मंदिर, वेदी तथा कलशों की शुद्धि के लिए तीर्थजल की आवश्यकता होती है। अत: किसी जलाशय पर गाजे-बाजे के साथ जाकर जल लाना चाहिए। इस कार्य के लिए कम से कम ९ और अधिक से अधिक ८१ घटों का भरना बतलाया है। कहीं-कहीं १०८ या २१, ४१ आदि कलश ले जाते हैं। घटों को तूल तथा नारियल आदि से बाँधकर इन्द्र-इन्द्राणी तथा अन्य स्त्री-पुरुषों के द्वारा जलाशय पर ले जाना चाहिए। वहाँ पीले पुष्पों अथवा पंचरंगों से रंगे चावलों से ८१ खण्ड का एक मण्डल बनाना चाहिए। एक चौकोर मण्डल बनाकर उसमें नौ-नौ के नौ खण्ड बना देने से ९²९·८१ खण्ड का मण्डल अनायास बन जाता है। उन सबमें एक-एक छोटा स्वस्तिक अथवा पूरे मण्डल में एक बड़ा नंद्यावर्त स्वस्तिक बनाकर उस पर सब घट रख देवें। चौकोर मण्डल के सामने एक नौ कलिकाओं का कमल बनावें और उसमें अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनआगम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर इन नौ देवों की स्थापना कर नवदेव पूजन करें।
एक बड़े बर्तन में जल छान कर भरवाये। उसमें लवंग का चूर्ण या केशर मिला दें, जिसमें अन्तर्मुहूर्त बाद फिर से छानने की आवश्यकता न रहे। एक छोटी रकेबी में केशर से जल यंत्र बनावें अथवा ताम्रपत्र आदि पर यंत्र बना हो, तो उसे उसी बर्तन में डाल देवें। तदनन्तर वह जल साथ में लाये हुए घटों में भर ले। पश्चात् नीचे लिखी तीर्थमण्डल पूजा पढ़कर अर्घ चढ़ावें।
मध्ये कर्णिकमर्हदार्यमनघं बाह्येऽष्ट पत्रोदरे,
सिद्धान् सूरिवरांश्च पाठकगुरून् साधूंश्च दिक्पत्रगान्।
सद्धर्मागमचैत्यचैत्य निलयान् कोणस्थदिक्पत्रगान्,
भक्त्या सर्वसुरासुरेन्द्रमहितान् तानष्टधेष्ट्या यजे।।
ॐ ह्रीं अर्हदादि नवदेवेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तद्ब्रह्मचिन्मयसुधारसपूरभोक्तृ, वाक्यामृताप्लुतजगद् विधिपूर्वमेतत्।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।१।।
ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्त्येऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मादिदिव्यह्रदवारिविभूतिभोक्त्री:, श्रीपूर्वदिव्ययुवतीर्विधिपूर्वमेता:।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।२।।
ॐ ह्रीं श्री प्रभृतिदेवतास्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गङ्गादिदिव्यसरिदम्बुविभूतिभोक्त्री-गङ्गादिदैवतवधूर्विधिपूर्वमेता:।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।३।।
ॐ ह्रीं गङ्गादिदेवीस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतातदुत्तरसरित्प्रणयिह्रदाम्भो-भुञ्जन्महाह्रदसुरान् विधिपूर्वमेतान्।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।४।।
ॐ ह्रीं सीताविद्धमहाह्रददेवस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिन्धुप्रवेशपथतोयविभूतिभुञ्जन्, श्रीमागधादिविबुधान् विधिपूर्वमेतान्।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।५।।
ॐ ह्रीं लवणोदकालोदमागधादितीर्थस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतादिमागधपथीय-विभूतिभुञ्जन्, श्रीमागधादिविबुधान् विधिपूर्वमेतान्।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।६।।
