जिनवर गणधर साधुगण, ऋद्धि सिद्धि के नाथ।
सर्वविघ्नहर्ता इन्हें, नमूँ नमाकर माथ।।१।।
जीता अंत: शत्रूगण को, ‘‘जिन’’ कहलाए गरिष्ठ भी।
देशावधि परमावधि सर्वावधि संयुत मुनिराज सभी।।
कोष्ठ बीज आदिक ऋद्धीयुत, पदानुसारी ऋद्धीयुत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुणप्राप्ति हेतु संतत।।२।।
जो संभिन्नश्रोतृ ऋद्धीयुत, स्वयंबुद्ध मुनिनाथ महान्।
जो प्रत्येकबुद्ध संबोधित, बुद्धिसहित बहु ऋद्धीमान्।।
वे गणेश गुरुदेव विमुक्तीमार्ग, कहें साक्षात् महित।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।३।।
ऋजुमति विपुलमती मन:पर्यय, ज्ञानी मुनिपुंगव ध्यानी।
दशपूर्वी चौदशपूर्वी मुनि, श्रुतपारंगत शुभध्यानी।।
शुभ अष्टांग महानैमित्तिक, गुरुवर महाऋद्धिसंयुत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।४।।
विक्रियऋद्धी महाप्रभावी, प्राप्त सुविद्याधकर ऋद्धी।
चारण ऋद्धीसंयुत प्रज्ञा, श्रमण करें प्रज्ञा ऋद्धी।।
नित आकाशगमन ऋद्धीयुत, विहरण करते वे संयत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।५।।
आशीविष ऋद्धी दृष्टीविष, ऋद्धि सहित मुनिराज महान्।
उग्र तपोयुत दीप्ततपोयुत, उत्तम तप्त तपोयुतमान्।।
महातपोयुत घोर तपोयुत, तपश्चरण ऋद्धी संयुत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।६।।
सुरगण वंदित घोरगुणों युत, वरऋद्धीधारी मुनिगण।
बुधजन पूजित घोरपराक्रम, श्रेष्ठ ऋद्धिधारी यतिगण।।
घोरगुणादिक ब्रह्मचर्य ऋद्धीधर खेचरनुत संयत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।७।।
आमौषधि क्ष्वेल्लौषधि जल्लौषधि, विप्रुषऔषधि ऋद्धी।
सर्वौषधि ऋद्धी से सबकी, व्यथा हरें ये सब ऋद्धी।।
मनबल वचबल कायबली, ऋद्धी से युत सुरगण संस्तुत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।८।।
क्षीरस्रवी घृतस्रवी मधुरस्रावी, अमृतस्रावी ऋद्धी।
वर अक्षीणमहानसयुत, अक्षीणमहालय भी ऋद्धी।।
वर्धमान ऋद्धीयुत त्रिभुवन, पूज्य यतीगण जग से नुत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।९।।
सिद्धायतन नमूँ मैं भगवन्, महति वीर अतिवीर महान्।
वर्धमान बुद्धी ऋद्धी में, दक्ष महाऋषिराज प्रधान।।
सभी श्रेष्ठ मुनि पुंगव ऋषिवर, मुक्ति वधूवर मुनिगण नुत।
सब गणधर की स्तुति करूँ मैं, उन गुण प्राप्ति हेतु संतत।।१०।।
नरसुर खेचर गण से सेवित, सकल श्रेष्ठ ऋद्धी भूषित।
विविधगुणों के सागर, कामदेव गजहेतू सिंह सदृश।।
भवजलनिधि के लिए पोतसम, सिद्धिप्रदायक ऋद्धि धरें।
मुझसे वंदित श्रीसिद्धीप्रद, मुनिगण सकल प्रदान करें।।११।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरगणधरऋषिवरचरणेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।