तपश्चरण से कर्म गलित हों, नाना ऋद्धी प्रगटित हों।
ज्ञानस्वरूपी निज आत्मा में, ज्ञानज्योति उद्घाटित हो।।
बुद्धि ऋद्धी को नित्य जजूँ मैं, विधिवत् आह्वानन करके।
मेरी बुद्धी निर्मल होवे, ज्ञानावरण कर्म विघटें।।१।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगानदी जल भरा शुचि स्वर्ग झारी।
पादारविंद ऋषि के त्रय धार देऊँ।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँॅू मैं।।१।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर केशर घिसा भरके कटोरी।
योगीन्द्र पादयुग में चर्चूं रुची से।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँॅू मैं।।२।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान सित अक्षत धोय लाया।
पादाब्ज के निकट पुंज चढ़ाय देऊँ।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा जुही सुरभि पुष्प गुलाब के हैं।
अर्पूं गणीन्द्र चरणों यश गंध फैले।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरी सोहाल बरफी पकवान लाड्डू।
योगींद्रदेव सनमुख अर्पण करूँ मैं।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।५।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जलती तम नाशती है।
मैं आरती करत ही निज ज्योति पाऊँ।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ सुगंधि वर धूप गणीन्द्र आगे।
हों कर्मभस्म फिर धूयें साथ भागें।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।७।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम्र फल श्रीफल मैं चढ़ाऊँ।
सर्वार्थसिद्धि मिल जाए अत: रिझाऊँ।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।८।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ सुम चांदी के मिलाये।
होवे अनर्घ पद प्राप्त तुम्हें चढ़ायें।।
बुद्ध्यादि ऋद्धि यजते शुचि ज्ञान पाऊँ।
आनंदकंद निज स्वात्मनिधी लहॅँ मैं।।९।।
ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बुद्धिऋद्धि समूह को, जलधारा से नित्य।
पूजत ही शांती मिले, चहुँसंघ में भी इत्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल बेला कुसुम, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
जाप्य-ॐ ह्रीं बुद्ध्यादिअष्टादशऋद्धिभ्यो नम:।
गुणीजनों में गुण रहें, बिन आश्रय न बसंत।
अत: गुणों को पूजते, गुणी स्वयं पूजंत१।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
बुद्धि ऋद्धि के भेद अठारह जानिये।
पहली ऋद्धी अवधिज्ञान है मानिये।।
अणु से महास्कंध पर्यंते मूर्त को।
जो जाने मैं नित पूजूँ उस ऋद्धि को।।१।।
ॐ ह्रीं अवधिज्ञानबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनुज लोक के भीतर चिंतित वस्तु को।
आत्मा से उत्पन्न मनपर्यय ज्ञान जो।।
जाने अतिशय सूक्ष्म मूर्तमय द्रव्य को।
पूजूँ मैं मनपर्यय ज्ञान सुऋद्धि को।।२।।
ॐ ह्रीं मन:पर्ययज्ञानबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकालोक प्रकाशे केवलज्ञान जो।
इक क्षण में त्रयकालिक वस्तु प्रत्यक्ष हो।।
ज्ञानज्योतिमय केवल भास्कर को जजूँ।
निज परमानंदामृत अनुभव को चखूँ।।३।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द संख्यातों अर्थ अनंतों से युते।
अनंत लिंगों साथ बीजपद जानते।।
