शिवतरु की जड़ सम्यग्दर्शन, इस बिना मोक्षफल क्या होगा।
भगवान्! तुम्हारी भक्ती से, बढ़ करके मोक्षपथ क्या होगा।।टेक.।।
भक्ती ही तो समकित, निश्चय व्यवहार द्विविध।
स्वात्मा की श्रद्धा ही, निश्चय सम्यक्त्व सहित।।
पाँचों परमेष्ठी श्रद्धा बिन, निश्चय समकित भी क्या होगा।भग.।।१।।
जिनपूजा सामायिक, शास्त्रोक्त विधी हो यदि।
अभिषेक सहित पूजा, इस सम नहिं कुछ दूजा।।
जिनपूजा बिन सामयिक व्रत, श्रावक का व्रत भी क्या होगा।।भग.।।२।।।
सिद्धों का आह्वानन, मन में कर अवतारण।
वसुविध करके अर्चन, पापों का हो खंडन।।
सिद्धों की भक्ती के बिन तो, आत्मा परमात्मा क्या होगा।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सरयू नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
सिद्धों के पाद पद्म में त्रयधार मैं करूँ।।
हे नाथ आपके गुणों की अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आप प्रार्थना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।केशर कपूर को घिस चंदन सुरभि लिया।
जिननाथ चरण चर्च मैं मन को सुवासिया।।
हे नाथ आपके गुणों की अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आप प्रार्थना करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंड शालि धोय थाल में भरे।
जिन अग्रपुंज धारते अखंड सुख भरें।।हे नाथ.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब केतकी चंपा खिले खिले।
जिनपाद में चढ़ावते सम्यक्त्व गुण मिले।।हे नाथ.।।४।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ी सोहाल मालपुआ थाल भर लिये।
जिन अग्र में चढ़ाय आत्मतृप्ति कर लिये।।हे नाथ.।।५।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप में कपूर ज्योति को जलावते।
जिन आरती करंत मोह तम भगावते।।हे नाथ.।।६।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूपपात्र में सुगंध धूप खेवते।
उन पाप कर्म भस्म होय आप सेवते।।हे नाथ.।।७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अष्टकर्मदहनाय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार आम संतरा मंगा लिया।
जिन अग्र में चढ़ाय श्रेष्ठ फल को पा लिया।।
हे नाथ आपके गुणों की अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आप प्रार्थना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ्य लेय श्रेष्ठ रत्न मिलाऊँ।
जिन अग्र में चढ़ाय चित्त कमल खिलाऊँ।।हे नाथ.।।९।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन भारती में अति पवित्र ज्ञान जल भरा।
इसमें से कुछ बूंदों को ले मन पात्र में भरा।।
प्रभु पादकमल में अभी जलधार मैं करूँ।
निज मन पवित्र होएगा यह आश मैं धरूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिनगुण कथन सुमन सुगंध वर्ण वर्ण के।
उनसे करूँ पुष्पांजलि हर्षित मना होके।।
सब आधि व्याधि दूर हों धन धान्य सुख बढ़ें।
जिन पाद अर्चना से आत्म दीप्ति भी बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
पाँच शतक बारह सुगुण, सिद्धों में विलसंत।
भक्ती से उनको जजूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
अथ मंडलस्योपरि सप्तमवलये (सप्तमदले)
पुष्पांजलिं क्षिपेत्।(तर्ज—यह नंदन वन…..)
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
अर्हंत प्रभू से बढ़कर के, जिनका प्रकाश पैâला जग में।
ऐसे सिद्धों की पूजा से, मनवांछित फल मिलता क्षण में।।
निज समरस सुख चखना चाहो, तो प्रभु की शरण में आ जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्द्योताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
नहिं पुनर्जनम जिनका होता, ऐसी अर्हंत अवस्था है।
इसको पाकर फिर सिद्ध बने, ये ही निर्वाण व्यवस्था है।।
इन सिद्धों की पूजा करके, तुम पुनर्जनम से छुट जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
अर्हंतों का चिन्मय चिद्रूप, सुगुण उत्तम प्रगटित होता।
इन गुण को पाकर सिद्ध बनें, इनसे निजगुण विकसित होता।।
इन सिद्धों की पूजा करके, चिन्मय चिंतामणि पा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्चिद्रूपगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
अर्हंतों का चित् चेतन गुण, यह शुद्ध चेतना प्राण कहा।
अर्हत्प्रभु ही तो सिद्ध बनें, उनमें प्रधान गुण मान्य रहा।।
ऐसे सिद्धों के अर्चन से, चैतन्य प्राण को पा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्चिद्गुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
अर्हंतों का वैवल्य ज्ञान, तीनों जग में उद्योत करे।
अर्हंत सिद्ध की पूजा ही, निज मन में भेद विज्ञान भरे।।
वैवल्यज्ञान गुण पूजा से, मन का अज्ञान नशा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्ज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
अर्हंतप्रभू का दर्शन गुण, त्रिभुवन को युगपत् देख रहा।
अर्हंतप्रभू ही सिद्ध बनें, इनकी पूजा से सौख्य महा।।
सिद्धों को हृदय कमल में नित, ध्या-२ कर पुण्य कमा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्दर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
क्षायिक अनंत शक्ती प्रगटे, यह वीर्य सुगुण अर्हंतों का।
अर्हंतप्रभू ही सिद्ध बने, इनकी भक्ती भवदधि नौका।।
निज में निज शक्ती प्रगटित हो, इसलिये सिद्ध के गुण गाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्वीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
आत्मा का दर्शन होते ही, संपूर्ण सुगुण विकसित होते।
अर्हंतों का दर्शन गुण है, इनके दर्शन से अघ धोते।।
इन सिद्धों के गुण गा गाकर, निज के गुण को भी प्रगटाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्दर्शनगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
संपूर्ण अनंत गुणों में भी, यह ज्ञान सुगुण महिमाशाली।
सब गुण का ज्ञान इसी से हो, यह सूर्य सदृश गुणमणिमाली।।
ज्ञानी सिद्धों की पूजा कर, निज में केवल रवि प्रगटाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्ज्ञानगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
यदि कर्मों से छुटना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
जो काल अनंतानंतों तक, त्रिभुवन जाने नहिं थकते हैं।
ऐसा वीरज गुण पा करके, प्रतिक्षण अनंत सुख लभते हैं।।
इन सिद्धों का अर्चन करके, संपूर्ण शक्ति को पा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्वीर्यगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
पूजा योग्य महान्, सम्यग्दर्शन गुण है।
इस युत जन धनवान, पा लेते निज गुण हैं।।
इस गुण से अर्हंत, बनकर सिद्ध बने हैं।
नमूँ नमूँ भगवंत, मिलते सुगुण घने हैं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सम्यक्त्वगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
स्वच्छ अतुल गुण श्रेष्ठ, पूजा योग्य जिन्हों में।
वे अर्हत्परमेष्ठि, सिद्धिरमा रत उनमें।।
मिले हमें गुण स्वच्छ, नमूँ नमूँ गुण गाऊँ।
अर्घ्य चढ़ा प्रत्यक्ष, जिनगुणसंपति पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्स्वच्छगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
द्वादशांग श्रुतज्ञान, पूजा योग्य जिन्हों का।
दिव्यध्वनी अमलान, पाते भवदधि नौका।।
प्राप्त करूँ श्रुतज्ञान, साम्य सुधारस पाऊँ।
नित्य करूँ गुणगान, आत्मगुणांबुधि पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हद्द्वादशांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
अतिशय पूजा योग्य, मती ज्ञान को पाके।
केवलज्ञान मनोज्ञ, पाया ज्योति जलाके।।
आभिनिबोधिक ज्ञान, पूर्ण करो शिर नाऊँ।
नमूँ सिद्ध भगवान्, अर्घ्य चढ़ा सुख पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हद्आभिनिबोधकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
श्रुतमय अवधीज्ञान, अंगपूर्व से पूरण।
पाते भेदविज्ञान, कर लेते गुण पूरण।।
निज में ज्ञान विकास, बने सिद्ध परमात्मा।
पूजूँ शुद्ध प्रकाश, बनूँ नित्य शुद्धात्मा।।
ॐ ह्रीं अर्हत्श्रुतावधिगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
अवधिज्ञान महान्, पूजा योग्य गुणाकर।
इससे प्रभु गुणवान्, बने श्रेष्ठ रत्नाकर।।
नमूँ सिद्ध भगवंत, चरणकमल को पूजूूँ।
निजगुण से विलसंत, भव भव दुख से छूटूँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अवधिगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
मनपर्यय को पाय, अर्हत् पदवी पाई।
इन्द्रों ने शिर नाय, पूजा भक्ति रचाई।।
मैं भी पूजूँ नित्य, झुक झुक शीश नमाऊँ।
पाऊँ अविचल सौख्य, सिद्धों के गुण गाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मन:पर्ययभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
केवल गुण असहाय, पर की नहीं अपेक्षा।
ऐसे गुण को पाय, जग की करी उपेक्षा।।
पूज्य प्रभू को पूज, केवलज्योति जगाऊँ।
सौ इन्द्रों से पूज्य, नमूँ नमूूँ गुण गाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
केवलज्योति स्वरूप, अर्हंतों का गुण है।
श्रेष्ठ शुद्ध चिद्रूप, परमहंस का गुण है।।
नमूँ नमूँ शिर टेक, अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ।
मिले निजातम एक, सर्व दुखों से छूटूँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
केवल दर्शन श्रेष्ठ, त्रिभुवन पूज्य कहाता।
नमत मिले पद ज्येष्ठ, मिटती सर्व असाता।।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, नमूँ नमूँ शिर नाऊँ।
पाऊँ गुण समुदाय, सिद्धप्रभू को ध्याऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
केवलज्ञानी श्री अरिहंत, लोकालोक सकल जानंत।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
अर्हन् केवल वीर्य धरंत,प्रगट किया निज शक्ति अनंत।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
त्रिभुवन के मंगल करतार,श्री अरहंत देव सुखकार।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
निज आत्मा अवलोकनकार, अर्हन् मंगल दर्शनसार।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
पूर्णज्ञान मंगलमय मान्य, अर्हत् पूजा योग्य महात्म्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
अर्हत्प्रभु का वीर्य महान्, मंगलदायी सर्वप्रधान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
मंगल द्वादशांग श्रुतज्ञान, अर्हत् पद का मूल निदान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलद्वादशांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
मतिज्ञान के भेद असंख्य, मंगल अर्हत् पद दें वंद्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलाभिनिबोधकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
द्रव्य भाव श्रुत मंगल सेतु, अर्हत्पद में माना हेतु।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलश्रुताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
अवधिज्ञान मंगलमय मूर्ति, कर देता अर्हत् गुणपूर्ति।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलावधिज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
मनपर्यय मंगलवर ज्ञान, अर्हत्पद का मूल निदान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलमन:पर्ययज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
मंगल केवलज्ञान समस्त, अरिहंतों का सुगुण प्रशस्त।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
अर्हन् मंगल केवल ईश, गणधर मुनिगण नावें शीश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
मंगल केवल दर्शन श्रेष्ठ, अर्हंतों का गुण है एक।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
अर्हत् मंगल केवल इष्ट, घातिकर्म को किया विनष्ट।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
केवलरूप स्वभाव महान्, अर्हंतों का सर्व प्रधान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
धर्म जगत में मंगल धन्य, अर्हंतों में गुण अभिवंद्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३७।।
मंगल धर्मस्वरूप जिनेश, त्रिभुवन के पति नमें हमेश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलधर्मस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
उत्तम मंगल श्रीजिनराज, वंदन से पूरें सब काज।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
सर्व लोक में उत्तम ईश, अर्हंतों को नाऊँ शीश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हल्लोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
तीन भुवन में उत्तम गुण जो, उसे धरें अरहंता।
कर्म अघाती भी विनाश कर, भये सिद्ध भगवंता।।
इनके चरण कमल को पूजूँ, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
लोक अलोक प्रकाशी उत्तम, ज्ञान लोक में माना।
इसे प्राप्त कर सिद्ध भये जो, लोक अग्र शिवथाना।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
लोक अलोक विलोके दर्शन, उत्तम है त्रिभुवन में।
इसे पाय अर्हंत बने फिर, तिष्ठें लोक शिखर में।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
तीन लोक में सर्व श्रेष्ठ जो, वीर्य अनंती शक्ती।
इसे पाय अर्हंत बने फिर, मिली कर्म से मुक्ती।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
तीन जगत में अतिशय उत्तम, स्मृति पूज्य जिन्हों की।
अर्हत् सिद्ध बने उनकी यह, पूजा श्रेष्ठ गुणों की।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
अवधिज्ञान त्रिभुवन में उत्तम, अर्हत्पदवी दाता।
इसे पाय अर्हंत सिद्ध हों, नमत मिले सुखसाता।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमअवधिबोधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
लोकोत्तम मनपर्यय पाके, अर्हत् लक्ष्मी पाई।
सिद्ध बने लोकाग्र विराजे, नमूँ स्वात्म सुखदायी।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तममन:पर्ययाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
तीन लोक में सर्वोत्तम है, केवलज्ञान प्रभू का।
इसको पाय नियम से शिवपद, इन भक्ती भव नौका।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमकेवलज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
तिहुँजग में केवल स्वरूप ही, सर्वोत्तम मुनि कहते।
इसे पाय शिवधाम प्राप्त हो, इन भक्ती दुख दहते।।
इनके चरण कमल को पूजूँ, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमकेवलस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
घातिकर्म हन केवल असहायी पर्याय प्रगट हो।
लोकोत्तम अर्हत्पद से शिवपद भी स्वयं प्रगट हो।।इनके.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमकेवलपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
अर्हंतों का द्रव्य ही, केवलद्रव्य प्रधान।
इसे पाय शिवतिय वरें, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५१।।
त्रिभुवन में उत्तम कहा, केवल द्रव्य जिनेश।
इसे पाय शिवतिय वरें, नमूूँ तुम्हें परमेश।।
ॐ ह्रीं अर्हत्ल्लोकोत्तमकेवलद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
केवलद्रव्य स्वरूप हैं, लोकोत्तम अर्हंत्।
सिद्ध बने इनको नमूँ, बन जाऊँ गुणवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमकेवलद्रव्यरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
ध्रुवस्वभाव अर्हंत हैं, लोकोत्तम अभिराम।
सिद्धिरमा के पति बने, शत शत करूँ प्रणाम।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमध्रौव्यभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५४।।
उत्तमभाव धरें सदा, अरीहंत भगवान्।
सिद्धिरमा के पति बनें, नमूँ सदा धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं अर्हत्उत्तमभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५५।।
त्रिभुवन में उत्तम कहा, स्थिर भाव अनूप।
अर्हंतों में सिद्ध में, नमूँ नमूँ शिवभूप।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमस्थिरभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५६।।
अर्हत्प्रभु जग में शरण, शरणागत हैं भव्य।
सिद्धिरमापति को नमूँ, मिले स्वात्मसुख नव्य।।
ॐ ह्रीं अर्हत्शरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५७।।
