त्रिभुवन के एकचंद्र श्री जिनेन्द्र को नमूँ।
रवि चंद्र कोटि से अधिक दीप्ती उन्हें नमूँ।।
पुण्यांकुरों सम अंकुरारोपण विधी करूँ।
पुण्यांकुरों से नाथ की अर्चाविधी करूँ।।१।।
(चैत्यालय के पूर्व या उत्तर दिशा में कमलाकार मंडल बनाकर स्वस्तिक पर दस, बारह या आठ पालिका, घटी, शराव, पटली को रखें। इन मंडलों के पश्चिम भाग में सुन्दर सिंहासन पर सर्वाण्ह यक्ष की स्थापना करें।)
जो दिव्य शुभ्र गज पे खड़े हाथ जोड़ के।
श्री धर्मचक्र शिर पे धरे हाथ दोय से।।
जिनयज्ञ की रक्षा करें, सर्वाण्ह यक्ष ये।
आह्वान कर पूजा करूँ, कल्याणदक्ष ये।।२।।
ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्ण-सर्वलक्षणसंपूर्ण हे सर्वाण्हयक्ष! एहि एहि संवौषट्।
ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्ण-सर्वलक्षणसंपूर्ण हे सर्वाण्हयक्ष! तिष्ठ-तिष्ठ ठ: ठ:।
ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्ण-सर्वलक्षणसंपूर्ण हे सर्वाण्हयक्ष! सन्निहितो भव-भव वषट्।
ॐ ह्रीं सर्वाण्हयक्षाय इदं अर्घ्यं पाद्यं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरूँ दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
ॐ ह्रीं सर्वाण्हयक्ष यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं स्वस्तये कलशस्थापनं करोमि स्वाहा। (कलश स्थापनं)
ॐ ह्रीं नेत्राय संवौषट् कलशार्चनं करोमि स्वाहा।(कलश को अर्घ्य चढ़ावें)
श्री देवी आदि पूजा—ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्णा: चतुर्भुजा: पुष्पमुखकलशकमल-हस्ता: श्री-आद्यष्ट-दिक्कन्यका: अत्र आगच्छत आगच्छत, इदं अर्घ्यं पाद्यं….।
दिक्पाल पूजा—ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्णा: सर्वलक्षणसंपूर्णा: स्वायुधवाहनवधू-चिन्हसपरिवारा: इंद्राग्नियमनैऋत्यवरुणपवनकुबेरेशान-धरणेन्द्रचन्द्राश्चेति दशदिक्पाला:! अत्र आगच्छत आगच्छत, इदं अर्घ्यं पाद्यं….।
अष्टमंगलद्रव्यन्यास व पूजा—
भेरी व शंख घंटा दीपक व शशि रवि।
श्रीचक्र और दर्पण मंगलस्वरूप ही।।
इन आठ को आठों दिशा में मंत्र बोल के।
थापूँ यहाँ मंगल करो सुख शांति जोड़ के।।३।।
ॐ भेरीश्रियै स्वाहा। ॐ शंखश्रियै स्वाहा।
ॐ घंटाश्रियै स्वाहा। ॐ प्रदीपश्रियै स्वाहा।
ॐ चंद्रश्रियै स्वाहा। ॐ आदित्यश्रियै स्वाहा।
ॐ चक्रश्रियै स्वाहा। ॐ दर्पणश्रियै स्वाहा। (लेखन मंत्रा:)
अष्टमंगल पूजा—ॐ नीरजसे नम: जलं। शीलगंधाय नम: गंधं। अक्षताय नम: अक्षतं। विमलाय नम: पुष्पं। दर्पमथनाय नम: नैवेद्यं। ज्ञानोद्योताय नम: दीपं। श्रुतधूपाय नम: धूपं। परमसिद्धाय नम: फलं अर्घ्यं समर्पयामि स्वाहा।
अथ घटीनां अभ्यंतरेषु—भवनेन्द्रादि-आव्हाननपुरस्सरं प्रत्येकपूजाप्रतिज्ञा-पनाय घटीषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं असुरनागसुपर्णद्वीपोदधिस्तनित-विद्युदग्निवातकुमारनामधेया: दशविधभवनेंद्रा:! अत्र आगच्छत आगच्छत, इदं अर्घ्यं…..।
शरावाणां अभ्यंतरेषु—ॐ ह्रीं किन्नरिंकपुरूषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षस-भूतपिशाचनामधेया: अष्टविधव्यंतरेंद्रा:! अत्र आगच्छत आगच्छत, इदं अर्घ्यं ….।
पटलिकानां अभ्यंतरेषु—ॐ ह्रीं सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलांतव-शुक्रशतारानतप्राण-तारणाच्युतनामधेया: द्वादश कल्पेन्द्रा:! अत्र आगच्छत आगच्छत, इदं अर्घ्यं …..।
(नगर के पूर्व व उत्तर आदि क्षेत्र की मिट्टी लावें)
खेत में जाकर—
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भू: स्वाहा। विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलि:।
पंचकुमार पूजा—ॐ ह्रीं वायुकुमारदेव! महीं पूतां कुरु कुरु फट् स्वाहा।
(भूमि झाड़ें)
ॐ ह्रीं वायुकुमारदेवाय सर्वविघ्नविनाशनाय इदं अर्घं….।
ॐ ह्रीं मेघकुमारदेव! धरां प्रक्षालय प्रक्षालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
(भूमि सींचें)
ॐ ह्रीं मेघकुमारदेवाय इदं अर्घ्यं……।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेव! भूमिं ज्वालय ज्वालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
(अग्नि जलावें)
