया।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६७।।
मान से वचन से कार्य संरंभ में, जो अनूमोदता दु:ख भोगे भ्रमे।
आप सिद्धात्मा मैं जजूँ भक्ति से, ज्ञानज्योती मिले स्वात्मसंपत्ति से।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६८।।
मान से वचन से जो समारंभ हो, कार्य हेतू सभी वस्तु एकत्र हो।
नाश के सिद्ध भगवान होते यहाँ, मैं जजूँ स्वात्म पीयूष पीऊँ यहाँ।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६९।।
जो कराते समारंभ नित मान से, वाक्य से प्रेरते जीव दुख पावते।
मुक्त आत्मा सभी कर्म से दूर हैं, मैं जजूँ सौख्य पाऊँ जो भरपूर है।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७०।।
जो समारंभ करते वचन मान से, दें अनूमोदना कर्म को बांधते।
मुक्त सर्वज्ञ को मैं नमूँ भाव से, भेद विज्ञान पाऊँ निजी चाव से।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७१।।
मान से वचन से कार्य जो आरभें, नित्य आरंभ से जीव हिंसा करें।
आपने सर्वआरंभ परिग्रह तजा, मैं जजूँ भक्ति से प्राप्त हो मुक्तिजा।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनआरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७२।।
मान से वचन से कार्य आरंभ में, जो करें प्रेरणा कर्म बांधें घनें।
मुक्ति हेतू धरा ध्यान मैं पूजहूँ, रोग शोकादि दारिद्र से छूटहूँ।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनआरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७३।।
कार्य आरंभते को करें अनुमती, मान में वाक्य से वे धरें दुर्गती।
आपको पूजते सर्व संकट टलें, मैं स्वयं मैं स्वयं आन संपत् मिलें।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनआरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७४।।
माया से वचन से स्वयं संरंभ जो करें।
जो कार्य को करने में भूमिका को विस्तरें।।
ये पापहेतु लाखों योनियों में भ्रमावे।
जो सिद्ध की पूजा करें निजसंपदा पावें।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७५।।
जो छद्म से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भी करम से सर्व जग में निज को भ्रमाते।।
प्रभु सिद्ध के गुणों की अर्चना प्रधान है।
जो पूजते वे भी बनें जग में महान् हैं।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७६।।
माया सहित वचन से जो संरंभ को करें।
उनकी करें अनुमोदना वे पाप को भरें।।
सिद्धों की वंदना से सर्व दु:ख दूर हों।
निज आत्म की अनुभूति से पीयूष पूर हो।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७७।।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
चौरासी लाख योनियों में जन्म वे धरें।।
यदि जन्मसिंधु से तुम्हें तिरने की है इच्छा।
सिद्धोें की अर्चना करो मानो गुरु शिक्षा।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७८।।
माया से वाक्य से जो समारंभ कराते।
चारों गती के दुख जलधि में निज को डुबाते।।
ये भूत प्रेत डाकिनी शाकिनि पिशाचिनी।
सब दूर हों जिनभक्ति से बाधायें भी घनी।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७९।।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
अनुमोदते उन्हें वे पशु योनि को धरें।।
जो इनसे मुक्त हो चुके त्रिभुवन ललाम हैं।
उनको अनंत बार ही मेरा प्रणाम है।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८०।।
जो छद्म से वचन से आरंभ नित करें।
ये कार्य को प्रारंभ करते हर्ष मन धरें।।
इनके अशुभ प्रकृती बंधे दुर्गति में जा पड़े।
जो इनसे मुक्त उन प्रभू के चरण हम पड़े।।
ॐ ह्रीं मायाकृतवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८१।।
माया से वचन से सदा आरंभ कराते।
वे निज को और पर को तीन जग में भ्रमाते।।
जो इनसे मुक्त हैं उन्हीं की वंदना करूँ।
निर्मूल हो माया कषाय, प्रार्थना करूँ।।
ॐ ह्रीं मायाकारितवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८२।।
आरंभ में अनुमोदना माया से वचन से।
तब कर्मशत्रु आवते रोके नहीं रुकते।।
इनसे विमुक्त सिद्धलोक अग्र पे रहें।
माया को जो तजे वे स्वयं ऊर्ध्वगति लहें।।
ॐ ह्रीं मायानुमतवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८३।।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ को करें।
