प्राचीनकाल से कृषि प्रधान इस भारतदेश में ऋषियों की परम्परा चली आ रही है। इन्हीं की त्याग तपस्या के बल पर देश का मस्तक गौरव से ऊँचा उठा हुआ है।भगवती आराधना में आचार्य श्री शिवकोटि ने बताया है-
यस्य देशं समाश्रित्य साधव: कुर्वते तप:।
षष्ठमंशं नृपस्तस्य लभते परिपालनात्।।
कितनी महानता बताई इन ऋषियों के बारे में कि जिस देश का आश्रय लेकर साधु तपस्या करते हैं उनकी तपस्या का छठा भाग पुण्य वहाँ के राजा को स्वयं ही मिल जाता है।
मोक्षमार्ग की गाड़ी के दो पहिए हैं-साधु धर्म और गृहस्थ धर्म, अनादिकाल से दोनों ही धर्म इस पृथ्वी पर चले आ रहे हैं और प्रत्येक धर्म में गुरुओं का सम्मान किया जाता है। उपासकाध्ययन में भी कहा है-
ये गुरुं नैव मन्यंते तदुपास्ति न कुर्वते।
अन्धकारो भवेतेषामुदितेपि दिवाकरे।।
अर्थात् जो गुरु को नहीं मानते हैं और उनकी उपासना नहीं करते हैं उनके लिए सूर्योदय होने पर भी अंधकार ही बना रहता है।
कुछ ऐसा ही अंधकार छाया था उज्जयिनी नगरी के राजा के उन चार मंत्रियों के जीवन में, जिनके कुत्सित विचारों एवं धर्मद्रोह के कारण इस कथा अथवा इस पर्व का उद्भव हुआ। जी हाँ, कथा प्रारम्भ होती है उज्जयिनी नगरी से, जहाँ के उद्यान में श्री अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का विशाल संघ आकर ठहर जाता है और उस विशाल संघ के अधिनायक आचार्य प्रवर अपने निमित्तज्ञान से कुछ अनिष्ट की आशंका जानकर सभी साधुओं को किसी से भी कोई वार्तालाप, कोई भी धर्मचर्चा करने के लिए मना करके सभी को मौन दे देते हैं। सभी शिष्यवर्ग भी गुरुआज्ञा को शिरोधार्य कर ध्यान में, आत्मिंचतवन में लीन हो जाते हैं। इधर प्रात:काल शहर में मुनिसंघ के आगमन को जानकर राजा-प्रजा सभी दर्शनार्थ पहुँचने लगते हैं। राजा के साथ वे चारों धर्मविद्वेषी मंत्री भी आते हैं, सब प्रकार से उन त्रैलोक्यपूज्य वीतरागी संतों कीनदा करते हुए राजा के साथ जब वे वापस लौटते हैं और अपने मनोरथको सिद्ध होते नहीं देखते हैं तब मार्ग में आते हुए एक मुनि की हँसी करने लगते हैं।
कहते हैं कि जो होनहार होती है होकर रहती है। आचार्यश्री ने जब उन मुनियों को नियम दिया तो उनमें से श्रुतसागर नामक एक मुनि वहाँ नहीं थे अत: वे गुरुआज्ञा को नहीं जान पाते हैं और राजा श्रीवर्मा के समक्ष ही मुनिराज और चारों मंत्रियों का शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो जाता है, कुछ ही समय में वे चारों पराजित होकर झेंपकर वापस हो लेते हैं किन्तु राजा के समक्ष अपनी हार और मुनि की प्रशंसा उनसे सहन नहीं होती है बस वे मन ही मन बदला लेने के भाव बनाने लगे। इधर जब मुनि गुरु के समक्ष पहुँचकर सारी घटना निवेदित करते हैं तब आचार्यश्री चिन्तित होकर पूरी घटना बताते हुए उन्हें उसी स्थान पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ होने की आज्ञा देते हैं जहाँ उनका शास्त्रार्थ हुआ था। उधर मानभंग का बदला चुकाने और मुनिवध का निर्णय लेकर वे चारों मंत्री (बलि, वृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद) नंगी तलवार लेकर चल पड़ते हैं और उसी स्थान पर उन मुनि को देख क्रोध से ज्यों ही मारने के लिए तलवार उठाते हैं मध्य में ही नगरदेवता उन्हें उसी मुद्रा में कीलित कर देते हैं। अब वे चारों बेचारे और परेशान! प्रात: होते ही यह कुतूहलपूर्ण दृश्य देखने को पूरा नगर उमड़ पड़ता है और सभी मंत्रियों को धिक्कारने लगते हैं।