बीजभूत पद सब श्रुत का आधार है।
जजूँ बीज बुद्धी शिवपद करतार है।।४।।
ॐ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्दरूप बीजों को मति से जो ग्रहें।
श्रेष्ठ धारणायुक्त मुनी वो ही कहें।।
मिश्रण बिन बुद्धी कोठे में जो धरें।
पृथक् पृथक् सब अर्थ कोष्ठबुद्धी खरें।।५।।
ॐ ह्रीं कोष्ठबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश सुपाय एक पद को ग्रहे।
उसके ऊपर या पहले के पद लहे।।
उभय ग्रहे त्रय विध पादानुसारिणी।
जजॅूं ऋद्धि यह बुद्धि बढ़ावन कारिणी।।६।।
ॐ ह्रीं पदानुसारिणी बुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रोत्रेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाहिरे।
संख्यातों योजन तक नर पशु सर्व के।।
अक्षर अनक्षरात्मक वच सुन उत्तरें।
संभिन्नश्रोतृ बुद्धि को पूजँॅू रुचि धरें।।७।।
ॐ ह्रीं संभिन्नश्रोतृत्व बुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसनेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य जो।
संख्यातों योजन नाना रस स्वाद को।।
जो जाने दूरास्वादन ऋद्धी धरें।
इस ऋद्धी को जजूँ सर्व व्याधी हरें।।८।।
ॐ ह्रीं दूरास्वादित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन स्पर्श सब जानहीं।।
तप बल से यह ऋद्धि प्रगट हो साधु के।
जजूँ भक्ति से मिले, ऋद्धियाँ ठाठ से।।९।।
ॐ ह्रीं दूरस्पर्शत्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राणेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य में।
संख्यातों योजन सुगंध को जानते।।
अधिक क्षयोपशम पाय ऋद्धि यह ऊपजे।
जजूँ ऋद्धि को सर्वसौख्य गुण पूरते।।१०।।
ॐ ह्रीं दूरघ्राणत्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्णेन्द्रिय उत्कृष्ट विषय के बाहिरे।
संख्यातों योजन मनुष्य पशु अक्षरें।।
पृथक् पृथक् सुन लेय ऋद्धिधर मुनिवरा।
जजॅूं दूरश्रवणत्व ऋद्धि को रुचिधरा।।११।।
ॐ ह्रीं दूरश्रवणत्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र से बाह्य जो।
संख्यातों योजन सब कुछ भी देख वो।।
चक्रवर्ति के नेत्र विषय से अधिक भी।
दूरदर्शिता ऋद्धि जजूँ रुचिधर अभी।।१२।।
ॐ ह्रीं दूरदर्शित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रोहिणी प्रभृति महाविद्यायें, पांच शतक मानी हैं।
लघु विद्या अंगुष्ठ प्रसेना, प्रभृति सप्तशत ही हैं।।
दशम पूर्व पढ़ने पर ये विद्यायें आज्ञा माँगे।
पूजूूँ अभिन्नदशपूर्वी जो इन वश में नहिं जाते।।१३।।
ॐ ह्रीं दशपूर्वित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ऋषि सब आगम के ज्ञाता, श्रुतकेवलि कहलाते।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब, पढ़ यह ऋद्धी पाते।।
आगम ज्ञान पूर्ण होवे मुझ इस आशा से पूजूँ।
स्वपर भेद विज्ञान प्राप्त कर, सर्वभयों से छूटूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्वित्वऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभ्र१ भौम अंग स्वर व्यंजन लक्षण चिन्ह स्वपन हों।
आठ निमित्तों से जानके शुभ अशुभ बताते मुनि जो।।
वे अष्टांग महानिमित्त की ऋद्धि धरें बहु ज्ञानी।
इस ऋद्धी को पूजत ही मैं बनूँ सर्वसुखदानी।।१५।।
