जिन मुनियों ने नाना विध रस, परित्याग तपधारा है।
उनके ही रस ऋद्धी प्रगटती, गुरु ने यही उचारा है।।
विष भी अमृत करने वाले, ऐसे गुरु को नित्य जजूँ।
आह्वानन स्थापन करके, परमानंद पियूष भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पांच पापादि मल धो लिया आपने।
नीर से मैं जजूँ स्वात्म मल धोवने।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व संताप को नाशिया आपने।
गंध से पूजहूँ शांतिकर पाद मैं।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।२।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म सौख्याब्धि में आप अवगाहते।
शालि से जो जजें सर्वसुख पावते।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।३।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
काम शर जीत के आप जिष्णू बने।
कल्पतरु के सुमन लेय अर्चूं तुम्हें।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।४।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
वेदना भूख की ना कभी छोड़ती।
यदि चरु से जजें शीघ्र मुख मोड़ती।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।५।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह अंधेर हन ज्ञान ज्योती धरें।
दीप से पूज हम ज्ञान ज्योती भरें।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।६।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप को खेवते कर्म ईंधन जले।
आपके पाद ही सर्व तीरथ भले।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।७।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रियों के विषय छोड़ निज सुख लिया।
आपको फल चढ़ा स्वात्मरस चख लिया।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।८।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्यादि से अर्घ सुंदर लिया।
आपको अर्चते पाप सब क्षय किया।।
षट् विधा ऋद्धि रस की जजूँ भाव से।
साम्यरस को चखूँ स्वात्मसुख चाव से।।९।।
ॐ ह्रीं षड्विधरसऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु के पद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुख लाभ, गुरु पद पंकज सेवते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तिहुुंजग में सुख विस्तरें, गणधर गुरु महंत।
सर्व विघ्न को परिहरें, पुष्पांजलि अर्पंत।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ऋद्धि रस के छहों भेद में एक है।
ऋद्धी आशीविषा बस ‘‘मरो’’ ये कहे।।
वो मरे शीघ्र ही ऋद्धि ये दु:खदा।
ना प्रयोगें इसे साधु पूजूं सदा।।१।।
ॐ ह्रीं आशीर्विषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्टि विष ऋद्धि से रोष से देखते।
जन मरें शीघ्र ही साधु के कोप से।।
ना प्रयोगें इसे साधु करुणा धरें।
पूजहूँ ऋद्धि यह शक्ति तप की भरें।।२।।
ॐ ह्रीं दृष्टिविषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्ततल पे रखा रुक्ष आहार भी।
क्षीरवत् परिणमें ऋद्धि बल से सभी।।
उन वचन भी सदा क्षीरवत् गुण भरें।
क्षीरस्रावी जजें ऋद्धि पुष्टी धरें।।३।।
ॐ ह्रीं क्षीरस्राविरसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्त तल में रखे रूक्ष भोज्यादि को।
मिष्ट मधुवत् करे ऋद्धि मधुस्रावि जो।।
उन वचो भी मधुर मिष्ट सीतल करें।
पूजहॅूं ऋद्धि ये सर्व सुख को भरें।।४।।
ॐ ह्रीं मधुस्राविरसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतास्रावि विष वस्तु अमृत करें।
उन वचन दु:ख हर कर्ण अमृत भरें।।
अमृतास्रावि ऋद्धी जजूँ भक्ति से।
स्वात्म अमृत पिऊँ आपकी भक्ति से।।५।।
ॐ ह्रीं अमृतस्राविरसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्त तल में रखा रुक्ष भोज्यादि भी।
घी सृदश परिणमें ऋद्धि बल से सभी।।
दिव्य वच भी सदा पुष्टि तुष्टी करें।
पूजहूँ ऋद्धि को सर्व शांती धरें।।६।।
ॐ ह्रीं सर्पि:स्राविऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिह्वा इंद्रिय को वश करके, नीरस व रुक्ष आहार करें।
तन शुष्क भले ही हो जावे, निज आतम शक्ति विकास करें।।
ऐसे मुनियों को नित्य जजूँ, सब रस ऋद्धी को भी पूजूं।
नित आत्म सुधारस को पीकर, भव भव के बंधन से छूटूंं।।७।।
ॐ ह्रीं षट्विधरसऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं रसऋद्धिभ्यो नम:।
जो रस त्यागें प्रीति से, वे रसऋद्धि धरंत।
ऐसे मुनियों को नमत, निज समरस छलकंत।।१।।
जय जय तीर्थंकर शिव सुखकर, जय जय गणधर गुणसागर हो।
जय जय रसऋद्धि सहित मुनिवर, जय जय गुणमणि रत्नाकर हो।।
तुमने मृत्युंजय बनने का, सबको सुखकर उपदेश कहा।
जिसने तुम आज्ञा को पाला, उसने मृत्यु का क्लेश दहा।।२।।
संन्यास विधी के तीन भेद, जो पंडित मरण कहे जाते।
प्रायोपगमन इंगिनीमरण, औ भक्तप्रतिज्ञा कहलाते।।
जिसमें निज से पर के किंचित् उपकार नहीं वह पहला है।
जिसमे निज से वैयावृत्ती, पर से नहीं वह मंझला है।।३।।
जो श्रेष्ठ संहनन के धारी, वे ही इनको कर सकते हैं।
हैं आज हीन संहनन तीन, इसलिये नहीं बन सकते हैं।।
बस भक्त प्रतिज्ञा का आश्रय, इस युग में मुनिगण लेते हैं।
बारह वर्षों की उच्च अवधि, लेकर ही विधिवत् सेते हैं।।४।।
अड़तालिस मुनि परिचर्या रत, निर्यापक बन सेवा करते।
वह क्षपक मुनी संन्यास निरत, होकर जिनवचनों से वर्तें।।
क्रम क्रम से भोजन त्याग करें, वे अंतसमय जल भी छोड़ें।
तन से बिल्कुल निर्मम होकर, आतम से ही नाता जोड़ें।।५।।
सबसे ही क्षमा कराकर पुनि स्वयमेव क्षमा परिणाम धरें।
संपूर्ण कषायों को तजकर, उत्तम सल्लेखन मरण करें।।
इस विध कषाय औ काय, उभय को कृश करते तनु को छोड़ें।
वे सात आठ भव से ज्यादा, नहिं लें यम की फांसी तोड़ें।।६।।
भगवन्! तुम भक्ती से ऐसी, शक्ती मुझमें भी आ जावे।
संन्यास विधी से मरण करूँ, बस पुनर्जन्म सब नश जावे।।
मैं मृत्यू को उत्सव समझूँ, समतारस अमृत को पीऊँ।
क्षुध आदि व्याधि से खेद न हो, अपने में अनुभव रस पीऊँ।।७।।
बचपन से लेकर अब तक जो, मैंने पुण्यार्जित किय सही।
उन सबका फल एकत्रित हो, प्रभु मुझे चाह बस एक यही।।
जब प्राण प्रयाण करें मेरे, मम कंठ अकुंठित बना रहे।
तुम नाम मंत्र अंतिम क्षणतक, मेरी जिह्वा पर चढ़ा रहे।।८।।
अमृतस्रावी आदि मुनि, परमामृत सुख देत।
नमॅूं नमूँ उन पदकमल ‘‘ज्ञानमती’’ निधि हेतु।।९।।
ॐ ह्रीं षट्विधरसऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।