इधर राजा भी यह खबर सुनकर आकर देखते हैं तब नगरदेवता उन मंत्रियों को छोड़ देते हैं और मुनि की खूब पूजा करते हैं किन्तु राजा उन मंत्रियों को ऐसा महापाप करने के फलस्वरूप गधे पर बिठाकर देश निकाला दे देते हैं। घोर अपमान को सहते चारों मंत्री वहाँ से निकलकर हस्तिनापुर पहुँच जाते हैं जहाँ राजा महापद्म अपने छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा लेकर अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य सौंप वन में चले जाते हैं। चारों मंत्री राजा पद्म को अपने वाक््âचातुर्य से जीतकर मंत्री पद प्राप्त कर राजा पद्म के शत्रुसहबल को जीतकर उनसे धरोहर रूप में एक वरदान प्राप्त कर लेते हैं।
बन्धुओं! समय की गति बड़ी विचित्र है, वे अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनि विहारकरते हुए हस्तिनापुर के उद्यान में आकर वर्षायोग स्थापित कर लेते हैं और सभी श्रावक उनकी भक्ति करने लगते हैं। इधर उन मंत्रियों को पता लगते ही उनका मन प्रतििंहसा के भाव से उद्विग्न हो उठा और वे आपस में परामर्श कर जिनधर्मवत्सल राजा पद्म के पास पहुँच जाते हैं, उनमें से अतिचतुर बलि मंत्री राजा से वरदान रूप में सात दिन का राज्य माँग लेता है और मुनियों को बीच में रखकर चारों ओर से पशुमेध यज्ञ प्रारम्भ कर देता है। राजा पद्म को अनर्थ की आशंका तो होती है लेकिन वे बेचारे कुछ नहीं कर पाते, चारों तरफ पशु हत्या, पशु आहुति और दुर्गंधित धुँआ, ७०० मुनिराज तो उसे अपने ऊपर उपसर्ग समझ नियम सल्लेखना ले लेते हैं और वे मंत्री प्रसन्नमना राजकोष खोल सभी को किमिच्छक दान बाँटने लगते हैं।
किन्तु कहते हैं न, कि जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब कोई महापुरुष आकर धर्म की रक्षा करते हैं। मिथिला नगरी के उद्यान में ध्यानस्थ श्रुतसागर मुनि श्रवणनक्षत्र को कम्पित होता देख हाय-हाय कह उठते हैं तब पुष्पदंत क्षुल्लक सारी घटना जान गुरुआज्ञा से आकाशगामाr विद्या के बल से विष्णुकुमार मुनिराज के पास पहुँचकर सारी घटना बताकर उन्हें उनकी विक्रिया ऋद्धि का प्रयोग करने की प्रार्थना करते हैं। विष्णुकुमार मुनि आकाशमार्ग से वहाँ आकर सारी घटना देखकर सर्वप्रथम राजा पद्म से मिलते हैं, पुन: उन्हें वचनबद्ध देख स्वयं ऋद्धि के बल से वामन का रूप धरकर उन मंत्रियों से तीन पैर धरती माँगकर एक पग सुमेरु पर्वत पर, दूसरा पग मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं और तीसरा पग अधर ही रह जाता है। बस, सारी पृथ्वी कांप उठती है, हाहाकार-क्षमा-क्षमा शब्द, देवगण आकर बलि आदि मंत्रियों को बाँधकर जयकार करते हुए वामन वेषधारी मुनि से विद्या समेटने की प्रार्थना करते हैं, तब मंत्रीगण बारम्बार उन मुनियों से क्षमायाचना करते हैं। देवगण विक्रिया हटते ही मुनि वेष में खड़े विष्णुकुमार और अकम्पनाचार्यादि ७०० मुनियों की स्तुति करते हैं और सारा उपसर्ग दूर कर देते हैं, सर्वत्र शांति की लहर दौड़ जाती है। राजा पद्म और सारी जनता प्रसन्न हो गुरुओं की वैय्यावृत्ति करते हुए उनके जले कंठ को देख अत्यन्त मृदुसवई का आहार कराते हैं। वे चारों मंत्री सम्यक्त्व ग्रहण कर सज्जन बन जाते हैं। जिस दिन इन सात सौ मुनियों की रक्षा हुई वह पवित्र दिवस था श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, जिसे आज भी लोग रक्षाबंधन पर्व के रूप में मनाते हैं।
