सिद्धिप्रिया के हो नाथ, तुम्हें नमाते हैं माथ।
हमें करिये सनाथ, आये हैं शरण प्रभु आपकी।।
आठों कर्मों के भेद अनंत हैं, इनके वश हुये दु:ख का न अंत है।
आपने किया कर्मों का अंत है, इसीलिये गुण गाते साधु संत हैं।।
हम जग में अनाथ, कोई देता नहीं साथ।
दीजे अवलंब का हाथ, आये हैं शरण प्रभु आपकी।।
सिद्धिप्रिया के हो नाथ, तुम्हें नमाते हैं माथ।
हमें करिये सनाथ, आये हैं शरण प्रभु आपकी।।१।।
सिद्धप्रभु का करें आह्वानन, भक्ती से करते यहाँ स्थापन।
करें सन्निधिकरण व अर्चन, कोटि कोटी करें पाद वंदन।।
तीनों भुवन के नाथ, मुनिवृंद नत माथ।
लिया भक्ती का साथ, आये हैं शरण प्रभु आपकी।।
सिद्धिप्रिया के हो नाथ, तुम्हें नमाते हैं माथ।
हमें करिये सनाथ, आये हैं शरण प्रभु आपकी।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सीता नदी का सलिल शीतल, स्वर्ण झारी में भरूँ।
भव भव तृषा दुख शांति हेतू, नाथ पद धारा करूँ।।
सब कर्म बंधन रहित शिवतियनाथ पद वंदन करूँ।
चिंतामणि चैतन्यघन, निज आत्म अभिनंदन करूँं।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीर चंदन मिश्रकर, कंचन कटोरी में भरूँ।
जग में अनादी से लगी, संज्ञा चतु:ज्वर को हरूँ।।सब.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि रश्मि सम उज्ज्वल अखंडित शालि से थाली भरूँं।
चिरकाल संचित पापपुंजों को तुरत खंडित करूँ।।सब.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार चंपक केवड़ा सुरभित सुमन बहुविध भरूँ।
रतिपतिजयी१ जिनराज के पदकंज को पूजन करूँ।।सब.।।४।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीखंड पायस दुग्धफेनी, मोदकादी ले घने।
क्षुध प्यास की बाधा रहित, तुमको जजत हो सुख घने।।सब.।।५।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर बत्ती की शिखा उद्योत दशदिश में करें।
तुम ज्ञानज्योति रूप हो इस हेतु हम अर्चन करें।।सब.।।६।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध गंधित धूप लेकर अग्नि में खेऊँ सदा।
सब कर्मपुंजों को जलाकर आत्मसुख सेवूूं कदा२।।सब.।।७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर अमृतफल अनारों से भराया थाल मैं।
तुम नाथ परमानंदकारी अब नमाऊँ भाल मैं।।
सब कर्म बंधन रहित शिवतियनाथ पद वंदन करूँ।
चिंतामणि चैतन्यधन, निज आत्म अभिनंदन करूँं।।८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि फल पर्यंत वसुविध अर्घ्य से थाली भरूँ।
अनमोल संपति हेतु मैं जिनपाद की अर्चा करूँ।।सब.।।९।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! दया करके भवदधि से तिरा दीजे।
निज आत्मा की रत्नत्रय निधि को दिला दीजे।।हे नाथ.।।
गंगानदि का पावन, जल भर कर मैं लाया।
प्रभु आप चरण पंकज, धारा करने आया।
त्रिभुवन में शांती हो प्रभु ऐसी कृपा कीजे।।हे नाथ.।।
शारीरिक मानस अरु आगंतुक संकट हैं।
तुम पद की भक्ति करके, सब व्याधी विघटित हैं।।
प्रभु शांतीधारा से शाश्वत शांती कीजे।।हे नाथ.।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हे नाथ! दया करके भवदधि से तिरा दीजे।
निज आत्मा की रत्नत्रय निधि को दिला दीजे।।हे नाथ.।।
बेला गुलाब चंपा, सुरभित बहु पुष्प लिये।
प्रभु चरण सरोरुह में, अर्पण कर हर्ष हिये।।
पुष्पांजलि के फल से, निज सौख्य दिला दीजे।।हे नाथ.।।
जो भक्त सदा प्रभु की, रुचि से अर्चा करते।
वे रोग शोक दुख क्या, यम को भी हरा सकते।।
शाश्वत सुख की आशा, बस पूर्ण करा दीजे।।हे नाथ.।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दुष्ट कर्म अरि नाश के, निज स्वतंत्र पद प्राप्त।
पुष्पांजलि कर पूजते, होवें निजगुण प्राप्त।।१।।
अथ मंडलस्योपरि षष्ठवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जो केवलज्ञान प्राप्त करके, त्रिभुवन को युगपत् जान रहे।
उत्पाद नाश अरु ध्रौव्य सहित, सब सिद्ध परम आनंद लहें।।
भवकारण सब विध्वंस किया, हम उनकी पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं चिरतरसंसारकारण-अज्ञाननिर्धूत-केवलज्ञानातिशयसंपन्न-सिद्धाधिपतये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मतिज्ञान भेद हैं तीन शतक, छत्तीस व संख्यातीते भी।
सबका आवरण विनाश किया, पाया निज का पद तुमने ही।।
निज के मतिज्ञान विकास हेतु, सिद्धों की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं आभिनिबोधकवारकविनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पच्चीस भेद श्रुत ग्यारह अंग व चौदह पूर्व कहाये हैं।
इन सबके भेद असंख्याते भी, श्रुत में मुनि ने गाये हैं।।
इनसे विरहित केवलज्ञानी, सिद्धोें की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटिव होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगविश्रुत अवधिज्ञान छह विध, या असंख्यात भेदोंयुत हैं।
सबका आवरण विनाश किया, इसलिये ज्ञान तुम अनवधि है।।
क्षयोपशम ज्ञान शून्य क्षायिक ज्ञानी की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं असंख्यातलोक भेदभिन्न-अवधिज्ञानावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्यय ज्ञान द्विविध उसमें, भी भेद असंख्याते माने।
उन सब आवरण रहित सिद्धों, का पूर्ण ज्ञान त्रिभुवन जानें।।
मनपर्ययज्ञान प्राप्त हेतू सिद्धों की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटिव होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं असंख्यप्रकारमन:पर्यय-ज्ञानावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छह द्रव्य अखिल पर्यायों को, यह केवलज्ञान जान लेता।
इसका आवरण विनाश किया, त्रिभुवन को एक साथ देखा।।
हम केवलज्ञान हेतु केवल, सिद्धोें की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं निखिलगुणपर्याय-अवबोधककेवलज्ञानावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलदर्शन सकल विमल है, युगपत् तिहुँजग देखे।
इस आवरण रहित सिद्धोें को, जजत निजातम देखें।।
निज शुद्धातम अनुभव हेतू, सब सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं सकलदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चक्षुदर्शनावरण विषय की, सत्ता को अवलोके।
चक्षु इन्द्रियावरण क्षयोपशम से वह होता नीके।।
भेद असंख्यातोंयुत इनसे रहित सिद्ध को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं चक्षुर्दर्शनावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संस्पर्शन रसना व घ्राण अरु श्रोत्रेन्द्रिय से होता।
यह अचक्षुदर्शन संसारी सब जीवों के होता।।
इसका सब आवरण विनाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं अचक्षुर्दर्शनावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान के पहले अवधीदर्शन सद्दृष्टी को।
होता उसके आवरणों को नाश किया नत उनको।।
क्षयोपशम दर्शन से विरहित, सब सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं अवधिदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूत भविष्यत वर्तमान की , द्रव्य व पर्यायों को।
युगपत् देखें केवलदर्शन, नमूँ सदा मैं इसको।।
केवलदर्शनरज को नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं केवलदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चलते बैठे अथवा सोते, जन ले लेते निद्रा।
इसके वश में सब संसारी, महारोग यह निद्रा।।
जिनने नाशा स्वात्मधाम से, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं निद्राकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐसा सोवे कोई जगावे, नेत्र खोल नहिं पावे।
निद्रानिद्रा कर्म उदय से, ऐसी नींद सतावे।।
इसको नाशा आत्मध्यान से, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं निद्रानिद्राकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किंचित् आँख खुली भी सोवे, कुछ कुछ जगता रहता।
प्रचला हल्की निद्रा, फिर भी ज्ञान शून्य ही रहता।।
निज आतम अनुभव से नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं प्रचलाकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐसी निद्रा लार बहे अरु, अंग चलाचल होते।
प्रचलाप्रचला नींद सतावे, गाढ़ नींद में सोते।।