ॐ ह्रीं सीतासीतोदादिमागधादितीर्थस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संख्यातिगाम्बुनिधिनीरविभूतिभुञ्जन्, क्षीरोदवारिधिसुरान् विधिपूर्वमेतान्।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।७।।
ॐ ह्रीं संख्यातीतसमुद्रदेवस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकाग्रसिद्धपुरतीर्थजलर्द्धिभुञ्ज-ल्लोकेऽष्टतीर्थमरुतो विधिपूर्वमेतान्।
अब्गन्धतन्दुललतान्तचरुप्रदीप-धूपप्रसूनकुसुमाञ्जलिभिर्यजेऽस्मिन्।।८।।
ॐ ह्रीं लोकस्थिततीर्थस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गङ्गादय: श्रीप्रमुखाश्च देव्य:, श्रीमागधाद्याश्च समुद्रनाथ:।
ह्रदेशिनोऽन्येपि जलाशयेशा-स्ते सारयन्त्वस्य जिनोचिताम्भ:।।
ॐ ह्रीं श्रीं धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-शान्ति-पुष्टय: श्रीदिक्कुमार्यो कलशमुखेष्वेतेषु नित्यनिविष्टा भवत भवतेति स्वाहा।
यह श्लोक और मंत्र बोलकर जलाशय के तट पर पुष्प बिखेरें। तदनन्तर प्रारंभ में छपा मङ्गलाष्टक बोलकर घटों पर पुष्प बिखेरें। यहाँ यदि समय हो तो आगे लिखे ८१ श्लोकों द्वारा उनके मंत्रों को चतुर्थ्यन्त (ॐ ह्रीं इन्द्रकलशायार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा) बदलकर कलशपूजन करें। अन्यथा समुदायरूप में एक अर्घ्य चढ़ाकर यह श्लोक बोले। फिर कलश उठाकर जिस प्रकार ले आये थे, उसी प्रकार वापिस ले जावे।
तीर्थेनानेन तीर्थान्तरदुरधिगमोदारदिव्यप्रभाव-
स्फूर्जत्ततीर्थोत्तमस्य प्रथितजिनपते: प्रेषितप्राभृताभान्।
श्रीमुख्यख्यातदेवीनिवहकृतमुखाद्यासनोद्भूतशक्ति-
प्रागल्भ्यानुद्धरामो जयजघनिनदे शातकुम्भीयकुम्भान्।।
यदि कलशारोहण होना है तो इन्द्र उस कलश को साथ में लेकर नगर के खास-खास मार्गों में प्रभावना के साथ घूमकर नगर कीर्तन करें। नगर कीर्तन के समय प्रतिष्ठाचार्य मन में शांतिमंत्र का उच्चारण करते हुए सब ओर पुष्प अथवा पीली सरसों क्षेपित करते रहें। जुलूस के अन्य स्त्री-पुरुष स्वर से स्तुति आदि पढ़ते जावें।
वापिस आने पर यदि मंदिर प्रतिष्ठा है तो मंदिर के शिखर पर, वेदी प्रतिष्ठा है तो वेदी पर और कलशारोहण है तो एक थाली में कलश को रखकर उस पर नीचे लिखे श्लोक व मंत्र बोलकर वह जल डालना चाहिए। मंदिर शुद्धि आदि की विधि यह है कि एक इतना बड़ा दर्पण रखा जाये, जिसमें शिखर सहित मंदिर का प्रतिबिम्ब आ जाये। फिर मंदिर के प्रतिबिम्ब सहित दर्पण के सामने देखते हुए एक पात्र में प्रत्येक घट से एक धारा देवें, यदि एक साथ तीनों कार्य हों तो तीनों की शुद्धि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के द्वारा एक साथ कर लेना चाहिए।
८१ कलशों के श्लोक और मंत्र इस प्रकार हैं-
कुम्भमिन्द्राह्वयं दिव्यमिन्द्रशस्त्रसमप्रभम्।
ऐन्द्रपुष्पै: समर्चामि नवार्हद्भवनोत्सवे।।१।।
ॐ ह्रीं इन्द्रकलशेन मंदिर-(वेदिका………कलश……….) शुद्धिं करोमीति स्वाहा।।१।।
अग्निज्वालासमानाभमग्न्याख्यं बहुलाक्षतै:।
पूजयामि जिनागारस्नानाय सुखहेतवे।।२।।
ॐ ह्रीं अग्निकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