शरणरूप अर्हंतजिन, सिद्धिरमा के नाथ।
नमूँ भक्ति से मैं यहाँ, कीजे मुझे सनाथ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्शरणरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५८।।
अर्हत्प्रभु के गुण शरण, शरण न जग में और।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, मिले चरण में ठौर।।
ॐ ह्रीं अर्हत्गुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५९।।
अर्हत्प्रभु का ज्ञान ही, शरण जगत में मान्य।
सिद्धि रमापति को नमूँ, मिले स्वात्मगुण साम्य।।
ॐ ह्रीं अर्हत्ज्ञानशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६०।।
त्रिभुवन युगपत् देखते, लिया शरण अतएव।
नमूँ सिद्ध परमातमा, करो अमंगल छेव।।
ॐ ह्रीं अर्हत्दर्शनशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६१।।
अर्हत्प्रभु की शक्ति ही, शरणभूत तिहुँकाल।
अर्हत्प्रभु ही सिद्ध हों, नमूूँ नमूँ तिहुँकाल।।
ॐ ह्रीं अर्हद्वीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६२।।
द्वादशांग श्रुत शरण है, इससे शिवपद होय।
ज्ञानकली विकसित करो, नमूँ भक्तिवश होय।।
ॐ ह्रीं अर्हत्द्वादशांगशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६३।।
मतीज्ञान की शरण ले, पद अर्हंत धरंत।
सिद्ध हुये उनको जजूँ, भेदज्ञान विलसंत।।
ॐ ह्रीं अर्हत्आभिनिबोधशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६४।।
द्रव्यभावश्रुत शरण ले, अर्हत्पदवी पाय।
सिद्ध हुये उनको नमूँ, ज्ञानकली खिल जाय।।
ॐ ह्रीं अर्हत्श्रुतशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६५।।
अवधिज्ञान को प्राप्त कर, अर्हत्सिद्ध महान्।
शरण इन्हीं की है मुझे, नमूँ नमूँ गुणखान।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अवधिबोधशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६६।।
मनपर्ययवरज्ञान ही, शरण इन्द्र शत वंद्य।
इससे अर्हत् सिद्ध हों, नमूँ नमूँ अभिनंद्य।।
ॐ ह्रीं अर्हत्मन:पर्ययशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६७।।
केवलज्ञान महान् है, शरण अन्य नहिं कोय।
अर्हत् सिद्धों को नमूँ, पाप कर्ममल धोय।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६८।।
अर्हत्केवलज्ञान ही, शरण स्वरूप प्रधान।
सिद्ध हुये उनको नमूँ, मिले निजातम ज्ञान।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलशरणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६९।।
अर्हत्केवलधर्म ही, शरण भव्य को जान।
नमूँ सिद्ध परमातमा, मिले स्वपर विज्ञान।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलधर्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७०।।
अर्हत्प्रभु हैं केवली, मंगल गुण भंडार।
भव्यों के ये ही शरण, जजूूँ भक्ति उर धार।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलमंगलगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७१।।
जिनवर मंगल गुण कहे, शरणभूत हैं एक।
जजूँ अर्घ्य ले भक्ति से, नमूँ सदा शिर टेक।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७२।।
जिनवर का वरज्ञान ही, मंगलदायी सिद्ध।
शरणभूत है जगत में, नमत करूँ यम विद्ध।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलज्ञानशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७३।।
मंगलमय दर्शन शरण, श्रीजिनवर का श्रेष्ठ।
मेरी भी रक्षा करो, नमूँ नमूँ गुण ज्येष्ठ।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलदृष्टिशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७४।।
श्रीजिनवर का बोध ही, मंगल शरण स्वरूप।
बोधि समाधी हेतु मैं, जजूँ शुद्ध चिद्रूप।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलबोधशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७५।।
श्रीजिनवर मंगलकारी, वैâवल्यज्ञान के धारी।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्मंगलकेवलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७६।।
तीनों लोकों में उत्तम, जिनवर की शरण अनूपम।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७७।।
लोकोत्तम गुण जिनवर के, हैं शरण सभी भक्तों के।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७८।।
त्रिभुवन में उत्तम शक्ती, अर्हंत प्रभू में प्रगटी।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमवीर्यशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७९।।
लोकोत्तम वीरज गुण है, जिनवर में प्रगट अतुल है।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमवीर्यगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८०।।
सब कुश्रुत रहित लोकोत्तम, जिन द्वादशांग श्रुत उत्तम।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमद्वादशांगशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८१।।
सब कुमति कुनय से विरहित, मतिज्ञान शरण उत्तम नित।
इससे जिन सिद्ध हुये हैं, हम पूजत कर्म दहे हैं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमआभिनिबोधशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८२।।
लोकोत्तम अवधि शरण से, अर्हंत सिद्ध हो प्रगटें।
इनके चरणों की शरणा, पूजत ही पातक हरना।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमअवधिशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८३।।
मनपर्यय ज्ञान शरण है, लोकोत्तम जिनपद दे है।
जिन होकर सिद्ध हुये हैं, हम पूजत सौख्य लिये हेैं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तममन:पर्ययशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८४।।
आवरणरहित केवल है, जग में सर्वोच्च शरण है।
जिन होकर सिद्ध हुये जो, जो पूजें सौख्य लहें वो।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमकेवलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८५।।
सुरकृत वैभव अनुपम है, अंतर वैभव निजगुण हैं।
जिन विभव पाय शिव पहुँचे, पूजत ही निजगुण चमकें।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमविभूतिप्रधानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८६।।
वर वैभव समवसरण में, जिनधर्म शरण त्रिभुवन में।
अर्हंत सिद्ध को पूजूूँ, भव भव के दुख से छूटूं।।
ॐ ह्रीं अर्हद्विभूतिधर्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८७।।
आनंत्य चतुष्टय गुण है, सुख दर्श ज्ञान वीरज हैं।
चउ घाति नशें गुण प्रगटें, पूजत ही निजगुण प्रगटें।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अनंतचतुष्टयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८८।।
जो गुणअनंत संपन्ना, उसमें गुण चार प्रधाना।
ऐसे जिन सिद्ध जजूँ मैं, अगणित गुणरत्न भ मैं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अनंतगुणचतुष्टयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८९।।
प्रभु गर्भ विषे त्रय ज्ञानी, अर्हंत स्वयंभू नामी।
गुरु बिन ज्ञानी शिवकंता, मैं नमूँ नमूँ भगवंता।।
ॐ ह्रीं अर्हत्त्रिज्ञानस्वयंभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९०।।
जन्में दश अतिशय धारी, तीर्थेश वरी शिवनारी।
पूजत अतिशय गुण पाऊँ, सब तन की व्याधि नशाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्दशातिशायिस्वयंभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९१।।
दश अतिशय घाती क्षय से, प्रगटें तीर्थंकर जिनके।
अर्हंत बने फिर सिद्धा, पूजत पाऊँ गुण सिद्धा।।
ॐ ह्रीं अर्हत्घातिक्षयदशातिशयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९२।।
चौदह अतिशय सुरकृत हैं, अर्हत्प्रभु का वैभव है।
फिर निश्चित सिद्ध बने हैं, हम पूजत कर्म हने हैं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्देवकृतचतुर्दशातिशयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९३।।
चौंतिस अतिशय जिनवर के, तीर्थंकर वैभव चमके।
फिर सिद्ध बने मुनि वंदें, हम पूजें मन आनंदे।।
ॐ ह्रीं अर्हत्चतुस्त्रिंशत्अतिशयविराजमानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९४।।
अर्हंत अनंत गुणों युत, फिर सिद्ध बने यम को हत।
हम पूजें ध्यावें नित ही, पाएँ जिन गुण की निधि ही।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अनंतगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९५।।
उत्तरगुण लाख चुरासी, सब तप के अंतर्भासी।
अर्हंत सिद्ध को वंदूं, निजगुण पाके आनंदूं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्तपोनंतगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९६।।
वरध्यान में ध्येय अनंते, कर्मारि हना ध्यायंते।
जिन सिद्ध प्रभू का वंदन, करता भव भव का खंडन।।
ॐ ह्रीं अर्हत्ध्यानानंतध्येयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९७।।
आत्मा अनंत गुणधारी, वह परमहंस अविकारी।
जिन सिद्ध गुणों की अर्चा, मेटे भव दुख की चर्चा।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अनंतगुणात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९८।।
जो परम श्रेष्ठ परमात्मा, सौ इंद्र वंद्य सिद्धात्मा।
उनकी पूजा भक्ती से, तर जाते भववारिधि से।।
ॐ ह्रीं अर्हत्परमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९९।।
अर्हत्स्वरूप में गुप्ती, कर देती भव से मुक्ती।
जिन सिद्ध गुणों की भक्ती, करने से प्रगटे शक्ती।।
ॐ ह्रीं अर्हत्स्वरूपगुप्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१००।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।
वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं।।टेक.।।
एक शुद्ध निज आत्मा ध्याकर, शुद्ध बुद्ध कृतकृत्य बने।
चतुर्गती का भ्रमण दूर कर, शेष अघाती कर्म हनें।।
उन सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाऊँ, वे ही पूज्य महान हैं।
जन्म मरण के…….।।वंदे जिनवरं.।।
ॐ ह्रीं सिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०१।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
जिनका सिद्धस्वरूप अनूपम, नित्य निरंजन माना है।
पर भावों से रहित शुद्ध, निज का स्वरूप पहिचाना है।।
उन सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाऊँ, वे ही पूज्य महान हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०२।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
तीन लोक में गुण प्रसिद्ध हैं, जिनकी अनुपम महिमा है।
इन गुण को गाते रहने से, मिलती गुण की गरिमा है।।
उन सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाऊँ, जगद्वंद्य भगवान हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं सिद्धगुणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०३।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
ज्ञानावरण कर्र्म को नाशा, आकुलता सब दूर हुई।
तीन लोक को युगपत् जाना, हर्षवृद्धि भरपूर हुई।।
लोकालोक प्रकाशी उत्तम, पाया केवलज्ञान है।
उन सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाऊँ, वे त्रिभुवन भास्वान हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०४।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
निज आत्मा का अनुभव करके, केवलदर्शन प्राप्त किया।
मुनियों ने निज दर्शन हेतू, प्रभो आपकी शरण लिया।।
प्रभो आप ही तीन भुवन में, केवल चक्षुष्मान् हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०५।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
शुद्ध परम अवगाढ़ नाम का, क्षायिक समकित प्राप्त किया।
क्षायिक समकित लब्धी हेतू, मैंने भी तुम शरण लिया।।
अर्घ्य चढ़ाऊँ प्रभो आप ही, निर्मल दृष्टीमान हैंं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०६।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
अंतराय को नाश आपने, अनंत शक्ती प्राप्त किया।
तप करने की शक्ति प्रगट हो, इसीलिये मैं शरण लिया।।
काल अनंतों तक नहिं थकते, अनंत शक्तीमान हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं सिद्धवीर्येभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०७।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
एक सिद्ध पद अचल जगत में, इस सम अन्य न पद कोई।
अचल ध्यान से यह पद मिलता, मैंने अपनी निधि खोई।।
अर्घ्य चढ़ाऊँ प्रभो आपको, पूर्ण अचल स्थान है।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं अचलपदप्राप्तसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०८।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
संख्यातों जीवों ने निज में, शुक्लध्यान को ध्या करके।
सिद्धिरमा को प्राप्त किया है, मैं भी नमूँ उन्हें रुचि से।।
उन सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाऊँ, वे ही महिमावान हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं संख्यातसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०९।।
सिद्धप्रभू की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान हैं।।वंदे.।।
असंख्यात भव्यों ने जग में, शुद्ध स्वात्मपद पाया है।
लाख चुरासी योनि भ्रमण से, छुट कर निजसुख पाया है।।
उन सिद्धों को अर्घ्य चढ़ाऊँ, वे ही सौख्य निधान हैं।।जन्म.।।
ॐ ह्रीं असंख्यातसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११०।।
संसार में अनंत भव्य मुक्ति को गये।
निज के अनंत गुण विकास से सुखी भये।।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर के भक्ति से उन्हें नमूँ।
निज आत्म शुद्धि हेतु सब कषाय को वमूँ।।
ॐ ह्रीं अनंतसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१११।।
जो ढाई द्वीप में नदी सागर जलाशया।
उपसर्ग से मुनिगण ने जल से सिद्धि पा लिया।।
जल से हुये उन सिद्ध प्रभु की अर्चना करूँ।
प्रभु भक्ति से संसार जलधि से ही मैं तिरूँ।।
ॐ ह्रीं जलसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११२।।
संपूर्ण कर्मनाश के थल से जो शिव गये।
पर्वत वनों गुफा धरा आदिक से शिव गये।।
उन सर्व सिद्ध प्रभु की आज वंदना करूँ।
रागादि दोष नाश हेतु प्रार्थना करूँ।।
ॐ ह्रीं स्थलसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११३।।
खेचर व देव आदि के उपसर्ग निमित से।
आकाश में ही कर्मनाश शिव में जा बसे।।
उन सर्व सिद्ध प्रभु की आज अर्चना करूँ।
उपसर्ग सहन शक्ति दो यह प्रार्थना करूँ।।
ॐ ह्रीं गगनसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११४।।
जो नाम गोत्र वेदनी की आयु सम किये।
वे केवली हो समुद्घात करके शिव गये।।
उन सिद्ध प्रभु को भक्ति से मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
निजगुण सुगंधि विस्तरे यह भावना भाऊँ।।
ॐ ह्रीं समुद्घातसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११५।।
अर्हंत समुद्घात बिना सिद्ध जो कहें।
शिवधाम में सब एक सदृश ही वहाँ रहें।।
उन सर्व सिद्ध प्रभु की मैं आराधना करूँ।
संपूर्ण सिद्धि हेतु ही मैं प्रार्थना करूँ।।
ॐ ह्रीं असमुद्घातसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११६।।
पांडव मुनी सम आभरणयुत सिद्ध हो गये।
शिवपद में आत्म के प्रदेश शुद्ध ही कहे।।
उपसर्ग से ये मुक्त या सामान्य केवली।
या संहरण से सिद्ध सबकी अर्चना भली।।
ॐ ह्रीं साधारणसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११७।।
जो अन्य कुछ विशेषता को प्राप्त कर मुनी।
ऐसे असाधारण गुणों से पूज्य हों गुणी।।
उपसर्ग या अपहरण आदि के बिना मुनी।
वैâवल्य पाय शिव गये पूजत बनूँ धनी।।
ॐ ह्रीं असाधारणसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११८।।
दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावना भाके।
तीर्थेश बने पंचकल्याणक विभव पाके।।
वे धर्मचक्र को प्रवर्त सिद्ध हो गये।
उनको जजूँ वे सिद्धि में निमित्त हैं कहे।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११९।।
सामान्य केवली भरत बाहूबली आदी।
ध्यानाग्नि से कर्मारि भस्म कर दिया यदी।।
वे मुक्त हुये उन प्रभू की अर्चना करूँ।
सम्यक्त्व रत्न प्राप्ति हेतु प्रार्थना करूँ।।
ॐ ह्रीं तीर्थकरेतरसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२०।।