वे आत्मशुद्धि ना करें जग में भ्रमण करें।।
प्रभु आपने इसको तजा निजधाम पा लिया।
मैं दुख से ऊब के ही आपकी शरण लिया।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८४।।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भावशुद्धि के बिना निर्धन सदा रहते।।
इसको तजे से तीनलोक संपदा मिली।
मैं भी तुम्हें पूजूँ समस्त आपदा टलीं।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८५।।
संरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
ये बुद्धि सबमें काल अनादी से ही रहती।।
प्रभु इनसे मुक्त आपके गुणों की अर्चना।
जो भक्त हैं वे कर सकेंगे यम की तर्जना।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८६।।
वच से व लोभ से जो समारंभ कर रहे।
वे मोहनीय कर्म बंध दृढ़ ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त सिद्धचक्र वंदना भली।
प्रभुभक्त के मन कंज की कलियाँ तुरत खिलीं।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८७।।
जो लोभ से वचन से समारंभ कराते।
वे भेदज्ञान शून्य हैं निज शुद्धि न पाते।।
इनसे विमुक्त सिद्ध की जो वंदना करें।
वे सब कषाय शत्रुओं की खंडना करें।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८८।।
वच लोभ से जो समारंभ उसमें अनुमती।
वे तनु की व्याधियों से दुखी जग में दुर्मती।।
इनसे विमुक्त सिद्ध के गुणों की अर्चना।
संसारवार्धि से तिरूँ हो दुख रंच ना।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८९।।
जो लोभ से वचन से भी आरंभ कर रहे।
वे छह निकाय जीव की हिंसा ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त सिद्धवृंद की महापूजा।
ये सर्वसौख्यकारिणी इस सम नहीं दूजा।।
ॐ ह्रीं लोभकृतवचन आरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९०।।
जो लोभ में वचन से भी आरंभ कराते।
वे पापपुंज बांधते निज ज्ञान न पाते।।
इनसे विमुक्त सिद्धिपती की उपासना।
जो कर रहें वे पायेंगे शिवपथ की साधना।।
ॐ ह्रीं लोभकारितवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९१।।
आरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
परिग्रह से ही आरंभ उससे होवे दुर्गती।।
इनसे विमुक्त सिद्ध की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण दुख से बचूं सिद्ध्यंगना वरूँ।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतवचनारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९२।।
क्रोध सहित तन से कार्यों की बने रूपरेखा जो।
सो संरंभ कहाता श्रुत में इनसे मुक्त हुये जो।।
ऐसे सिद्धों के चरणों में नित प्रति शीश नमाऊँ।
गर्भवास के दु:ख मिटाकर निज समरस सुख पाऊँ।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९३।।
क्रोध सहित तन से कार्यों को करवाने की रुचि से।
पाप कमाते सब संसारी पंच परावृत करते।।
इनसे मुक्त हुए सिद्धों को कोटी कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९४।।
क्रोध सहित तन से कुछ करना करे भूमिका कोई।
अनुमति देकर पाप बढ़ाते महामूढ़ जन सोही।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९५।।
क्रोध सहित तन से कार्यों की सामग्री को जोड़े।
समारंभ यह नरक निगोदों में ले जाकर छोड़े।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९६।।
कार्य हेतु पर से सामग्री एकत्रित करवाता।
क्रोध करे तन से जो फिर भी नहीं किसी से नाता।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९७।
क्रोध सहित तन से जो करते समारंभ दे अनुमति।
बिना हेतु ये पाप उपार्जें नहीं मिली है सन्मति।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९८।।
क्रोध सहित तन से आरंभे पाँच पाप आदिक जो।
पाँच परावर्तन कर करके जग में भ्रमण करें वो ।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९९।।
क्रोध करावे काय क्रिया से बहु आरंभ कराता।
तन की व्याधि करोड़ों भोगे कभी न पावे साता।।
इनसे मुक्त हुए सिद्धों को कोटी कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१००।।
क्रोध सहित काया से अनुमति देता आरंभी को।