स्वात्मसुधारस पीकर नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं प्रचलाप्रचलाकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोते में बोले उठकर कुछ, कार्य करे फिर सोवे।
फिर भी भान रहे ना कुछ भी, ऐसी निद्रा होवे।।
नाश किया स्त्यानगृद्धि यह, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१६।।
ॐ ह्रीं स्त्यानगृद्धिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसार में साता व असाता हैं जीव के।
सुख दु:ख भोगते हैं वेदनीय कर्म से।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण सौख्य जो धरें।
उन सिद्ध को जजें निजात्म सौख्य को भरें।।१७।।
ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भोजन वसन स्त्री सुगंध द्रव्य सुख करें।
साता उदय से जीव इन्हें प्राप्त ही करें।।इस.।।१८।।
ॐ ह्रीं सातावेदनीयकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरि शस्त्र विषादिक अनिष्ट वस्तुयें सभी।
होती असाता के उदय से दु:खदायि भी।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण सौख्य जो धरें।
उन सिद्ध को जजें निजात्म सौख्य को भरें।।१९।।
ॐ ह्रीं असातावेदनीयकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहनीकर्म को नाश के सिद्ध हो।
दोष से शून्य हो वीतरागी तुम्हीं।।
नाथ! मेरे सभी दोष को नाशिये।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२०।।
ॐ ह्रीं प्रबलमहामोहकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म मिथ्यात्व से आत्म श्रद्धा न हो।
नाश के आप ही सिद्ध आत्मा हुये।।
नाथ! सम्यक्त्व दीजे मुझे आज ही।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२१।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्य झूठे पदार्थादि में जो रुची।
मिश्र को नाश के सिद्ध आत्मा हुये।।
तीसरे भाव को नास वâीजे प्रभो!।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्मिथ्यात्वकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध सम्यक्त्व ना हो मलिन दोष हों।
आप सम्यक् प्रकृति नाश के सिद्ध हो।।
चल मलिन दोष से शून्य सम्यक्त्व दो।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२३।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अनंतों भवों का कहा हेतु है।
ये अनंतानुबंधी महाक्रोध है।।
नाश के सिद्ध हो सिद्ध मैं भी बनूं।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२४।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-क्रोधकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान मिथ्यात्व सहचारि संसार में।
नाश के आप मुक्त्यंगना को वरी।।
स्वाभिमानी बनूँ स्वात्मसंपद् भरूँ।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२५।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-मानकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंचना नाम माया से तिर्यग्गती।
ये अनंतानुबंधी भ्रमावें यहाँ।।
नाश के आप मुक्तीरमा वश किया।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२६।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-मायाकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ मिथ्यात्व संगी रुलावे सदा।
आत्मघाती किया नाश इसका प्रभो।।
धार संतोष पाऊँ निजानंद को।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२७।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-लोभकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध अप्रत्याख्यानावरणी, इसे घात प्रभु ने शिवपरणी।
मैं भी स्वात्म क्षमा गुण पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।२८।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अस्थिसमान मान जो माना। नाश किया तुमने भवहाना।
मैं भी स्वाभिमान प्रगटाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।२९।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमानकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेषसींग सम दूजी माया। नष्ट किया शिवपद को पाया।
मन वच तन को सरल बनाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३०।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमायाकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ कषाय अप्रत्याख्यानी। अणुव्रत की भी करती हानी।
मैं भी स्वात्मसुधारस पाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३१।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणलोभकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध के। उदय हुये संयम नहिं प्रगटे।
अणुव्रत की शक्ती प्रगटाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३२।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान कषाय तीसरी मानी। महाव्रतों की करती हानी।
देशव्रती बन कर्म नशाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३३।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमानकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया प्रत्याख्यानावरणी। इसको नाशा प्रभु शिवपरणी।
इसके रहे देशव्रत पाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३४।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमायाकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ कषाय तीसरी मानी। मुनि के नहीं कहे जिनवानी।
इसको नाश स्वात्मनिधि पाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३५।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणलोभकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है संज्वलनक्रोध इस जग में। जल रेखा सम रहता मुनि में।
इसे नाश संयम निधि पाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३६।।
ॐ ह्रीं संज्वलनक्रोधकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौथी मानकषाय बखानी। महाव्रती बन सकते प्राणी।
इसको नष्ट किया गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३७।।
ॐ ह्रीं संज्वलनमानकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया संज्वलनी मुनि में भी। यथाख्यात नहिं होने देती।
तुमने नाश किया गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३८।।
ॐ ह्रीं संज्वलन मायाकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ कषाय चतुर्थी मुनि के। तीव्र रहे विकथादिक प्रगटें।
इससे रहित आप गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।३९।
ॐ ह्रीं संज्वलनलोभकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नो कषाय है हास्य नाम की। इसके उदय हंसी है आती।
इससे रहित सिद्ध गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४०।।
ॐ ह्रीं हास्यकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक कामिनी गेहादी में। रती उदय से प्रीति इनमें।
धर्म प्रीति हेतू गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४१।।
ॐ ह्रीं रतिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तु अनिष्ट देख अरती हो। दूर करें मुनि निज में रत हो।
इससे रहित सिद्ध गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४२।।
ॐ ह्रीं अरतिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग से। शोक प्रगट होता सब जन के।
इसके नाश हेतु गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४३।।
ॐ ह्रीं शोकशंकानिवारकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन में हो अनिष्ट से भीती। भय के उदय दु:ख यह रीती।
इससे रहित आप गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४४।।
ॐ ह्रीं भयभंजकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निंद्य वस्तु से होती ग्लानी। उदय जुगुप्सा से यह मानी।
इसके नाश हेतु गुण गाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४५।।
ॐ ह्रीं जुगुप्साचिकित्सकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्त्रीवेद उदय होने से। नारी नर से प्रीतीr वर्तें।
इसे नाश निज समरस पाऊँ। सिद्ध प्रभू को शीश नमाऊँ।।४६।।
ॐ ह्रीं स्त्रीवेदविध्वंसकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुंवेदी स्त्री की इच्छा। करता वेद उदय से स्वेच्छा।