उत्कृष्ट पाँच सौ पचीस धनुष तनु धरें।
उत्कृष्ट तीन रत्न से मुक्त्यंगना वरें।।
उन सर्व सिद्धगण की नित्य अर्चना करूँ।
प्रभु भक्ति से यमराज की भी तर्जना करूँ।।
ॐ ह्रीं उत्कृष्टावगाहनसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२१।।
उत्कृष्ट से कम अरु जघन्य से अधिक कही।
ऊँचाई तनु की बहुत भेद से बहुत रही।।
इन मध्य के शरीर से जो मोक्ष गये हैं।
उनकी करूँ मैं अर्चना ये सिद्ध भये हैं।।
ॐ ह्रीं मध्यमावगाहनसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२२।
जघन्य साढ़े तीन हाथ तनु प्रमाण जो।
यदि आठ वर्ष में ही केवलज्ञान धरें वो।।
बालक वे शुक्लध्यान से कर्मारि को हनें।
उन सिद्ध को वंदत अपूर्व सौख्य हों घने।।
ॐ ह्रीं जघन्यावगाहनसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२३।।
जो ढाई द्वीप से समस्त क्षेत्र से मुनी।
कर्मारि नाश मोक्ष लिया स्वात्म सुख धनी।।
ये मनुजलोक से अनंत सिद्ध हुये हैं।
इनको जजें से सर्व दु:ख नष्ट हुये हैं।।
ॐ ह्रीं तिर्यग्लोकसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२४।।
पहले द्वितीय तृतिय काल पाँचवें छठे।
यदि चौथे काल के मुनि लाके यहाँ रखे।।
इन काल में भी मुक्त हुये सिद्ध को जजूँ।
जो चौथे काल से भी सिद्ध सर्व को भजूँ।।
ॐ ह्रीं षड्विधकालसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२५।।
जो महान् उपसर्ग सह, प्राप्त किया शिवराज्य।
उन सिद्धों को नित जजूँ, सहन शक्ति के काज।।
ॐ ह्रीं उपसर्गसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२६।।
बिना किसी उपसर्ग के, प्राप्त किया शिवधाम।
उन सिद्धों को नित जजूँ, मिले स्वात्म विश्राम।।
ॐ ह्रीं निरुपसर्गसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२७।।
जम्बूद्वीप व धातकी, पुष्करार्ध से सिद्ध।
ढाई द्वीप से सिद्ध हों, नमत मिले निज ऋद्धि।।
ॐ ह्रीं द्वीपसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२८।।
लवणोदधि कालोदधी, उपसमुद्र से सिद्ध।
नमूँ भक्ति से सिद्ध को, होवे सौख्य समृद्ध।।
ॐ ह्रीं उदधिसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२९।।
खड्गासन से ध्यान धर, पाया मोक्ष निवास।
नमूँ सिद्ध परमात्मा, होवे स्वात्म विकास।।
ॐ ह्रीं स्थित्यासनसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३०।।
पर्यंकासन से प्रभू, योग निरोध करंत।
मुक्तिधाम को प्राप्त हों, जजूँ सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं पर्यंकासनसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३१।।
द्रव्यभाव दोनों सदृश, पुरुषवेद से सिद्ध।
नमूँ शुद्ध परमात्मा, होवे ज्ञान समृद्ध।।
ॐ ह्रीं पुंवेदसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३२।।
भाव स्त्रीवेदी मुनी, द्रव्यपुरूष जगसिद्ध।
शुक्लध्यान से मुक्त होें, नमत कर्म अरिविद्ध।।
ॐ ह्रीं स्त्रीवेदसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३३।।
भाव नपुंसक वेद हो, द्रव्यपुरुष हो साधु।
कर्मनाश शिवपद लिया, जजत स्वात्मरस स्वादु।।
ॐ ह्रीं क्लीबवेदसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३४।।
साधु क्षपक श्रेणी चढ़ें, बनें केवली सिद्ध।
नमूँ सिद्ध शुद्धातमा, मिले नवोनिधि रिद्धि।।
ॐ ह्रीं क्षपकश्रेणिसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३५।।
एक समय से सिद्ध हों, ऐसे सिद्ध अनंत।
अष्ट कर्म विरहित प्रभू, नमूँ नमूँ भगवंत।।
ॐ ह्रीं एकसमयसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३६।।
सिद्ध हुये हैं हो रहे, होवेंगे जो भव्य।
त्रैकालिक सब सिद्ध को, जजत मिले सुख नव्य।।
ॐ ह्रीं त्रिकालसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३७।।
ऊर्ध्व मध्य अध लोक से, सिद्ध अनंतानंत।
उपसर्गादि से सिद्ध हों, नमूँ नमूँ भगवंत।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३८।।
त्रिभुवन में मंगलकरण, सिद्ध अनंतानंत।
सकल अमंगल दूर हों, नमूँ शुद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३९।।
मंगल महास्वरूप है, सिद्धों का जगमान्य।
परभावोें से शून्य ही, नमत मिले धन धान्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलस्वरूपेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४०।।
जिनका मंगल ज्ञान है, तीन लोक में मान्य।
नमूूँ सिद्ध परमातमा, मिले स्वात्मसुख साम्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलज्ञानेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४१।।
सिद्धों का दर्शन प्रमुख, मंगलमय अभिराम।
शुद्धात्मा का दर्श हो, शत शत करूँ प्रणाम।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलदर्शनेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४२।।
सिद्धप्रभू का वीर्यगुण, मंगलमय अविकार।
आत्मशक्ति प्रगटित करूँ, जजूँ भक्ति उर धार।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलवीर्येभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४३।।
सिद्धों का सम्यक्त्व गुण, भविजन मंगलकार।
दर्श विशुद्धी हेतु मैं, नमूँ त्रियोग संभार।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलसम्यक्त्वेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४४।।
सिद्धों का सूक्ष्मत्वगुण, मंगलमय सुखकार।
सब संकट दारिद्र दुख, नशें भरे भंडार।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलसूक्ष्मत्वेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४५।।
अवगाहन गुण सिद्ध का, जग में मंगल हेतु।
नमूँ सिद्ध परमातमा, मिले भवोदधि सेतु।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअवगाहनेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४६।।
अगुरुलघू गुण सिद्ध का, जग मंगल करतार।
ऊर्ध्वगती के हेतु मैं, नमूूँ अनंतों बार।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअगुरुलघुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४७।।
अव्याबाध महान गुण, सिद्धों का अविरुद्ध।
मंगलमय मंगल करो, जजूँ चित्तकर शुद्ध।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअव्याबाधेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४८।।
सिद्धप्रभू के आठ गुण, नित मंगल दातार।
स्वात्म गुणों के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअष्टगुणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४९।।
मंगल आठ स्वरूप ही, सिद्धों के सुरवंद्य।
मुनिगण भी वंदन करें, नमत हरूँ भव फंद।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअष्टस्वरूपेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५०।।
मंगल आठ प्रकाशमय, गुण मुनिगण से वंद्य।
नमूँ सिद्ध परमातमा, नमूँ नमूँ सुखकंद।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअष्टप्रकाशकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५१।।
उत्तम सुख में जो धरे, धर्म वही जग मान्य।
सिद्ध धर्म मंगलमयी, नमते हो सुख साम्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलधर्मेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५२।।
सिद्धप्रभू तिहुँलोक में, उत्तम हैं मुनिवंद्य।
नाममंत्र उत्तम करें, नमत मिटे दु:ख द्वंद।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५३।।
सिद्धस्वरूप त्रिलोक में, उत्तम गणधर वंद्य।
निज स्वभाव के हेतु मैं, नमूँ नमूँ जग वंद्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमस्वरूपाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५४।।
लोकोत्तम गुण सिद्ध के, शत इन्द्रों से वंद्य।
निजगुण संपति हेतु मैं, नमूँ हरूँ जग फंद।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमगुणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५५।।
सिद्धप्रभू का ज्ञानगुण, लोकोत्तम शिवकार।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो, नमूँ नमूँ शत बार।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५६।।
लोकोत्तम है दर्शगुण, सिद्धप्रभू का श्रेष्ठ।
निज आत्मा का दर्श हो, जजत मिले सुख ज्येष्ठ।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमदर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५७।।
उत्तम वीर्य जिनेन्द्र का, लोकोत्तम अभिराम।
मन वच तन की शक्ति हो, शत शत करूँ प्रणाम।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमवीर्याय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५८।।
तिहुँजग में उत्तम शरण, सिद्धप्रभू का नाम।
जजूँ अर्घ्य से सिद्ध को, मिले स्वात्म विश्राम।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५९।।
सिद्ध स्वरूप त्रिकाल में, शरण साधुगण वंद्य।
मैं भी ली है तुम शरण, मेटो यम का पँद।।
ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६०।।
सिद्धप्रभू का दर्शगुण, शरण भव्य को नित्य।
निज आत्मा का दर्श हो, नमत मिले सुख नित्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६१।।
सिद्धप्रभू का ज्ञानगुण, शरणभूत है एक।
ज्ञानज्योति का उदय हो, नमूँ नमूँ शिर टेक।।
ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६२।।
सिद्धप्रभू का वीर्यगुण, शरणभूत है एक।
शुक्लध्यान की शक्ति हो, नमूँ नमूूँ शिर टेक।।
ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६३।।
सिद्धों का सम्यक्त्वगुण, शरणभूत है सिद्ध।
निज सम्यक्त्व विशुद्धि हो, जजत कर्म अरि विद्ध।।
ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६४।।
सिद्ध अनंतों काल तक, शरणभूत मुनि मान्य।
नमूँ अनंतों बार मैं, मिले शरण सुख साम्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धअनंतशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६५।।
काल अनंतानंत तक, शरण सिद्ध भगवान।
नमूँ अनंतों बार मैं, बनूूँ स्वात्म गुणवान।।
ॐ ह्रीं सिद्धअनंतानंतशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६६।।
भूत भावि और संप्रती, सिद्ध शरण त्रयकाल।
मैंने भी अब शरण ली, नमूँ नमूँ त्रयकाल।।
ॐ ह्रीं सिद्धत्रिकालशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६७।।
तीन लोक में शरण हैं, आप सिद्ध भगवान।
द्रव्य भाव नोकर्ममल, धुलें नमूँ धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं सिद्धत्रिलोकशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६८।।
लोक यदी संख्यात हों, शरण आप ही एक।
नमूँ सिद्ध परमातमा, मिले सिद्धगति एक।।
ॐ ह्रीं सिद्धसंख्यातलोकशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६९।।
सिद्ध सदा स्थिर रहें, स्वात्मध्रौव्य से सिद्ध।
ध्रुव आत्मा की प्राप्ति हो, जजूँ ध्रौव्यगुण सिद्ध।।
शुद्ध सिद्ध पर्याय से, जन्म लोक के अग्र।
शरणभूत उत्पाद गुण, जजूँ चित्त एकाग्र।।
ॐ ह्रीं सिद्धउत्पादगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७१।।
सिद्धप्रभू का साम्यगुण, शरणभूत मुनि मान्य।
रागद्वेष का नाश हो, जजत मिले गुण साम्य।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाम्यगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७२।।
सिद्धप्रभू का स्वच्छ गुण, दर्पणसम अभिराम।
वही शरण है साधु को, जपूँ सिद्ध गुण नाम।।
ॐ ह्रीं सिद्धस्वच्छगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७३।।
स्वात्मा में स्थिर रहें, यही स्वस्थ गुण शर्ण।
सिद्धप्रभू की वंदना, नाशे जनम व मर्ण।।
ॐ ह्रीं सिद्धस्वस्थगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७४।।
मन की आधी से रहित, गुण समाधि ही शर्ण।
सिद्धप्रभू की शरण से, पाऊँ पंडित मर्ण।।
ॐ ह्रीं सिद्धसमाधिगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७५।।
प्रभु सिद्ध का गुण व्यक्तनामा भव्यजन को शरण है।
योगीजनों को ध्यानगोचर इंद्रगण से वंद्य है।।
इन गुण सहित श्री सिद्ध की मैं भक्ति से पूजा करूँ।
निज के सभी गुण व्यक्त हों इस हेतु मैं अर्चा करूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धव्यक्तगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७६।।
बहु व्यक्तगुण अव्यक्तगुण श्रुत के अगोचर भी रहें।
इन गुणगणों को पूजते निज गुण प्रगट होके रहें।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धव्यक्ताव्यक्तगुणशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७७।।
श्रीसिद्धप्रभु के गुण अनंते निजस्वरूपी हो रहे।
सब वर्ण रस गंधादि से विरहित निजात्मा में रहें।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धगुणस्वरूपाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७८।।
कर्मारि विरहित सिद्ध परमात्मा स्वरूप अनूप हैं।
नव लब्धियों को प्राप्त कर शुद्धातमा चिद्रूप हैं।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धपरमात्मस्वरूपाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७९।।
श्रीसिद्धप्रभु चििंत्पड एक अखंड ज्ञानस्वरूप हैं।
अक्षय अखंडित मोक्षपद को प्राप्त कर निजरूप हैं।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धअखण्डस्वरूपाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८०।।
चित् चिदानंद स्वरूप अनुपम परम आनंद धाम है।
इन्द्रियजनित सुख दुख रहित परमात्म सौख्य ललाम है।।
इन गुण सहित श्री सिद्ध की मैं भक्ति से पूजा करूँ।
निज के सभी गुण व्यक्त हों इस हेतु मैं अर्चा करूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धचिदानंदस्वरूपाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८१।।
जो सिद्ध सहजानंद सौख्यांभोधि में नित मग्न हैं।
शाश्वत अनंतानंत युग तक भी अतीन्द्रिय धन्य हैं।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धसहजानंदाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८२।।
यह कर्म गुण को छेदता प्रभु सिद्ध कर्मविहीन हैं।
अच्छेद्य रूप अनूप धारें आत्मगुण में लीन हैं।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धअच्छेद्यरूपाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८३।।
यह कर्म गुण को भेदता प्रभु सिद्ध कर्मविहीन हैं।
भेदन रहित गुण धरें प्रभुजी पूर्ण सुख में लीन हैं।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धअभेद्यगुणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८४।।
उपमा नहीं तिहुँलोक में, अनुपम गुणों को धर रहे।
श्री सिद्धप्रभु निज भक्त को अनुपम गुणों युत कर रहे।।इन.।।
ॐ ह्रीं सिद्धअनौपम्यगुणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८५।।
अमृत तत्त्वस्वरूप, सिद्धप्रभू का गुण कहा।
परम सिद्ध चिद्रूप, जजूँ भक्ति से अर्घ्य ले।।
ॐ ह्रीं सिद्धअमृततत्त्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८६।।
सप्तभंग समवेत, श्रुत को धर शिवपद लिया।
जजूँ भावश्रुत हेत, कृपादृष्टि मुझ पे करो।।
ॐ ह्रीं सिद्धश्रुतप्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८७।।
घाति कर्म को नाश, केवलज्ञानी शिव गये।
केवलज्ञान प्रकाश, मिले प्रभो! तुमको जजूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धकेवलप्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८८।।
चरम शरीराकार, निराकार तनु के बिना।
राग द्वेष दुर्वार, नशें सिद्ध प्रभु को नमूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाकारनिराकाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८९।।
पर अवलंबन शून्य, निरालंब प्रभु सिद्ध हो।
बनें कर्मरज शून्य, जो सिद्धों को पूजते।।
ॐ ह्रीं सिद्धनिरालंबाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९०।।
कर्म कलंक विहीन, निष्कलंक सिद्धातमा।
जजत कर्ममल क्षीण, मिले स्वात्म सुख संपदा।।
ॐ ह्रीं सिद्धनिष्कलंकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९१।।
निज आत्मा से पूर्ण, परद्रव्यों से शून्य हो।
दुख दरिद्र हों चूर्ण, जजें सिद्ध को भक्ति से।।
ॐ ह्रीं सिद्धआत्मसंपन्नाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९२।।
त्रिभुवन विस्मयकार, अद्भुत तेज दिपंत है।
नमूँ सिद्ध सुखकार, स्वात्म ज्योति के हेतु मैंं।।
ॐ ह्रीं सिद्धतैजसाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९३।।