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेवाय इदं अर्घ्यं…..।
ॐ ह्रीं क्रों षष्ठिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्य: स्वाहा।
नागसंतर्पणार्थं ऐशान्यां दिशि जलांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं नागकुमारदेवाय इदं अर्घ्यं…..।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपाल! अत्र आगच्छ आगच्छ, तिष्ठ तिष्ठ….।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय तैलाभिषेकं करोमि प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय सिंदूरसेचनं करोमि स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय गुडं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
ॐ ह्रीं अत्रस्थक्षेत्रपालाय इदं जलं….।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय सद्वस्त्रं भूषणं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
(पूर्वमुख अथवा उत्तरमुख होकर मिट्टी खोदकर ऊपर की मिट्टी हटाकर पुन: खोदकर नीचे की शुद्ध मिट्टी इकट्ठी करें।)
दोहा— पुण्यांकुर की अर्चना, मूलभूत जो शुद्ध।
इस मिट्टी को मैं जजूँ, नीरादिक ले शुद्ध।।४।।
ॐ ह्रीं असुजर सुजर भव स्वाहा। इति स्वकीयवामकरतलं अभिमंत्रयेत्।
ॐ ह्रीं असुजर सुजर भव स्वाहा। इति धरामप्यभिमंत्रयेत्।
ॐ ह्रीं सर्वलोकगुरुभ्यो नम: स्वाहा। इति मृत्स्नां गृण्हीयात्।
भेरी मृदंग शंख व वीणादि बजाके।
घंटा व कांस्यताल आदि घोष कराके।।
संगीत गीत जय जयादि शब्द बोलके।
मिट्टी से भरे पात्र सर्व धरूं शीश पे।।५।।
(अनेन मृत्पूरितपात्राणि विनयेनोत्तमांगेषु स्थापयेत्)
(सर्वाण्ह यक्ष के साथ महाधूमधाम से वह मिट्टी लाकर शराव आदि के स्थान पर रखें। पुन: जिन अभिषेक, पूजा, पंचमंडल आराधना, श्रुतस्कंध, महर्षि आदि की पूजा करके पात्र की मिट्टी को लेकर पूर्व या उत्तरमुख होकर पालिका आदि पात्रों को भरके रात्रि में शुभ मुहूर्त में कुल स्त्रियों द्वारा बीज वपन करावें)
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भू: स्वाहा। पुष्पांजलि:।
(सर्वाण्ह यक्ष को यक्षआसन पर स्थापित करके पास में मिट्टी से पूरित पात्रों को रखें)
आठों दिशाओं में आठ दिक्पालों की पूजा—
ॐ ह्रीं धामग्रामाश्रित-दिक्पालकदेवा: सर्वेपि ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा इदं अर्घ्यं गृण्हीत् गृण्हीत् यागविघ्नशांतिं कुरुत-कुरुत स्वाहा।
ॐ ह्रीं परिपूर्णानंतचतुष्टयाय नम:। इति पालिकादिपात्रेषु मृत्तिकां पूरयेत्।
गेहूँ व मूँग धान उड़द तिल व राजमा।
सांवा व कांगनी वा कुलथी तथा चना।।
इन सरसों आदि अठरह विध बीज धोयके।
शुभ लग्न में कुल नारियां बोयें यहाँ आके।।६।।
ॐ ह्रीं नमो वृषभाय रोहिणि चंडे महाचंडे सर्वचंडे स्वाहा।
इति बीजानि प्रक्षालयेत्।
ॐ नमो रोहिणि वर्धमानविजये विजयचंडे बीजप्रमुखाय लोकविदिताय सर्वज्ञाय स्वाहा। इति सुन्दरीभिर्वपयेत् स्वयं च वपेत्।
शिष्यांकुरों को सींचते जिनराज के वचन।
उनकी करें अति उन्नति जिनराज के वचन।।
श्रीपाद अर्चना के लिये पूर्णकुंभ ले।
पुण्यांकुरों इव अंकुरों को सींचहूं भले।।७।।
ॐ नमो रोहिणि चंडे पार्श्वचंडे विघ्नविजयचंडे सर्वचंडे स्वाहा। (इति जलसेचनं कुर्यात्। पुण्याहमंत्रेणापि जलसेचनं कुर्यात्।)
शिवमस्तु सर्वजगतां, परहितनिरता भवंतु भूतगणा:।
दोषा: प्रयांतु नाशं, तिष्ठतु जिनशासनं सुचिरं।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वाण्हयक्ष प्रमुखदेवा आहूतार्चिता: सर्वे स्वस्थानं गच्छत गच्छत ज: ज: ज:। इति विसर्जनमंगलेषु पुष्पांजलिं विकीर्य देवता विसर्जयेत्।
अंकुरों से पूजा—
हन घाति प्रगट निरवधी दृक् ज्ञानवीर्य सुख।
कल्याण पांच चौंतिस अतिशय कहें प्रमुख।।
पुण्यांकुरों से आज यहां श्री जिनेन्द्र को।
बहुपुण्य अंकुरों के लिये मैं जजूँ उनको।।९।।
ॐ ह्रीं नम: परमकल्याणकेभ्य: स्वाहा। इत्यंकुरैरभ्यर्चयेत्।
प्रमादाज्ज्ञानदर्पाद्यैर्विहितं विहितं न यत्।
जिनेंद्रास्तु प्रसादात्ते सकलं सकलं च तत्।।
क्षमापणपुर: सरं पंचांगप्रणाम:।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा स्वस्थानं गच्छ गच्छ ज: ज: ज:।
इति विसर्जनं।