परमब्रह्म पदवी को पाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४७।।
ॐ ह्रीं पुंवेदनिवारकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नर नारी दोनोें की इच्छा। वेद नपुंसक उदय अपेक्षा।
वेदनाश निज में रम जाऊँ। सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।४८।।
ॐ ह्रीं नपुंसकवेदनिर्नाशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवगाहनगुण पात्र, निरुपम सुख के भोगी।
निरवधि सुस्थित मान, सिद्धिवधूपति योगी।।
ऐसे सिद्ध महान्, नितप्रति भक्ति बढ़ाऊँ।
मिले निजातम ज्ञान, वसुविध अर्घ्य चढ़ाऊँ।।४९।।
ॐ ह्रीं आयु:कर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नरकों में जा जीव, तेतिस सागर तक भी।
भोगे दु:ख अतीव, गणधर कह न सकें भी।।
नरकायू को नाश, सिद्ध बने शिव स्वामी।
इसका करूँ विनाश, नमूँ सिद्ध अनुगामी।।५०।।
ॐ ह्रीं नरकायु:कर्मनिवारकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन पल्य उत्कृष्ट, तिर्यंचायु कही है।
श्वांस के अठरह भाग, आयु जघन्य रही है।।
दु:ख असंख्य प्रकार, तिर्यग्गति में पाये।
लीजे नाथ! उबार, नमूँ सिद्ध शिर नाये।।५१।।
ॐ ह्रीं तिर्यगायु:कर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन पल्य उत्कृष्ट, भोगभूमि में मानी।
मनुष आयु नर इष्ट, मध्यम बहुविध मानी।।
श्वांस में अठरह भाग, आयु जघन्य मनुज की।
नाश किया प्रभु आप, नमूँ सिद्ध पद नित ही।।५२।।
ॐ ह्रीं मनुष्यायु:कर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव आयु उत्कृष्ट, तेतिस सागर मानी।
जघन आयु दस सहस, वर्ष कहे जिनवानी।।
इसको नाश जिनेन्द्र, आप सिद्ध पद पाया।
नमते इन्द्र नरेन्द्र, मैं भी शरणे आया।।५३।।
ॐ ह्रीं देवायु:कर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम कर्म नाश सूक्ष्म गुण समेत सिद्ध हो।
मैं नमूँ त्रिकाल नाथ! नाम कर्म नष्ट हो।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिये भवाब्धि से उबारिये।।५४।।
ॐ ह्रीं नामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घोर दु:खदायिनी नरकगती प्रसिद्ध है।
पाप से मिले इसे विनाश आप सिद्ध हैं।।आधि.।।५५।।
ॐ ह्रीं नरकगतिनामकर्मनिवारकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख प्यास छेदनादि भेदनादि कष्ट हैं।
एक इन्द्रि से पंचेंद्रि प्राणि सर्व भीत हैं।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिये भवाब्धि से उबारिये।।५६।।
ॐ ह्रीं तिर्यग्गतिनामकर्मछेदकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्ष का उपाय नरगती में शक्य है।
तीन रत्न पाय के मनुष्य गती धन्य है।।आधि.।।५७।।
ॐ ह्रीं मनुष्यगतिनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ ऋद्धियों समेत देवयोनि श्रेष्ठ है।
किंतु एक इंद्रि हो सकें अत: अनिष्ट है।।आधि.।।५८।।
ॐ ह्रीं देवगतिनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक इन्द्रि भूमि अग्नि वायु जल वनस्पती।
जन्म धार धार के अनंत जीव हैं दुखी।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्धधाम में बसे।
कर्म शून्य धाम दो हमें इसीलिये जजें।।५९।।
ॐ ह्रीं एकेन्द्रियजातिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंख जोंक केंचुआ द्वि इन्द्रियों को धारते।
कष्ट भोगते अनंत सुख कभी न पावते।।जाति.।।६०।।
ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजातिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चींटि मत्कुणादि तीन इन्द्रियों को पायके।
जन्म मृत्यु धारते कुयोनि पाय पाय के।।जाति.।।६१।।
ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजातिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मक्खि मच्छरादि चार इन्द्रि जीव जन्मते।
बार बार जन्म मृत्यु दुख असंख्य भोगते।।जाति.।।६२।।
ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजातिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच इन्द्रियों समेत नारकी तिर्यंच भी।
देव मनुज हों उन्हीं में क्रूर हिंस्र जंतु भी।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्धधाम में बसे।
कर्म शून्य धाम दो हमें इसीलिये जजें।।६३।।
ॐ ह्रीं पंचेन्द्रियजातिकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औदारिक तनु धारते, नर तिर्यंच सदैव।
इसे नाश शिवपद लिया, जजूँ भक्तिवश एव।।६४।।
ॐ ह्रीं औदारिकशरीरनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव नारकी वैक्रियक, देह धरें जग मध्य।
इसे नाश अशरीर हो, नमत करूँ भव अंत।।६५।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकशरीरनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि आहारक ऋद्धियुत, संशय दूर करंत।
इसे नाश सिद्धातमा, नमत करूँ भव अंत।।६६।।
ॐ ह्रीं आहारकशरीरनामकर्मविनाशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तैजसकर्मोदय सहित, सब संसारी जीव।
इसे नाश अशरीर हो, नमते सौख्य अतीव।।६७।।
ॐ ह्रीं तैजसशरीरकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्मण कर्म उदय सहित, जग में सिद्ध भ्रमंत।
कर्मपिंड को नाश कर, भए सिद्ध भगवंत।।६८।।
ॐ ह्रीं कार्मणशरीरनामकर्मछेदकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औदारिक परमाणु से, तनु का बंधन मान्य।
इसे नाश शिव पद बसे, नमत मिले सुख साम्य।।६९।।
ॐ ह्रीं औदारिकबंधनकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रिय तनु बंधन निमित, सुघटित तनु बन जाय।
कर्मनाश सिद्धातमा, जजूँ चरण सुखदाय।।७०।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकबंधनकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहारकबंधन निमित, छिद्र रहित तनु होय।
इसे नाश शिवपद लिया, नमत तुम्हें सुख होय।।७१।।
ॐ ह्रीं आहारकबंधनकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तैजसबंधन के निमित, तनु में दीप्ति लसंत।
देह शून्य प्रभु सिद्ध हो, नमूँ नित्य पदकंज।।७२।।
ॐ ह्रीं तैजसबंधनकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्माणबंधन उदय, पुद्गल आत्मप्रदेश।
एकमेक होकर रहें, इनसे रहित जिनेश।।७३।।
ॐ ह्रीं कार्मणबंधनशातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औदारिक अणु साथ में, आत्मा एकीरूप।
नाश किया तुमने अत:, नमूँ नमूँ चिद्रूप।।७४।।
ॐ ह्रीं औदारिकसंघातकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैक्रियपरमाणू मिले, आत्म प्रदेशहिं संग।
नाश किया संघात यह, नमते बनूँ असंग।।७५।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकसंघातकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहारक संघात से, रहित सिद्ध भगवान्।
नमूँ नमूँ सब सिद्ध को, मिले भेद विज्ञान।।७६।।
ॐ ह्रीं आहारकसंघातकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तैजस वर्गणा मिलीं, आत्म प्रदेशहिं संग।
इन्हें नास मुक्ती लिया, जजते बनूँ निसंग।।७७।।
ॐ ह्रीं तैजससंघातकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्माण संघात से, रहित निरंजन देव।
नमूँ सिद्ध परमात्मा, करूँ अमंगल छेव।।७८।।
ॐ ह्रीं कार्मणसंघातकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संस्थान प्रथम दशताल मान, समचतूरस्र सुंदर महान्।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।७९।।
ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय आकार जान।
वटवृक्ष सदृश ऊपर महान।।इस.।।८०।।
ॐ ह्रीं न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वामी सम तन आकार जान।
ऊपर कृश नीचे वृहत् मान।।इस.।।८१।।
ॐ ह्रीं बाल्मीक संस्थानरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय कुब्जक शरीर।
इससे विरूप जन हों अधीर।।इस.।।८२।।
ॐ ह्रीं कुब्जकसंस्थानरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे बामन आकार होय।
यह देह अपावन अथिर होय।।इस.।।८३।।
ॐ ह्रीं वामनसंस्थानरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस उदय देह बेडोल मान।
विषमाकृति हुंडक नाम जान।।इस.।।८४।।
ॐ ह्रीं हुंडकसंस्थानरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके सब अंग उपांग होत।