ॐ ह्रीं अष्टांगमहानिमित्तऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो महर्षि अध्ययन बिना उत्कृष्ट क्षयोपशम से ही।
चौदह पूर्व विषय अति सूक्षम जाने निरूपते भी।।
औत्पत्तिक परिणामिक विनयिक कही कर्मजा बुद्धी।
चार भेदयुत जजूँ इसे यह प्रज्ञा श्रमण सुऋद्धी।।१६।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रमणऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश बिना कर्मों के, उपशम से तप बल से।
जो प्रत्येकबुद्धि ऋद्धी है, ऋषियों के ही प्रगटे।।
सम्यग्ज्ञान महातप मुझको मिले इसी से पूजूँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के सर्वदुखों से छूटूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब परमत को सुरपति को भी जो कर सकें निरुत्तर।
परके द्रव्य गुणादि परीक्षा करके छिद्र लखें भर।।
वाद कुशल इन मुनि चरणों में शत शत शीश नमाऊँ।
इस वादित्व ऋद्धि को जजते स्वसमय ज्ञान उपाऊँ।।१८।।
ॐ ह्रीं वादित्वबुद्धिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बुद्धि ऋद्धियों को नमूँ, अठरह भेद समेत।
पाऊँ भेदविज्ञान मैं, अतिशय बुद्धी समेत।।१९।।
ॐ ह्रीं अष्टादशबुद्धिऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं बुद्धिऋद्धिभ्यो नम:।
बुद्धि ऋद्धियों को नमूँ, नमूँ ऋद्धिधर नाथ।
उनकी गुणमाला कहूँ, हो मम बुद्धि कृतार्थ।।१।।
जय बुद्धिऋद्धियाँ अठारहों महान है।
जय जय सुऋद्धिमंत साधु को प्रणाम है।।
जय अवधिज्ञान ऋद्धि आदि सर्वऋद्धियाँ।
ये भक्तगण को बांटती संपूर्ण सिद्धियाँ।।२।।
मतिज्ञान के सुभेद तीन सौ छत्तीस हैं।
प्रत्येक के असंख्य भेद शास्त्र में कहें।।
इन ज्ञान के भी आवरण उतने ही जानिये।
इनके क्षयोपशम से बुद्धि ऋद्धि मानिये।।३।।
जो दूर श्रवण आदि ऋद्धि इन्द्रियों की हैं।
इंद्रिय विषय उलंघ विषय दूर भी ग्रहें।।
दश पूर्व और चतुर्दश पूर्वों की ऋद्धियाँ।
अष्टांग महानिमित्तादि सर्वसिद्धियाँ।।४।।
जो साधु अठाईस मूलगुण को धारते।
बहुविध के भी उत्तर गुणों को नित्य पालते।।
एकाग्रमना होके स्वात्मध्यान को धरें।
उनमें तपश्चरण के बल से ऋद्धि अवतरें।।५।।
आत्मा सदा गुणस्थान चौदहों से शून्य है।
ये जीव समासों से मार्गणा से शून्य है।।
पर्याप्ति प्राण संज्ञा से रहित शुद्ध है।
त्रयकाल शुद्ध नित्य निरंजन प्रबुद्ध है।।६।।
वर्णादि रहित ज्ञानमात्र चिदानंद है।
चिन्मय अमूरत परमहंस निजानंद है।।
यह शक्तिरूप से अनंतज्ञान स्वरूपी।
दर्शन व सौख्य वीर्य धारता भी अरूपी।।७।।
निश्चयनयाश्रित आत्मा परमात्मा कहा।
पूजक व पूज्य भेदरहित सिद्ध हो रहा।।
व्यवहारनय से पूज्य को ये पूज रहा है।
संसार में रहता हुआ भी अशुद्ध कहा है।।८।।
अतएव ये पूजाविधी से शुद्ध होयगा।
पूजा के फल को प्राप्त करके सिद्ध होयगा।।
यह जानकर के नाथ! आप पास में आया।
सब कर्ममल धुलेंगे यही आश ले आया।।९।।
करके कृपा गुरुदेव! मुझपे दृष्टि दीजिये।
शिवपथ के विघ्न चूरिये वर शक्ति दीजिये।।
चिंतामणी चैतन्यनिधि मुझको दीजिये।
शैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ बुद्धि पूर्ण कीजिये।।१०।।
गणपति गुणमणिनिधिपती, शिवलक्ष्मी के कांत।
नमॅूं नमूँ नित भक्ति से, पाऊँ सौख्य नितांत।।११।।
ॐ ह्रीं अष्टादशविधबुद्धिऋद्धिभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।