यमदण्डसमानाभमलौकिकमणिश्रितम्।
यमाख्ययमदिक्पालमान्यं संचर्चयेऽनघम्।।३।।
ॐ ह्रीं यमकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
नैऋत्याख्यंं महाकुंभं नैऋत्याधिपरक्षितम्।
संशब्दये जिनागारं स्नानाय मधुस्तवै:।।४।।
ॐ ह्रीं नैऋत्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
वरुणाख्यं घटं दिव्यं वरुणासुररक्षितम्।
संशब्दये जिनेन्द्रस्य वेश्मस्नानाय चम्पवैâ:।।५।।
ॐ ह्रीं वरुणकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पवनामरसंसेव्यं पवनामरसुरक्षितम्।
पवनाख्यं घटं नीर-गन्धप्रसूनशालिजै:।।६।।
ॐ ह्रीं पवनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुबेराख्यं घटं दिव्यं कुबेरगृहशोभितम्।
जिनवेश्मप्लवायात्र समाह्वये कदम्बवै:।।७।।
ॐ ह्रीं कुबेरकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
ईशानाख्यमदाधारमीशादिदिग्विभासितम्
ॐ ह्रीं तिष्ठेद्विधानेन काश्मीरैस्तन्महे मुदा।।८।।
ॐ ह्रीं ईशानकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुम्भं गारुन्मताह्वानं गरुन्मणिविनिर्मितम्।
सरसैर्दिव्यपूजार्घै: श्रये जैनमहोत्सवे।।९।।
ॐ ह्रीं गारुन्मतकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कलशं सुन्दराकारं वैडूर्यमणिनिर्मितम्।
दिव्यं मरकताभिख्यं स्थापयेऽर्हद्गृहोत्सवे।।१०।।
ॐ ह्रीं मरकतमणिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
गाङगेयनिर्मितं कुम्भं गाङ्गेयाख्यं महोन्नतम्।
गङ्गावनरसापूर्णं पूजयेऽर्हत्सुवेश्मनि।।११।।
ॐ ह्रीं गाङ्गेयकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
प्रतप्तहाटवैâ: स्पष्टं श्रीमद्धाटकसंज्ञकम्।
कुम्भं तीर्थजलापूर्णमर्चयामि यथाविधि।।१२।।
ॐ ह्रीं हाटककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
हिरण्याख्यं महाकुम्भं हिरण्येन समर्जितम्।
लसत्पज्र्जमालाढ्यं यजेऽर्हत्सद्मसम्महे।।१३।।
ॐ ह्रीं हिरण्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कनत्कनकसंकाशं नानामणिविमण्डितम्।
यजेऽर्हन्मन्दिरे कुम्भं शुद्धनीरसमाश्रितम्।।१४।।
ॐ ह्रीं कनत्कलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
अष्टापदाख्यं सत्कुम्भं हेमस्रक्प्रविराजितम्।
क्षीरोदवारिसम्पूर्णमर्चयेऽर्हद्गृहोत्सवे।।१५।।
ॐ ह्रीं अष्टापदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
महारजतनामाढ्यं महारजतनिर्मितम्।
तीर्थाम्बूपूरनिभृतमर्हद्गेहेऽर्चये मुदा।।१६।।
ॐ ह्रीं महारजतकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
आनन्ददायकं दिव्यं सानन्दाख्यं मनोहरम्।
नित्यं तीर्थजलै: पूर्णं स्थापये चैत्यसम्महे।।१७।।
ॐ ह्रीं आनन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
नन्दाख्यं नन्दनोत्कृष्टं प्रणन्दितगमं जितम्।
कुम्भं समर्चये दिव्यं नानामणिविनिर्मितम्।।१८।।
ॐ ह्रीं नन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुम्भं विजयनामानं विजयोर्जितविश्वकम्।
पूर्णं तीर्थजलैर्दिव्यमर्चयेऽर्हद्गृहोत्सवे।।१९।।
ॐ ह्रीं विजयकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