औदारिक अंगोपांग स्रोत।।इस.।।८५।।
ॐ ह्रीं औदारिकशरीरांगोपांगरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैक्रियिक सु अंगोपांग नाम।
इससे सुर तनु नयनाभिराम।।इस.।।८६।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकशरीरांगोपांगरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहारक अंगोपांग कर्म।पुतला बनता सुंदर सुशर्म।।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।८७।।
ॐ ह्रीं आहारकशरीरांगोपांगरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे नस बंधन कील अस्थि।
हो वङ्का सदृश अतिशायि शक्ति।।इस.।।८८।।
ॐ ह्रीं वङ्कावृषभनाराचसंहननिंहसकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे हों वङ्का समान अस्थि।
हों कील वङ्का की अतुल शक्ति।।इस.।।८९।।
ॐ ह्रीं वङ्कानाराचसंहननरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे कीलें सामान्य जान।
हों अस्थि वङ्कासम शक्तिमान।।इस.।९०।।
ॐ ह्रीं नाराचसंहननशातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अस्थी में कीलें तरफ एक।
संहनन अर्धनाराच देख।।इस.।।९१।।
ॐ ह्रीं अर्धनाराचसंहननशातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय से सर्व अस्थि।
आपस में कीलित हों स्वशक्ति।।इस.।।९२।।
ॐ ह्रीं कीलकसंहननरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नस से बन्धी हों अस्थि संधि।
नहिं आपस में कीलित विसंधि।।इस.।।९३।।
ॐ ह्रीं असंप्राप्तसृपाटिकासंहननरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय तनु धरे वर्ण।
यह श्वेत शस्त या अशुभ वर्ण।।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध ।
मैं जजत बनूँ निज गुण समृद्ध।।९४।।
ॐ ह्रीं श्वेतनामकर्मकृंतकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय से पीत गात्र।
शुभ अशुभ धरें सब जीव मात्र।।
इस पुद्गल गुण से मुक्त सिद्ध ।
मैं जजत बनूँ निज गुण समृद्ध।।९५।।
ॐ ह्रीं पीतनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग जीव देह में हरित वर्ण।
शुभ अशुभ कर्म से विविध वर्ण।।इस.।।९६।।
ॐ ह्रीं हरितनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मोदय वश तनु धरे कृष्ण।
शुभ अशुभ विविध देहादि वर्ण।।इस.।।९७।।
ॐ ह्रीं कृष्णनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मोदय वश से लाल देह।
सब जीव धरें शुभ में सनेह।।इस.।।९८।।
ॐ ह्रीं रक्तनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब प्राणी को प्रिय है सुगंध।
ये कर्म करे सब जगत अंध।।इस.।।९९।।
ॐ ह्रीं सुगंधनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय दुर्गंध गात्र।
प्राणी हो जाते दु:खपात्र।।इस.।।१००।।
ॐ ह्रीं दुर्गंधनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धरें तिक्तरससहित देह।
कर्मोदय वश से विविध एह।।इस.।।१०१।।
ॐ ह्रीं तिक्तरसनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो कटुक वनस्पति आदि गात्र।
कर्मोदय से भी हों सुगात्र।।इस.।।१०२।।
ॐ ह्रीं कटुकरसनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाते कषायला रस समेत। कर्मोदय से हों, विविध भेद।।
इस पुद्गल गुण से मुक्त सिद्ध।मैं जजत बनूँ निज गुण समृद्ध।।१०३।।
ॐ ह्रीं कषायरस्नाामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु अम्ल मिलत कर्मन वशात्।
एकेन्द्रिय आदिक विविध जात।।इस.।।१०४।।
ॐ ह्रीं आम्लरसनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मधुर देह को पाय जीव।
तनु धर धर मरते दुख अतीव।।इस.।।१०५।।
ॐ ह्रीं मधुररसनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु मृदु स्पर्श यह कर्म कार्य।
निज तत्त्व ज्ञान बिन कष्ट धार्य।।इस.।।१०६।।
ॐ ह्रीं मृदुत्वस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्कश स्पर्श तनु धरत जीव।
संसार भ्रमण दुष्कर अतीव।।इस.।।१०७।।
ॐ ह्रीं कर्कशस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु तनु भी कर्मोदय निमित्त।
त्रस थावर योनी धरत नित्त।।इस.।।१०८।।
ॐ ह्रीं गुरूस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लघु तनु धर धर प्राणी भ्रमंत।
निज आत्म ज्ञान बिन नाहिं अंत।।इस.।।१०९।।
ॐ ह्रीं लघुस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदि जीव के शीत देह।
नहिं कर्म नाश बिन हों विदेह।।इस.।।११०।।
ॐ ह्रीं शीतस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नी आदिक के देह उष्ण।
निश्चयनय से मैं शुद्ध जिष्णु।।इस.।।१११।।
ॐ ह्रीं उष्णस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिकना तनु कर्मोदय निमित्त।आत्मा स्वभाव से शुद्ध नित्त।।
इस पुद्गल गुण से मुक्त सिद्ध ।मैं जजत बनूँ निज गुण समृद्ध।।११२।।
ॐ ह्रीं स्निग्धस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूखा तनु धर धर मरें जीव।
स्पर्श रहित आत्मा शुचीव।।इस.।।११३।।
ॐ ह्रीं रूक्षस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पर्याप्त पंचेंद्रिय मनुज या पशू पाप क्रिया करें।
नरकायु बांधे यहाँ से मर कर नरक में भव धरें।।
विग्रहगती में पूर्व का आकार या अनुपूर्वि है।
उनको नमूँ जिनने हना यह नरकगति अनुपूर्वि है।।११४।।
ॐ ह्रीं नरकगत्यानुपूर्विदाहकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों गती के जीव यदि तिर्यग्गती जाने लगें।
तनु पूर्व का आकार तिर्यग् आनुपूर्वी को उदै।।
गति आयु विरहित शुद्ध परमानंदमय शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।११५।।
ॐ ह्रीं तिर्यग्गत्यानुपूर्विदाहकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों गती के जीव भी नर जन्म धर सकते यहाँ।
विग्रहगती में आनुपूर्वी का उदय श्रुत में कहा।।
गति आनुपूर्वी रहित परमानंदमय शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।११६।।
ॐ ह्रीं मनुष्यगत्यानुपूर्विदाहकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवत्व पाने हेतु नर पशु आनुपूर्वी उदय से।
जो पूर्व तनु आकार धरते आपने नाशा उसे।।
देवानुपूर्वी रहित चिन्मय ज्योति मुझ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।११७।।
ॐ ह्रीं देवगत्यानुपूर्विदाहकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं अतिगुरू नहिं अति लघू तनु धरें संसारी सभी।
इस अगुरुलघु को नष्ट करके पा लिया पंचम गती।।
मैं नित्य परमानंद चिन्मय ज्योति धर शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।११८।।
ॐ ह्रीं अगुरुलघुत्वकर्मध्वंसकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज के हि अंगोपांग निज का घात कर देते जभी।
उपघात कर्मोदय निमित इस घात शिव पहुँचे तभी।।
मैं शुद्धनय से ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।११९।।
ॐ ह्रीं उपघातनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सींग दाढ़ादिक धरें गौ व्याघ्र सर्पादिक यहाँ।
परघात कर्मोदय निमित इस घात शिवपद ले यहाँ।।
मैं शुद्धनय से कर्म अंजन से रहित शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२०।।
ॐ ह्रीं परघातनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रवि के विमानहिं चमकते वे भूमिकायिक से बनें।
भू जीव आतप कर्मधारी जन्मते इनमें घने।।
सब शुद्धनय से शुद्ध भी निज कर्महन शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२१।।
ॐ ह्रीं आतपनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि तारकादि विमान में तनुधार पृथ्वी चमकते।
खद्योत भी उद्योत कर्मोदय धरें मिथ्यात्व से।।
प्रभु कर्म नाशा मुक्तिलक्ष्मीपति बने शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२२।।
ॐ ह्रीं उद्योतनामकर्मदाहकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब प्राणधारी जी रहे उच्छ्वास अरु निश्वास से।
यह नामकर्म विनाश कर लोकाग्र पे जो जा बसे।।
उन सिद्धसम मेरी सदा है शुद्ध बुद्ध चिदातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२३।।
ॐ ह्रीं उच्छ्वासनि:श्वासनिर्वासकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुंदर गमन हो जीव का शुभकर विहायोगति उदय।