नाना काय धरे मर मर कर भव भव में दु:खी हो।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०१।।
मान सहित काया से जो संरंभ करे नित रुचि से।
नीच गोत्र में जन्म धरे फिर दु:ख सहे नित तन से ।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०२।।
मान सहित काया से कराता जो संरंभ सदा ही।
देवगती में भी यदि जन्में कुत्सिग गती धरे ही।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०३।।
मान से काया से संरंभे उसको अनुमति देवे।
पाप पुण्य का आस्रव करके, दु:ख निकट कर लेवे।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०४।।
मद से तन से समारंभ कर, कर्मों को नित बांधे।
मानस शारीरिक आगंतुक सभी दुखों को साधे।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०५।।
मद से तन से समारंभ जो, सदा कराता रहता।
इह भव में परभव में भी तो, दुख संकट बहु सहता।।
इनसे मुक्त हुए सिद्धों को कोटी कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०६।।
मान से तन से समारंभ करते को अनुमति देवे।
जन्म मरण के दुख सह सह कर बीज पाप का बोवे।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०७।।
मान सहित तन से कार्यों को, आरंभे भव भव में।
संस्कारों से तनु धर धर कर, भ्रमण करें चहुँगति में।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०८।।
मद से तन से सदा कराता पर से आरंभोें को।
कुगुरु कुशास्त्रों की शिक्षा से कुत्सित बुद्धि धरे जो।।इनसे.।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०९।।
मद से काया से आरंभित कार्यों को अनुमोदे।
नाना कर्मों को नित बांधे निज पर को भी दुख दे।।
इनसे मुक्त हुए सिद्धों को कोटी कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११०।।
छल से तनू से जो सदा संरंभ करते प्रेम से।
वे कर्मबंधन से बंधे बहु दु:ख सहते देह से।।
आस्रव रहित सिद्धातमा की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१११।।
माया से तनु से जो कराते है सदा संरंभ को।
तिर्यंच योनी में पड़े वहाँ कष्ट दु:ख असंख्य हों।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११२।।
जो छद्म से तन से करें संरंभ उसमें अनुमती।
वे मूढ़ भेदविज्ञान बिन नहिं पा सकेंगे सद्गती।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११३।।
मायानिमित तन से समारंभे इकट्ठी वस्तु हों।
सम्यक्त्व बिन समता नहीं पाते उठाते दु:ख को।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११४।।
माया से तनु से समारंभों को कराते प्रेम से ।
चारित्र बिन संसार में दु:ख भोगते हैं देह से।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११५।।
तनु से समारंभे उन्हें माया व तनु से अनुमती।
तप बिना कर्मास्रव न सूखें फिर धरें तिर्यग्गती।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११६।।
माया धरें तन से करें आरंभ जो भवमूल है।
जिनभक्ति बिन भव में भ्रमें पावें न वे भव कूल है।।
आस्रव रहित सिद्धातमा की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११७।।
माया सहित तनु से कराते बहुत ही आरंभ जो।
जिनशास्त्र के स्वाध्याय बिन साता न पाते रंच वो।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११८।।
माया सहित तनु से करें आरंभ उसमें अनुमती।
दिग्वस्त्र गुरु की भक्ति बिन मिलती नहीं है शुभ मती।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११९।।
जो लोभ से तनु से करें संरंभ चहुँगति में भ्रमें।
नित करें खोटे देव की भक्ती न जिनवच में रमें।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२०।।
जो लोभवश तनु से कराते अन्य से संरंभ को।
जिनदेव की भक्ती बिना पाते न सुख के मर्म को।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२१।।
संरंभ करते देख अनुमति दें तनू से लोभ से।
संसार में रुलते रहें नहिं छूटते भव रोग से।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायसंरंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२२।।
जो लोभवश तन की क्रिया से समारंभी हो रहे।
जिनधर्म बिन खोटे गुरू के वचन से भव दुख सहें।।
आस्रव रहित सिद्धातमा की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२३।।
जो समारंभी लोभवश तनु से करें पर प्रेरणा।