नानातीर्थजलाकीर्णं कुम्भं त्वजितनामकम्।
मानवे विविधार्हाभि: स्मरजिनमन्दिरोत्सवे।।२०।।
ॐ ह्रीं अजितकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
अपराजितनामानं घटं काञ्चनसंनिभम्।
संप्रतिष्ठापये चैत्यमहे जलसुमाक्षतै:।।२१।।
ॐ ह्रीं अपराजितकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
महोदरं शतानन्दनामधेयं प्रभास्वरम्।
कलशं कमलै: पूर्णं प्रार्चयेऽर्हद्गृहोत्सवे।।२२।।
ॐ ह्रीं शतानन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सह स्नानदसत्ख्यातिं पद्मादितीर्थसंभृतम्।
पुष्पमालावृतं कुम्भं महाम्यर्हद्गृहक्षणे।।२३।।
ॐ ह्रीं स्नानदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुन्दाख्यं कुन्दपुष्पाढ्यं कुन्दस्रक्प्रविराजितम्।
प्रार्चये कुन्दपुष्पौघे: कुम्भं भव्यजिनालये।।२४।।
ॐ ह्रीं कुन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
प्रस्फुटन्मल्लिकापुष्पसमूहामोदवासितै:।
नीरै: पूर्णं यजे हेममल्लिकाख्यं महाघटम्।।२५।।
ॐ ह्रीं मल्लिकाख्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
अपूर्वचम्पकामोदप्रवासितजलैर्भृतम्।
चम्पकाख्यं घटं दिव्यं सूत्रितं सम्यगर्चये।।२६।।
ॐ ह्रीं चम्पकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कदम्बरजसाव्याप्तकदम्बाख्यं महाघटम्।
उपाक्षिप्तविधानेनार्चये जैनगृहालये।।२७।।
ॐ ह्रीं कदम्बकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
मन्दराख्यं महाकुम्भं मन्दारस्रग्विभूषितम्।
दिव्यैरर्चामि मन्दारै: प्रत्यग्रजिनमन्दिरे।।२८।।
ॐ ह्रीं मन्दारकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
प्रत्यग्रपारिजातौघसमर्चितजलैर्भृतम्।
पारिजाताभिधं कुम्भमर्चयामि पयोभरै:।।२९।।
ॐ ह्रीं पारिजातकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
संतानपल्लवोत्फुल्लप्रसूननिकरार्चितम्।
संतानाख्यं जलै: पूर्णं संस्थाप्यापूजयेऽनिशम्।।३०।।
ॐ ह्रीं सन्तानकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
हरिचन्दनपुष्पाभं हरिचन्दनसंज्ञकम्।
हरिचन्दनकर्पूरै: कुम्भं संप्रार्चये मुदा।।३१।।
ॐ ह्रीं हरिचन्दनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कल्पवृक्षमहापुष्पप्रकरेण प्रसाधितम्।
कल्पवृक्षाभिधं कुम्भं पूजनाय प्रकल्पये।।३२।।
ॐ ह्रीं कल्पवृक्षकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
जपाख्यं जपदामाभं जपापुष्पाख्यबालकम्।
यजे जगत्प्रभोर्नव्यचैत्यस्नानाय केवलम्।।३३।।
ॐ ह्रीं जपाकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
विशालाख्यं घटं दिव्यं विशालं रत्ननिर्मितम्।
विशालयामि पुष्पौघै: कुन्दरमन्दारसंभवै:।।३४।।
ॐ ह्रीं विशालकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुम्भं श्रीभद्रकुम्भाख्यं भद्रेभकुम्भसुन्दरम्।
पारिभद्रप्रसूनौघै: शोभायामि मनोहरै:।।३५।।
ॐ ह्रीं भद्रकुम्भकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
घटं श्रीपूर्णकुम्भाख्यं पूर्णकुम्भमिवोन्नतम्।
क्षीरोदनीरसम्पूणै: सुरत्नैर्वर्णयाम्यहम्।।३६।।
ॐ ह्रीं पूर्णकुम्भकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