इस कर्मविरहित सिद्धप्रभु हैं नित करूँ उनकी विनय।।
समरस सुधास्वादी मुनी ध्याते सदा निज आत्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२४।।
ॐ ह्रीं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे असुंदर हो गमन वह अप्रशस्त विहायगति।
इन कर्ममल विरहित विशुद्धात्मा लहें हैं सिद्धगति।।
मैं नित्य परमाल्हाद ज्ञायक, चित् चिदानंदात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२५।।
ॐ ह्रीं अप्रशस्तविहायोगतिनिर्वासकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निव&पामीति स्वाहा।
दो इन्द्रि से पंचेन्द्रि तक त्रस नाम कमो&दय धरें।
दुल&भ इसे भी प्राप्त कर ही भव्य रत्नत्रय धरें।।
त्रस रहित सिद्धों को नमूँ मैं बनूँ अंतर आतमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२६।।
ॐ ह्रीं त्रसकायरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं& निव&पामीति स्वाहा।
भू जल अगनि वायू वनस्पति पाँच स्थावर कहे।
इनके दयालू मुनी ही इस कम& के घातक रहें।।
निज पर दया कर मैं स्वयं बन जाऊँ शुद्ध चिदात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२७।।
ॐ ह्रीं स्थावरनामकमरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निव&पामीति स्वाहा।
बादर उदय से जीव पर से मरें पर को घातते।
त्रस थावरों में जन्मते मरते सदा दुख पावते।।
इस कम घातन हेतु महव्रत धर बनूँ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२८।।
ॐ ह्रीं बादरनामकमरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
जो सूक्ष्म कमोदय धरें नहिं पर निमित से मर सकें।
नहिं हो किसी का घात इनसे नहिं किसी को ये दिखें।।
इन थावरों से शून्य मैं ध्याऊँ सदा शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१२९।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मनामकमशोषकाय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
पर्याप्ति अपनी पूर्ण कर प्राणी तनू धरते यहाँ।
इस कर्म विरहित ज्ञान घन चैतन्य चिंतामणि कहा।।
मैं शुद्धनय से चिंतवन कर ध्याऊँ निज शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१३०।।
ॐ ह्रीं पयाप्तिनामकमरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
चउ पंच छह पयाप्तियाँ भी पूण जिनकी हों नहीं।
इस अपयाप्ती के उदय से क्षुद्र भव धरते सही।।
इस कम विरहित ज्ञानज्योती पुंज मुझ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१३१।।
ॐ ह्रीं अपयाप्तिनामकमनिरुद्धकाय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
जिस वनस्पति का एक जीवहि स्वामि हो प्रत्येक वो।
यह वनस्पति का भेद है इस नाश कर शिव गये जो।।
एकत्व निज का प्राप्त हो इस हेतु ध्याऊँ स्वात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१३२।।
ॐ ह्रीं प्रत्येकशरीरनामक हिंसकाय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
जो तनु अनंतानंत जीवों का बने बस एक हो।
शैवाल आदि अनंत कायिक नाम साधारण रहो।।
प्रभु नित्य इतर निगोद पर्याय ना लहूँ यह प्राथना।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।१३३।।
ॐ ह्रीं साधारणशरीरनामकमनिवासकाय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निव&पामीति स्वाहा।
रस आदि सात धातुयें स्थिर बनी रहें।
उपवास आदि से भी देह क्षीण ना बने।।
इस नामकर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।१३४।।
ॐ ह्रीं स्थिरनामकर्म रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यंनिवपामीति स्वाहा।
रस आदि धातुयें सदा अस्थिर बनी रहें।
उपवास आदि से सदा आकुल तनू रहे।।इस.।।१३५।।
ॐ ह्रीं अस्थिरनामकर्म रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अघ्यं निव पामीति स्वाहा।
शिर मुख व नासिकादि श्रेष्ठ आकृती कहीं।
शुभनाम कम& के उदय से पावते सही।।इस.।।१३६।।
ॐ ह्रीं शुभनामकम&नाशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शिर मुख व पैर आदि भी आकार अशुभ हों।
इस नाम के उदय से हीन देह प्राणि हों।।इस.।।१३७।।
ॐ ह्रीं अशुभनामकम&निवा&सकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे सभी जन अपने में प्रीति को करें।
इसको कहें सुभग तनु शुभ कर्मसे धरें।।इस.।।१३८।।
ॐ ह्रीं सुभगनामकम&रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निव&पामीति स्वाहा।
जिससे करें अप्रीती दुर्भाग उसे कहें।
इसके उदय से प्राणी अति दीन ही रहें।।इस.।।१३९।।
ॐ ह्रीं दुर्भागनामकर्म रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निव&पामीति स्वाहा।
सुस्वर हो कोकिला सम सबको मधुर लगे।
सुनते न तृप्ति होवे इस कर्म के उदै।।
इस नामकर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।१४०।।
ॐ ह्रीं सुस्वरनामकर्म रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
दु:स्वर हो सबको अप्रिय भाषा कठोर हो।
सुनना न कोई चाहे नीरस वचन अहो।।इस.।।१४१।।
ॐ ह्रीं दु:स्वरनामकर्म रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके उदय से तनु में कांती अपूव& हो।
आदेय उसको कहिये मन नेत्र पे्रय हो।।इस.।।१४२।।
ॐ ह्रीं आदेयप्रकृतिविध्वंसकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे शरीर रूखा नहिं कांति को धरे।
ये कर्म अशोभन व अनादेय दुख करे।।इस.।।१४३।।
ॐ ह्रीं अनादेयप्रकृतिविध्वंसकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निव&पामीति स्वाहा।
जिससे सुयश हो जग में गुण हों भी या न हों।
वह कर्म यशस्कीति& अतिशायि कीर्ति हो।।इस.।।१४४।।
ॐ ह्रीं यशस्कीति&नामकम&घातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निव&पामीति स्वाहा।
शुभ कार्य करें गुण हों फिर भी अकीर्ति हो।
यह नाम अयशकीर्ति मन में अशांति हो।।इस.।।१४५।।
ॐ ह्रीं अयशस्कीर्ति नामकर्म घातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निव&पामीति स्वाहा।
सुंदर व असुंदर शरीर की करे रचना।
निमा&ण कर्म ही तो विधाता यहाँ बना।।इस.।।१४६।।
ॐ ह्रीं निमा&णनामकर्म रहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निव&पामीति स्वाहा।
तीथेश प्रकृति पुण्यराशि सर्व श्रेष्ठ है।
इसके उदय से धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति है।।
फिर भी ये कर्म बंधन जग में ही रोकता।
प्रभु सिद्ध को जजूँ मैं मेटो जगत व्यथा।।१४७।।
ॐ ह्रीं पंचकल्याणकचतुस्त्रिंशदतिशय-अष्टप्रातिहार्य-समवसरणादिविभूतियुक्त-आर्हत्यलक्ष्मीहेतुतीर्थ करनामकर्मो ज्जासकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जग में ऊँच व नीच, कुल में जन्म धरावे।
गोत्र कर्म भव बीच, सब जन को हि भ्रमावे।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्म अरी दल भाजें।।१४८।।
ॐ ह्रीं गोत्रकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उच्च गोत्र से जीव, श्रेष्ठ कुलों में जन्में।
शिव सुख हेतु अतीव, मिलें सहज ही उनमें।।इसे.।१४९।।
ॐ ह्रीं उच्चगोत्रकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नीच गोत्र में जंतु, हीन वंश में आते।
शिवकारण की पूर्ण, सामग्री नहिं पाते।।इसे.।१५०।।
ॐ ह्रीं नीचगोत्रकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतराय का उदय हुये से, विघ्न पड़े सब कार्यों में।
अतुल शक्तियुत आत्मा भी तो, हीन बना है भव भव में।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नितप्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।१५१।।
ॐ ह्रीं अंतरायकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छा होती दान करें हम, अंतराय ही विघ्न करे।
धन होवे पर दान नहीं कर, सकें यही हो दु:ख अरे।।इनसे.।।१५२।।
ॐ ह्रीं दानान्तरायकर्मदाहकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध लाभ चाहने पर भी, लाभांतराय ही विघ्न करे।
लाभ न हो इच्छानुसार तब, मन में होता खेद अरे।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नितप्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।१५३।।
ॐ ह्रीं लाभान्तरायकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अशन पान मालादिक सब, भोगान्तराय से नहिं मिलते।