उनके चतुर्गति भ्रमण में निज आत्म सुख का लेश ना।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२४।।
अनुमोदते जो लोभवश तनु से समारंभी जना।
वे मोक्षपथ के बिना व्यंतर योनि में दुख लें घना।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायसमारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२५।।
जो लोभ से तनु से करें आरंभ बहुविध प्रेम से।
नरकायु बांधे सागरों तक दुख भोगें नर्क के।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२६।।
जो लोभवश तनु से कराते अन्य से आरंभ को।
वे भी निगोदों के दुखों को सहें पापारंभ सों।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२७।।
आरंभ करते देख तनु से लोभवश अनुमति करें।
वे भी कुमानुषयोनि में चिर काल तक बहु दुख भरें।।आस्रव.।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायारंभमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२८।।
हे भगवन्! अब रक्षा कीजे, शरण लिया मैं आपकी।
भक्ति भाव से अर्घ्य चढ़ाऊँ, कृपासिंधु हैं आप ही।।वंदे जिनवरं-४।।टेक.।।
मन वच तन से कृत कारित, अनुमति से नाना कर्म किये।
कर संरंभ समारंभ आरंभ, चउ कषाय से कर्म किये।।
ये सब इक सौ आठ भेद हैं, इनसे विरहित आप ही।।भक्ति.।।वंदे जिनवरं-४।।१।।
मिथ्या अविरति कषाय योगों, से ही कर्म बंध होते।
बहिरात्मा जब अंतर आत्मा, होता कर्म नष्ट होते।।
कर का अवलंबन दे तारो, त्रिभुवन के गुरु आप ही।भक्ति.।।वंदे जिनवरं-४।।२।।
चिन्मय परमहंस परमात्मा, इनकी भक्ती सुख देती।
जो जन चरण कमल को पूजें, उनके सब दुख हर लेती।।
इसीलिये मैं भक्ति करूँ नित, हरो व्यथा भव व्याधि की।भक्ति.।।वंदे जिनवरं-४।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं अष्टाविंशतिअधिकएकशतगुणसमन्वित-सिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:।(१०८ बाार)
सिद्धों की वंदना से सर्वसिद्धि मिलेगी।
भक्तों के मन में ज्ञान की कलियां भी खिलेंगी।।
हे नाथ! आज मुझ पे कृपादृष्टि कीजिये।
संसार भ्रमण से निकाल मुक्ति दीजिये।।१।।
प्रभु मैं अनंतकाल तक निगोद में रहा।
वहाँ से निकल के पंच परावर्त कर रहा।।हे नाथ.।।२।।
त्रैलोक्य में जो कर्म योग्य वर्गणा कहीं।
उन सबको ग्रहण कर चुका उच्छिष्ट सम रहीं।।
हे नाथ! आज मुझ पे कृपादृष्टि कीजिये।
संसार भ्रमण से निकाल मुक्ति दीजिये।।३।।
इन तीन लोक क्षेत्र में सर्वत्र ही भ्रमा।
ना एक भी प्रदेश बचा ना जहाँ जन्मा।।हे नाथ.।।४।।
अवसर्पिणी उत्सर्पिणी के चक्र अनंते।
प्रत्येक को पूरी किया मैं जन्म मरण से।।हे नाथ.।।५।।
चारों गती की सर्व आयु धार धार के।
जन्मा मरा अनंत बार दु:ख धार के।।हे नाथ.।।६।।
बस अंतिमे ग्रैवेयक ऊपर नहीं गया।
सम्यक्त्व बिन अनुदिश व अनुत्तर बचा दिया।।हे नाथ.।।७।।
मिथ्यात्व अविरती कषाय योग भाव से।
नाना विभाव हैं असंख्य लोक मात्र से।।हे नाथ.।।८।।
ये कर्मबंध के निमित्त धारता रहा।
बस पाँच परावर्तनों में घूमता रहा।।हे नाथ.।।९।।
भगवन्! मैं आज तुमको पा महान हो गया।
सम्यक्त्वरत्न से ही मैं धनवान हो गया।।हे नाथ.।।१०।।
ये द्रव्यकर्म आत्मा से बद्ध नहीं हैं।
ये भावकर्म तो मुझे छूते भी नहीं हैं।।हे नाथ.।।११।।
मैं नित्य अकेला हूँ ज्ञानदर्श स्वरूपी।
चैतन्य चमत्कार ज्योतिपुंज अरूपी।।हे नाथ.।।१२।।।
मैं शुद्ध हूँ अखंड हूँ आनंद धाम हूँ।
परमात्मा सिद्धात्मा त्रिभुवन ललाम हूँ।।हे नाथ.।।१३।।
परमार्थनय से मैं तो सदा शुद्ध कहाता।
ये भावना ही एक सर्व सिद्धि प्रदाता।।हे नाथ.।।१४।।
व्यवहार नय से यद्यपी अशुद्ध हो रहा।
संसार पारावार में ही डूबता रहा।।
हे नाथ! आज मुझ पे कृपादृष्टि कीजिये।
संसार भ्रमण से निकाल मुक्ति दीजिये।।१५।।
फिर भी तो मुझे आज भक्ति नाव मिली है।
भवसिंधु पार कर सकूँ ये युक्ति मिली है।।हे नाथ.।।१६।।
मैं प्रार्थना करूँ मुझे वरदान दीजिये।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ का ही दान दीजिये।।हे नाथ.।।१७।।
नाथ! तुम्हारी भक्ति ही, सब कुछ देन समर्थ।
निजपद में विश्राम हो, फले मोक्ष पुरुषार्थ।।१८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं अष्टािंवशत्यधिकएकशतगुणसमन्वित-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।