जयन्तं सर्वकुम्भानां जयन्ताख्यं महाघटम्।
विकसञ्जयपुष्पौघै: संजयामि तदुत्सवे।।३७।।
ॐ ह्रीं जयन्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
वैजयन्ताभिधं कुम्भं सत्यं विजयदायकम्।
नव्यप्रासादचर्यार्थैश्चर्चयेऽहं वनादिभि:।।३८।।
ॐ ह्रीं वैजयन्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
चन्द्रकान्तमहारत्नविनिर्मितमहाघटम्।
चन्द्राख्यं जगदुत्कृष्टं पूजये विविधार्चनै:।।३९।।
ॐ ह्रीं चन्द्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सूर्यकान्ताश्मसन्दोहविराजितं महोदयम्।
सूर्याख्यं कुम्भमुत्कृष्टै: प्रयजे तन्महार्घवै:।।४०।।
ॐ ह्रीं सूर्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
लोकालोकप्रविख्यातं लोकालोकविधानकम्।
कुम्भं संस्थापयाम्यत्र सम्पूज्य विविधार्चनै:।।४१।।
ॐ ह्रीं लोकालोककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
त्रिकूटनामकं कुम्भं त्रिकूटाद्रिसमानकम्।
समर्च्य विविधार्घेण स्थापये तन्महोत्सवे।।४२।।
ॐ ह्रीं त्रिकूटकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
उदयाख्यं महाकुम्भमुदयाचलसन्निभम्।
स्थापयामि जिनागारेऽभिषवाय महोन्नतिम्।।४३।।
ॐ ह्रीं उदयाचलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
हिमवत्पर्वताभिख्यं हिमाचलसमुन्नतिम्।
कुटं निवेशयाम्यत्र स्नानाय नव्यवेश्मन:।।४४।।
ॐ ह्रीं हिमाचलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
निषधाद्रिसमोत्सेधं निषधाख्यं घटं वरम्।
संविधायार्हणां दिव्यां स्थापयेऽर्हन्महोत्सवे।।४५।।
ॐ ह्रीं निषधकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
माल्यवत्कुम्भनामानं नानामालाविराजितम्।
शुद्धस्फटिकसंकाशं कुम्भं तत्र निवेशये।।४६।।
ॐ ह्रीं माल्यवत्कलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सत्पारिपात्रकोत्सेधं सत्पारिपात्रकाह्वयम्।
कलशं श्रीजिनगारस्नानाय पूजयेऽनघम्।।४७।।
ॐ ह्रीं सत्पात्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
गन्धमादननामानं गन्धमादप्रपूरितम्।
सम्पूजये जलाद्यर्घैर्जिनौकस्नानहेतवे।।४८।।
ॐ ह्रीं गन्धमादनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सुदर्शनसमाह्वानं सुदर्शनगरिष्ठकम्।
कलशं विशुद्धये जैनवेश्मन: स्थापयेऽनघम्।।४९।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कलशं मन्दराकारं मन्दराख्यं महोन्नतिम्।
विधापयामि जैनेन्द्रभवनस्नानहेतवे।।५०।।
ॐ ह्रीं मन्दरकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
अचलेत्यब्धिना पूर्णमचलाख्यं घटं नवम्।
आम्रपल्लवशोभाढ्यं तदर्थं स्थापयाम्यहम्।।५१।।
ॐ ह्रीं अचलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
विद्युन्मालासमाकारं विद्युन्माल्यभिधानकम्।
कलशं स्थापये दिव्यं नानापूजनवस्तुभि:।।५२।।
ॐ ह्रीं विद्युन्मालिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
चूडामण्याख्यमुत्तुङ्गं चूडामणिसमुन्नतिम्।
पूर्णं तीर्थोदवै: कुम्भं तदुत्सवे निधापये।।५३।।
ॐ ह्रीं चूडामणिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सद्धारगुलिकाभालं गुलिकाह्वयमुत्तमम्।