भविजन हृदय कमल मुकुलित हैं, ज्ञानसूर्य बिन नहिं खिलते।।इनसे.।।१५४।।
ॐ ह्रीं भोगान्तरायकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्त्री वस्त्र आदि सब उप-भोगांतराय से नहीं मिलें।
आत्मसुधारस आस्वादी मुनि, उनको ही निज सौख्य मिले।।इनसे.।।१५५।।
ॐ ह्रीं उपभोगान्तरायकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज की शक्ती प्रगट न होवे, वीर्य विघ्न का उदय कहा।
निज अनंत शक्ती मिल जावे, इसीलिये तुम शरण लिया।।इनसे.।।१५६।।
ॐ ह्रीं वीर्यांतरायकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म आठोें सभी जीव को दु:ख दें।
मुक्ति साम्राज्य को छीन लीया प्रभो।।
स्वात्म सिद्धी मिले ज्ञानज्योती जगे।
आप को पूजते सर्व व्याधी टले।।१५७।।
ॐ ह्रीं कर्र्माष्टकरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक सौ आठ चालीस प्रकृति कही।
आपने नाशके मोक्षलक्ष्मी लिया।।
कर्म से शून्य परमात्मसुख के लिये।
मैं जजूँ आपको लब्धियां नौ मिलें।।१५८।।
ॐ ह्रीं शताष्टचत्वािंरशत्कर्मप्रकृतिमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के भेद संख्यात हों आठ के।
नाश के आपने सिद्धिकांता वरी।।
स्वात्मसिद्धी मिले ज्ञानज्योती जगे।
आपको पूजते सर्व व्याधी टले।।१५९।।
ॐ ह्रीं संख्यातकर्मछेदकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के ही असंख्यात भी भेद हों।
नित्य संसार में ये रुलाते रहें।।
आपने नाश के सिद्धिकन्या वरी।
मैं नमूँ आपको स्वात्मसंपद मिले।।१६०।।
ॐ ह्रीं असंख्यातकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के भेद ये जो अनंते कहे।
सौख्य मेरा अनंता इन्होंने हरा।।
आपने नाशके सिद्धिकांता वरी।
मैं नमूँ आपको स्वात्मसंपद मिले।।१६१।।
ॐ ह्रीं अनंतकर्मविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म नाशे अनंते अनंते सभी।
आप ही ज्ञान आनन्त्य सिंधू कहे।।
मैं अनंतों गुणों को स्वयं ही वरूँ।
शक्ति ऐसी मिले आपकी भक्ति से।।१६२।।
ॐ ह्रीं अनन्तानन्तकर्मरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित्य आनंद के हो स्वभावी तुम्हीं।
सौख्य शाश्वत मिले आपकी भक्ति से।।
वर्ण गंधादि से शून्य शुद्धातमा।
मैं जजूँ आपको आश पूरो प्रभो!।।१६३।।
ॐ ह्रीं नित्यानंदस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! आनंदधर्मा चिदानंद हो।
पूर्ण आनंदधन सौख्य देवो मुझे।।
वर्ण गंधादि से शून्य शुद्धातमा।
मैं जजूँ आपको आश पूरो प्रभो!।।१६४।।
ॐ ह्रीं आनंदधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम आनंद धर्मा गुणांभोधि हो।
स्वात्मआनंद पाऊँ प्रभो भक्ति से।।
कल्पतरु आपसे याचना मैं करूं।
दीजिये तीन ही रत्न पूजूँ तुम्हेंं।।१६५।।
ॐ ह्रीं परमानंदधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग आदि से हीन, साम्यस्वभावी देव हो।
जजूँ भक्ति में लीन, समरस सुख झरना मिले।।१६६।।
ॐ ह्रीं साम्यस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साम्यस्वरूप महान्, समतादिक गुण के निलय।
नमूँ नमूँ गुणखान, साम्यरूप होवे प्रगट।।१६७।।
ॐ ह्रीं साम्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत की राशि, परमशुद्ध परमातमा।
नमत मिले सुख राशि, दोष अनंत समाप्त हो।।१६८।।
ॐ ह्रीं अनंतगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत अभिराम, आप रूप हो परिणमे।
शत शत करूँ प्रणाम, मिले नंतगुण संपदा।।१६९।।
ॐ ह्रीं अनंतगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अनंत धरंत, अनेकांत के नाथ हो।
तुम पद भक्ति करंत, समकित निधि अनुपम मिले।।१७०।।
ॐ ह्रीं अनंतधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अनंत समेत, आप स्वरूप महान् है।
जजूँ सिद्ध पद हेतु, निजस्वरूप विकसित करो।।१७१।।
ॐ ह्रीं अनंतधर्मस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग द्वेष से दूर, शम स्वभाव भगवान् हो।
ज्ञान सुधारस पूर, भर दीजे भक्ती करूँ।।१७२।।
ॐ ह्रीं शमस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शम से तुष्ट महान्, सब विभाव से दूर हो।
जजत बनूँ धनवान्, स्वात्म सौख्य भंडार हो।।१७३।।
ॐ ह्रीं शमतुष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं धन से संतोष, उपशम से ही शांति हो।
मिले स्वात्म संतोष, जजत कषायों को हनूँ।।१७४।।
ॐ ह्रीं शमसंतोषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साम्यभाव स्थान, परमानंद प्रदानकृत्।
सप्तपरम स्थान, सिद्धों को जजते मिले।।१७५।।
ॐ ह्रीं साम्यस्थानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समभावों से श्रेष्ठ, अगणित गुणमणि प्राप्त हो।
नमूँ सिद्ध जग ज्येष्ठ, राग द्वेष हर साम्य दो।।१७६।।
ॐ ह्रीं साम्यगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समता से कृतकृत्य, सिद्धिरमा के पति हुये।
पूजन से सत्कृत्य, वीतरागता को भजूँ।।१७७।।
ॐ ह्रीं साम्यकृतकृत्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ति नगर को छोड़, अन्य शरण नहिं आपको।
नमूँ नमूँ कर जोड़, शरण लिया मैं आपकी।।१७८।।
ॐ ह्रीं अनन्यशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रादिक में नाहिं, ऐसे गुण बस आपमें।
नमूँ आप पद माहिं, निजगुण संपति दो मुझे।।१७९।।
ॐ ह्रीं अनन्यगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्य जनों में नाहिं, ऐसा ज्ञान महान् है।
जजूँ चरण युग माहिं, मेरा ज्ञान प्रमाण हो।।१८०।।
ॐ ह्रीं अनन्यप्रमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना भेद प्रमाण, है प्रत्यक्ष परोक्ष से।
इनसे रहित महान्, जजूँ सिद्ध को भक्ति से।।१८१।।
ॐ ह्रीं प्रमाणमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम हो ब्रह्मस्वरूप, परमब्रह्म परमातमा।
मिले स्वात्मचिद्रूप, जजूँ सिद्ध को भक्ति से।।१८२।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मज्ञान गुणमान्य, चिच्चैतन्य स्वरूप हो।
मिले परम शुद्धात्म, नमूँ आपको भक्ति से।।८३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मज्ञान चैतन्य, चिन्मय चिंतामणि प्रभो।
मिटे जगत वैषम्य, नमते इच्छित फल मिले।।१८४।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध सिद्ध भगवान्, भाव पारिणामिक धरें।
स्वात्म सुधारस पान, करूँ सिद्ध की भक्ति से।।१८५।।
ॐ ह्रीं शुद्धपारिणामिकभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध स्वभाव धरंत, भाव कर्ममल से रहित।
नमूँ सिद्ध भगवंत, मेरा मन पावन करो।।१८६।।
ॐ ह्रीं शुद्धस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्त रौद्र दुर्ध्यान, भाव अशुद्धी से रहित।
देवो धर्म महान्, चित्त शुद्ध होवे प्रभो!।।१८७।।
ॐ ह्रीं अशुद्धिरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मयमूर्ति अपूर्व, शुद्धि अशुद्धी से रहित।
नमते ज्ञान अपूर्व, मिले पूर्ण शुद्धी सहित।।१८८।।
ॐ ह्रीं शुद्ध्यशुद्धिरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन हुआ अनंत, शाश्वत सर्व विलोकते।
नमूूँ सिद्ध भगवंत, गुण अनंत के हो धनी।।१८९।।
ॐ ह्रीं अनंतदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय ज्योति धरंत, दर्श अनंतस्वरूप हो।
मेरे भव का अंत, होवे सिद्ध प्रभू जजूँ।।१९०।।
ॐ ह्रीं अनंतदृक्स्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत दर्शानंद, गुण स्वभाव धारो तुम्हीं।
नमूँ नमूँ सुखकंद, गुण अनंत पूरो प्रभो!।।१९१।।
ॐ ह्रीं अनंतदृगानंदस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत क्षायिक दर्श, उत्पादक तुम ही प्रभो।
क्षयोपशम गुण नष्ट, किया सिद्ध गुण को जजूँ।।१९२।।
ॐ ह्रीं अनंतदृगुत्पादकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्रुव अनंत भगवंत, द्रव्य नयाश्रित सिद्ध हो।
नहिं हो मेरा अंत, इसी हेतु पूजा करूँ।।१९३।।
ॐ ह्रीं अनंतध्रुवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाशरहित भगवंत, अनंत अव्यय भाव हो।
सौख्य अनंतानंत, आप भक्ति से प्राप्त हो।।१९४।।
ॐ ह्रीं अनंताव्ययभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवपद कहा अनंत, वही महल है आपका।
नमूँ मुक्तिश्री कंत, शुक्लध्यान दीजे मुझे।।१९५।।