सिद्धालय लोकांत, गर्भवास प्रभु आपका।
नमूँ नमूूँ शिवकांत, गर्भवास दुख मेटिये।।
ॐ ह्रीं सिद्धगर्भवासाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९४।।
शिवलक्ष्मी को नित्य, संतर्पित कर शोभते।
मिले आत्मसुख नित्य, जजूँ सिद्ध को भाव से।।
ॐ ह्रीं सिद्धलक्ष्मीसंतर्पकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९५।।
अंतरंग गुण रत्न सिद्धप्रभू के शोभते।
प्रभो! तीन ही रत्न, दे दीजे पूजा करूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धअंतरंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९६।।
सार गुणों में लीन, निजगुण अमृतरस चखें।
स्वात्म गुणों में लीन, हो जाऊँ प्रभु पूजहूूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाररसिकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९७।।
किया सुशोभित नाथ!, लोक शिखर के अग्र को।
नमूँ नमाकर माथ, चहुँगति भ्रमण निवारिये।।
ॐ ह्रीं सिद्धशिखरमंडनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९८।।
तीन लोक के शीश, सिद्धप्रभू निज राजते।
नमूँ नमूूँ नत शीश, लोक शिखर दीजे मुझे।।
ॐ ह्रीं सिद्धत्रिलोकाग्रस्थिताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९९।।
सिद्ध स्वरूप निजात्म, सिद्ध सुरक्षित हैं वहीं।
मिले स्वात्म विश्राम, जजूँ भक्ति से अर्घ्य ले।।
ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपगुप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२००।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।
वंदे गुरुवरं, वंदे गुरुवरं, वंदे गुरुवरं, वंदे गुरुवरं।।
नग्न दिगम्बर मुनी संघपति, अट्ठाइस गुण को धारें।
छत्तिस गुण को धारण करके, भव्यों को भव से तारें।।
ये ही सिद्ध बने हम पूजें, मिले राह कल्याण की।।श्री.।।।
ॐ ह्रीं सूरिभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०१।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
लाख चुरासी उत्तर गुण को, पाकर गुण संपन्न हुये।
गुण रत्नाकर शिवपद पाकर, मनुज जन्म को धन्य किये।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, इन अनंत गुण खान की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०२।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
निज स्वरूप में तन्मय होकर तीन गुप्ति से रक्षित हैं।
परमानंद सुखामृत पीकर, सिद्ध बने गुणमंडित हैं।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, इन गुणवंत प्रधान की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपगुप्तिभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०३।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
उपशम वेदक क्षायिक समकित, धारण करते मुनि ज्ञानी।
निज पर का श्रद्धान करें निज, आत्मा में रमते ध्यानी।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, इन आचार्य महान् की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिसम्यक्त्वगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०४।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
द्रव्य शास्त्र को पढ़कर मुनिवर, भाव श्रुतांबुधि तिरते हैं।
चार ज्ञान धर केवलज्ञानी, होकर शिवतिय वरते हैंं।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, उन ज्ञानी भगवान् की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिज्ञानगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०५।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
दर्शनगुण से निज आत्मा को, देखें अनुभव रस पीते।
मूलोत्तर गुण पालन करके, मृत्युराज को भी जीतें।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, उन अनंत गुणवान की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिदर्शनगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०६।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
तपश्चरण कर शक्ति बढ़ाते, कायबली बन जाते हैं।
वीर्यगुणी आचार्य गुरूजी, मुक्तिरमा को पाते हैंं।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, उन वीरज गुणवान की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिवीर्यगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०७।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
बारह तप आदी छत्तिस गुण, धारें चउविध संघपती।
दीक्षा शिक्षा प्रायश्चित दें, शिष्यों को दें सिद्धगती।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, उन आचार्य महान् की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिषट्त्रिंशद्गुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०८।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
पंचाचार स्वयं पालें गुरु, मुनिगण को शिवपथ देते।
संग्रह अनुग्रह निग्रह करते, पुन: निजातम सुख लेते।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, उन चउसंघ प्रधान की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिपंचाचारगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०९।।
आवो हम सब करें वंदना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।
श्री आचार्य देह उत्तम है, सूरि द्रव्य गुण माना है।
पाद धूलि मस्तक पर धरते, निज गुण कमल खिलाना है।।
अर्घ्य चढ़ाकर करें अर्चना, उन आचार्य महान् की।।श्री.।।
ॐ ह्रीं सूरिद्रव्यगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१०।।
सूरि पर्याय गुण प्राप्त कर सिद्ध हों।
शिष्य को पालके फिर स्वयं सिद्ध हों।।
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व आचार्य को।
सिद्धपद प्राप्त को भी नमूूँ चाव सो।।
ॐ ह्रीं सूरिपर्यायगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२११।।
श्रेष्ठ आचार्य मंगल करें विश्व मेंं।
सिद्ध होके स्वयं पूर्ण मंगल बनें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व आचार्य को।
सिद्धपद प्राप्त को भी नमूूँ चाव सो।।
ॐ ह्रीं सूरिमंगलेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१२।।
ज्ञान आचार्य का सर्व मंगल करें।
सिद्ध होके स्वयं ज्ञानज्योति धरें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिज्ञानेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१३।।
लोक के श्रेष्ठ आचार्य भवपोत हैं।
ज्ञान की प्राप्ति से धर्म के स्रोत हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिलोकोत्तमेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१४।।
विश्व में श्रेष्ठ ज्ञानी गुरू सूरि हैं।
ध्यान से कर्म नाशा सुधापूर हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिज्ञानलोकोत्तमेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१५।।
विश्व में स्वात्म का श्रेष्ठ दर्शन करें।
ध्याय शुद्धात्म को मुक्तिलक्ष्मी वरें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिदर्शनलोकोत्तमेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१६।।
वीर्य आचार्य का विश्व में श्रेष्ठ है।
रत्नत्रय से बने मुक्तिपति ज्येष्ठ हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिवीर्यलोकोत्तमेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१७।।
धर्म वैवल्य से सूरि पूजा लहें।
मुक्तिकांतापती कर्म शत्रू दहें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिकेवलधर्मेेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१८।।
सूरि बारह तपों से सुखाते तनू।
मुक्ति पाते प्रभू आप सम मैं बनूँ।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरितप्ततपोभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१९।।
श्रेष्ठ आचार्य ही तो परम तप तपें।
मुक्तिलक्ष्मी वरें तेज से नित दिपें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व आचार्य को।
सिद्धपद प्राप्त को भी नमूूँ चाव सो।।
ॐ ह्रीं सूरिपरमतपोभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२०।।
घोर तप धारते काय दीप्ती बढ़े।
सूरि ये ध्यान धर शिवमहल में चढ़ें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरितपोघोरगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२१।।
घोर गुण से पराक्रम धरें सूरि जो।
शुक्लध्यानाग्नि से मुक्ति को प्राप्त हों।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिघोरगुणपराक्रमेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२२।।
ऋद्धि संपन्न आचार्य सिद्धी वरें।
स्वात्म संपत्ति लें सौख्य वृद्धी करें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिऋद्धिऋषिभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२३।।
योग त्रैकाल के धारते योगि हैं।
सूरि वे ही स्वयं सिद्धि लक्ष्मीश हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिसुयोगिभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२४।।
धर्म ध्यानी मुनी शुक्लध्यानी बनें।
सूरिपद छोड़ के मोक्षगामी बनें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिध्यानेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२५।।
ज्ञान देते गुरू शिष्य को पोषते।
सूरि ये ही स्वयं कर्म को सोषते।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिदातृभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२६।।
दान के योग्य उत्तम कहे पात्र ये।
सूरि मुक्तीरमा के बने नाथ ये।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिपात्रेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२७।।
सूरि की शरण ही लोक में श्रेष्ठ है।
मुक्तिवल्लभ यही बन सकें लोक में।।
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व आचार्य को।
सिद्धपद प्राप्त को भी नमूूँ चाव सो।।
ॐ ह्रीं सूरिशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२८।।
श्रेष्ठ गुण से शरणभूत आचार्य हैं।
स्वात्म संपत्ति से सौख्य भंडार हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२९।।
धर्म गुण से सदा रक्षते भव्य को।
सूरि सिद्धीरमा के बने कंत वो।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिधर्मगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३०।।
सूरि निज रूप से शरणदाता बने।
स्वात्म पीयूष पी के शिवात्मा बनें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३१।।
सूरि निजधर्म निज रूप से रक्षते।
मुक्ति पाके सदा ज्ञान अमृत चखें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिधर्मस्वरूपशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३२।।
ज्ञान निज रूप है, जो उसी में रमें।
अंत से शून्य गुण रूप से परिणमें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिज्ञानस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३३।।
दर्श निज रूप से स्वात्म का दर्श हो।
सूरि मुक्त्यंगना पायके स्वस्थ हों।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिदर्शनस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३४।।
सूरि का वीर्य निजरूप से सिद्ध है।
मुक्ति के हेतु यह शक्ति अविरुद्ध है।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिवीर्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३५।।
सूरि मंगलं शरण्य भव्य जीव के लिये।
मुक्तिवल्लभापती अनंत सौख्य पा लिये।।
मैं नमूँ भवाब्धि से मुुझे उबार लीजिये।
मोह दूर कीजिये अनंत ज्ञान दीजिये।।
ॐ ह्रीं सूरिमंगलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३६।।
सूरि का तपो शरण समस्त कर्म भस्म हों।
मुक्तिवल्लभा मिले अपूर्व मोक्ष सद्म हो।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरितप:शरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३७।।
सूरि का महान धर्म शर्ण भव्य के लिये।
सिद्धिकांत हैं स्वयं समस्त सौख्य पा लिये।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिधर्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३८।।
सूरि का निजात्म ध्यान मोक्ष प्राप्ति के लिये।
भव्य को शरण्य है निजात्म सौख्य के लिये।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिध्यानशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३९।।
सूरि को मिली अपूर्व ऋद्धियाँ शरण्य हैं।
मुक्ति को वरें स्वयं निजात्म में निमग्न हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिऋद्धिशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४०।।
तीन लोक में अनंत जीव शर्ण आवते।
सूरि मुक्ति हों तथापि भव्य जीव तारते।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिलोकशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४१।।
तीन काल में अनंत भव्य जीव शर्ण लें।
सूरि मुक्ति को वरें समस्त सिद्ध से मिलें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिकालशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४२।।
तीन लोक में अपूर्व मंगलाय जो कहे।
सूरि वे स्वयं अनंत कर्म शत्रु को दहें।।
मैं नमूँ भवाब्धि से मुुझे उबार लीजिये।
मोह दूर कीजिये अनंत ज्ञान दीजिये।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिजगन्मंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४३।।
तीन लोक भव्य को दिया शरण गुरू कहे।
मंगलाय विश्व में अनंत धाम में रहें।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिलोकमंगलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४४।।
सूरि तीन लोक के महान मंगलीक हैं।
श्रेष्ठ तीन लोक में त्रिलोक वंदनीय हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिजगन्मंगललोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४५।।
सूरि तीन लोक में सुमंगलीक शर्ण हैं।
मुक्तिकांत होएंगे मिले अनंत शर्म हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिजगन्मंगलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४६।।
सूरि तीन लोक मंडते शरण्य हैं यहाँ।
भव्यवृंद भक्ति से स्वशीश नावते यहाँ।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरित्रिलोकमंडनशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४७।।
सूरि की समस्त ऋद्धियाँ त्रिलोक वंद्य हैं।
मुक्तिकांत वे बने मुनीन्द्रवृंद वंद्य हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिऋद्धिमंडनशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४८।।
सूरि में समस्त यंत्र शक्ति है व्रतादि से।
यंत्र रूप परिणमें स्वयं निजात्म ध्यान से।।
मैं नमूँ भवाब्धि से मुुझे उबार लीजिये।
मोह दूर कीजिये अनंत ज्ञान दीजिये।।
ॐ ह्रीं सूरियंत्रस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४९।।
सूरि मंत्र गुण स्वरूप हो चुके त्रिलोक में।
समस्त मंत्र शक्तियाँ बसीं गुरूस्वरूप में।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिमंत्रगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५०।।
सूरि संघ नाथ धर्म मंत्र के स्वरूप हैं।
मुक्ति को वरें स्वयं समस्त मंत्ररूप हैं।।मैं.।।
ॐ ह्रीं सूरिधर्ममंत्रस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५१।।
चिन्मय चेतन गुण धरें, गुरु आचार्य महान।
गुणस्वरूप हों शिव लहें, नमूूँ नमूँ धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं सूरिचैतन्यगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५२।।
चिदानंद में नित मगन, गुरु आचार्य महान।
मुक्तिरमा के पति बने, नित्य जजूँ गुणखान।।
ॐ ह्रीं सूरिचिदानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५३।।
स्वाभाविक सुख प्राप्त कर, सूरि बने शिवभूप।
जजूँ अर्घ्य ले भाव से, बनूँ स्वयं चिद्रूप।।
ॐ ह्रीं सूरिसहजानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५४।।
पूर्ण ज्ञान आनंदमय, सूरि बने शिवकांत।
नमूँ नमाकर शीश मैं, बन जाऊँ गुणवंत।।
ॐ ह्रीं सूरिज्ञानानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५५।।
तपश्चरण आनंदमय, सूरि सिद्ध पद लेत।
बारह विध तप हेतु मैं, नमूँ सिद्ध भव सेतु।।
ॐ ह्रीं सूरितप:सानंदसहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५६।।