कुम्भं निवेशयाम्यत्र जैनमन्दिरशुद्धये।।५४।।
ॐ ह्रीं गुलिकाकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
दक्षिणावर्तनामानं दक्षिणावर्तसन्निभम्।
घटं च घटितं लक्ष्म्या तत्कृते सन्निवेशये।।५५।।
ॐ ह्रीं दक्षिणावर्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कोकाख्यं कोकसंकाशं वारिजाश्मविनिर्मितम्।
घटं निधापये जैनवेश्मन: शुद्धहेतवे।।५६।।
ॐ ह्रीं कोककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
राजहंससमानाभं राजहंससमाह्वयम्।
घटं तं जाघटीम्यत्र नवार्हद्वेष्मशुद्धये।।५७।।
ॐ ह्रीं राजहंसकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कलशं हरिताभिख्यं हरिताश्मविनिर्मितम्।
पूजये दिव्यरत्नेन दिव्यगन्धाम्बुचम्पवै:।।५८।।
ॐ ह्रीं हरितकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
मृगेन्द्राह्वयमुत्तुङ्गं समाह्वयार्चनादिभि:।
मृगेन्द्रवत्प्रगर्जन्तं स्नानकालेषु वेश्मन:।।५९।।
ॐ ह्रीं मृगेन्द्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुम्भं कोकनदाकारं श्रीमत्कोकनदाह्वयम्।
त्रिभङ्गानीरसंपूर्णं घटयेऽस्मिन्महोत्सवे।।६०।।
ॐ ह्रीं कोकनदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
स्निग्धाञ्जन समाकारमणिनिर्मितमुत्तमम्।
कालाख्यं कलशं हृद्यं तदुत्सवे निवेशये।।६१।।
ॐ ह्रीं कालकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पद्माख्यं पद्मचक्राख्यं पद्मरागविनिर्मितम्।
कुम्भं समाह्वये नव्यप्रसादस्नपनाय वै।।६२।।
ॐ ह्रीं पद्मकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
अत्यन्तश्यामलाकारप्रस्तरैर्निर्मितं घटम्।
प्रासादस्नानकालेऽत्र महाकालं निवेशये।।६३।।
ॐ ह्रीं महाकालकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पञ्चप्रकारसद्रत्नविनिर्मितं महोन्नतम्।
कलशं सर्वरत्नाख्यं स्नानाय श्रीजिनौकस:।।६४।।
ॐ ह्रीं सर्वरत्नकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पाण्डुकाकारपाषाणनिर्मितं पाण्डुकाह्वयम्।
कुम्भं तीर्थोदकसम्पूर्णं निवेशये यथाविधिं।।६५।।
ॐ ह्रीं पाण्डुककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
नै:सर्पकाङ्गलाकारमणिनिर्मितमुन्नतम्।
कुम्भं स्थापयाम्यत्र तीर्थवारिप्रपूरितम्।।६६।।
ॐ ह्रीं नै:सर्पकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
मानवाख्यं घटं नव्यमानये तीर्थवार्भृतम्।
स्थापयेऽर्हन्महावेश्मस्नपनाय जलार्जितम्।।६७।।
ॐ ह्रीं मानवकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
शङ्खसंकाशरत्नौघ्विनिर्मितमहोन्नतम्।
संस्थाप्य पूजये दिव्यं शङ्खाख्यं जलचन्दनै:।।६८।।
ॐ ह्रीं शङ्खनिधिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पिङ्गलाख्यं च पिङ्गाभं पिङ्गाश्मभिर्विनिर्मितम्।
घटं तीर्थाम्बुसम्पूर्णं तदर्थं सन्निधापये।।६९।।
ॐ ह्रीं पिङ्गलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पुष्करावर्तनामानं कलशं रत्ननिर्मितम्।
जिनोदवासितस्नानालोकं सज्र्ल्पयाम्यहम्।।७०।।
ॐ ह्रीं पुष्करावर्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
