विधिवत् अभिषेक करके नित्य पूजा के बाद अंत में जो विधि करनी चाहिए, उसके लिए ‘‘अभिषेक पाठ’’ में ही श्री पूज्यपाद स्वामी ने अंत में चार श्लोक दिये गये हैं, उन्हें देखकर विधि करना शास्त्रोक्त है।
निष्ठाप्यैवं जिनानां सवनविधिरपि प्रार्च्यभूभागमन्यं।
पूर्वोत्तैर्मंत्रयंत्रैरिव भुवि विधिनाराधनापीठयंत्रतम्।।
कृत्वा सच्चंदनाद्यैर्वसुदलकमलं कर्णिकायां जिनेन्द्रान्।
प्राच्यां संस्थाप्य सिद्धानितरदिशि गुरून् मंत्ररूपान् निधाय।।१।।
जैनं धर्मागमार्चानिलयमपि विदिक्पत्रमध्ये लिखित्वा।
बाह्ये कृत्वाथ चूर्णै: प्रविशदसदवै: पंचकं मंडलानाम्।।
तत्र स्थाप्यास्तिथीशा ग्रहसुरपतयो यक्षयक्ष्य: क्रमेण।
द्वारेशा लोकपाला विधिवदिह मया मंत्रतो व्याह्रियन्ते।।२।।
एवं पंचोपचारैरिह जिनयजनं पूर्ववन्मूलमंत्रे-
णापाद्यानेकपुष्पैरमलमणिगणैरंगुलीभि: समंत्रै:।।
आराध्यार्हंतमष्टोत्तरशतममलं चैत्यभक्त्यादिभिश्च।
स्तुत्वा श्री शांतिमंत्रं गणधरवलयं पंचकृत्व: पठित्वा।।३।।
पुण्याहं घोषयित्वा तदनु जिनपते: पादपद्मार्चितां श्री-
शेषां संधार्य मूर्ध्ना जिनपतिनिलयं त्रि:परीत्य त्रिशुद्ध्या।
आनम्येशं विसृज्यामरगणमपि य:पूजयेत् पूज्यपादं।
प्राप्नोत्येवाशु सौख्यं भुवि दिवि विबुधो देवनंदीडितश्री:।।४।।
इस विधि जिनवर अभिषेक व पूजा विधि को निष्ठापित करके।
वर सिद्धचक्र यंत्रादिक की मंत्रों से आराधन करके।।
चंदन से अठदल कमल बना कर्णिका मध्य ‘‘अर्हन्’’ लिखिये।
पूरब दिश सिद्ध इतर त्रयदिश में त्रयविध गुरुओं को लिखिये।।१।।
विदिशा दल में जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा जिनगृह लिखिये।
इस बाहर चूर्णादिक से पाँच कोष्ठक का शुभ मंडल रचिये।।
उसमें पंद्रह तिथिसुर नवग्रह बत्तीस सुरेन्द्र यक्ष यक्षी।
द्वारेश लोकपालों की करता मंत्रों से आह्वान विधी।।२।।
इस विध पंचोपचार पूजन कर मूलमंत्र से जाप करो।
पुष्पों से मणिमाला या अंगुली से जप इकसौ आठ करो।।
फिर चैत्यपंचगुरुशांति भक्ति विधिवत् करके जिन आराधो।
वर शांति व गणधरवलय मंत्र को पाँच बार पढ़ आराधो।।३।।
पुण्याहवाचना कर जिनपदकमलार्चित श्रीशेषा१ शिर धर।
जिन मंदिर की त्रिकरणशुद्धी से त्रय प्रदक्षिणा भी देकर।।
प्रभु को नम देवविसर्जन कर जो ‘‘पूज्यपाद’’२ जिन को यजते।
वे ‘‘देवनन्दि’’ से पूजित श्री भू दिव के सौख्य प्राप्त करते।।४।।
इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजा विधि को पूर्ण करके पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रोें से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करे। पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्वदिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर से चूर्ण से और धुले हुए उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्ण मंडल बना लेवें। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इंद्रों को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ।
इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान् का पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंतदेव की आराधना करे। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरु भक्ति और शांति भक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन की घोषणा करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा/आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात् पूजा के लिए बुलाए गए देवों का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद’’ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी’’ से पूजित श्री विद्वान् मर्त्यलोक और देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है।
चक्रेन्द्र और देवेन्द्र उभय भी अतिशय जिनपूजा करते।
तब मुझ जैसे अतितुच्छ मनुष्य क्या अतिशय पूजा कर सकते।।
फिर भी जिनवर की भक्ति सभी के लिए कामधेनू मानी।
हे तीर्थनाथ! तुममें ही मेरी भक्ति स्थिर हो सुखदानी।।१।।
जो मन वच तन से प्रभू भक्ति उन सब जन का मंगल होवे।
जिन अभिषव महापुण्य कर्त्ता देवेन्द्रों का मंगल होवे।।
जिन न्हवन स्तुति में रत राजा की कीर्ति बढ़े मंगल होवे।
बहुपुण्य व लक्ष्मी सरस्वती सब जन के वृद्धिंगत होवे।।२।।
(इस प्रकार श्री पूज्यपाद स्वामि विरचित महाभिषेक पाठ समाप्त हुआ।)