तप गुण से आनंद युत, सूरि मुक्ति के नाथ।
ध्याय तपोमय मैं बनूँ, नमूँ नमाकर माथ।।
ॐ ह्रीं सूरितपोगुणानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५७।।
तप गुणमय आचार्य जी, बने सिद्ध भगवान।
कर्मनिर्जरा हेतु तप, मिले जजूँ धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं सूरितपोगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५८।।
भव्यकमल विकसित करें, सूरि हंस भगवान।
मुक्तिपती को नित नमूँ, पाऊँ गुण अमलान।।
ॐ ह्रीं सूरिहंसाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५९।।
परमहंस परमातमा, सूरि हंस गुण युक्त।
नमूँ नमूँ शुद्धात्मा, हो जाऊँ भव मुक्त।।
ॐ ह्रीं सूरिहंसगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६०।।
सूरी मंत्र गुणों सहित, निज आनंद स्वरूप।
मुक्ति प्राप्त कर हैं सुखी, जजूँ शुद्ध चिद्रूप।।
ॐ ह्रीं सूरिमंत्रगुणानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६१।।
धर्म शुक्ल वर ध्यान से, सूरी गुरु आनंद।
स्वात्म धाम को पा लिया, नमूँ नमूूँ सुखकंद।।
ॐ ह्रीं सूरिसद्ध्यानानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६२।।
चंद्र सदृश अमृत झरे, ऐसे सूरि महान।
भविजन आल्हादित करें, जजूँ सिद्ध भगवान।।
ॐ ह्रीं सूरिअमृतचन्द्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६३।।
मुनि मन कुमुद खिला रहे, गुरु शशि सुधास्वरूप।
पुन: सिद्ध पद प्राप्त कर, बने शुद्ध शिवभूप।।
ॐ ह्रीं सूरिसुधाचन्द्रस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६४।।
सूरीगुण पीयूषसम, चिंतत हो मन शुद्ध।
जजूँ सिद्ध परमात्मा, सूरि निजातम शुद्ध।।
ॐ ह्रीं सूरिसुधागुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६५।।
श्रीगुरु अमृतघन सदृश, सब जन हों संतुष्ट।
सूरि सिद्ध पद को लहें, जजत निजातम पुष्ट।।
ॐ ह्रीं सूरिसुधाघनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६६।।
श्रीगुरु हैं पीयूष घन, परिणमते तद्रूप।
मुक्तिरमा के नाथ हैं, नमूँ शुद्ध चिद्रूप।।
ॐ ह्रीं सूरिअमृतघनस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६७।।
सूरिद्रव्य शिवरूप है, परम सिद्ध पद प्राप्त।
नमूँ शुद्ध परमात्मा, मिले निजातम आप्त।।
ॐ ह्रीं सूरिद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६८।।
सूरि आत्मगुण प्राप्त कर, शुद्धद्रव्य जग मान्य।
नमूँ सिद्धप्रभु को यहाँ, मिले सर्व धन-धान्य।।
ॐ ह्रीं सूरिगुणद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६९।।
शुद्ध स्वगुण पर्याय से, परिणत श्री आचार्य।
जजूँ सिद्धप्रभु को सतत, लेऊँ गुणमणि धार्य।।
ॐ ह्रीं सूरिगुणपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७०।।
आतम द्रव्य स्वरूप हैं, श्री आचार्य महान।
शिवपद लेकर हों सुखी, नमूँ सिद्ध भगवान।।
ॐ ह्रीं सूरिद्रव्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७१।।
लक्ष चुरासी गुण कहें, गुणस्वरूप आचार्य।
निजगुण संपति हेतु मैं, नमूँ भक्ति उर धार्य।।
ॐ ह्रीं सूरिगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७२।।
श्रीगुरु की पर्याय से, परिणत श्री आचार्य।
नौका भवदधि तारने, नमूँ भक्ति उर धार्य।।
ॐ ह्रीं सूरिपर्यायस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७३।।
मूल स्वगुण उत्तर गुणों, सहित सूरि भगवान।
गुण उत्पन्न कर शिव गये, नमत मिले गुणखान।।
ॐ ह्रीं सूरिगुणोत्पादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७४।।
ध्रुवगुण से उत्पन्न हों, परम सूरि भगवान।
सिद्धिरमा के नाथ हैं, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं सूरिध्रौव्यगुणोत्पादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७५।।
अवगुण नाशें गुण धरें, सूरि शुद्ध गुणखान।
शिवपद पाके नित सुखी, नमूूँ सिद्ध भगवान।।
ॐ ह्रीं सूरिव्ययगुणोत्पादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७६।।
जीव तत्त्व का ज्ञान, श्री आचार्य धरे हैं।
बनें सिद्ध भगवान, त्रिभुवन ज्ञान धरे हैं।।
जजूँ सिद्ध भगवंत, अनुपम निजगुण पाऊँ।
साम्य सुधा रसवंत, होकर शिवपुर जाऊँ।।
ॐ ह्रीं सूरिजीवतत्त्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७७।।
जीव तत्त्व गुण एक, उत्तम नव तत्त्वों में।
सूरि बनें शुद्धैक, बसें स्वपद मुक्ती में।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिजीवतत्त्वगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७८।।
जीवतत्त्व का ज्ञान, पाकर सूरि बने हैं।
पुन: सिद्ध भगवान, होकर शुद्ध बने हैं।।
जजूँ सिद्ध भगवंत, अनुपम निजगुण पाऊँ।
साम्य सुधा रसवंत, होकर शिवपुर जाऊँ।।
ॐ ह्रीं सूरिजीवविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७९।।
आस्रव तत्त्व विनाश, सूरि बने शुद्धात्मा।
जिनगुण संपद् राशि, प्राप्त किया सिद्धात्मा।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिआस्रवतत्त्वविनाशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८०।।
कर्मबंध का अंत, करके सूरि विशुद्धा।
बने सिद्ध भगवंत, नमूँ कर्म अरि विद्धा।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिबंधतत्त्वविनाशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८१।।
आते कर्म अनंत, संवर रोके उनको।
संवर तत्त्व धरंत, सूरि सिद्ध बनते वो।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिसंवरतत्त्वसहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८२।।
परम संयमी सूरि, संवर से परिणत हैं।
गुण अनंत भरपूर, पाकर सिद्ध बनत हैं।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिसंवरतत्त्वस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८३।।
संवर गुण से युक्त, सूरि सिद्ध पद पाते।
सर्वकर्म से मुक्त, निज में ही रम जाते।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिसंवरगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८४।।
संवर धर्म महान, सूरि धरे शिव पाते।
बने सिद्ध भगवान, सिद्धिपती बन जाते।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिसंवरधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८५।।
तत्त्व निर्जरा पाय, सूरी कर्म नशाते।
मुक्तिधाम को पाय, अगणित गुणमणि पाते।।
जजूँ सिद्ध भगवंत, अनुपम निजगुण पाऊँ।
साम्य सुधा रसवंत, होकर शिवपुर जाऊँ।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरातत्त्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८६।।
कर्म झड़ाकर सूरि, निर्जररूप बने हैं।
गुणसमुद्र से पूर, सिद्धस्वरूप बने हैं।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरातत्त्वस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८७।।
कर्म करें निर्जीण, निर्जर गुण को धारें।
सब कषाय कर क्षीण, सिद्ध बने भवि तारें।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरागुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८८।।
धर्म निर्जरा तत्त्व, पाकर शिवपद पाते।
धरें सिद्ध गुण सत्त्व, सौख्य अनंते पाते।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जराधर्मतत्त्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८९।।
राग द्वेष से दूर, करें कर्म निर्जीर्णा।
साम्य सुधारसपूर, भरें सिद्धगुण पूर्णा।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरानुबंधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९०।।
सूरि निर्जरारूप, करें कर्म अरि नाशा।
बनें सिद्ध चिद्रूप, त्रिभुवन युगपत् भासा।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरारूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९१।।
निर्जर को उत्पन्न, करके हों आचार्या।
सिद्ध स्वगुण संपन्न, बन जाते भवतार्या।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जराउत्पादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९२।।
आठ कर्म को नाश, सूरि मोक्ष सुख पाया।
गुण अनंत की राशि, जजते कर्म नशाया।।
जजूँ सिद्ध भगवंत, अनुपम निजगुण पाऊँ।
साम्य सुधा रसवंत, होकर शिवपुर जाऊँ।।
ॐ ह्रीं सूरिमोक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९३।।
कर्मबंध को नाश, मोक्ष लिया सूरी ने।
अगणित गुणमणि राशि, प्राप्त किया सूरी ने।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिबंधमोक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९४।।
कर्म कलंक विदूर, मोक्ष गुणों को पाके।
लिया सौख्य भरपूर, बसे मोक्ष में जाके।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिमोक्षगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९५।।
छत्तिस गुण विलसंत, सूरि बने सिद्धात्मा।
मोक्षस्वरूप धरंत, अविचल शुद्ध महात्मा।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिमोक्षस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९६।।
सूरि मूलगुण धार, उत्तर गुण को पालें।
बनें सिद्ध अविकार, मुक्तिरमा को पा लें।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिमोक्षानुबंधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९७।।
मोक्षमार्ग दिखलाय, सूरि बने निजध्यानी।
सिद्ध परम पद पाय, जग में केवलज्ञानी।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिमोक्षानुप्रकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९८।।
निजस्वरूप में लीन, तीन गुप्ति के धारी।
राग द्वेष अरि हीन, सिद्ध अचलगुण धारी।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपगुप्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९९।।
निज परमात्म स्वरूप, उसमें ही नित रमते।
बनें शुद्ध चिद्रूप, मुक्तिरमा को वरते।।जजूूँ.।।
ॐ ह्रीं सूरिपरमात्मस्वरूपरतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३००।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
द्वादशांग को जान रहे, निज को ही निज मान रहे।
शिष्यों को श्रुत पढ़ा रहे, स्वात्म ध्यान को बढ़ा रहे।।
नग्न दिगम्बर शिव वल्लभ को, वसुविध अर्घ चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०१।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
पाठक शिव शृंगार कहे, भव्यजनोें को तार रहे।
ज्ञान सौख्य भंडार कहे, शिवनारी भरतार भये।।
ऐसे गुरु के चरणकमल को, हृदय कमल में ध्याते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकमोक्षमंडनेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०२।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
जो गुण मोक्ष हेतु होते, पाठक में प्रगटित होते।
गुण रत्नाकर गुरु माने, भव्यजीव ही सरधाने।।
गणपति गुणमणि गुरुदेव को, वसु विध अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०३।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
गुणस्वरूप ही परिणमते, संयमशील सुव्रत धरते।
महाव्रती गुरु समिति धरें, सभी गुणों से पूर्ण भरे।।
ऐसे नग्न दिगम्बर गुरु की, चरण शरण हम आते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणस्वरूपेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०४।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
अट्ठाइस गुण मूल कहे, पाठक गुण पच्चीस कहें।
निज गुणमणि से शोभ रहे, उपाध्याय पर्याय लहें।।
मुक्तिरमा के पति पाठक को, वसुविध अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणपर्यायेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०५।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
पाठक द्रव्य अपूर्व कहा, स्वात्मतत्त्वमय चमक रहा।
मुनिगण गुरु के गुण गाते, भक्ती से शिवपथ पाते।।
सिद्धिपुरी के स्वामी गुरु को, वसुविध अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०६।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
परम अहिंसा गुण धारें, स्वयं तरें पर को तारें।
स्वात्म गुणों से परिणत हैं, चतु:संघ से वंदित हैं।।
शिवरमणी के कांत गुरु को, वसुविध अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०७।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
पाठक स्वात्म द्रव्यमय हैं, शुद्धरूप से चिन्मय हैं।
ध्या ध्या करके शुद्धात्मा, चििंच्चतामणि परमात्मा।।
ऐसे सिद्धिरमापति गुरु को, वसुविध अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०८।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
आत्मद्रव्य जब शुद्ध बने, तभी शुद्ध पर्याय जने।
शुद्धनयाश्रित शुद्धात्मा, ध्याकर बनते परमात्मा।।
शिवरमणी के स्वामी गुरु को, वसुविध अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०९।।
उपाध्याय गुरु के चरणों में, नितप्रति शीश झुकाते हैं।
ज्ञान ज्योति उर में प्रगटित हो, यही भावना भाते हैं।।
पाठक की पर्याय कही, उसी रूप उन आत्मा ही।
द्वादशांग श्रुतमय बनते, तत्स्वरूप से परिणमते।।
ये ही मुक्तिपती बनते हम, इनको अर्घ्य चढ़ाते हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकपर्यायस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१०।।
पाठक जग मंगल करतार, अखिल गुणों के हैं भंडार।
जजूँ अर्घ्य ले मंगल हेतु, उपाध्याय गुरु भवदधि सेतु।।
ॐ ह्रीं पाठकमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३११।।
जहाँ न हो दुख का लवलेश, पाठक मंगल स्वगुण विशेष।
पाठक होकर शिवपद प्राप्त, जजूँ सिद्ध जो त्रिभुवन आप्त।।
ॐ ह्रीं पाठकमंगलगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१२।।
मंगलमय मंगल दातार, हरें अमंगल सुखदातार।
मुनीवृंद से वंद्य मुनीश, पाठक तुम्हेंं नमॅूँ नत शीश।।
ॐ ह्रीं पाठकमंगलगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१३।।
स्वात्मद्रव्य मंगलमय मूर्ति, पाठक शिवपद प्राप्त अमूर्ति।
मुनिगण ज्ञान प्राप्त कर शुद्ध, हो जाते मैं नमूँ विशुद्ध।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
३१४पाठक की पर्याय महान, ज्ञानदान देते अमलान।
तुम शरणागत है चउसंघ, जजूँ हरुँ मैं निज अघपंक।।
ॐ ह्रीं पाठकपर्यायमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१५।।
चारित निश्चय अरु व्यवहार, निज पर का मंगल करतार।
मंगलद्रव्य और पर्याय, नमूँ नमूूूँ पाठक गुण गाय।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यपर्यायमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१६।।
शुद्ध द्रव्य गुणपर्यय धार, पाठक गुरु मंगल दातार।
स्वात्मध्यान से शिवपद लेत, जजूँ स्वात्म गुण संपति हेत।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यगुणपर्यायमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१७।।
शुद्ध नयाश्रित सिद्ध समान, परिणत हों धरकर शुचि ध्यान।
मंगल सिद्ध स्वरूप महान, पाठक जजूँ मिले निज ज्ञान।।
ॐ ह्रीं पाठकस्वरूपमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१८।।
जग में मंगलमय जग श्रेष्ठ, पाठक सिद्ध बने जग ज्येष्ठ।
जजूँ स्वात्मशुद्धी के हेत, नाथ! आप ही शिवपद हेतु।।
ॐ ह्रीं पाठकमंगलोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१९।।
महिमाशाली गुण जगमान्य, जग में श्रेष्ठ न तुम सम अन्य।
पाठक गुण धर बनते सिद्ध, नमूँ नमूँ पाऊँ निज रिद्धि।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणलोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२०।।
पाठक आत्मद्रव्य अमलान, त्रिभुवन में उत्तम सुखदान।
शुक्लध्यान धर शिवपद सार, पा लेते पूजूँ सुखकार।।
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यलोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२१।।
पाठक ज्ञानस्वरूप अनूप, ज्ञानदान देते शिवभूप।
मुनिगण शरण गहें शिवहेतु, मैं भी जजूूँ स्वपद के हेतु।।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२२।।
पाठक ज्ञान विश्व में श्रेष्ठ, मुनि पाकर बनते जग ज्येष्ठ।
ज्ञानदान दें सिद्धि वरंत, नमूँ उपाध्याय भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानलोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२३।।
पाठक का दर्शन गुण श्रेष्ठ, स्वात्मा को देखें मुनि श्रेष्ठ।
