—अथ स्थापना—अडिल्ल छंद—
चउ आराधन आराधें योगीश्वरा।
सप्त परम स्थान पावते श्रुतधरा।।
सात ऋद्धि तप की तपबल से पावते।
उनकी पूजा करते हम शिर नावते।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पद्मद्रह नीर शीतल सुगंधित लिया।
ऋद्धियों को जजत तीन धारा किया।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध से योगि पादाब्ज को चर्चते।
देह ही दाह मेटूं तुम्हें अर्चते।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।२।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतियों के सदृश शालि के पुंज से।
पूजहूूँ आपको सौख्य पूरो अबे।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।३।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिका पारिजातादि चुन के लिये।
पुष्प अर्पण करत कीर्ति सौरभ किये।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।४।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरियाँ मोदकादी भरे थाल में।
पूजते आत्मतृप्ती सु तत्काल में।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।५।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप कर्पूर ज्योती तमो वारती।
आरती से भरे ज्ञान की भारती।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।६।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुगंधी उठे अभ्र में।
कर्म भस्मी हुये सौख्य हो स्वात्म में।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।७।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव अंगूर फल को चढ़ाऊँ तुम्हें।
मोक्ष की आश पूरो प्रभो शीघ्र मे।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।८।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ में रत्न धर के चढ़ाऊँ प्रभो।
रत्नत्रय दीजिये शीघ्र ही हे विभो।।
सात तप ऋद्धियों को जजूँ भाव से।
दु:खसागर तिरूँ भक्ति की नाव से।।९।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप:ऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋद्धिमंत योगीन्द्र के, पद में धार करंत।
तिहुंजग में भी शांति हो, भवदुख का हो अंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपा जुही गुलाब ले, पुष्पांजलि विकरंत।
सर्व सौख्य संपति बढ़े, क्रम से शिवतिय कंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
नानाविध तप ऋद्धि, तपश्चरण से हों प्रगट।
मिले निजातम सिद्धि, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
तप ऋद्धि के हैं सात भेद, उनमें हि उग्र तप पहला है।
दीक्षा उपवास आदि करके मरणांत काल तक चलता है।।
एकेक उपवास अधिक करते जीवन भर बढ़ता तप करते।
उस उग्र तपस्या ऋद्धी को, हम पूजत ऋद्धि सिद्धि वरते।।१।।
ॐ ह्रीं उग्रतप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला आदिक उपवास करे, जब ऋद्धि दीप्त तप हो जाती।
आहार१ न हो बल तेज बढ़ें, नहिं होती उन्हें भूख व्याधी।।
यह इस ऋद्धी का ही प्रभाव, तनु में बल मांस रुधिर वृद्धी।
मैं पूजूँ अतिशय भक्ती से, इससे दिन पर दिन हो दीप्ती।।२।।
ॐ ह्रीं दीप्ततप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से आहार ग्रहें, वह तपे लोह पर जल सदृश।
नीहार न हो मलमूत्र शुक्र, आदिक धातू नहिं बने विविध।।
बल शक्ति बढ़े तप बढ़े सदा, यह तप ऋद्धी कहलाती है।
इसको पूजूँ तप शक्ति बढ़े, यह कर्म समुद्र सुखाती है।।३।