ॐ ह्रीं अनंतनिलयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काल अनंत प्रमाण, सिद्धशिला पर राजते।
करो मेरा कल्याण, मृत्युजयी तुम पद जजूँ।।१९६।।
ॐ ह्रीं अनंतकालाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भाव अनंत प्रमाण, नित्य आपमें शोभते।
त्रिभुवन वंद्य महान्, नमूँ स्वात्मगुण हेतु मैं।।१९७।।
ॐ ह्रीं अनंतभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय ज्ञान स्वरूप, चिच्चैतन्य महान् हो।
गुणमणि स्वात्म स्वरूप, मिले आपकी भक्ति से।।१९८।।
ॐ ह्रीं चिन्मयस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित् चिंतामणि रूप, प्रभु चिद्रूप स्वरूप हो।
नमूँ सदा गुण रूप, चिंतित फलदाता तुम्हीं।।१९९।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिच्चैतन्य स्वरूप, धर्म एक अनुपम कहा।
परमशुद्ध चिद्रूप, नमूँ आप गुण हेतु मैं।।२००।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा की उपलब्धि किया, संतत प्रभु रहते उसमें ही।
मैं निज से निज में रम जाऊँ, इसलिये नमूँ तुमको नित ही।।
सिद्धों की भक्ती पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२०१।।
ॐ ह्रीं स्वात्मोपलब्धिरतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा का अनुभव करके, संपूर्ण कर्म को जला दिया।
निश्चय सम्यक्त्व मिले मुझको, इस हेतु प्रभू अर्चना किया।।सिद्धों.।।२०२।।
ॐ ह्रीं स्वानुभूतिरताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमामृत मोक्षधाम जग में, उसमें रत आप सिद्धिपति हैं।
यह नाम मंत्र है परम रसायन, सर्व व्याधिहर औषधि है।।
सिद्धों की भक्ती पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२०३।।
ॐ ह्रीं परमामृतरताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमामृत में संतुष्ट हुये, वे सिद्ध गुणों से पुष्ट रहें।
इस अमृत की इक बिंदु मुझे, मिल जावे जिससे तुष्टि लहें।।सिद्धों.।।२०४।।
ॐ ह्रीं परमामृततुष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज में ही प्रीति परम तुष्टी, इससे परिपुष्ट बलिष्ठ बनें।
परमात्मा में प्रीती प्रतिक्षण, स्थायि रहें तब सौख्य घने।।सिद्धों.।।२०५।।
ॐ ह्रीं परमप्रीतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तीकन्या के बल्लभ हो, अति श्रेष्ठ भुवन बल्लभ तुम ही।
इस भव में परभव में भी, बस मेरे साथ रहो तुम ही।।सिद्धों.।।२०६।।
ॐ ह्रीं परमबल्लभभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं प्रगट स्वभाव तुम्हारा है, बस योगी ही ध्या सकते हैं।
मेरे मन सरसिज में तिष्ठो, बस यही याचना करते हैं।।सिद्धों.।।२०७।।
ॐ ह्रीं अव्यक्तस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व स्वरूप तुम्हारा है, अणुमात्र न पर अपना होता।
एकत्व भावना मिल जावे, पूजा का लाभ यही होगा।।सिद्धों.।।२०८।।
ॐ ह्रीं एकत्वस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व नाम का गुण अनुपम, इससे ही आप जगद्गुरु हैं।
मैं एक अकेला त्रिभुवन में, बस आप ही एक मेरे प्रभु हैं।।सिद्धों.।।२०९।।
ॐ ह्रीं एकत्वगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व भावना को भाकर, मुनिराज स्वात्मसुख पाते हैं।
फिर चित्स्वभाव में तन्मय हो, त्रिभुवन के गुरु बन जाते हैं।।सिद्धों.।।२१०।।
ॐ ह्रीं एकत्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नय प्रमाणादि का द्वित्व जहाँ, नहिं रहता है बस एकात्मा।
निर्विकल्प ध्यान ऐसा उत्तम, जिससे प्रगटित हो परमात्मा।।
सिद्धों की भक्ती पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२११।।
ॐ ह्रीं द्वित्वविनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय से आत्मा शाश्वत है, नहिं जन्म मरण होता उसको।
निज शुद्ध ध्यान से प्रगट किया, नित नमूँ सदा उन सिद्धों को।।सिद्धों.।।२१२।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत प्रकाश को पैâलाया, तीनों जग में अद्भुत रवि हो।
मेरा मन कमल विकास करो, सब मोह अंधेरा विघटित हो।।सिद्धों.।।२१३।।
ॐ ह्रीं शाश्वतप्रकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत उद्योत किया भगवन्, नहिं गमन कदाचित् करते हो।
मेरे मन में उद्योत करो, अज्ञान तुम्हीं हर सकते हो।।सिद्धों.।।२१४।।
ॐ ह्रीं शाश्वतउद्योताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत धर्मामृत बरसाते, प्रभु आप एक अद्भुत शशि हो।
शुद्धात्म पियूष मुझे भी दो, जिससे मुझ आत्मा सुखमय हो।।सिद्धों.।।२१५।।
ॐ ह्रीं शाश्वतामृतचंद्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत अमृत की मूर्ति तुम्हीं, नहिं मरण आपका हो सकता।
निज आत्म सुधारस मिल जावे, जिससे मुझ मरण विनश सकता।।सिद्धों.।।२१६।।
ॐ ह्रीं शाश्वतअमृतमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब नाम कर्म को नष्ट किया, इससे प्रभु परमसूक्ष्म मानें।
मैं ध्यान धरूँ सूक्ष्मात्मा का, मेरे सब दुष्ट कर्म हानें।।सिद्धों.।।२१७।।
ॐ ह्रीं परमसूक्ष्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूक्ष्म गुणान्वित सब सिद्धों, को अवगाहन देने वाले।
इक सिद्ध में सिद्ध अनंतानंत, रहें सुअनंतगुणों वाले।।सिद्धों.।।२१८।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मावकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में सूक्ष्म अनंत गुणों, को युगपत् जान रहे हैं जो।
उन सूक्ष्म गुणान्वित सिद्धों को, वंदन करते ही शिवसुख हो।।
सिद्धों की भक्ती पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२१९।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो परमरूप में लीन रहे, वे निजस्वरूप में गुप्ति धरें।
निज से निज को निज में पाकर, अतिशायि स्वस्थ शिवधाम वरें।।सिद्धों.।।२२०।।
ॐ ह्रीं परमस्वरूपगुप्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मर्यादा रहित पूर्ण सुख का, जो संतत अनुभव करते हैं।
ऐसे सिद्धों को हृदय कमल, में मुनिगण धारण करते हैं।।सिद्धों.।।२२१।।
ॐ ह्रीं निरवधिसुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मर्यादा विरहित गुणमणि से, जो निज को भूषित कर शोभें।
उनके गुण का जो कथन करें, वे स्वयं सिद्ध गुण से शोभें।।सिद्धों.।।२२२।।
ॐ ह्रीं निरवधिगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधी विरहित निज के स्वरूप, में सुस्थित हुये अनंतावधि।
इन सिद्धों की स्तुति करते, मिल जावे निजस्वरूप निरवधि।।सिद्धों.।।२२३।।
ॐ ह्रीं निरवधिस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित ज्ञान पाकर, त्रिभुवन को युगपत् जान लिया।
तुलना से रहित सुयश पाकर, त्रिभुवन में कीर्ति बिखेर दिया।।सिद्धों.।।२२४।।
ॐ ह्रीं अतुलज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपमा से रहित सौख्य पाकर, जो काल अनंतों तक सुखमय।
जिनके पदकमल सतत मुनिगण, अपने मन से ध्याते गुणमय।।सिद्धों.।।२२५।।
ॐ ह्रीं अतुलसुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित भाव धरकर, लोकाग्र भाग पर राज रहें।
इनको मन में धारण करके, मुनिगण निजशुद्ध स्वभाव लहें।।सिद्धों.।।२२६।।
ॐ ह्रीं अतुलभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित अतुल गुण को, पाकर जो संतत तृप्त रहें।
उनके गुण का यश गाते ही, भविजन नितप्रति संतुष्ट रहें।।
सिद्धों की भक्ती पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२२७।।
ॐ ह्रीं अतुलगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अतुल प्रकाश धरें निज का , आत्मा की ज्योती अद्भुत है।
उन सिद्धों को चित में धरते, अज्ञान अंधेरा विघटित है।।सिद्धों.।।२२८।।
ॐ ह्रीं अतुलप्रकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर आदि डिगाने आवें, फिर भी जो अचल रहावें।
जो ऐसा ध्यान लगावें, वे सिद्ध बनें मुनि ध्यावें।।२२९।।
ॐ ह्रीं अचलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनने निश्चल गुण पाये, वे स्वात्मसुखास्पद पाये।
जो उनको नितप्रति पूजें, उनके सब पातक धूजें।।२३०।।
ॐ ह्रीं अचलगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अचल स्वभाव धरें हैं, शिवकन्या वे हि वरे हैं।
जो उनकी भक्ति करेंगे, वे निज की तृप्ति करेंगे।।२३१।।