उपाध्याय शिवतिय के ईश, जजँ अर्घ्य ले नाऊँ शीश।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२४।।
त्रिभुवन में उत्तम है दृष्टि, देख रहें निज पर की सृष्टि।
उपाध्याय गुरु शिवतिय कंत, ज्ञान हेतु वंदूँ भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनलोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२५।।
स्वात्मा का दर्शन करके जो, उपाध्याय तद्रूप हुये।
मुनिगण को भी ज्ञान दान दे, शिवपद पाकर तृप्त हुये।।
अंग पूर्व श्रुतज्ञान प्राप्त हो, इसीलिये मैंं नमन करूँ।
स्वात्मा का अनुभव रस पीकर, निजपद में ही रमण करूँ।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२६।।
क्षायिक सम्यग्दर्शनधारी, उपाध्याय अंतर आत्मा।
ध्यान सिद्धिकर परमात्मा हों, जजूँ बनूँ मैं शुद्धात्मा।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२७।।
सम्यग्दर्शन दशविध पढ़कर, पढ़ा रहे चउविध संघ को।
समकित गुण स्वरूप परिणत हों, निज सम करते शिष्यों को।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२८।।
ज्ञान ध्यान संयम तप व्रत से, अतुल वीर्य को प्राप्त करें।
मुक्तिरमा के वर श्री गुरुवर, हमको शक्ति प्रदान करें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२९।।
वीर्य श्रेष्ठ गुण पाकर बहुविध, तपश्चरण कर शुद्ध बने।
भव तन भोग विरागी पाठक, स्वात्मगुणों से सिद्ध बने।।
अंग पूर्व श्रुतज्ञान प्राप्त हो, इसीलिये मैंं नमन करूँ।
स्वात्मा का अनुभव रस पीकर निजपद में ही रमण करूँ।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३०।।
नश्वर नरपर्याय प्राप्त कर, अविनश्वर सुख अभिलाषा।
निज शक्ती पर्याय प्रगट कर, शिव पहुँचे त्रिभुवन भासा।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३१।।
उपाध्याय का आत्म द्रव्य है, शक्ति अनंत धरे जग में।
शिष्योें को श्रुत पढ़ा पढ़ाकर, शक्ति भरें जन जन मन में।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३२।।
आत्मा के गुण पर्यायों को, वीर्य स्वगुण को प्रगट करें।
उपाध्यायगुरु शिक्षा देकर, मुक्तिरमा को स्ववश करें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यगुणपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३३।।
राग द्वेष क्रोधादि दूर कर, निजदर्शन पर्याय धरें।
उपाध्याय गुरु स्वात्मतत्त्व पा , शुद्ध सिद्ध पर्याय धरें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३४।।
स्वात्मतत्त्व का अवलोकर कर, तत् स्वरूप हो सिद्ध बनें।
ऐसे उपाध्याय रवि जग में, मोहध्वांत को शीघ्र हनें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनपर्यायस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३५।।
ज्ञान द्रव्य आत्मा ही है बस, उपाध्याय गुरु श्रुतज्ञानी।
स्वात्मध्यान में तन्मय होकर, बन जाते केवलज्ञानी।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३६।।
शरणागत भव्यों के वत्सल, शरण जगत में पाठक ही।
स्वात्मतत्त्व की शरण लिया गुरु, बने सिद्ध सुखसाधक ही।।
अंग पूर्व श्रुतज्ञान प्राप्त हो, इसीलिये मैंं नमन करूँ।
स्वात्मा का अनुभव रस पीकर निजपद में ही रमण करूँ।।
ॐ ह्रीं पाठकशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३७।।
नग्न मुनी अट्ठाइस गुणधर, गुण पचीस धर पाठक हों।
उत्तरगुण से मुक्ति प्राप्तकर, शिष्यों के शिवसाधक हों।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३८।।
पाठक ज्ञानमात्र गुणधर कर, शिष्य अनंतों को तारें।
आत्म ज्ञान से कर्मनाश कर, स्वात्म सौख्य को विस्तारें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३९।।
निज आत्मा का ध्यान लगाकर, दर्शनगुण की शरण लिया।
उपाध्याय गुरु भवदधि तिरकर, मुक्तिरमा का वरण किया।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४०।।
दर्शन गुणमय बनकर योगी, स्वात्मा का अनुभव करते।
चारों आराधन आराधें, शिवलक्ष्मी तत्क्षण वरते।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४१।।
सम्यग्दर्शन एक शरण है, भवसमुद्र से पार करे।
उपाध्याय गुरु रत्नत्रय से, निज पर का उद्धार करें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४२।।
पच्चिस दोष रहित समकित धर, जो सम्यक्त्व स्वरूप बनें।
उपाध्याय गुरु मुक्ति प्राप्त कर, परमानंद स्वरूप बनें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वस्वरूपशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४३।।
उपाध्याय का वीर्यमहागुण, शरणभूत है मुनियों को।
मुक्ति प्राप्त कर त्रिभुवन त्राता, बनें शक्ति दें शिष्यों को।।
अंग पूर्व श्रुतज्ञान प्राप्त हो, इसीलिये मैंं नमन करूँ।
स्वात्मा का अनुभव रस पीकर निजपद में ही रमण करूँ।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४४।।
उपाध्याय गुरु वीर्य महागुण, मंडित अतुलित शक्ति धरें।
भव्यों को भवदधि से तारें, स्वयं मुक्तिवल्लभा वरें।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४५।।
पाठक निश्चयनय से निज की, अतुल शक्ति से परमात्मा।
सबको शरणभूत हैं जग में, बने गुरू ही सिद्धात्मा।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यपरमात्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४६।।
उपाध्याय गुरु द्वादशांग की, शरण लिया जग संबोधा।
ध्यान अग्नि से कर्म दग्ध कर, सिद्ध बनें शिवतिय लोभा।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकद्वादशांगशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४७।।
दशों पूर्व पढ़कर भी विद्या, देवी के वश नहीं हुये।
ब्रह्मचर्य से सिद्धिरमा को, वश करके प्रभु सुखी हुये।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकदशपूर्वधराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४८।।
उपाध्याय गुरु चौदह पूर्वों, को पढ़कर कर्मारि हने।
सिद्ध बने लोकाग्र विराजें, पाया निजगुण रत्न घने।।अंग.।।
ॐ ह्रीं पाठकचतुर्दशपूर्वधराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४९।।
मुनियों का आचरण बतावें, आचारांग प्रथम श्रुत है।
उपाध्याय गुरु पढ़ें पढ़ावें, सिद्ध बने निज में रत हैं।।
अंग पूर्व श्रुतज्ञान प्राप्त हो, इसीलिये मैंं नमन करूँ।
स्वात्मा का अनुभव रस पीकर निजपद में ही रमण करूँ।।
ॐ ह्रीं पाठकआचारांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५०।।
पाठक ज्ञानाचार युत, शिष्यों को दें ज्ञान।
स्वात्म ध्यान धर शिव लहें, नमूँ सिद्ध भगवान।।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानाचाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५१।।
बारह विध तप आचरें, तप आचार धरंत।
पाठक मुनि शिवतिय वरें, जजूँ सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठकतपआचाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५२।।
आठ अंग समकित धरें, उपाध्याय गुरुदेव।
जजूँ दर्शनाचार युत, करूँ सिद्धपद सेव।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनाचाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५३।।
तेरह विध चारित्रधर, सिद्ध बनें गुरुदेव।
यथाख्यात चारित मिले, जजूूँ करूँ तुम सेव।।
ॐ ह्रीं पाठकचारित्राचाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५४।।
पाँच भेद वीर्याचरण, उपाध्याय धारंत।
सिद्धिरमा परणे तुरत, जजूँ सिद्ध सानंद।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्याचाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५५।।
निश्चय अरु व्यवहार द्वय, रत्नत्रय निधि पाय।
उपाध्याय शिवतिय वरें, पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय।।
ॐ ह्रीं पाठकरत्नत्रयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५६।।
नवतत्त्वों में एक ही, शुद्धात्मा चमकंत।
पाठक गुण एकत्व से, बनें सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५७।।
शुद्ध एक परमात्मा, निश्चयनय से सिद्ध।
उपाध्याय ध्याते जजूँ, पाऊँ नवनिधि ऋद्धि।।
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वपरमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५८।।
एकाकी जग में भ्रमें, मोही जीव सदैव।
निज एकत्व विचारते, बनें सिद्ध स्वयमेव।।
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५९।।
एकाकी जन्मे मरे, पाठक चिन्मय होय।
एकाकी शिवतिय वरे, जजूँ शुद्धमन होय।।
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६०।।
चित् चैतन्यस्वरूप धर, पाठक शिवपुर जांय।
चित् चिंतामणि प्राप्त हो, पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय।।
ॐ ह्रीं पाठकचैतन्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६१।।
एकाकी निजद्रव्य का, पाठक ध्यान धरंत।
एक सिद्ध साम्राज्य लें, जजॅँॅू सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६२।।
पाठक निज का ध्यान धर, चिदानंद में लीन।
बने सिद्ध परमात्मा, जजत कर्म अरि क्षीण।।
ॐ ह्रीं पाठकचिदानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६३।।
सिद्धि सौख्य को साधते, उपाध्याय शिव प्राप्त।
नमूँ सिद्ध भगवंत को, ये ही त्रिभुवन आप्त।।
ॐ ह्रीं पाठकसिद्धिसाधकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६४।।
सर्वऋद्धि से पूर्ण गुरु, उपाध्याय जग वंद्य।
मुक्ति वरें पूजूँ सदा, मिले स्वात्मसुख कंद।।
ॐ ह्रीं पाठकऋद्धिपूर्णाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६५।।
परिग्रह ग्रन्थी से रहित, पाठक शिव भरतार।
स्वात्मसुधा पीते सतत, नमूँ नमूँ शत बार।।
ॐ ह्रीं पाठकनिर्ग्रंथाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६६।।
सभी अर्थ की खान गुरु, धन धान्यादि भरंत।
मोक्ष अर्थ को प्राप्त कर, बने सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठकअर्थ निधानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६७।।
चतुर्गती भव अंत कर, पाठक शिवपद लेत।
द्रव्यभाव मन शून्य गुरु, जजूँ मोक्षसुख हेतु।।
ॐ ह्रीं पाठकसंसारनिबंधनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६८।।
स्वपर हितंकर गुरु कहें, नाम शुद्ध कल्याण।
मुक्तिरमापति को नमूँ, मिले पंचकल्याण।।
ॐ ह्रीं पाठककल्याणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६९।।
त्रिभुवन जन का हित करें, गुण कल्याण धरंत।
पुन: सिद्धिकांता वरें, जजूँ सिद्ध भगवंत।।
ॐ ह्रीं पाठककल्याणगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७०।।
निज कल्याण स्वरूप गुरु, मुनिगण को उपदेश।
मुक्तिधाम को प्राप्त हों, जजत मिटे भव क्लेश।।
ॐ ह्रीं पाठककल्याणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७१।।
आत्मद्रव्य ही शुद्ध हो, करें स्वपर कल्याण।
इससे पाठक सिद्ध हों, जजॅूँ नित्य धर ध्यान।।
ॐ ह्रीं पाठककल्याणद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७२।।
सात तत्त्व चिंतन करें, स्वात्मगुणों में लीन।
पाठक गुरु शिवतिय वरें, नमत बनूँ अघहीन।।
ॐ ह्रीं पाठकतत्त्वगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७३।।
स्वात्मा का चिंतन करें, पाठक गुरु चिद्रूप।
नित्य निरंजन पद धरें, जजत बनूँ शिवभूप।।
ॐ ह्रीं पाठकचिद्रूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७४।।
चिदानंद चैतन्य गुण, पाकर ध्यान धरंत।
पाठक निजपद पावते, नमूँ जजूँ शिवकंत।।
ॐ ह्रीं पाठकचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७५।।
चिन्मय गुण चैतन्य चिदंबर, उपाध्याय गुरु धारें।
शिक्षा देकर भव्य अनंतों, भवजलधी से तारें।।
ज्ञानदान दें निज शिवपद लें, नमूँ नमूँ गुरुपद में।
निजसमता पीयूष प्राप्त कर, सिद्धिधाम लूं क्षण में।।
ॐ ह्रीं पाठकचैतन्यगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७६।।
ज्ञानज्योति से स्वपर प्रकाशे, उपाध्याय गुरु जग में।
इनके चरण कमल का वंदन, भरे प्रकाश हृदय में।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकज्योतिप्रकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७७।।
तीन भुवन को युगपत् देखे, दर्शन गुण पाठक का।
चित्चैतन्य आत्म गुणरागी, पाठक भवदधि नौका।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७८।।
तीन लोक को युगपत् जानें, उपाध्याय गुरु ज्ञानी।
चिंतामणि चैतन्य स्वभावी, धर्म शुक्ल के ध्यानी।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७९।।
काल अनंतानंत न थकते, वीर्य महागुण धारी।
पाठकगुरु चैतन्य स्वगुण से, अगणित गुण के धारी।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८०।।
नव तत्त्वों में जीवतत्त्व ही, शिवसुख का अधिकारी।
निश्चयनय से शुद्ध चिदात्मा, पाठक गुरु चितधारी।।
ज्ञानदान दें निज शिवपद लें, नमूँ नमूँ गुरुपद में।
निजसमता पीयूष प्राप्त कर, सिद्धिधाम लूं क्षण में।।
ॐ ह्रीं पाठकजीवविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८१।।
सकल भव्य के लिये शरण हैं, पाठक गुरु जग त्राता।
इनके गुण का संकीर्तन ही, मेटे सर्व असाता।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकसकलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८२।।
तीन लोक के सभी भक्तजन, चरण शरण में आते।
शिवपथ का उपदेश प्राप्त कर, भवदधि से तर जाते।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकत्रिलोकशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८३।।
भूत भविष्यत् वर्तमान में, शरण एक गुरु ही हैं।
भव के सारे दु:ख मिटाकर, शिवपथ दर्शक ही हैं।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकत्रिकालशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८४।।
ज्ञान सूर्य गुरु उपाध्याय जी, मंगलदाता त्राता।
जन्म मरण के दु:ख दूर कर, भवि के सौख्य विधाता।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकमंगलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८५।।
जग में सब जीवों को शिवपथ, बतलाते शिवकर्ता।
सभी जीव के शरण आप ही, अगणित गुण के भर्ता।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकलोकशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८६।।
पुण्य पाप आस्रव के ज्ञाता, पापास्रव को रोकें।
निज में निज को ध्याकर निज में, परमतत्त्व अवलोकें।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकआस्रवविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८७।।
कर्मास्रव का संवर करते, समिति गुप्ति संयम से।
शुद्धतत्त्व का ध्यान लगाकर, सुख पाते अनुभव से।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकआस्रवविनाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८८।।
आस्रव का उपदेश न देकर, स्वात्मध्यान सिखलाते।
परमानंद सुखामृत इच्छुक, मुनि मनकमल खिलाते।।
ज्ञानदान दें निज शिवपद लें, नमूँ नमूँ गुरुपद में।
निजसमता पीयूष प्राप्त कर, सिद्धिधाम लूं क्षण में।।
ॐ ह्रीं पाठकआस्रवोपदेशछेदकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८९।।
कर्मबंध का मूल नाश कर, पाठक गुरु अविकारी।
द्रव्य भाव नोकर्म रहित हों, मुक्ती के अधिकारी।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकबंधान्तकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९०।।
सामायिक संयम के पाठक, शुक्ल ध्यान को ध्याते।
राग द्वेष से रहित चिदंबर, बंध मुक्त हो जाते।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकबंधमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९१।।
गुप्ति समिति दशधर्म व बारह, अनुप्रेक्षा संयम से।
कर्मास्रव रोकें संवरयुत, पाठक गुरु निजगुण से।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकसंवराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९२।।
सर्व कर्म आस्रव को रोकें, निज में निज को ध्याते।
संवर रूप बने योगीश्वर, मोक्षधाम को पाते।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकसंवररूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९३।।
मिथ्या अविरति प्रमाद बहुविध, सर्व कषाय निवारें।
योग रहित हो संवर कारण, पाकर शिवपथ धारें।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकसंवरकारणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९४।।
कामदेव का सर्वनाश कर, निज आतम अनुरागी।