जैन समाज के लोग आज भी जहाँ भी मुनि-आर्यिकाएँ विराजमान होते हैं उनके चरण सानिध्य में पहुँचकर उनके श्रीमुख से पर्व की कथा सुनकर गुरुओं को आहार देने का लाभ प्राप्त करते हैं। वर्तमान में यह पर्व वात्सल्य की पवित्रता का द्योतक होने से प्राय: सर्वत्र समाज में बहन-भाई के पवित्र स्नेह के रूप में मनाया जाता है।बहन भाई के हाथ में पवित्र रक्षासूत्र बाँधती है और भाई अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनकी रक्षा का संकल्प लेकर उन्हें गिफ्ट देते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो रानी कर्मावती ने हुमायूं को राखी भेजकर अपना राज्य और अपने शील की रक्षा करने को कहा था, उस राखी की लाज बचाते हुए हुमायूं ने गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से कर्मावती रानी के राज्य भी रक्षा की थी। वैदिक ग्रंथों के अनुसार जब शिशुपाल ने श्रीकृष्ण का अपमान किया तब उसके वध के लिए सुदर्शन चक्र चलाते समय श्रीकृष्ण की छोटी उंगली से रक्त बहने लगा तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर उंगली पर लपेट दिया जिसे रक्षासूत्र समझ श्रीकृष्ण ने चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज रखी।
बन्धुओं! कथाएँ कोई भी हों पर उसका नाता जुड़ा है पवित्र वात्सल्य से, जिसकी वर्तमान समय में अत्यधिक आवश्यकता है। हम हर वर्ष रक्षाबंधन का पर्व मना लेते हैं, खीर खा लेते हैं, बहनों को महँगे गिफ्ट दे देते हैं लेकिन क्या हमने कभी चिन्तन किया है हस्तिनापुर की ये कथा पढ़कर कि जब भी धर्म, धर्मायतन या हमारे संतों पर कोई भी संकट आवे हम जैन एकजुट होकर संत, पंथ, निर्ग्रंथ से हटकर मात्र एक संकल्प करेंगे कि हम तन-मन-धन से उनकी रक्षा करेंगे और अगर आवश्यकता पड़ी तो इसके लिए हम अपने खून की हर बूँद न्योछावर कर देंगे। अन्यथा न जाने कितने बलि आकर हमारे जिनधर्म, जिनायतन और जैन संतों पर कुठाराघात करेंगे। आज दहेज जैसी कुप्रथा को मिटाने की आवश्यकता है, न जाने हमारी कितनी मासूम बहन-बेटियाँ दहेज की बलिवेदी की भेंट चढ़ जाती हैं, हम संकल्प करें कि न हम दहेज लेंगे, न दहेज देंगे। आज जगह-जगह छोटी-छोटी बालिकाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार की घटनाएँ आए दिन सुनने में आती हैं, हम संकल्प करें कि हम अपनी माँ, बहन, बेटी की हर सम्भव रक्षा करेंगे, अगर हम ये संकल्प करेंगे तब हमारा रक्षाबंधन मनाना सार्थक होगा। जब हम धर्मात्माओं के चेहरे पर खुशी लाएँगे, अपनी माँ-बहनों को सुरक्षा देकर उनके चेहरे पर खुशी लाएँगे तब इस पर्व को मनाने की सार्थकता होगी, जब हमारे जिनमंदिर, हमारे धर्मायतन, हमारे धर्मगुरू सुरक्षित होंगे तभी इस पर्व को मनाने की सार्थकता होगी। तो आइए इस वर्ष एक नए संकल्प के साथ मनाते हैं वात्सल्य एवं पवित्रता का प्रतीक रक्षाबंधन पर्व-