मकरध्वजनामानमिन्द्रनीलविधापितम्।
कटुं गङ्गाम्बुपर्याप्तं पवित्रं स्थापयेद्वरम्।।७१।।
ॐ ह्रीं मकरध्वजकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
ब्रह्माभिख्यं चतुर्वक्त्रं कुम्भं ब्रह्मसमर्चितम्।
ब्रह्मतीर्थजलै: पूर्णं स्थपये नीरचन्दनै:।।७२।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सुवर्णनिर्मितं कुम्भं सुवर्णाख्यं महासुखम्।
स्फुरद्रत्नचयं चारुं संस्थाप्याहं समर्चये।।७३।।
ॐ ह्रीं सुवर्णकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कदलीपत्रसंकाशं नीलाश्मकमयं घटम्।
स्थापयामीन्द्रनीलाख्यं सम्भृतं तीर्थवारिणा।।७४।।
ॐ ह्रीं इन्द्रनीलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
अशोककुसुमामोदवासिताम्भ:प्रपूरितम्।
अशोकाख्यं महाकुम्भं निधापये जिनौकसाम्।।७५।।
ॐ ह्रीं अशोककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
पुष्पदन्तसमानाभं पुष्पदन्तसमाह्वयम्।
कलशं सलिलै: पूर्णं संस्थापयेऽर्हन्मन्दिरे।।७६।।
ॐ ह्रीं पुष्पदन्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
कुमुदाख्यं घटं नव्यं कुमदस्रग्विराजितम्।
कुमदैरर्चये स्नाने संस्थाप्य श्रीजिनौकस:।।७७।।
ॐ ह्रीं कुमुदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
येषु दृष्टेषु भव्यानां सम्यक्त्वं प्रकटीभवेत्।
दर्शानाख्यं महाकुंभ सम्भावये जलादिभि:।।७८।।
ॐ ह्रीं दर्शनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
यस्य दर्शनमात्रेण धर्मोऽधर्म: प्रबुध्यते।
कुम्भं ज्ञानाख्यमुत्तुङ्गं निवेशये जलैर्भृतम्।।७९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
दर्शनाद्यस्य भव्यानां वृत्ते मति: प्रजायते।
चारित्राख्यं वनै:पूर्णं कुम्भं संस्थापये मुदा।।८०।।
ॐ ह्रीं चारित्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
सर्वार्थसिद्धिकर्तारं सर्वार्थसिद्धिनामकम्।
कुम्भं समर्चये जैनवेश्मन: स्नानहेतवे।।८१।।
ॐ ह्रीं सर्वार्थसिद्धिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।
इस प्रकार ८१ कलशों के द्वारा शुद्धि करने के बाद निम्न मंत्रों के द्वारा शुद्धि करें।
ॐ ह्रीं वायुकुमार देव! सर्वविघ्नविनाशनाय महीं पूतां कुरु कुरु हूँ फट् स्वाहा।
(यह मंत्र बोलकर वेदी पर दर्भ पूले से मार्जन करें)
ॐ ह्रीं मेघकुमार देव! धरां प्रक्षालय प्रक्षालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
(यह मंत्र बोलकर दर्भ के पूले से वेदी पर जल छींटे।)
ॐ ह्रीं अग्निकुमार भूमिं ज्वालय ज्वालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
(यह मंत्र पढ़कर कपूर जलाकर वेदी पर डाले)
ॐ हूँ फट् किरिटिं घातय घातय परविघ्नान् स्फोटय स्फोटय सहस्रखण्डान् कुरु कुरु आत्मविद्यां रक्ष रक्ष परविद्यां छिन्द छिन्द परमन्त्रान् भिन्द भिन्द क्ष: फट् स्वाहा।
(यह मंत्र पढ़कर मंदिर की दशों दिशाओं में पुष्प क्षेपण करें।)
सूचना-वेदी यदि कच्ची हो अथवा अधिक जल निकलने का मार्ग न हो तो थोड़ा-थोड़ा जल डालकर शुद्धि कर लेना चाहिए। अथवा दर्पण में प्रतिबिम्ब देखकर यह विधि करें।