ब्रह्मचर्य गुण मंडित पाठक, मुक्तिरमा में रागी।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठककंदर्पच्छेदकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९५।।
सभी कर्म पर्वत को फोड़ें, ध्यान वङ्का ले करके।
उपाध्याय गुरु आत्म सुधारस, पीते ज्ञानांबुधि से।।
ज्ञानदान दें निज शिवपद लें, नमूँ नमूँ गुरुपद में।
निजसमता पीयूष प्राप्त कर, सिद्धिधाम लूं क्षण में।।
ॐ ह्रीं पाठककर्मविस्फोटकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९६।।
कर्म झड़ाकर करें निर्जरा, नाना तप तप करके।
परमाल्हाद प्राप्त कर लेते, निज को ध्या ध्या करके।।ज्ञान.।।
ॐ ह्रीं पाठकनिर्जरादिस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९७।।
मुनी आर्यिका श्रावक अरु, श्राविका चतुर्विध माने।
अंग पूर्व अरु अंग बाह्य को, उपदेशे गुरु मानें।।
ऐसे उपाध्याय गुरु जिनको, ध्याकर कर्म विदारें।
अर्घ्य चढ़ाकर जजूँ भक्ति से, मुझे जगत से तारें।।
ॐ ह्रीं पाठकमोक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९८।।
दर्शन ज्ञान चरित तप चारों, आराधन आराधें।
आत्म ध्यान से कर्म नाश कर, शिवस्वरूप को साधें।।
ऐसे उपाध्याय गुरु चरणों, नमूँ नमूँ भक्ती से।
शिवस्वरूप को शत शत प्रणमूूूँ, निजपद हो युक्ती से।।
ॐ ह्रीं पाठकमोक्षस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९९।।
उपाध्याय गुरु निज आत्मा में, लीन हुये निज ज्ञानी।
शिष्यों को निज ध्यान सिखाया, बनें निजातम ध्यानी।।
मुक्ति राज्य को पाकर गुरु ने, तम अज्ञान हटाया।
ज्ञान ज्योति से जगत् प्रकाशा, जजत चित्त हरषाया।।
ॐ ह्रीं पाठकआत्मरताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४००।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
अट्ठाइस मूलगुणों धारी, गुरु नग्न दिगम्बर अविकारी।
जो आत्म साधना कर शिवपद, पाते वे साधु कहाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०१।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
जो पाँच महाव्रत पाँच समिति, इन्द्रिय निरोध कर निज में रति।
आवश्यक आदि क्रिया पालें, वे ही जग वंद्य कहाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं सर्वसाधुगुणेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०२।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
साधू मूलोत्तर गुण स्वरूप, पालन कर बनते उसी रूप।
ये साधु सिद्धपद पाते हैं, हम चरण शरण में आये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुगुणस्वरूपेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०३।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
ये साधु अचेलक नग्न रहें, आरंभ परिग्रह रहित कहे।
ये मुक्तिरमा को वश करते, इनके गुण सुर नर गाए हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०४।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
भूशयन आदि गुण धारण कर, निज आत्मद्रव्य से हैं सुंदर।
ये साधु सिद्धपद पा लेते, ये ही जगबंधु कहाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुगुणद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०५।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
करपात्र अहार खड़े लेते, रस त्याग करें समरस पीते।
उपसर्ग परीषह सहन करें, ये केवल ज्योति जगाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०६।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
शुद्धोपयोग में तत्पर हैं, स्वात्मा का अनुभव सुंदर है।
ये साधु सर्वदर्शी शिव हैं, सब शास्त्र यही बतलाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०७।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
ये साधु महातप तपते हैं, निज शक्ति अनंती लभते हैं।
ये साधु अिंकचन कर्मयुक्त, गुण रत्नाकर कहलाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०८।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
ये द्रव्य भाव से पूर्ण शुद्ध, ज्ञानामृत पीकर हैं विशुद्ध।
ये साधु सिद्धिकांता पाकर, जग हितकारी कहलाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०९।।
गुरुदेव! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
आठों द्रव्यों को ला करके, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैंं।।
इक बार अहार करें दिन में, फिर भी बहुशक्ति बढ़े तन में।
तप लक्ष्मी से शिवलक्ष्मी लें, ये सिद्धस्वरूप कहाये हैं।।गुरुदेव.।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१०।।
ये साधु स्वात्मपद पाते, निजद्रव्य विशुद्ध बनाते।
फिर शिव पर्याय प्रगट हो, मैं जजूँ चित्त प्रमुदित हो।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४११।।
निज आत्मद्रव्य को ध्याते, निजगुण संपद् को पाते।
फिर शिवपर्याय प्रगट हो, पूजत ही चित्त विशद हो।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यादिगुणपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१२।।
ये साधू मंगलकारी, भव्यों को नित सुखकारी।
ये सिद्ध बनें निज ध्याके, मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाके।।
ॐ ह्रीं साधुमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१३।।
गुरु मंगलमय हितकारी, भव भव के दुख परिहारी।
शिवपद पाके शुद्धात्मा, जजते हों अंतर आत्मा।।
ॐ ह्रीं साधुमंगलस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१४।।
जगबंधु अमंगलहारी, गुरु शरण लिया सुखकारी।
ये साधु सिद्धपद पाते, हम पूजत पाप नशाते।।
ॐ ह्रीं साधुमंगलशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१५।।
सम्यक्त्व सहित मुनि ज्ञानी, तिहुँजग देखें निजध्यानी।
वे ही मंगलकर जग में, पूजत सुखसंपति क्षण में।।
ॐ ह्रीं साधुदर्शनमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१६।।
मुनि सम्यग्ज्ञान धरे हैं, मंगल सुख शांति भरे हैं।
सब जग के मंगलदाता, पूजत ही मिटे असाता।।
ॐ ह्रीं साधुज्ञानमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१७।।
श्रुतज्ञान गुणों के धारी, साधू मंगल सुखकारी।
शिवतिय को वे ही पाते, इन पूजें भव तर जाते।।
ॐ ह्रीं साधुज्ञानगुणमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१८।।
रत्नत्रय मंगल धारें, गुण वीर्य सहित भव तारें।
मुक्ती को प्राप्त करे हैं, वंदन से कर्म टरे हैं।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्यमंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१९।।
मुनि तप कर शक्ति बढ़ावें, मंगल स्वरूप बन जावें।
शिवसंपत से धनवाना, हम पूजें सौख्य निधाना।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्यमंगलस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२०।।
मुनि शक्ति अतुल से मंडित, मंगलगुण से यमखंडित।
शिवपद पाकर अविचल हैं, पूजत ही भाव अमल हैं।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्यमंगलगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२१।।
तप से अतिशय शक्ती हो, जिन आत्मद्रव्य में रति हो।
वे मुनि शिवसुख को पाते , सुरगण भी शीश नमाते।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्यद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२२।।
साधू उत्तम त्रिभुवन में, रमते हैं निज आतम में।
रत्नत्रय साधन करते, वे सिद्ध बने हम यजते।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२३।।
लोकोत्तम गुण से शोभें, ऋषिराज जगत को लोभें।
शिवकन्या को वर लेते, हम पूजत निजपद लेते।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२४।।
लोकोत्तम गुणमय ज्ञानी, साधू निज आतम ध्यानी।
शिवपद पाकर हर्षित हैं, हम पूजत ही प्रमुदित हैं।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२५।।
साधु संसार में स्वात्म से श्रेष्ठ हैं।
द्रव्य चैतन्य से मुक्तिपति ज्येष्ठ हैं।।
मैं नमूँ स्वात्म संपत्ति पाऊँ स्वयं।
सिद्ध की भक्ति से सिद्धि पाऊँ स्वयंं।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२६।।
विश्व में श्रेष्ठ चैतन्य ही द्रव्य है।
साधु तद्रूप हों सिद्ध साम्राज्य लें।।
मैं नमूँ भक्ति से सिद्ध अर्चा करूँ।
आत्म पीयूष से पूर्ण तृप्ती मिले।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमद्रव्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२७।।
विश्व में श्रेष्ठ जो भावश्रुत ज्ञान है।
साधु पा के इसे पूर्ण वैâवल्य लें।।
मैं करूँ सिद्ध की अर्चना भक्ति से।
स्वात्म ज्ञानी बनूँ रत्न तीनों मिलें।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२८।।
लोक के स्वात्म का ज्ञान ही श्रेष्ठ है।
साधु ज्ञानी बनें मुक्तिलक्ष्मी वरें।।
मैं करूँ सिद्धपद वंदना भाव से।
ज्ञान से वाक्य मेरे परम शुद्ध हों।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२९।।
विश्व में स्वात्म का दर्श ही श्रेष्ठ है।
साधु ध्याके स्वयं सिद्धिकांता वरें।।
मैं करूँ वंदना सिद्ध पादाब्ज की।
शुद्ध सम्यक्त्व से चित्त की शुद्धि हो।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३०।।
लोक में ध्यान ही सार में सार है।
शुक्लध्यानी मुनी मुक्ति साम्राज्य लें।।
मैं करूँ अर्चना सिद्ध पादाब्ज की।
शुद्ध चारित्र से काय भी शुद्ध हो।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमध्यानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३१।।
लोक में श्री दयाधर्म ही श्रेष्ठ है।
साधु सब जीव में पूर्ण करुणा धरें।।
मैं करूँ वंदना साधु जो सिद्ध हों।
स्वात्म की हो दया मुक्तिकन्या मिले।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३२।।
विश्व में साधु ही धर्म के रूप हैं।
तीन ही रत्न से लोक में श्रेष्ठ हैं।।
पूर्ण निर्ग्रंथ हैं सिद्धि के नाथ हैंं।
मैं करूँ वंदना शीश को नाय के।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमधर्मस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३३।।
साधु ही लोक में श्रेष्ठ शक्ती धरें।
सिद्धिकांता वरें नंत शक्ती धरें।।
सिद्ध के पाद की वंदना शक्ति दे।
रत्नत्रय युक्ति से मुक्ति को साध लूं।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमवीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३४।।
साधु निजवीर्य से विश्व में श्रेष्ठ हैं।
वीर्यमय हो रहे कायबल धारते।।
मैं उन्हीं साधु की नित्य अर्चा करूँ।
सिद्ध पद वंदना सर्व सिद्धी करे।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमवीर्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३५।।
साधु ही लोक में श्रेष्ठ अतिशय धरें।
मुक्तिकन्या वरें सर्व संपत्ति लें।।
साधु के पाद की वंदना सौख्य दे।
सर्व अतिशय मिलें मृत्यु का नाश हो।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमअतिशयसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३६।।
ब्रह्म आत्मा जगत् श्रेष्ठ है वंद्य है।
आत्मज्ञानी मुनी मुक्तिलक्ष्मी वरें।।
जो करें सिद्ध की वंदना प्रेम से।
सिद्धिकन्या उन्हें प्रेम से चाहती।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमब्रह्मज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३७।।
साधु जो ब्रह्मज्ञानैक में तन्मयी।
मुक्तिकन्या उन्हें कंत माने सदा।।
मैं करूँ वंदना अर्चना भक्ति से।
स्वात्म संपत्ति दे दीजिये शीघ्र ही।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमब्रह्मज्ञानस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३८।।
ज्ञान धारें मुनी लोक में श्रेष्ठ जो।
ज्ञान से ध्यान कर केवली सिद्ध हों।।
भाव श्रुतज्ञान के हेतु मैं पूजहूँ।
स्वात्मचिंता सदा ही करूँ नाथ! मैं।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३९।।
लोक में श्रेष्ठ गुण वो सभी साधु में।
सर्वगुण से उन्हें मुक्ति भी चाहती।।
सिद्धपद प्राप्त कर सर्व व्याधी हरें।
मैं करूँ नाथ पद वंदना भक्ति से।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४०।।
हैं लोकोत्तम पुरुष साधु ही, शत इन्द्रों से वंदित हैं।
सिद्धिरमा वरते निजगुण से, उनकी पूजा सुखप्रद है।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमपुरुषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४१।।
सभी भव्य जीवों को पालें, शरणभूत मुनिवर जग में।
सिद्धिवधू प्रिय बन जाते हैं, नमूँ नमूूँ उन पदयुग मैं।।
ॐ ह्रीं साधुशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४२।।
साधू के गुण लाख चुरासी, त्रिभुवन जन को शरणा दें।
शिवतिय पाते सिद्ध कहाते, उन पूजा शिवपरणा दे।।
ॐ ह्रीं साधुगुणशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४३।।
मुनिवर का दर्शनगुण उत्तम, स्वात्मा का अवलोकन हो।
स्वात्म देखकर विश्व देखते, उनको शत शत वंदन हो।।
ॐ ह्रीं साधुदर्शनशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४४।।
अट्ठाईस मूलगुण धारी, अगणित उत्तरगुण धारें।
गुण अरु द्रव्य शरण भविजन को, ये ही मुनि भव से तारें।।
ॐ ह्रीं साधुगुणद्रव्यशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४५।।
मतिश्रुत अवधि मन:पर्यययुत, साधु केवली बन जाते।
उनका ज्ञान शरण भविजन को, जो पूजें वे सुख पाते।।
ॐ ह्रीं साधुज्ञानशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४६।।
यतिगण निजदर्शन स्वरूप हों, त्रिभुवनदर्शी बनते हैं।
उनके दर्शन करके भविजन, भवदुख खंडन करते हैं।।
ॐ ह्रीं साधुदर्शनस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४७।
मुनि की आत्मा शरणभूत है, भविजन नित्य शरण आते।
सिद्धात्मा का वंदन करके, जन्म मरण से छुट जाते।।
ॐ ह्रीं साधुआत्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४८।।
परमात्मा की शरणा लेकर, साधू परमात्मा बनते।
उनकी अर्चा करके भविजन, स्वयं शुद्ध आत्मा बनते।।
ॐ ह्रीं साधुपरमात्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४९।।
पंचेंद्रिय मन से विजयी मुनि, शम दम धर्म सिखाते हैं।
उनकी अर्चा करके प्राणी, इन्द्रिय जय कर पाते हैं।।
ॐ ह्रीं साधुजितात्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५०।।
आतापन आदिक योगों से, अतुल वीर्य प्रगटित करते।
कायबली मुनि शिवपद पाते, पूजत निजशक्ती लभते।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्यशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५१।।
आत्मा का गुण वीर्य अनूपम, मुनिजन इससे कर्म हनें।
इनकी पूजा करके भविजन, पा जाते हैं स्वगुण घनें।।
ॐ ह्रीं साधुवीर्यात्मशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५२।।
मूलोत्तर गुण पाकर तन्मय, गुणस्वरूप हों सिद्ध बनें।
ऐसे गुरु के चरण कमल में, भक्तिभाव से हम प्रणमें।।
ॐ ह्रीं साधुगुणस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५३।।
अंतर बाहिर गुण तप लक्ष्मी, से भूषित मुनि शिव पाते।
शुद्ध अनंतचतुष्टय लक्ष्मी, धारी को हम शिर नाते।।
ॐ ह्रीं साधुलक्ष्म्यालंकृताय शरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५४।।
अंतरंग गुण लक्ष्मी परिणत, मुनिवर ज्ञानसूर्य जग में।
शिवलक्ष्मी के स्वामी इनकी, पूजा तम अज्ञान हने।।
ॐ ह्रीं साधुलक्ष्मीपरिणताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५५।।
अंतर लक्ष्मी रूप साधुगण, भविजन कमल खिलाते हैं।
शिव संंपत् से त्रिभुवन गुरु ये, इन पद पंकज ध्याते हैं।।
ॐ ह्रीं साधुलक्ष्मीरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५६।।
निश्चयनय से आत्मा ध्रुव है, साधु इसे ही ध्याते हैं।
धु्रवपद पाकर विश्वपूज्य हैं, हम उनको ही ध्याते हैं।।
ॐ ह्रीं साधुध्रुवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५७।।
नित्य अनंते गुण ध्रुव माने, उनसे सहित साधु जग में।
शिवपद पाते उन्हें जजूँ मैं, सकल गुणों को पाऊँ मैंं।।
ॐ ह्रीं साधुगुणध्रुवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५८।।
साधू का आत्मा ध्रुव अचलित, शुक्लध्यान से शिव पाते।
धु्रवपद हेतू नमूँ भक्ति से, भव भव के दुख नश जाते।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यधु्रवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५९।।