ॐ ह्रीं तप्ततप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अणिमादिक चारण आदिक, बहुती ऋद्धी से युक्त रहें।
मंदर पंक्ती सिंहनिष्क्रीडित, आदिक उत्तम उपवास गहें।।
वो चार ज्ञानधारी ऋषिगण ही, महातपों ऋद्धी धारें।
इसको पूजें हम इस बल से, नाना विध तप में मन धारें।।४।।
ॐ ह्रीं महातप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनशन आदिक बारह विध के, तप उग्र उग्र जो करते हैं।
बहुहिंस्र जंतु से भरे वनों में, विचरें तनु से दुख सहते हैं।।
ज्वर से पीड़ित होकर भी जो, आतापन आदि तप धारे हैं।
वे घोर तपो ऋद्धीधारी, उन पूजत हम भव पारे हैं।।५।।
ॐ ह्रीं घोरतप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि घोर पराक्रम ऋद्धी से, अतिशायी शक्ती पाते हैं।
त्रिभुवन संहारकरण जलधी, शोषण में समरथ होते हैं।।
यद्यपि ये कार्य नहीं करते, फिर भी बहुती सामर्थ्य धरें।
तप बल से ऐसी ऋद्धि हुई, जिसको पूजत हम ताप हरें।।६।।
ॐ ह्रीं घोरपराक्रमतप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अघोर यानी पूर्ण शांत, महाव्रत समिती गुप्ती पालें।
वे व्रतमय ब्रह्मा में चरते, अघोर ब्रह्मचर्या पालें।।
इनसे दुर्भिक्ष कलह वध रोग, वैर आदिक टल जाते हैं।
इस ऋद्धि अघोर ब्रह्मचारी को, जजत ब्रह्मपद पाते हैं।।७।।
ॐ ह्रीं अघोरब्रह्मचारित्वतप: ऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि उग्र-उग्र तप कर-करके, तनु को अतिशय कृश करते हैं।
पर आत्मशक्ति को बढ़ा-बढ़ा, गुणमणि की वृद्धी करते हैं।।
उन दीप्त तप्त आदिक तप युत, मुनियों की अर्चा गुणकारी।
हम भी तप की शक्ति पावें, मम इच्छा पूर्ती हो सारी।।८।।
ॐ ह्रा सप्तविधतप: ऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं तप:ऋद्धिभ्यो नम:।
गणपति मुनिपति श्रुतधरा, महातपस्वी साधु।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, पाऊँ समरस स्वाद।।१।।
गुरुदेव! आप ही समस्त दोष दूर हो।
गुरुदेव! आप ही समस्त सौख्य पूर हो।।
निज आत्मा को आप अंतरातमा किया।
निज में ही आप मग्न हो निजधाम पा लिया।।२।।
रागादि शत्रुओं का आपने दमन किया।
संपूर्ण कषायों को आपने शमन किया।।
इंद्रिय विषय को जीत अतीन्द्रिय सुखी हुये।
प्रत्यक्ष ज्ञान पाके आप केवली हुये।।३।।
संपूर्ण उपद्रव टले हैं आप जाप से।
संपूर्ण मनोरथ फले हैं आप नाम से।।
प्रभु आपको न इष्ट का वियोग हो कभी।
होवे नहीं अनिष्ट का संयोग भी कभी।।४।।
सबके आराध्य इष्ट आप ही कहे।
सब ही अनिष्ट नष्ट हों क्षणमात्र ना रहें।।
संपूर्ण रोग शोक भी तुम भक्त के टलें।
धन धान्य अतुल सौख्य भी होवें भले भले।।५।।
इस जग में मुक्ति अंगना के नाथ आपही।
निज के अनंत ऋद्धियों के साथ आपही।।
चैतन्य चमत्कार परम सौख्य धाम हो।
चििंत्पड हो अखंड हो त्रिभुवन ललाम हो।।६।।
नाना तपश्चरण से काय शक्ति वृद्धि हो।
नाना तपश्चरण से दीप्त ऋद्धि वृद्धि हो।।
तपबल से सर्व कर्म भी निर्जीर्ण कर दिया।
हे नाथ! आपने ही सर्व शक्ति पा लिया।।७।।
मैं आपकी शरणागती में आज आ गया।
अपनी अमूल्य ज्ञानकला को भी पा गया।।
ये ज्ञाननिधी भवदधी में डूब ना जावे।
करिये कृपा जो मुक्ति तक भी साथ में आवे।।८।।
हे नाथ! तनु ममत्व को अब दूर कीजिये।
निजके अखंड गुण समस्त पूर्ण कीजिये।।
मुझ शत्रु मोह है इसे अब चूर कीजिये।
मुझ आत्म सुधारस प्रवाह पूर कीजिये।।९।।
आत्यंतिक सुख शांतिमय, श्रीगणधर भगवान।
‘‘ज्ञानमती’’ लक्ष्मी मुझे, दे कीजे धनवान्।।१०।।
ॐ ह्रीं सप्तविधतप: ऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।