ॐ ह्रीं अचलस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अचल स्वरूप धरंता, वे सिद्धिवधू के कंता।
उनको हम वंदन करते, संपूर्ण उपद्रव टलते।।२३२।।
ॐ ह्रीं अचलस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में ख्यात हुये हैं, अवलंबन रहित हुये हैं।
ऐसे सिद्धों का अर्चन, कर देता पाप निकंदन।।२३३।।
ॐ ह्रीं निरालंबाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पर के अवलंबन विरहित, सब परिग्रह संग विवर्जित।
ऐसे सिद्धों की भक्ती, इससे शिवपथ की युक्ती।।२३४।।
ॐ ह्रीं आलंबरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म लेप से हीना, गुणमणि युत निज में लीना।
ऐसे सिद्धों की अर्चा, जिससे निज की हो चर्चा।।२३५।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म कलंक विहीना, प्रभु निष्कलंक गुण लीना।
इन सिद्ध प्रभु को वंदूूं, यमराज दु:ख को खंडूं।।२३६।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज में ही अतिशय प्रीती, परद्रव्यों में अप्रीती।
इन सिद्ध प्रभू को पूजूँ, संपूर्ण दु:खों से छूटूँ।।२३७।।
ॐ ह्रीं आत्मरतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु निज स्वरूप में गुप्ती, इससे ही पायी मुक्ती।
मैं सिद्ध गुणों को ध्याऊँ, निज में समरस सुख पाऊँ।।२३८।।
ॐ ह्रीं स्वरूपगुप्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज शुद्ध द्रव्य के स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
आठों कर्मों से विरहित, सिद्धों को पूजूँ नितप्रति।।२३९।।
ॐ ह्रीं शुद्धद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों परिवर्तन शून्या, संसार भ्रमण दुख शून्या।
ऐसे सिद्धों का वंदन, मिट जावे भवभय क्रन्दन।।२४०।।
ॐ ह्रीं असंसाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आनंदामृत प्रीती, परभाव विरागी नीती।
प्रभु सिद्ध शरण में आयो, परमानंदामृत पायो।।२४१।।
ॐ ह्रीं स्वानंदरतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज का आनंद महाना, जिन भाव स्वरूप निधाना।
प्रभु सिद्ध चरण की श्रद्धा, करती धन धान्य समृद्धा।।२४२।।
ॐ ह्रीं स्वानंदभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनंदस्वरूप हमेशा, भव दु:ख रहित परमेशा।
मैं सिद्ध शरण में आके, निज सुख पायो हर्षाके।।२४३।।
ॐ ह्रीं स्वानंदस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज परमानंद गुणान्वित, संपूर्ण विभाव विवर्जित।
ऐसे सिद्धों की भक्ती, प्रगटावे आतम शक्ती।।२४४।।
ॐ ह्रीं स्वानंदगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आनंदामृत तुष्टी, निज गुण से ही परिपुष्टी।
ऐसे सिद्धों की अर्चा, मेटे भव भव दुख चर्चा।।२४५।।
ॐ ह्रीं स्वानंदसंतोषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब ही विभाव पर्यायें, हो गई शुद्ध मन भायें।
ऐसे सिद्धों को वंदूँ, निज को गुणमणि से मंडूं।।२४६।।
ॐ ह्रीं शुद्धभावपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पराधीनता विरहित, प्रभु पूर्ण स्वतंत्र गुणों युत।
मैं जजूँ भक्ति से प्रभु को, पाऊँ स्वतंत्रता गुण जो।।२४७।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्रधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्म स्वभाव अनूपा, परमाल्हादक गुणरूपा।
ऐसे सिद्धों को वंदूूं, कर्मारिशत्रु को खंडूं।।२४८।।
ॐ ह्रीं आत्मस्वभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित् भाव चिदानंददाता, निज शुद्धों की है माता।
ऐसे सिद्धों का अर्चन, संपूर्ण दुखों का मर्दन।।२४९।।
ॐ ह्रीं परमचित्परिणामाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिद्रूप ज्ञानगुणधारी, चैतन्य स्वरूप विहारी।
मैं नमूँ आप गुण गाऊँ, परमानंदामृत पाऊँ।।२५०।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिद्रूप चिदानंद स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
मैं जजूँ परम श्रद्धा से, तृप्ती हो ज्ञान सुधा से।।२५१।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्नातक परम तुम्हीं हो, वैâवल्यज्ञान संयुत हो।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ाके, निज सुख पाऊँ गुण गाके।।२५२।।
ॐ ह्रीं परमस्नातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शुद्ध धर्म के धारी, स्नात कहें नर नारी।
मैं वंदन करूँ रुची से, पा जाऊँ धर्म तुम्हीं से।।२५३।।
ॐ ह्रीं स्नातधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भुवन अवलोका, निज स्वात्म स्वरूप विलोका।
मैं नमूूँ शीश को नाऊँ, परमानंदामृत पाऊँ।।२५४।।
ॐ ह्रीं सर्वविलोकनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य शिखर पर तिष्ठे, परिवर्तन पाँच मिटाके।
मैं जजूँ युगल कर जोड़े, नानाविधि संपत दौड़े।।२५५।।
ॐ ह्रीं लोकाग्रस्थिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु लोक अलोक सुव्यापी, निज ज्ञानकिरण से व्यापी।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ, निज ज्ञान सूर्य प्रगटाऊँ।।२५६।।
ॐ ह्रीं लोकालोकव्यापकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सर्व सिद्ध अनादि अनिधन गुण सुगंधि बिखेरते।
अनुपम अखंडित ज्ञान रवि से साधु मन तम भेदते।।
मन वचन तन से शुद्ध हों, मैं करूँ प्रभु की अर्चना।
जल गंध आदिक अर्घ्य अर्पूं, करूँ यम की भर्त्सना।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं षट्पंचाशदधिक द्विशतगुणसमन्वित-सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:।
(१०८ लवंग या पीले तंदुल से जाप्य करना)
जय जय जिनवर, त्रिभुवन भास्कर, तुम कर्मरहित मुक्तीपति हो।
त्रिकरण शुद्धी से भक्ति करूँ, मेरे सब दु:खों की इति हो।।जय.।।टेक.।।
प्रभु चार अनंतानूबंधी, त्रय दर्शन मोह विनाश किया।
क्षायिक सम्यक्त्वी मुनी बने, फिर क्षपकश्रेणि को मांड लिया।।
गुणथान नवम में छत्तिस प्रकृती, नाश आप मुनिगणपति हो।।जय.।।१।।
दशवें में सूक्ष्म लोभ नाशा, नर आयु बिना त्रय आयु नहीं।
बारहवें में सोलह प्रकृती, कर नाश केवली हुये यहीं।।
इन त्रेसठ प्रकृती के क्षय से परमात्मा नव लब्धीपति हो।।जय.।।२।।
ज्ञानावरणी दर्शनावरण मोहनीय व अंतराय घाती।
पण नव अट्ठाइस पंच कहीं, त्रय आयु नाम की तेरह ही।।
इन कर्म रहित धनपति विरचित, प्रभु समवसरण लक्ष्मीपति हो।।जय.।।३।।
गुणथान चौदवें में द्विचरम के समय बहत्तर प्रकृति हनी।
फिर अंत समय तेरह प्रकृती, नाशा शिवतिय से प्रीति घनी।।
प्रभु गुणस्थान से रहित हुये, शिवधाम गये त्रिभुवनपति हो।।जय.।।४।।
इन इक सौ अड़तालिस प्रकृती, के भेद असंख्य अनंत कहे।
प्रभु द्रव्य भाव नो कर्म नाश, यमराज शत्रु का अंत किये।।
सुख ज्ञानदर्श वीरज आदिक, निज के अनंत गुण निधिपति हो।।जय.।।५।।
जो भव्य आपकी भक्ति करें, द्वयविध रत्नत्रय युक्ति धरें।
निज शक्ति प्रगट कर मुक्ति वरें, गुण रत्नों का शृंगार करें।।
तुम भक्तों को निज सम करते, इस से अद्भुत पारसमणि हो।।जय.।।६।।
मुनि मानतुंग ने स्तुति की, अड़तालिस ताले टूट गये।
श्रीसमंतभद्र गुरु स्तुति से, चंदाप्रभु भगवन् प्रगट हुये।।
मुनि पूज्यपाद की नेत्र ज्योति, प्रगटित कर आप शांतिप्रद हो।।जय.।।७।।
सीता ने प्रभु को ध्या करके, अग्नी को सरवर बना दिया।
चंदनबाला ने वीरप्रभू को, दे अहार यश प्राप्त किया।।
सति मनोवती को दर्श दिया, प्रभु आप श्रेष्ठ करुणापति हो।।जय.।।८।।
मैना सति ने प्रभु पूजा कर, पति का सब कुष्ठ निवारा था।
सति सुलोचना ने प्रभु को ध्या, पति को गंगा से तारा था।।
अगणित भक्तों ने यश गाया, प्रभु आप भक्त वत्सलपति हो।।जय.।।९।।
मैं भी चौरासी लाख योनि में, घूम घूम कर श्रांत हुआ।
अब ऐसा थल चाहूँ भगवन्, जहाँ पूर्ण रूप विश्राम कहा।।
प्रभु ‘ज्ञानमती’ केवल कर दो, बस आप ही श्रेष्ठ दानपति हो।
जय जय जिनवर, त्रिभुवन भास्कर, तुम कर्मरहित मुक्तीपति हो।।१०।।
सिद्धशिला पर राजते, सिद्ध अनंतानंत।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, पाऊँ सौख्य अनंत।।११।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं षट्पंचाशदधिकद्विशतगुणसमन्वित-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।