सिद्ध अचल पद को उत्पन कर, अखिल गुणों से मंडित हों।
ऐसे गुरु की पाद वंदना, करते सब अघ खंडित हों।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्योत्पादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६०।।
साधु के विभाव भाव का विनाश हो जबे।
वे स्वभावरूप हों प्रसिद्ध सिद्ध आतमा।।
तीन रत्न प्राप्ति हेतु आप पाद में नमूँ।
जन्म वार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य दीजिये।।
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यव्ययाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६१।।
साधु ज्ञान चेतना विशुद्ध प्राण से जियें।
पूर्ण शुद्ध जीव हैं अनंत सौख्य धारते।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुजीवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६२।।
साधु जीव के अनंत गुण समूह से भरे।
शुद्ध सिद्ध नित्य हैं अनंत सौख्य से भरे।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुजीवगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६३।।
ज्ञान दर्श चेतना समेत साधु चिन्मयी।
सिद्धधाम में सदैव राजते महामना।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुचैतन्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६४।।
चित्स्वरूप में सदैव लीन साधु शुद्ध हैं।
सिद्धिकन्यका वरें त्रिलोक अग्र पे रहें।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुचैतन्यस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६५।।
चिन्मयी महत्त्वपूर्ण गुण विशेष को धरें।
साधु शुद्ध आत्म ध्यान धारके विशुद्ध हों।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुचैतन्यगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६६।।
साधु परम आत्म के प्रकाश पुंजरूप हैं।
ज्ञानज्योति से समस्त विश्व को विलोकते।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुपरमात्मप्रकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६७।।
ज्ञानसूर्य साधु ज्योतिरूप रश्मि से दिपें।
तीन लोक की समस्त वस्तु जानते सदा।।
तीन रत्न प्राप्ति हेतु आप पाद में नमूँ।
जन्म वार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य दीजिये।।
ॐ ह्रीं साधुज्योति:स्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६८।।
आत्मज्योति के प्रदीप साधु तीन रत्न से।
नित्य दीप्तिमान हों त्रिलोक शीश पे रहें।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुज्योति:प्रदीपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६९।।
स्वात्म तत्त्व देखते मुनी स्वदर्श दीप हैं।
तीन लोक देख के त्रिलोक पूज्य हो रहे।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुदर्शनदीपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७०।।
साधु विश्व के अपूर्व ज्ञानदीप हैं कहे।
मोहध्वांत नाश के सुसिद्ध धाम में दिपें।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुज्ञानदीपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७१।।
विश्व के अनंत जीव साधु शर्ण आवते।
सिद्धिवल्लभापती समस्त भव्य पालते।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुसर्वशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७२।।
ज्ञान रश्मिवान साधु शर्ण विश्व में कहे।
रत्नत्रय प्रदान कर समस्त भव्य तारते।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुलोकशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७३।।
तीन लोक के समस्त भव्य साधु शर्ण लें।
तीन लोश ईश आप ही हितैषि बंधु हो।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुत्रिलोकशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७४।।
तीन लोक का भ्रमण निवार आप सिद्ध हैं।
संसरण मिटाइये अतेव अर्चना करूँ।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुसंसारछेदकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७५।।
भूत भावि वर्तमान तीन काल में तुम्हीं।
भव्य को शरण कहे प्रसिद्ध सिद्धिकांत हो।।
तीन रत्न प्राप्ति हेतु आप पाद में नमूँ।
जन्म वार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य दीजिये।।
ॐ ह्रीं साधुत्रिकालशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७६।।
ज्ञान आदि गुण अनंतयुक्त साधु पूज्य हैं।
सर्व साधु के लिये शरण्य आप ही प्रभो!।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुशरणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७७।।
मैं सदैव एक ही अनंत जीवराशि में।
एक भावना यही करें त्रिलोकनाथ ही ।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुएकत्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७८।।
मैं सदैव एकला न अन्य कोई साथ दे।
भव्य अब्ज सूर्य साधु चिंतते हि सिद्ध हों।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुएकत्वगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७९।।
एक आत्मद्रव्य मैं समस्त द्रव्य शून्य हूँ।
ज्ञान तेज रूप हॅँॅू विचार साधु सिद्ध हों।।तीन.।।
ॐ ह्रीं साधुएकत्वद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८०।।
निज एकत्व स्वरूप, साधु ध्यान में परिणमें।
बने शुद्ध चिद्रूप, नमूँ भक्ति से सिद्ध को।।
ॐ ह्रीं साधुएकत्वस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८१।।
द्वादशांग श्रुतज्ञान, पाके निज में लीन हैं।
बने सिद्ध भगवान, नमूँ भक्ति से सिद्ध को।।
ॐ ह्रीं साधुद्वादशांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८२।।
शब्दब्रह्म को पाय, आत्मब्रह्म में रत रहें।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, शुद्ध सिद्ध परमातमा।।
ॐ ह्रीं साधुशब्दब्रह्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८३।।
परम ब्रह्म में लीन, साधु शुक्लध्यानी बने।
जजूँ भक्ति में लीन, शुद्ध सिद्ध परमातमा।।
ॐ ह्रीं साधुपरमब्रह्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८४।।
परमागम में लीन, परम तत्त्व को ध्यावते।
बने सिद्ध भव क्षीण, नमूँ भक्ति से सिद्ध को।।
ॐ ह्रीं साधुपरमागमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८५।।
जिन आगम स्वाध्याय, करके निजगुण को धरें।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, शुद्ध सिद्ध भगवान को।।
ॐ ह्रीं साधुजिनागमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८६।।
चारितमंडित साधु, अनेकार्थ में कुशल हैं।
पाऊँ समरस स्वादु, सिद्धप्रभो को पूजहूँ।।
ॐ ह्रीं साधुअनेकार्थाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८७।।
रत्नत्रय से साधु, मन वच तन से शुचि कहे।
मिटे सर्वभव व्याधि, पूजूँ सिद्ध समूह को।।
ॐ ह्रीं साधुशुचित्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८८।।
यह तन पूर्ण अशुद्ध, रत्नत्रय से शुद्ध हो।
बने साधु शिव सिद्ध, नमूँ भक्ति से नित्य ही।।
ॐ ह्रीं साधुशुचिगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८९।।
ज्ञान नीर से कर्म, क्षालन कर पावन हुये।
जजत मिटे भव भर्म, परम शुद्ध गुरु सिद्ध को।।
ॐ ह्रीं साधुपरमपवित्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९०।।
कर्मबंध से मुक्त, साधु सिद्धपद को लहें।
पूजत व्याधि विमुक्त, बने भक्त प्रभुभक्ति से।।
ॐ ह्रीं साधुबंधविमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९१।।
कर्मबंध के शत्रु, नाश किया निर्मूल से।
भव्यजनोें के मित्र, साधु सिद्ध हों मैं जजूूूँ।।
ॐ ह्रीं साधुबंधप्रतिबंधकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९२।।
संवर हेतु धरंत, महामना मुनिनाथ जी।
बने सिद्ध भगवंत, अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।।
ॐ ह्रीं साधुसंवरकारणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९३।।
साधु निर्जराद्रव्य, तप से कर्म झड़ें स्वयं।
बने सिद्ध वरद्रव्य, जजत कर्म मेरे झड़ें।।
ॐ ह्रीं साधुनिर्जराद्रव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९४।।
कर्म निर्जरा रूप, उत्तमगुण से परिणमें।
साधु बने शिवभूप, नमूँ नमूँ मैं भक्ति से।।
ॐ ह्रीं साधुनिर्जरागुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९५।।
कर्म निर्जरा हेतु, नाना तप कर शुद्ध हों।
बने सिद्ध भव सेतु, नमूँ कर्म का क्षय करूँ।।
ॐ ह्रीं साधुनिर्जरानिमित्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९६।।
दर्शन ज्ञान चरित्र, तप गुण से मंडित मुनी।
भव हेतू से मुक्त, सिद्ध नमूँ भव दुख मिटे।।
ॐ ह्रीं साधुसंसारनिमित्तमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९७।।
जाना धर्मस्वरूप, धर्म अधर्म निरूपते।
साधु बने शिवरूप, नमूँ भक्ति से सिद्ध को।।
ॐ ह्रीं साधुबुद्धधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९८।।
गुणरत्नाकर साधु, दोष शून्य गुण जानते।
मिले निजातम स्वाद, सिद्ध गुणों को मैं जजूूँ।।
ॐ ह्रीं साधुबुद्धगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९९।।
सुगत मोक्षगति पाय, साधु सिद्ध भगवंत हैं।
पूजूूँ शीश नमाय, मुझे सुगति दीजे प्रभो!।।
ॐ ह्रीं साधुसुगतभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५००।।
देहादिसर्व पर द्रव्य नहीं हमारे।
मैं ज्ञानमात्र मुनि हूँ सब जानता हूँ।।
ये साधु सिद्धपद पाकर केवली हैं।
मैं पूजहूँ सतत स्वात्म विशुद्धि हेतू।।
ॐ ह्रीं साधुपरगतभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०१।।
क्रोधादि भाव कर्मोदय से हुये हैं।
ये हैं विभाव मुझ आत्मा शुद्ध निश्चित।।
चैतन्य शुद्धगुण पाकर साधु ध्यानी।
सिद्धातमा बन चुके मैं नित्य वंदूँ।।
ॐ ह्रीं साधुविभावरहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०२।।
ज्ञानाब्धि में मुनि नहाकर शुद्ध होते।
देवेन्द्र वंद्य निज भाव स्वभाव धारें।।
हों सिद्ध तीन जग मस्तक पे विराजें।
मैं भक्ति से नित जजूँ निज सौख्य पाऊँ।।
ॐ ह्रीं साधुस्वभावमहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०३।।
शुद्धात्म लीन मुनि मोक्ष स्वरूप मानें।
सिद्धिप्रिया वश करें जग पूज्य होते।।मैं स्वात्मचिंतन करूँ प्रभु की कृपा से।
पूजूँ सदा शिवपती शिव सौख्य पाऊँ।।
ॐ ह्रीं साधुमोक्षस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०४।।
सम्यक्त्व ज्ञानगुण मंडित श्रेष्ठ साधू।
ज्ञानी परोक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण जाने।।
ध्यानी मुनी शिव लहें यम नाश करके।
मैं भी जजूँ मरण दु:ख विनाश हेतू।।
ॐ ह्रीं साधुप्रमाणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०५।।
अर्हत्स्वरूप मुनि ज्ञान रवी यहीं पे।
त्रैलोक्य जान कर तृप्त हुये सदा ही।।
लोकाग्र पे पहुँच के सिद्धातमा हैं।
मैं नित्य अर्चन करूँ मन शुद्धि हेतू।।
ॐ ह्रीं साधुअर्हत्स्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०६।।
ज्ञानादि रत्न गुण भूषित निस्पृही हैं।
दिग्वस्त्र धार कर शीलव्रती सुखी हैं।।
ये साधु सिद्धिरमणी को वश्य करके।
तिष्ठें सदा जजत दु:ख हरें हमारे।।
ॐ ह्रीं साधु सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०७।।
आरंभ और परिग्रह तज निस्पृही हैं।
ऐसे मुनी जगत क्लेश विनाशकारी।।
लोकाग्र पे नित सुखी निज राज्य लेके।
मैं पूजहूँ सकल शोक मिटाय दीजे।।
ॐ ह्रीं साधुनि:स्पृहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०८।।
क्षायिक सम्यक्त्व सहित मुनिवर, सब राग द्वेष दोषादि हरें।
शाश्वत शांती पाकर निज में, निज को ध्याकर सब कर्म हरें।।
ऐसे गुरु घाति अघाति घात, शिवरमणी के भरतार बनें।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, हमको देवें गुणरत्न घनें।।
ॐ ह्रीं साधुशांताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०९।।
सब जीवों पर करुणा करके, करुणासागर गुरु माने हैं।
स्वात्मा पर करुणा करके गुरु, निज आत्मा को पहिचाने हैं।।
ये परम कारुणिक जगत पिता, जगदम्बा भी मुनिगण कहते।
ये सिद्धिवधू के स्वामी हैैं, जो पूजें वे शिवपद लहते।।
ॐ ह्रीं साधुकारुणिकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१०।।
संसार शरीर व भोगों से, वैराग्य धरा मुनि पद धारा।
पाँचों परमेष्ठी की शरणा, लेकर भवि को भव से तारा।।
फिर स्वात्मशरण ले ध्यान लीन, केवलज्ञानी हो सिद्ध बनें।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, मेरे मनवांछित कार्य बनें।।
ॐ ह्रीं साधुनिर्विण्णाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५११।।
व्यवहार रत्नत्रय पालन कर, निश्चय रत्नत्रय प्राप्त करें।
फिर निर्विकल्प ध्यानी मुनिवर, निज आत्मसुधा का पान करें।।
केवलज्ञानी हो श्रीविहार, करके भव्यों को पार करें।
त्रैलोक्य शिखर पर जा तिष्ठे, हम पूजत कर्म कलंक हरें।।
ॐ ह्रीं साधुरत्नत्रययुताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१२।।
गृह त्याग दिगम्बर साधु बने, चउसंघ नाथ आचार्य बने।
जिनशास्त्र पढ़ाकर उपाध्याय हों, ध्यान किया अर्हंत बने।।
सब कर्मनाश कर सिद्ध बने, प्रभु गुण अनंत को धारे हैं।
इन पाँच शतक बारह गुण को, पूजत ही कर्म निवारे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं द्वादशोत्तरपंचशतकगुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा।दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम: (१०८ बार)।जयमाला
जयो जिनेंद्र! आप ही महान देवदेव हो,
समस्त इन्द्र देव चक्रवर्ति शीश नावते।
जयो जिनेन्द्र! आप ही समस्त विश्व वंद्य हो,
मुनीद्र औ गणीन्द्र साधुवृंद कीर्ति गावते।।
जयो जिनेन्द्र! आपकी अपूर्व ज्ञानज्योति में,
त्रिलोक औ अलोक एक साथ भासते रहें।
जयो जिनेन्द्र! आपकी अपूर्व दिव्यदृष्टि में,
त्रिकाल की अनंत वस्तुयें विभासती रहें।।१।।
प्रभो! महात्म्य आपका अचिन्त्य है महान है,
समस्त ईति भीति और आपदायें दूर हों।
पहाड़ टूट के पड़ें व भूमिकंप हो महा,
तथापि कष्ट रंच ना यदी जिनेन्द्र भक्ति हो।।
नदी प्रवाहपूर हो गिरें जहाज ना मिलें,
तथापि भक्ति नाव से तिरें महासमुद्र भी।
न नीर कष्ट दे सके जिनेन्द्र नाममंत्र से,
पहाड़ बर्फ के गिरें न दु:ख हो वहाँ कभी।।२।।
त्रिचक्रिका१ चतूष्चक्रिका भिड़न्त हों जबे,
गिरें सुदूर जायके न चोट भी जरा लगे।
उड़े अकाश वायुयान२ से यदी गिरें कभी,
जिनेन्द्र मंत्र जाप से खरोंच भी तो ना लगे।।
विषाक्त वाष्प जो क्षरें शरीर मृत्यु ग्रास हो,
तथापि भक्त आपके न रंच वेदना धरें।
अनेक कष्टदायि संकटादि आ पड़ें यदी,
तथापि भक्ति के प्रभाव भक्त दु:ख ना भरें।।३।।
ज्वरादि पीलिया व कुष्ठ रक्तचाप रोग हों,
अनेक हृदय रोग वैंसरादि व्याधियाँ घनी।
करोड़ पाँच अड़सठे सुलाख निन्यानवे,
हजार पाँच सौ चुरासि संख्य व्याधियाँ भणी।।
बस एक चक्षुमात्र में छियानवे कुरोग हैं,
शरीर सर्व में यदी समस्त रोग साथ होें।
जिनेन्द्र पाद धूलि शीश पे धरें उसी क्षणे,
समस्त रोग दूर हों शरीर कामरूप हो।।४।।
पिशाचिनी व डाकिनी समस्त भूत व्यंतरा,
अनेक शत्रु देव भी न रंच कष्ट दे सकें।
प्रसिद्ध सिद्ध नाम मंत्र के प्रभाव से यहाँ,
समस्त शत्रु मित्र होें अनेक रत्न भेंट दें।।
विषैल सर्प बिच्छु आदि क्रोध से डसें यदी,
न विष चढ़े जिनेन्द्र भक्ति के प्रभाव से कभी।
अनेक क्रूर सिंह व्याघ्र हस्ति आदि जंतु भी।
जिनेन्द्र नाम जीभ पे न कष्ट दे सकें कभी।।५।।
सरस्वती यदी समुद्र नीर स्याहि ले बना,
त्रिलोक को बनाय ग्रंथ आप कीर्ति को लिखे।
अनंत काल तक विराम ले नहीं तथापि वो,
अनंतकीर्ति आपकी कदापि माँ न लिख सके।।
सुनी सुकीर्ति आपकी अतेव मैं लिया शरण,
कृपा सुदृष्टि कीजिये न देर कीजिये प्रभो!।
निकाल दु:ख वार्धि से स्वपाद में निवास हो,
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य दीजिये प्रभो!।।६।।
त्रिविध साधु त्रय रत्न से, सिद्ध बनें जगवंद्य।
‘ज्ञानमती’ से नित नमूँ, अर्र्हत् सिद्ध अनिंद्य।।७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं द्वादशोत्तरपंचशतकगुणसमन्वित-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा।दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धि वल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।